Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 1
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 439
________________ उपदेश ★ केवलज्ञान के बिना तीर्थकर उपदेश नहीं देते-देत १ श्रं ताकी रुचि अरुचिसे निरपेक्ष सत्यका उपदेश देना कर्तव्य है - दे. सत्य २ * हित-अहित व मिष्ट कटु संभाषण २ उपदेश श्रोताकी योग्यता व रुचिके अनुसार देना चाहिए * उपदेश ग्रहणमे विनयका महत्व दे विनय २ * ज्ञानके योग्य पात्र-अपात्र दे श्रोता ३ ज्ञान अपात्रको नही देना चाहिए * कथंचित् अपानको भी उपदेश देनेको आज्ञा - दे उपदेश ३ / १ में (स म.) * अपानको उपदेशके निषेधका कारण- उपदेश ३/४ ४ कैसे जीवको कैसा उपदेश देना चाहिए ५ किस अवसरपर कैसा उपदेश देना चाहिए * वाद-विवाद करना योग्य नही पर धर्महानिके अवसर पर बिना बुलाये बोले -दे बाद दे. * चारो अनुयोगोके उपदेशका क्रम ४ उपदेश प्रवृत्तिका माहात्म्य १ हितोपदेश सबसे बड़ा उपकार है २ उपदेश से श्रोताका हित हो न हो पर वक्ताका हित तो होता ही है ३ अतः परोपकारार्थं हितोपदेश करना इष्ट है ४ उपदेशका फल ५ उपदेश प्राप्तिका प्रयोजन स्वाध्याय १ १. उपदेश सामान्य निर्देश १. धर्मोपदेशका लक्षण 1 स. सि ६/२३/४४१/२ धर्मवाद्यनुष्ठान धर्मोपदेशम् धर्मकथा आदिका अनुष्ठान करना धर्मोपदेश है (रा.मा.६/२५/५/६२४/९६), (चा. खा./ १५२/५): (ससा ७/९१) (अन. प ७/८०/७१६) २ मिथ्योपदेशका लक्षण = स. सि. ०/२६/१६/० अभ्युदयनि सार्येषु क्रियाविशेषेषु अन्यस्य यथाप्रवर्त्तनमतिसन्धापनं वा मिथ्योपदेश । - अभ्युदय और मोको कारण भूतक्रियाओमें किसी दूसरेको विपरीत मार्ग लगा देना, या मिथ्यावचनो द्वारा दूसरोंको ठगना मिथ्योपदेश है। ३. निश्चय व व्यवहार दोनों प्रकारके उपदेशोंका निर्देश Jain Education International मो. पा / १६, ६० परदव्वादो दुग्गई सद्दव्वादो हु सुग्गई हवइ । इय पाऊणसदव्वे कुणहरई विरह इयरम्मि | १६ | धुवसिद्धी तित्थयरो चउणाणजुदो करेइ तवयरण । णाऊण धुवं कुज्जा तवयरण णाणजुत्तो || व्यसे दुर्गति होती है जैसे सुगति होती है, ऐसा जानकर हे भव्यजीवो। तुम स्वद्रव्यमे रति करो और परद्रव्यसे विरक्त हो | १६ | देखो जिसको नियमसे मोक्ष होना है और चार ज्ञानके जो घारी है ऐमें तीर्थंकर भी तपश्चरण करते है ऐसा निश्चय करके तप करना योग्य है । ६० ३. बक्ता व श्रोता विचार पं. ध. /उ.६५३ न निषिध पादानेषु नोपदेशो निषेधित नूनं निश्चय करके सत्पात्रीको दान देनेके विषय में और महंतोंकी पूजा विषयमें न तो वह आदेश निषिद्ध है तथा न वह उपदेश ही निषिद्ध है। आदेशो महतामपि । ६५३ २. योग्यायोग्य उपदेश निर्देश १. परमार्थ सत्यका उपदेश असम्भव है स. श १६.५६ यत्परै' प्रतिपाद्योऽह यत्परान् प्रतिपादये। उन्मत्त चेष्टितं सम्मेदनिर्विकल्पक १६ बोधयितुमिच्छामि साह त पुन. । ग्राह्य तदपि नान्यस्य तत्किमन्यस्य बोवये । ५६| मै उपध्यायो आदिको से जो कुछ प्रतिपादित किया जाता हूँ तथा शिष्या दोपादन करता है वह सब मेरी पागलों जैसी है, क्योकि मै वास्तव में इन सभी बचनविकल्पोसे अग्राह्य हूँ | १६ | जिस विकल्पाधिरूढ आत्मस्वरूपको अथवा देहादिकको सम झाने-बुझाने की इच्छा करता हूँ, यह मे नही हू, और जोहानामै नन्दमय स्वय अनुभवगम्य आत्मस्वरूप मै हूँ, बह भी दूसरे जीवोके उपदेश द्वारा ग्रहण करने योग्य नहीं है, क्योंकि केवल स्वसंवेदगम्य है इसलिए दूसरे जोमोको ने क्या समझाऊँ ॥ २. पहले मुनिधर्मका और पीछे गृहस्थधर्मका उपदेश दिया जाता है पु. सि. उ. १०-११ मा समस्तविरति प्रदर्शितो वो न जातु गृहाति तस्यैकदेशविरति कथनीयानेन बीजेन | १७| यो यतिधर्मक्थयन्तुपदिशति गृहस्थधर्ममन्यमति । तस्य भगमस्यप्रवचने प्रदर्शित निग्रहस्थानम् | १८ | अक्रमकथनेन यत प्रोत्सहमानोऽतिदूरमपि शिष्य । अपदेऽपि सं प्रतारितो भवति तेन दुर्महिमा | जो जीव बारम्बार दिखलायी हुई समस्त पापरहित मुनिवृत्तिको कदाचिद ग्रहण न करे तो उसे एकदेश पाप क्रिया रहित गृहस्थाचार इस हेतु से समभावे अर्थात् कथन करे |१७| जो तुच्छ बुद्धि उपदेशक, मुनिधर्मको नही कह करके श्रावक धर्मका उपदेश देता है उस उपदेशकको भगवत सिद्धान्तमे दण्ड देनेका स्थान प्रदर्शित किया है | १८ जिस कारण से उस दुर्बुद्धिके क्रमभग कथनरूप उपदेश करनेसे अश्यन्त दूर तक उत्साहमान हुआ भी शिष्य तुच्छस्थान में सन्तुष्ट होकर ठगाया हुआ होता है | १६ ३ अयोग्य उपदेशका निषेध पध. /उ. ६५४ यद्वादेशपदेशौ स्तो तौ द्वौ निरवद्यकर्मणि । यत्र सावद्यशोऽस्ति उत्रादेशो न ४ आवेश और उपदेश दोनो ही निर्दोष क्रिया ही होते है, किन्तु जहाँपर पापको थोडी-सी भी सम्भावना है वहॉपर कभी भी आदेशकी प्रवृत्ति नहीं हो सकती है। ४. स्पाति लाभ आदिकी भावनाओसे निरपेक्ष ही उपदेश हितकारी होता है म रावा. १/२५/१/६२४/१८ जनपरित्यागान्न निवर्तनार्थ संदेहव्यावर्तनापूर्वपदाथ प्रकाशनार्थ धर्मानुष्ठान धर्मो देश इत्या ख्ययते । लौकिक ख्याति लाभ आदि फलकी आकाक्षाके बिना, उन्मार्ग की निवृति सिए तथा सन्देही व्यावृति और पूर्व अर्थात अपरिचित पदार्थ प्रकाशनके लिए धर्मकथा करना धर्मोपदेश है । (चा, सा १५३ / ४) ३. बक्ता व श्रोता विचार १. श्रोताकी रुचि से निरपेक्ष सत्यका उपदेश देना योग्य है भ आ / / ४८३ आदट्ठमेव चितेदुमुट्टिदा जे परट्ठमवि लोए । कडुय फरुसेहिं साहेति ते हु अदिदुल्लहा लोए ।४८३३ - जो पुरुष आत्महित - जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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