Book Title: Vyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Author(s): Nagesh Bhatt, Kapildev Shastri
Publisher: Kurukshetra Vishvavidyalay Prakashan
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कारक-निरूपण
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बीच में बाग के 'व्यापार' का व्यवधान है। परन्तु बाण के 'व्यापार' तथा 'फल' की निष्पत्ति के बीच कोई किसी प्रकार का व्यवधान नहीं है।
कृत वाच्य के 'रामो बारणेन वालिनं हन्ति' इत्यादि प्रयोगों में "बारण के 'व्यापार' से उत्पन्न होने वाला जो, वालि के प्राणों का वियोगरूप, 'फल' उसके अनुकुल राम 'कर्ता' का 'व्यापार” इस प्रकार का बोध होता है। यहाँ पहले- 'बाण का 'व्यापार' प्रारण-वियोग रूप 'फल' का उत्पादक है" यह बोध होता है उसके बाद कि "बाण का 'व्यापार' 'कर्ता' राम के 'व्यापार से उत्पाद्य है" यह बोध होता है।
कम-वाच्य के 'रामेण बाणेन हतो वाली' प्रयोग में भी "बाणनिष्ठ व्यापार से उत्पन्न होने वाला जो, प्राण-वियोग रूप, 'फल' उसका आश्रय वाली है" यह बोध पहले होता है तथा "बाण-निष्ठ' व्यापार' 'कर्ता' राम के 'व्यापार' से उत्पाद्य है" यह बोध बाद में होता है। बाद में होने के कारण ही इस अन्वय अथवा बोध को 'पार्णिक' कहा जाता है (द्र० पूर्व पृष्ठ १८३) ।
['सम्प्रदान' कारक की परिभाषा)
'क्रियामात्र-कर्म-सम्बन्धाय क्रियायाम उद्देश्यं यत् कारक तत्त्वं सम्प्रदानत्वम्' । यथा-- 'ब्राह्मणाय गां ददाति' इत्यादौ दान-क्रिया-कर्मीभूत-गो-सम्बन्धाय ब्राह्मणो दानक्रियोद्देश्यः । गो-ब्राह्मरणयोः स्वस्वाभिभावः सम्बन्धः । 'चैत्रो मैत्राय वार्ताः' कथयति' इत्यत्र मैत्रवार्तयोर
ज्ञयज्ञातभावः सम्बन्धश्च । क्रियामात्र के 'कर्म' के साथ सम्बन्ध करने के लिये क्रिया में जो उद्देश्य (-भूत) 'कारक' उसका भाव 'सम्प्रदानता' है। जैसे --- 'ब्राह्मणाय गां ददाति' (ब्राह्मण के लिये गाय देता है) इत्यादि में दानरूप क्रिया के 'कर्म' गौ के साथ सम्बन्ध करने के लिये ब्राह्मण दान क्रिया का उद्देश्य है। गौ तथा ब्राह्मण में 'स्व-स्वाभि-भाव' सम्बन्ध है । 'चैत्रो मैत्राय वार्ताः कथयति' (चैत्र मैत्र के लिये बातें कहता है) यहां मैत्र (उद्देश्य) तथा वार्ता ('कर्म') में 'ज्ञेय-ज्ञात-भाव' सम्बन्ध है।
'सम्प्रदान' कारक की इस परिभाषा में 'क्रियामात्र' पद का अभिप्राय है सामान्यतया सभी क्रियायें। अत: जिस किसी भी क्रिया के 'कर्म' के साथ सम्बन्ध करने के लिये जिस 'कारक' को क्रिया के उद्देश्य के रूप में प्रस्तुत किया जायगा वह 'सम्प्रदान' कारक होगा। ऐसा कहना इसलिये प्रावश्यक था कि कुछ प्राचीन व्याख्याकार केवल दान क्रिया के 'कर्म' के साथ सम्बन्ध करने के लिये दान क्रिया के उद्देश्य के रूप में प्रस्तुत किये गये 'कारक' को 'सम्प्रदान' कारक मानते थे। इसीलिये यहाँ 'ब्राह्मणाय गां ददाति' १. ह-वार्ता ।
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