Book Title: Jain Darshan aur Vigyan
Author(s): Mahendramuni, Jethalal S Zaveri
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 5
________________ चेतना को शांत किया जाता है, तब अन्त:दर्शन की चेतना द्वारा अतिविशिष्ट बोध प्राप्त होता है; उसमें बाह्य जगत् को धारणात्मक चिन्तन से छाने बिना प्रत्यक्ष ही अनुभव कर लिया जाता है। "चुआंग-त्जु के शब्दों में ऋषि (प्रज्ञावान्) का शांत चित्त सम्पूर्ण स्वर्ग और पृथ्वी-समस्त पदार्थों का दर्पण है।"१ यह एक सुनिश्चित तथ्य है कि जिन अध्यायत्म-मनीषियों ने दो-ढाई सहस्राब्दियों पूर्व परमाणु से ब्रह्माण्ड तक या आत्मा से परमात्मा तक सूक्ष्मविश्व (microcosmos) और महाविश्व (macrocosmos) के स्वरूप, संरचना, आकार-प्रकार, क्षेत्रमान-कालमान आदि विभिन्न पहलुओं पर इतनी गहरी मीमांसा की वे उस युग के ही महान दार्शनिक नहीं अपितु युगों-युगों तक ज्ञान-रश्मियों का आलोक देने वाले प्रज्ञा के धनी 'अध्यात्मविज्ञानी' थे। उनके अन्त:दर्शन एवं अन्त:अनुभूति से प्रस्फुटित ज्ञानधारा में ही हमें मानव मन की चिरन्तन जिज्ञासाओं का समाधान प्राप्त हो सकता है। आभारोक्ति प्रस्तुत पुस्तक के समाकलन में उन अनेक लेखकों की कृतियों का उपयोग किया गया है, जिन्होंने तटस्थ भाव से अध्यात्म/दर्शन और विज्ञान के भिन्न-भिन्न विषयों का तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया है। । प्रस्तुत पुस्तक को ९ अध्यायों में अजमेर वि. वि. के पाठ्यक्रमानुसार विभक्त किया गया है। प्रथम अध्याय दर्शन और विज्ञान का आधार है-मुनि महेन्द्रकुमार कृत विश्व-प्रहेलिका। ___ द्वितीय अध्याय अध्यात्म और विज्ञान के आधार हैं-आचार्य महाप्रज्ञ कृत मैं हूं अपने भाग्य का निर्माता, आचार्य तुलसी कृत प्रज्ञापर्व, आचार्य महाप्रज्ञ कृत अमूर्त चिन्तन तथा उनका लेख 'अध्यात्म और विज्ञान (भारत-निर्माण द्वारा प्रकाशित विशेषांक) तृतीय अध्याय जैन दर्शन और परामनोविज्ञान के आधार हैं-डा. ईयान स्टीवनसन कृत Twenty Cases Suggestive of Reincarnation, डा. कीर्तिस्वरूप रावत कृत परामनोविज्ञान, मुनि महेन्द्रकुमार का शोध-लेख-पुनर्जन्म : 1. When the rational mind is silenced, the intuitive mind produces an extraordinary awareness; the environment is experienced in a direct way without the filter of conceptual thinking. In the words of chuang Tzu, "The still mind of a sage is a mirror of heaven and earth-the glass of all things." . -Tao of Physics, p. 62. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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