Book Title: Vyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Author(s): Nagesh Bhatt, Kapildev Shastri
Publisher: Kurukshetra Vishvavidyalay Prakashan
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वैयाकरण- सिद्धान्त-परम-लघु-मंजूषा
इसी प्रकार तर्ककौमुदी में भी 'आसत्ति' तथा 'सन्निधि' को एक मानते हुए यह कहा गया कि यदि वाक्य के एक एक शब्द को एक एक घण्टे के मध्यावकाश के बाद उच्चारित किया जाय तो श्रोता को उस वाक्य से अभीष्ट अर्थ का ज्ञान नहीं हो पाता क्योंकि वहां 'आसत्ति' अथवा 'सन्निधि' नहीं है । द्र०- "एतस्य ज्ञानं च शाब्दबोधजनकम् इति विज्ञेयम् । अतएव एकैकशः प्रहरे प्रहरे प्रसहोच्चारित 'गाम आनय' इत्यादी नान्वयबोधः । सन्निधेरभावात्" (तर्ककौमुदी - ४) ।
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श्रासत्तिरपि सूत्रे भाष्ये - 'प्रासत्ति' की जो परिभाषा नागेश ने की है उसे देखते हुए 'प्रसत्ति' को भी 'शाब्दबोध' में अनिवार्य कारण नहीं माना जा सकता क्योंकि यह देखा जाता है कि अन्य शब्दों का व्यवधान होने पर भी बुद्धिमानों को 'शाब्दबोध' हो ही जाता है । अल्प बुद्धि वालों को भी 'प्रसत्ति' - रहित वाक्यों से अर्थ का ज्ञान तो हो जाता है पर उसमें थोड़ी देर अवश्य लग जाती है । इसीलिये यहां यह कहा गया कि मन्द बुद्धि वालों की दृष्टि से शीघ्र शाब्दबोध' में कारण है ।
यहाँ नागेश ने "न पदान्त० " ( पा० १.१.५७) सूत्र के भाष्य के जिस स्थल की ओर संकेत किया है वहाँ पतंजलि ने स्पष्ट कहा है “अनानुपूर्व्येणापि सन्निविष्टानां यथेष्टम् अभिसम्बन्धो भवति" अर्थान् ग्रनुपूर्वी या विशिष्ट क्रम से न रखे हुए शब्दों में भी यथाभिलषित सम्बन्ध हो जाता है । अपने इस कथन के उदाहरण के रूप में पतंजलि ने वहां यह निम्न वाक्य प्रस्तुत किया है : - "अनड्वाहम् उदहारि या त्वं हरसि शिरसा कुम्भ भगिनि साचीनम् अभिधावन्तम् अद्राक्षीः ", तथा इस क्रम रहित पदों वाले वाक्य का अभीष्ट सम्बन्ध भी स्वयं पतंजलि ने ही इस प्रकार किया है "उदहारि भगिनि ? या त्वं कुम्भं हरसि शिरसा अनड्वाहं साचीनमाभिधावन्तम् अद्राक्षीः " (हे जल ढोने वाली बहन ? जो तुम घड़े को सिर पर रख कर ले जा रही हो, तिरछे दोड़ते हुए बैल को देखा है क्या ? ) । इस तरह 'आसत्ति' के न होने पर भी प्रथबोध होता ही है । अतः 'प्रसत्ति' को 'शाब्दबोध' में अनिवार्य कारण नहीं माना जा सकता । द्र० - " भाष्यात् तु प्रासत्त्यभावेऽपि पदार्थोपस्थिती अकांक्षावशाद् व्युत्पत्त्यनुसारेण प्रन्वयबोध इति लभ्यते " ( महा०, उद्योत टीका, १.१.५७ ) । महाभाष्य के उपर्युद्धत स्थल तथा उसकी टीका से यह स्पष्ट है वाक्य के पदों का एक विशिष्ट क्रम में होना भी 'आसत्ति' की परिभाषा के अन्तर्गत ही माना जाता है ।
स्थाल्याम् श्रक्षतिः - उपर 'आसत्ति' की परिभाषा में 'अननुकूल' पद क्यों रखा गया, इस बात को यहाँ 'स्थाल्याम् प्रोदनं पचति' इस उदाहरण द्वारा स्पष्ट किया गया है । यहाँ 'स्थाली' तथा 'पचति' के मध्य में जो 'ओदनम्' शब्द का व्यवधान है वह अननुकूल (प्रतिकूल ) न होकर अनुकूल ही है । इसलिये उसका व्यवधान होने पर भी 'आसत्ति' बनी ही रहती है क्योंकि 'आसत्ति' की दृष्टि से उसी पद का व्यवधान अवांछनीय है जो प्रन्वयबोध या अभीष्ट अर्थ के प्रतिकूल अर्थ का बोधक हो ।
['तात्पर्य' का स्वरूप विवेचन तथा 'शाब्दबोध' में उसकी हेतुता ]
'एतद्वाक्यं पदं वा एतद् अर्थबोधायोच्चारणीयम्' इति ईश्वरेच्छा 'तात्पर्यम्' । अत एव सति 'तात्पर्ये' "सर्वे
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