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अर्थसम
अर्हन्त
गणितके आधारपर प० टोडरमलने तीनो सम्बन्धी तीन अर्थ संदृष्टियाँ रची है । समय-लगभग वि० १८१४ ई० १७५७ (ती ।
४/८८६)। अर्थसम-अर्थसभ द्रव्य निक्षेप । दे. निक्षेप/1/८ । अर्थसमय-दे, समय। अर्थ सम्यक्त्व-दे, सम्यग्दर्शन । अर्थांतर-(न्या सू./म् ।५-२/७) प्रकृतार्थादप्रतिसम्बन्धार्थ मन्तिरम् । - प्रकृत अर्थसे सम्बन्ध न रखनेवाले अर्थको अर्थान्तर निग्रहस्थान कहते है, उदाहरण जैसे कोई कहे कि शब्द नित्य है, अस्पर्शत्व होनेसे । हेतु किसे कहते है। 'हि' धातुसे 'तुनि' प्रत्यय करनेसे हेतु यह कृदन्त पद हुआ और नाम, आरण्यात, उपसर्ग और निपात ये पद है। यह प्रकृत अर्थ से कुछ सम्बन्ध नहीं रखता । (श्लो वा ४/ न्या १६१/३८०/७) अर्थाधिगम-दे. अधिगम । अर्थापत्ति-रा.वा/६/६/६/५१६/यथा हि असति हि मेघे वृष्टि
स्तिीत्युक्ते अर्थादापन्नं सति मेघे वृष्टिस्तीति । =जैसे 'मेधके अभावमें वृष्टि नहीं होतो' ऐसा कहने पर अर्थापत्तिसे ही जाना जाता है कि मेधके होनेपर वृष्टि होती है।
२ अर्थापत्तिमें अनेकान्तिक दोषका निरास रा.वा /4/8/६/५१६/१० सत्यपि मेघे कदाचिद्भवृष्टिनास्तीत्यर्थापत्तिरनैकान्तिकीति. तन्न किं कारणम् । प्रयासमात्रत्वात् । प्रयासमात्रमेतत अर्थापत्तिरनैकान्तिकीति । 'अहिंसा धर्म' इत्युक्ते अर्थापत्त्या 'हिसा अधर्म" इति न सिध्यति। सिध्यत्येव । असति मेधे न वृष्टिरित्युक्ते सति मेघे वृष्टिरित्यत्रापि सत्येव मेघे इति नास्तिदोष । -- प्रश्न-मेघोके होनेपर भी कदाचित वृष्टि नही होती है, इसलिए अर्थापत्ति अनैकान्तिकी है उत्तर नहीं, क्योकि, इस प्रकार अर्थापत्तिको अनैकान्तिकी सिद्ध करने का यह आपका प्रयास मात्र है। 'अहिंसा धर्म है 'ऐसो कहनेपर अर्थापत्ति से ही क्या यह सिद्ध नही हो जाता कि "हिसा अधर्म है" होता ही है। कभी मेघके होनेपर ही वृष्टिके न देखे जानेसे इतना ही कह सकते है, कि वृष्टि मेधके होनेपर ही होगी' अभावमें नही। ३. अर्थापत्तिका श्रुतज्ञानमें अन्तर्भाव रा.वा /१/२०/१५/७८/२३ एतेषामप्यर्थापत्त्यादीनाम् अनुक्तानामनुमानसमानमिति पूवत् श्रुतान्तर्भाव । - न कहे गये जो अर्थापत्ति आदि प्रमाण है उन सबका, अनुमान समान होनेके कारण श्रुतज्ञानमें
अन्तर्भाव हो जाता है। अर्थापत्ति समा जाति-न्या.सू /मू./५/१/२१ अर्थापत्तित. प्रतिपक्षसिद्धैरर्थापत्तिसमः । - अर्थापत्तिसे प्रतिपक्षके साधन करनेवाले हेतुको अर्थापत्तिसमा कहते है । जैसे वादी-द्वारा शब्दके अनित्यत्वमें प्रयत्नानन्तरीयकस्वरूप हेतु के 'दिये जानेपर, प्रतिवादी कहता है, कि यदि प्रयत्नान्तरीयकत्व रूप अनित्य धर्मके साधय॑के कारण शब्द अनिरय है तो अस्पर्शवत्वरूप नित्य धर्मके साधर्म्यसे वह नित्य भी
हो जाओ। (श्लो वा.४/न्या,४०२/५१६/२७) । अर्थापदत्व-ध /१,१,७/१५७/२ ण च संतमत्थमागमो ण परूवेई तस्स अस्थावयत्तप्पसंगादो । = आगम, जिस प्रकारसे वस्तु व्यवस्था है उसी प्रकारसे प्ररूपण न करे, ऐसा नहीं हो सकता। यदि ऐसा माना जावे तो उस आगमको अर्थापदत्व अर्थात् अनर्थ कपदत्वका प्रसंग
प्राप्त हो जायगा। अर्थावग्रह-वे. अवग्रह।
आर्ट कथानक-वि. १६६८, ई०१६४१ मेप बनारसीदास द्वारा
रचित अपनी आत्मकथा/(तो/४/२५५) । अर्द्धक्रम-(ध.१५/प्र.२७)Operation of mediation अर्द्ध गोलक-(ज.प /प्र.१०५) Hemisphere. अर्द्धच्छेद-(ध ५/प्र.२७) १ The number of times a num
ber is halved Mediation/Logarithm २. (ज प./प्र १०५) log to the base 2 (विशेष दे गणित II/२/१)। अर्द्ध नाराच-दे. सहनन ।
इगल परावर्तन-दे अन त । अर्द्ध फालक-श्वेताम्बर सम्प्रदायका आदिम रूप-दे.श्वेताम्बर । अर्द्ध मंडलीक-दे राजा । अर्द्धन्द्रा-पाँचवे नरकका चौथा पटल-दे. नरक/५ । अपित-स.सि./५/३२/३०३ अनेकान्तात्मकस्य वस्तुनः प्रयोजनवशाद्यस्य कस्यचिद्धर्मस्य विवक्षया प्रापित प्राधान्यमर्पितमुपनीतमिति यावत । तद्विपरोतमनपितम् । = वस्तु अनेकान्तात्मक है । प्रयोजनके अनुसार उसके किसी एक धर्मको विवक्षासे जब प्रधानता प्राप्त होती है तो वह अर्पित या उपनीत कहलाता है। और प्रयोजनके अभावमें जिसकी प्रधानता नहीं रहती वह अनर्पित कहलाता है। नोट-इस शब्दका न्यायविषयक अर्थ योजित है। अर्हन्त-जैन दर्शनके अनुसार व्यक्ति अपने कर्मोंका विनाश करके स्वय परमात्मा बन जाता है। उस परमात्माकी दो अवस्थाएँ हैएक शरीर सहित जीवन्मुक्त अवस्था, और दूसरी शरीर रहित देह मुक्त अवस्था। पहली अवस्थाको यहाँ अर्हन्त और दूसरी अवस्थाको सिद्ध कहा जाता है। अर्हन्त भी दो प्रकारके होते है-तीर्थकर व सामान्य । विशेष पुण्य सहित अईन्त जिनके कि कल्याणक महोत्सव मनाये जाते है तीर्थ कर कहलाते है, और शेष सर्व सामान्य अर्हन्त कहलाते है। केवलज्ञान अर्थात् सर्वज्ञत्व युक्त होनेके कारण इन्हे केवली भी कहते है। १. अर्हन्तका लक्षण
१. पूजाके महत्त्वसे अर्हन्त व्यपदेश मू आ /मू./५०५,५६२ अरिहं ति णमोक्कार अरिहा पूजा सुरुत्तमा लोए। ॥५०॥ अरिह ति वदणणमसणाणि अरिह ति पूयसक्कार । अरिहं ति सिद्धिगमणं अरहता तेण उच्च ति ॥५६२=जो नमस्कार करने योग्य हैं, पूजाके योग्य है और देवो में उत्तम है, वे अर्हन्त हैं ॥५०॥ बन्दना और नमस्कारके योग्य है. पूजा और सत्कारके योग्य हैं,मोक्ष जाने के योग्य है इस कारणसे अर्हन्त कहे जाते हैं ॥५६२॥ ध.१/१,१,१/४४/६ अतिशयपूजाहं त्वाद्वाईन्त । - अतिशय पूजाके योग्य होनेसे अर्हन्त सज्ञा प्राप्त होती है। (म पू./३३/१८६) (न.च.वृ /२७२) (चा पा/टी./९/३१/५)। द्र.स/टी/५०/२११/१ पञ्चमहाकल्याण रूपा पूजामह ति योग्यो भवति तेन
कारणेन अईन भण्यते ।-पच महाक्ल्याणक रूप पूजाके योग्य होता है, इस कारण अहंन कहलाता है।
२. कर्मो आदिके हनन करनेसे अर्हन्त है बो. पा/मू/३० जरवाहिजम्ममरणं चउगइगमणे च पुण्ण पाच । हतूण दोसकम्मे हुउ णाणमयं च अरहंतो ॥३०॥ =जरा और व्याधि अर जन्ममरण, चार गति विषै गमन, पुण्य और पाप इन दोषनिके उपजानेवाले कर्म है। तिनिका नाश करि अर केवलज्ञान मई हुआ होय सो अरहत है।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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