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।। आत्मतत्त्वसमीक्षणम् ॥
नत्वा वीरं गुरुं भक्त्या जननीं जनकं तथा। सर्वहिताय कुर्वेऽहमात्मतत्त्वसमीक्षणम्।।१।।
भगवान् महावीर, गुरु एवं माता-पिता को भक्तिपूर्वक नमस्कार करके सभी के हित के लिए आत्मतत्त्व समीक्षण की रचना करता हूँ ।। १ ।।
आत्मज्ञानादवाप्नोति वैराग्यं ज्ञानगर्भितम्।
विषयाँस्तु तदा त्यक्त्वा मुक्तिं काङ्क्षति साधकः ।।२।।
आत्मज्ञान से ही ज्ञान से गर्भित वैराग्य उत्पन्न होता है। उस समय साधक विषयों का त्याग करके मोक्ष की इच्छा करता है ।। २ ।।
क्षमादिदशधा धर्मं ततः स्वीकृत्य भावतः । पृथक्कृत्य सदा देहं चिद्रूपे सोऽवतिष्ठते ।।३।।
इसके बाद क्षमा आदि दशधर्मों को भाव से स्वीकार करके देह को आत्मा से अलग करके व्यक्ति अपने आप ज्ञानरूप में स्थिर हो जाता है । । ३ ॥
आत्मानं साक्षिभावेन संस्थाप्य चिदि कोविदः । जीवन्मुक्त इवाभाति चैतन्यभावनायुतः।।४।।
वह बुद्धिमान् व्यक्ति साक्षिभाव से आत्मा को ज्ञान (चित्) में स्थापन कर के चैतन्यभाव से युक्त (होकर) जीवन्मुक्त जैसा लगता है ।।४।।
निःसङ्गश्च निराकारो बन्धमुक्तः सदा शुचिः ।
न कर्ता न च भोक्ता वै सर्वद्वन्द्वविवर्जितः ॥ ५॥
( वह) सर्व संग से मुक्त होता हैं, सर्व आकार से रहित होता है । सर्व बन्धनों से मुक्त होता है, सदा पवित्र होता है । ( इस तरह) राग-द्वेष, जन्म-
- मृत्यु, प्रीति