Book Title: Yogkalpalata
Author(s): Girish Parmanand Kapadia
Publisher: Shrutbhuvan Sansodhan Kendra

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Page 109
________________ योगकल्पलता उत्कृष्टं वचनातीतं स्वसंवेद्यमहैतुकम्। आशे! ते विद्यते प्रेम स्वच्छदर्पणवन्मयि।।४१॥ आशे! तेरा मुझ पर प्रेम स्वच्छ दर्पण की तरह है, तेरा प्रेम उत्कृष्ट है, जो वचन से व्यक्त नहीं हो सकता, इसका अनुभव सिर्फ मुझे ही हो सकता है, तेरा प्रेम निष्कारण है। ।।४१।। आशे! ते प्रेमपाशेन सर्वदाहं नियन्त्रितः। त्वदधीनोऽस्मि ते दासस्त्वमेव स्वामिनी मम।।४२।। आशे! तुम्हारे प्रेमबन्धन से बाँधा हुआ मैं तुम्हारे अधीन हूँ, मैं तुम्हारा दास हूँ और तुम मेरी स्वामिनी हो। ।।४२।। प्रेमैक्यकारिणी देवी ब्रह्मसायुज्यदायिनी। आशे! प्राणाधिका त्वं मे प्रेमपीयूषवर्षिणी।।४३।। आशे! तुम साक्षात् ब्रह्म से मिलानेवाली (ब्रह्मसायुज्यवाली) प्रेम का ऐक्य करानेवाली हो, तुम मुझपर प्रेमामृत वर्षानेवाली हो, तुम मुझे प्राणों से अधिक प्रिय हो। ।।४३।। पुंस्त्रीप्रेमरसस्साक्षादावयो रमते हृदि। अणुमात्रविभेदो न तस्मादाशे! मयि त्वयि।।४४।। आशे! हम दोनों के हृदय में स्त्री-पुरुष की तरह परस्पर प्रेम रहता है, जिससे मुझमें-तुझमें अणुमात्र का भी अंतर नहीं है। ।।४४।। आशे! साक्षादिव ध्याने तव रूपं तु भासते। विरहेणातितीव्रण तस्मात्तापः फलप्रदः।।४५।। आशे! ध्यान में साक्षात् तुम्हारे रूप का आनन्ददायक भास होता है इसलिए विरह से संताप भी उतना ही कष्टकारक होता है। ।।४५।। आशे! त्वामेव सर्वत्र साक्षात्पुरस्स्थितामिव। विना ध्यानेन पश्यामि चक्षुर्त्यां विरहे सदा।।४६।। आशे! तुम्हारे विरह में भी मैं तुम्हें विना ध्यान के इन आँखों से सभी जगह तुम्हें मेरे सामने ही साक्षात् खडी हुई देखता हूँ। ।।४६।।

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