Book Title: Yogkalpalata
Author(s): Girish Parmanand Kapadia
Publisher: Shrutbhuvan Sansodhan Kendra

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Page 108
________________ आशाप्रेमस्तुतिः आशे! तुम्हारे बिना मेरा कोइ अस्तित्व नहीं है तथा मेरे बिना तुम्हारा अस्तित्व नहीं है; यह हम दोनों का अनुभव सिद्ध है, नहीं तो प्रेम का अनुभव लुप्त हो जाता है। ।।३५।। आशे! विज्ञाय सम्यक् ते स्वरूपं हि रसात्मकम्। स्वयमेव परानन्दे निमग्ना भव सत्वरम् ।। ३६॥ ९५ आशे! तुम्हारे रसात्मक (प्रेममय, मिलनसार ) स्वरूप को अच्छी तरह जानकर मेरा कहना है कि स्वयं ही तु परमानन्द में लीन हो जा। ।। ३६ ।। परानन्दनिमग्ना त्वं हर्षाश्रुपुलकाङ्किता । आशे ! नित्यं हि मच्चित्ते संस्थिता नात्र विस्मयः ।। ३७।। आशे! परमानन्द में लीन होने से हर्ष के आँसू निकल रहे हैं और शरीर भी रोमांचित हो गया है, तुम नित्य मेरे मन में रहती हो इसमें कोई आश्चर्य नहीं है। ।।३७।। नरनारीविभेदो न सामरस्ये प्रकाशते । आशे! तज्ज्ञानमात्रेण वासना शुद्ध्यति स्वयम्॥३८।। आशे! समरसता आने पर नर-नारी में भी भेदज्ञान नहीं रहता, उसके ज्ञानमात्र से वासना (विचार, इच्छाएँ) अपने आप शुद्ध हो जाती हैं। ।।३८।। सम्भोगे रससिद्धिस्तु विभावाद्यैः प्रजायते । आशे! तापोदयस्तद्वद्विप्रलम्भे न संशयः । । ३९ । आशे! विभावादियों से संयोग होनेपर रस की सिद्धि होती हैं, उसी तरह विभावादियों से वियोग की दशा में कष्ट होता है । ।। ३९ ।। तस्मादालम्बनं प्राप्य सत्वरं ब्रह्मचिन्तने । आशे ! लीना मनोवृत्तिः कर्तव्या भावतस्त्वया।।४०।। आशे! इसलिए ध्यान में आलम्बन पाकर तुम्हे भाव से मनोवृत्ति ( मन की चंचलता) को शीघ्र ही लीन (शांत) करना चाहिये। ।।४०।।

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