Book Title: Vyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Author(s): Nagesh Bhatt, Kapildev Shastri
Publisher: Kurukshetra Vishvavidyalay Prakashan

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Page 432
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कारक-निरूपण ३७१ इस रूप में यह स्पष्ट है कि नागेश भटट ने लघुमंजूषा, शब्देन्दुशेखर तथा महाभाष्य की उद्द्योत टीका में 'कटे प्रास्ते' जैसे प्रयोगों को 'प्रौपश्लेषिक' अधिकरण का उदाहरण माना है। परन्तु यहाँ परमल धुमंजूषा में उन्हीं प्रयोगों को वे विषय सप्तमी का उदाहरण क्यों मान बैठे ? --यह बात समझ में नहीं पाती। वैषियक :-'अभिव्यापक' तथा 'प्रौपश्लेषिक' प्राधारों से भिन्न अाधार को 'वैषयिक' अधिकरण माना गया है । 'अभिव्यापक' आधार में प्राधेय 'समवाय' सम्बन्ध से रहता है तथा 'औपश्लेषिक' आधार में प्राधेय, पूर्वोक्त विवेचन के अनुसार, या तो 'सामीप्य' सम्बन्ध से रहता है प्राथवा 'संयोग' सम्बन्ध से रहता है। इसलिये इन तीनों सम्बन्धों से भिन्न 'विषयता' सम्बन्ध से प्राधेय जब अाधार में रहता है तो उस आधार को 'वैषयिक' अधिकरण माना जाता है। 'विषयाद् आगतम् वैषयिकम्', अर्थात् 'विषयता' सम्बन्ध से जब किसी को आधार माना जाता है तब वहाँ 'वैषयिक' अधिकरण होता है। वैयाकरणसिद्धान्तलघुमंजूषा में 'वैषयिक' अधिकरण की परिभाषा करते हुए नागेश ने कहा है :- "अप्राप्ति-पूर्वक-प्राप्तिरूप-संयोगः", अर्थात् जहाँ प्राप्ति न होते हुए भी प्राप्तिरूप संयोग की बात कही जाय वह 'वैषयिक' अधिक रण होता है। जैसे - 'खे शकुनयः' (आकाश में पक्षियाँ हैं) । इस प्रयोग में आकाश के अवयव वास्तविक न होकर कल्पित हैं । अत: अवयवों के साथ पक्षियों का सम्बन्ध भी कल्पित ही है। द्र० -- "खे शकुनयः' इत्यादी प्रकाश-कल्पित-देश-सम्बन्धाद् वैषयिकत्वम्' (महा० उद्द्योत टीका ६.१.७२) । इसी प्रकार 'मोक्षे इच्छा अस्ति' इस प्रयोग में इच्छा का मोक्ष विषय है। या दूसरे शब्दों में 'क'-भूत इच्छा में विद्यमान सत्तारूप क्रिया के प्रति 'मोक्ष' विषयता सम्बन्ध से आधार हैं । अतः यहाँ भी 'वैषयिक' अधिकरण है। यहाँ नागेशभटट ने 'वैषयिक' अधिकरण के जो 'कटे प्रास्ते', 'जले सन्ति मत्स्या :' उदाहरण दिये हैं वे वस्तुतः 'प्रौपश्लेषिक' अधिकरण के हैं---यह नागेश भटट् ने ही वैयाकरण सिद्धान्तलघुमंजूषा, शब्देन्दुशेखर तथा महाभाष्य की उद्योत टीका में स्वयं स्वीकार किया है, यह ऊपर दिखाया जा चुका है। अभिव्यापकातिरिक्त गौरणम् अधिकरणम् :-इन तीनों अधिकरणों में 'अभिव्यापक' अधिकरण ही प्रमुख या न्याय्य अधिकरण है क्योंकि उस में आवेय अपने आधार को, 'समवाय' सम्बन्ध से, सर्वात्मना अभिव्याप्त करता है। इसीलिये महाभाष्यकार पतंजलि ने बड़े स्पष्ट शब्दों में दो बार कहा --"अधिक रणम् आचार्यः किं न्याय्यं मन्यते ? यत्र कृत्स्न आधारात्मा व्याप्तो भवति"। (द्र०-महा० १.३.११ तथा १.४.४२) । 'प्रौपश्लेषिक' अधिक रण में यह व्याप्ति, 'समवाय' सम्बन्ध से न हो कर, कुछ अंशों की दृष्टि से 'संयोग' या 'सामीप्य' सम्बन्ध से ही होती है। अथवा यदि 'समवाय' सम्बन्ध से भी वहाँ व्याप्ति मानी जाय तो भी वह प्रमुख न हो कर गौण रूप से ही रहती है। इसी प्रकार 'वैषयिक' अधिकरण में केवल 'विष यता'सम्बन्ध से आधेय आधार में रहता है। अत: 'अभिव्यापक' अधिकरण की प्रमुखता तथा 'प्रौपश्लेषिक' और 'वैषयिक' अधिकरण की गौणता स्पष्ट है। For Private and Personal Use Only

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