Book Title: Yogkalpalata
Author(s): Girish Parmanand Kapadia
Publisher: Shrutbhuvan Sansodhan Kendra

View full book text
Previous | Next

Page 78
________________ नमस्कारस्मृतिः भजे पीयूषतुल्यं त्वां मिथ्यात्वविषनाशक ! । श्रयामि त्वां नमस्कार ! महाभक्त्या भवान्तक ! ।।६।। मिथ्यात्वरूप विष का नाश करनेवाले!, नमस्कारमन्त्र ! तुम अमृततुल्य हो, मैं तुम्हारा भजन करता हूँ। भव के जन्म - मृत्युबाधा का अन्त करनेवाले, भक्तिपूर्वक मैं तुम्हारी सेवा करता हूँ । ६ ॥ दुर्ध्यानपरिहाराय स्वरूपस्थितिसिद्धये । जपामि त्वां नमस्कार! मोक्षलक्ष्मीप्रदायक ! ।।७।। ६५ दुर्ध्यान के परिहार के लिए, स्वरूपसिद्धिहेतु हे ! मोक्षरूप लक्ष्मी को प्रदान करने वाले! नमस्कार! मैं तुम्हारा जाप करता हूँ || ७ || सदा तत्त्वैकनिष्ठस्तु ध्यानयोगेन साधकः । अन्तर्लक्ष्यो नमस्कार! स्वात्मन्येव वसेद्ध्रुवम् ॥ ८॥ हे! नमस्कार तत्त्व में निष्ठा रखनेवाला, ध्यानयोग से आत्मलक्ष्मी साधक निश्चित ही अपनी आत्मा में रुकता है ।। ८ । विश्वासामृतभूतं वै विशुद्धबोधसिद्धये । आकण्ठं त्वां नमस्कार ! पिबामि मुक्तिहेतवे ॥ ९ ॥ हे! नमस्कार विशुद्धबोध ( सम्यक् ज्ञान) की प्राप्ति एवं मुक्ति के लिए विश्वासरूप अमृत तुमको मैं कंठ तक पान करता हूँ ।। ९ ।। अनन्यमनसा नित्यं हृदि संस्थाप्य भक्तितः । सेवे त्वां हि नमस्कार ! सर्वद्वन्द्वविनाशक ! ।।१०।। सभी द्वन्द्वो को नाश करनेवाले नमस्कार ! मैं दत्तचित्त होकर भक्तिपूर्वक तुम्हें हृदय में स्थापित करके तुम्हारी सेवा करता हूँ ।। १० ।। शुष्कवादविवादेषु प्रवृत्तिर्नैव जायते । त्वां सम्प्राप्य नमस्कार ! लोके कस्यापि कर्हिचित् ।।११।। हे! नमस्कार तुमको प्राप्त करके कभी भी किसी की फलहीन वाद-विवाद में प्रवृत्ति नहीं होती ।। ११ ।

Loading...

Page Navigation
1 ... 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145