Book Title: Yogkalpalata
Author(s): Girish Parmanand Kapadia
Publisher: Shrutbhuvan Sansodhan Kendra

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Page 104
________________ आशाप्रेमस्तुतिः आशे ! त्वं कुशला लोके कलासु नात्र संशयः । कलादेवीमतो मत्वा त्वां भजन्ते जनास्सदा ।। १२ ।। हे आशे! लोक में कलाओं में तुम कुशल ( प्रवीण) हो। तुम्हें कलादेवी समझकर लोग तुम्हे हमेशा भजते हैं। ।।१२।। आशे ! ते हावभावैस्तु प्रसन्ने हृदये मम । उत्थिता लहरी काऽपि चिदानन्दं प्रयच्छति।।१३।। हे आशे ! तुम्हारे हाव-भावों से मुझ पर प्रसन्न होने पर हृदय में एक लहर जैसी उठी हुई मुझे ब्रह्मानन्द का आस्वाद कराती है । ।।१३।। नित्यानन्दमयीं देवीं तत्त्वज्ञानप्रदायिनीम्। आशे! त्वां सर्वभावेन शुचिस्मिते भजाम्यहम् ।।१४।। ९१ तत्त्वज्ञान एवं शाश्वत आनन्द को देनेवाली, मधुर मुस्कानवाली देवी आशे ! मैं तुम्हारे सर्वभाव (सायुज्यता ) से पूजा करता हूँ। ।।१४।। आशे ! त्वयि प्रसन्नायां फलन्ति कामपादयाः । प्राप्यते ब्रह्मविज्ञानमात्माऽयं भासते स्फुटम् ।।१५।। हे आशे! तुम्हारे प्रसन्न होने पर मेरे कामवृक्ष फल प्राप्त करते हैं । ( अर्थात् कुण्डलिनी के जागृत होने पर मनोरथ सफल होते हैं) ब्रह्मज्ञान होता है, आत्मा स्पष्टरूप से प्रकाशित होती है । ।। १५ ।। मार्गं कृत्वा कटाक्षेण मन्ये शीघ्रं हि वेगतः । आशे! त्वं हृदयाम्भोजे निविष्टा भ्रमरीव मे ।। १६ ।। हे आशे! मैं मानता हूँ कि तुम अपनी कटाक्ष से प्रवेश मार्ग बनाकर बहुत जल्द ही मेरे हृदयकमल पर भ्रमरी की तरह बहुत वेग से बैठ गयी हो। ।।१६।। वचनामृतवर्षेण तत्त्वचिन्तनहेतवे । आशे! त्वं शीतलं सद्यः करोषि मम मानसम्।।१७।। हे आशे! तत्त्वचिंतन के लिए अमृत जैसे वचन की वर्षा करके तुम मेरे ( संतप्त ) मन को सद्यः शीतल करती हो । । । १७।।

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