Book Title: Vyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Author(s): Nagesh Bhatt, Kapildev Shastri
Publisher: Kurukshetra Vishvavidyalay Prakashan
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लकारार्थ-निर्णय
२६७
'शक्त' का अभिप्राय है वाचक शब्द अथवा पद, जिसमें वाचकता शक्ति रहती है । उस 'शक्त' (पद) के असाधारण 'धर्म' को शक्तता कहा जाता है। यह शक्ता पदों की वर्णनुपूर्वी अथवा वर्गों के पौर्वापर्य में रहती है इसलिये वर्णानुपूर्वी का धर्म ही 'शक्ततावच्छेदक' कहा जाता है। उदाहरण के लिए घट शब्द की दृष्टि से शक्ततावच्छेदक धर्म है 'धटशब्दत्व' अर्थात् घ् +अ++ में रहने वाली जाति । इसी प्रकार 'लकार' का 'शक्ततावक्छेदक' है 'लत्व' ।
यहाँ यह पूछा जा सकता है कि 'भवति' आदि प्रयोगों में जहां लकार दिखाई नहीं देता, केवल 'लकारों' के स्थान पर आने वाले 'आदेश' ('तिब्' आदि) ही दिखाई देते हैं, 'कृति' (यत्न) अर्थ का बोध नहीं होना चाहिये क्योंकि नैयायिकों के अनुसार 'तिब्' आदि 'प्रादेश' तो 'कृति' के वाचक हैं ही नहीं ?
इस प्राशका के उत्तर में नैयायिक का यह कहना है कि 'भवति' इत्यादि प्रयोगों में 'यादेश' 'तिब्' आदि अपने 'स्थानी लकार' का स्मरण कराते हैं और इस रूप में उन स्मृत 'लकारों' से ही अर्थ का बोध होता है। इस तरह इन में भी 'लकार' ही अर्थ के वाचक हैं, 'तिब' आदि तो केवल उनके स्मारक मात्र हैं।
प्रादेशेषु बहुषु शक्ति-कल्पने गौरवात्-- 'लकारों' को ही 'कृति' रूप अर्थ का वाचक मानने का कारण यह है कि, 'स्थानी'-(लकारों) में 'लत्व जाति' के एक होने के कारण, 'लकारों' की वाचकता के पक्ष में एक को वाचक मानने से काम चल जाता है। परन्तु यदि, वैयाकरणों के मत के अनुसार, 'आदेशों' को वाचक माना गया तो उनके अनेक होने के कारण अनेक प्रत्ययों को वाचक मानना होगा जिसमें अनावश्यक गौरव होगा।
तदस्मरणे च शक्तिभ्रमादेव अन्वयधीः--नैयायिकों के मत में यह प्रश्न हो सकता है कि जो सामान्य जन 'स्थानी' तथा 'आदेश' प्रादि की कल्पना से अपरिचित हैं उन्हें कैसे अर्थ का बोध होता है। वे तो केवल 'तिब्' आदि 'आदेशों को ही सुनते हैं, 'स्थानी लकार' का स्मरण या ज्ञान उन्हें होता ही नहीं। इस स्थिति में उन्हें अर्थज्ञान कैसे होता है।
इसका उत्तर यह दिया गया कि इन सामान्य श्रोताओं को, 'लकार' का स्मरण तो नहीं होता परन्तु उन्हें, श्रू यमाण 'तिब्' आदि में वाचकता 'शक्ति' विद्यमान है इस प्रकार का, भ्रम हो जाता है । इस भ्रम के कारण ही उन्हें 'तिब' आदि से अर्थ का बोध होता है । नैयायिकों के 'शक्तिभ्रम' की चर्चा ऊपर भी हो चुकी है ।
'चैत्रो गन्ता', 'गतो ग्राम:'-- नैयायिक 'लकार' का अर्थ 'कृति' (यत्न) मानते हैं। इसलिए उन्हें इस प्रश्न का उत्तर देना होगा कि क्यों 'चैत्रो गन्ता' (जाने वाला चैत्र) तथा 'गतो ग्रामः' (गया हुआ गाँव) इन प्रयोगों में क्रमशः 'लकार'स्थानीय तृच' तथा 'क्त' ये 'कृत' प्रत्यय क्रमशः ‘कर्ता और 'कर्म' को कहते हैं, उन्हें तो केवल 'यत्न' का वाचक होना चाहिये था। इसी प्रश्न का उत्तर नैयायिकों की दृष्टि से यहाँ दिया गया है।
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