________________
८२
वासना एव संसारो मुक्तिस्तत्त्यागतो मता । तस्मात्सर्वप्रयत्नेन वासनारहितो भव ।। २८ ।।
वासना ही संसार है तथा उसके त्याग से ही मुक्ति है। अतः सभी प्रयत्नों से वासनामुक्त होवें।।२८।।
योगकल्पलता
वासनात्यागमात्रेण स्वरूपावस्थितिं क्षणात् ।
स्वयं करोति सम्यग् ं तदात्मा गुरुरात्मनः ।। २९ ।।
ज्ञानी वासना मात्र के त्याग से स्वयं ही क्षणभर में अपनी आत्मा को अपने स्वरूप में भलीभांति स्थित कर लेते हैं । अतः आत्मा ही आत्मा का गुरु है ।। २९ ।। अनित्यं हि जगत्सर्वं यो पश्यतीन्द्रजालवत्।
आश्रित्य ज्ञानवैराग्यं स सौख्यं लभते परम् ।।३०।।
जो इस संसार को इन्द्रजाल के समान अनित्य देखता है, वह ज्ञानगर्भ वैराग्य का आश्रय लेकर मोक्ष को प्राप्त करता है ।। ३० ।।
अर्थं कामं च सन्त्यज्य धर्मे मोक्षे सदा रुचिम् । विदधाति नरः प्राज्ञस्तस्य मोक्षः सुनिश्चितः । । ३१॥
जो बुद्धिमान् मनुष्य अर्थ और काम का त्याग करके मोक्ष की अभिलाषा रखता है उस साधक का मोक्ष निश्चित है ।। ३१॥
असंसक्तः सुखी लोके संसक्तो दुःखभाक् सदा । तस्मान्नित्यं सुखं तस्य मतं प्रौढविरागिणः ।। ३२ ।।
जो इस संसाररूप माया मोह से बँधे हैं वे दुःखी हैं तथा जो इस जाल से अलग हो गये वे सुखी हैं। इसलिए संसार से जिसका लगाव अलग हो गया उस विरागी को ही नित्य सुख (मोक्ष) मिलता है ।। ३२ ।।
तस्यैव बन्धविश्लेषस्तत्त्वज्ञैः प्रतिपादितः । निश्चयो जायते यस्य 'नाऽहं वपुर्न मे वपुः
'॥३३॥
मैं शरीर नहीं हूँ और यह शरीर मेरा नहीं है जिसको ऐसा निश्चय हो गया है, तत्त्वज्ञों ने उसे ही कर्मबन्ध से मुक्त माना है | |३३||