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(४७)
तथा जो दुःखरूप तिसमे रम्यसुखरूपताकी भावना करनी इसीको योगीजन अविद्या नाम अज्ञान कथन करते है. तिनो अशुचि देहादिकोमें जा पुनः शुचित्वादिभावना त्याग कर अशुचित्वादि दोषदृष्टि दृढ करनी; तिस दोषदृष्टि से देह, कुटुंब, कांतादि विषयोमे राग निवृत्त हो जाता है. जब राग निवृत्त होय जाव तब तिस विरक्त मनको परमानंदम निमग्न करे. और इस संसारम ज्ञानीजनाकी दो दृष्टि होती है, एक ज्ञानदृष्टि दूसरी व्यावहारिक दृष्टि.तिसमे ज्ञानदृष्टि 'अहं ब्रह्मास्मि यह एकरूपही है; व्यवहारवाली भेददृष्टिकी उपेक्षा करके वृत्ति परमार्थरूपमे विलय करे ॥ तदुक्तं ॥ कृष्णचंद्र भोगी भया, शुकदेव त्यागी इवा, जनक राजमे मग्न हुवा, वशिष्ट कर्म करनेवाला, वामदेव वामामे रमता रहा, नारदजी तो कलहमे कुशल, कर्कटी मांसाहारी भाहै इत्यादि स्वस्वस्वभावमे सर्व भिन्न भिन्न व्यवहारके करता भये है, परंतु ज्ञाननिष्टा 'अहं ब्रह्मास्मि' यह सर्वकी समान है; यांते स्वात्मदृष्टिसें प्रचलित क्षणमात्रभी नही होत ॥
१०॥ इस रीतिसें परमार्थदृष्टि परिपक्क करके भेदसे दृष्टि विमुख कर देह,कुटुंब,कांतादि विषयोंसे मन निरुद्ध करके स्वचित्तको सच्चिदानंदमे रोकना
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