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ईसवी संवत्
ईसवी संवत् इतिहास २ ईहा—पि साधारणत प्रतीतिमें नहीं आता परन्तु इन्द्रियों द्वारा पदार्थको जाननेमें क्रम पडता है। पहले अवग्रह होता है, तत्पश्चात् हा आदि । अवग्रहके द्वारा ग्रहण किये गये अत्यन्त अस्पष्ट ग्रहण को स्पष्ट करनेके प्रति उपयोगकी उन्मुखता विशेषको ईहा कहते हैं। इसलिए इसे मतिज्ञानका भेदमाना है ।
* मतिज्ञान सम्बन्धी भेद- दे. मतिज्ञा १ ।
१ ईहाके लक्षण सम्बन्धी शंका
ध १३/५,५२६/२३०/२ अणवगहिदे अत्थे ईहा किण्ण उप्पज्जदे । ण अव गहिदत्य विसेाकखनमोहे पियमेण सह विरोहातोदो । प्रश्न- अनवगृहीत अर्थ में हाहान क्यों नहीं उत्पन्न होता है । उत्तर- नहीं, क्योंकि ऐसा माननेपर अवग्रहके द्वारा ग्रहण किये गये पदार्थ में उसके विशेषकी जाननेकी इच्छा होना ईहा है, इस वचन के साथ विरोध होता है।
दे । मरिज्ञान ३
* अवग्रह ईहादिका क्रम
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२ ईहाके प्रमाणपने की सिद्धि
रा. वा. ११४/११/६२/२ ननु हावा निर्णयविरोधिनोत्यादयस् प्रसङ्ग इति, तन्नः किं कारणम् । अर्थादानात् । अवगृह्यार्थं तद्विशेषोसध्यर्थमनमोहा सदाय पुनर्नार्थविशेषालम्बन एवं शमितस्योत्तरकालं विशेषोपलिप्स प्रति यतनमौहेति संशयादन्तरत्वम् । प्रश्न- निर्णयात्मक न होनेके कारण ईहाज्ञान सशय रूप है उत्तर ऐसा कहना ठीक नहीं है, क्योंकि ईहा पदार्थ विशेष निर्णयकी ओर झुकाव होता है जबकि सशयमें किसी एक कोटिकी ओर कोई झुकाव नहीं होता । सशयका उच्छेद करनेके लिए 'दक्षिणी होना चाहिए इस प्रकारके एक कोटिके निर्ण के लिए ईहा होती है।
ध. ६/१,१-१,१४/१७/३ णेहा सदेहकवा, विचारबुद्वीदो सदेहविणासुवभाईहाज्ञान सम्देह रूप नहीं है, क्योंकि ईहात्मक विचार बुद्धिसे सन्देहका विनाश पाया जाता है। प-२/४.१.४५/१४६/७ पुरुष किमयं दाक्षिणात्य उ उदीच्य इत्येव मादिविशेषाप्रतिपतौ संशयानस्योत्तरकाल विशेषोपलिप्सां प्रति यतनमीहा । ततोऽवग्रहगृहीतग्रहणात् सशयात्मकत्वाच्च न प्रमाणमहाप्रत्यय इति चेदुच्यते न तावद् गृहीतग्रहणमप्रामाण्यनिबन्धनम्, तर संशय विपर्ययाध्यवसायनिबन्धनत्वात्। न चैकान्तेन ईहा गृहीतग्राहिणी गृहीत व या निर्भयोत्पत्तिनिमित्तसमन महागृहीतमध्यवस्यन्या गृहीतग्राहित्याभावात् । न चैकान्तेन अगृहीतमेव प्रमाण गृह्यते, अगृहीतत्वात् खरनिषाद ग्रहणविरो धात् । न चेहाप्रत्ययसंशय, विमर्शप्रत्ययस्य निर्णयप्रत्ययोत्पत्तिनिमित्त लिङ्गपरिच्छेदनद्वारेण सशयमुदस्य तस्य संशयत्वविरोधात् । न च शराधारजीवसमप्रमाणम् संशयविरोधिन स्वरूपेण सशयतो व्यावृत्तस्य अप्रमाणत्वविरोधात् । नानध्यायरूपत्वादप्रमाणमोहा, अध्यवसितकतिपय विशेषस्य निराकृतसंशयस्य प्रत्ययस्य अनध्यवसायत्वविरोधात् । तस्मात्प्रमाणं परीक्षाप्रत्यय इति सिद्ध ।
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- प्रश्न - अवग्रहसे पुरुषको ग्रहण करके, क्या यह दक्षिणका रहनेवाला है या उत्तरका, इत्यादि विशेष ज्ञानके बिना संशयको प्राप्त व्यक्तिके उत्तरकालमें विशेष जिज्ञासा के प्रति जो प्रयत्न होता है हुए वह ईहा है । इस कारण अवग्रहसे गृहीत विषयको ग्रहण करने तथा संशयात्मक होनेसे ईहा प्रत्यय प्रमाण नहीं है। उत्तर--इस शकाके उत्तरमें कहते है कि गृहीत ग्रहण अप्रामाण्यका कारण नहीं है. क्योंकि उसका कारण संशय, विपर्यय व अनध्यवसाय है । दूसरे ईहा प्रत्यय सर्वथा गृहीतग्राही भी नहीं है, क्योंकि अपग्रहसे गृहीत वस्तुके
ईहा
उस अंशके निर्णयकी उत्पत्तिमे निमित्तभूत लिगको, जो कि अबग्रहसे नहीं ग्रहण किया है, ग्रहण करनेवाला ईहाज्ञान गृहीतग्राही भी नहीं हो सकता, और एकान्तत अगृहीतको ही प्रमाण ग्रहण कहते हो सो भी बात नहीं है, क्योंकि ऐसा माननेपर अगृहीत होनेके कारण खरविषाणके समान असत होनेसे वस्तुके ग्रहणका विरोध होगा । (ध १३ / ५.५.२४/२११/२) ईहा प्रत्यय संशय भी नहीं हो सकता, क्योंकि निर्णयकी उत्पत्तिमें निमित्तभूत लिंगके ग्रहण द्वारा सशयको दूर करनेवाला विमर्श प्रत्यय के संशयरूप होनेमें विरोध है। सहायके आधारभूत जीव में समवेत होने से भी वह ईहा प्रत्यय अप्रमाण नहीं हो सकता, क्योंकि, सके विरोधी और स्वरूपत संशय से भिन्न उक्त प्रत्ययके अप्रमाण होनेका विरोध है । अनध्यवसाय रूप होनेसे भी ईहा अप्रमाण नहीं हो सकता, क्योंकि कुछ विशेषका अध्यवसाय करते हुए सशयको दूर करने बाले उक्त प्रत्ययके अध्यवसाय रूप होनेका विरोध है, अतएव परीक्षा प्रत्यय प्रमाण है, यह सिद्ध होता है । (ध. १३/५५,२३/२१८/५) १३/५४.२३/२२८/३ पाविशदावग्रहपृष्ठभाविनी ईहा अप्रमाणम् वस्तुविशेषपरितनिमिसाया परिचिदज्ञतदेकदेशायाःसंशयविपर्ययज्ञानाभ्या व्यतिरिक्ताया अप्रमाणत्वनिरोधात अवि शद अवग्रहके बाद होनेवाली ईहा अप्रमाण है, यह कहना भी ठीक नहीं है क्योंकि वह वस्तु विशेष परिस्थितिका कारण है और यह वस्तुके एकदेशको जान चुकी है तथा यह संशय और विपर्यय ज्ञानसे भिन्न है । अत उने अप्रमाण माननेमें विरोध आता है।
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३ ईहा व धारणामे ज्ञानपनेकी सिद्धि तपीयस्त्रयोवृत्ति हाधारणयोरपि ज्ञानात्मनेयं तदुप योगविशेषात् । = ईहा और धारणाका भी उनके उपयोग विशेषसे ज्ञानात्मकरव लगा लेना चाहिए ।
प्रमाणमीमांसा १/१/२७ अज्ञानात्मकतायां तु संस्कारस्येह तस्य वा । ज्ञानोपादानता न स्याद्रूपादेरिव सास्ति च । ईहा च यद्यपि चेष्टोच्यते तथापि चैतस्य 'सति' 'ज्ञानस्येति युक्त प्रत्यक्षमेदस्वगस्या । मामीमासा १/१/३६ हाधारणयोर्ज्ञानापादानत्वाद ज्ञानरूपी श्लेया । ईहा और धारणा ज्ञानके जनक होनेसे ज्ञानरूप मानना चाहिए। श्लोक ३/१/१५/२०-२१/४४७/१८ ज्ञान नेहाभिलाषात्मा सस्कारात्मा न धारणा |२०० तच्च न व्यवतिष्ठते । विशेषवेदनस्येह दृष्टस्येहात्वसूचनात् । २१) प्रश्न- अभिलाषारूप माना गया ईहाज्ञान और संस्कार स्वरूप धारणा ज्ञान नहीं सिद्ध हो पाते। क्योंकि अभिलाषा तो इच्छा है, वह आत्माका ज्ञानसे भिन्न स्वतन्त्र गुण है । तथा भावना रूप संस्कार भी ज्ञानसे न्यारा स्वतन्त्र गुण है । अतः इच्छा और संस्कार ज्ञान रूप नहीं हो सकते । उत्तर- ऐसा कहना ठीक नहीं है, इस प्रकरण में वस्तु अशोकी आकारूप दृढ विशेषज्ञानको ईहापना सूचित किया है। ४ ईहाज्ञान अविशद अवग्रहका ही नही अपितु सर्व अवग्रहोका होता है
ध. १३/५४, २३/२१७/६ न चाविशदारग्रहपृष्ठभाविन्येव ईहेति नियमः, विशदावग्रहेण पुरुषोऽयमिति अवगृहीतेऽपि वस्तुनि किमय दाक्षिणास्य किमुदीच्य इति सशयानस्य ईहाप्रत्ययोत्पत्त्युपलम्भात् । - अविशद अवग्रहके पीछे होनेवाली ही ईहा है. ऐसा कोई एकान्त नियम नहीं है, क्योंकि, विशद अवग्रहके द्वारा 'यह पुरुष है' स प्रकार ग्रहण किये गये पदार्थ में भी 'क्या यह दक्षिणात्य है या उदीच्य है इस प्रकारके संशयको प्राप्त हुए मनुष्य के भी ईहा ज्ञानकी उत्पत्ति उपलब्ध होती है ।
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* ईहा व संशयमे अन्तर दे ईहा २
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* ईहा कथंचित् संशय रूप है- अग्रह २/९/२।
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