Book Title: Vedant Prakaranam
Author(s): Vigyananand Pandit
Publisher: Sarasvati Chapkhanu

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Page 258
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ८७ ) - देहधारी सर्वको चेतनाधर्मवाला निश्चय करता जैसे पाचकपुरुष स्थालीपुलाक के एक तंडुलके पक्कतासे सर्व पक्कताको निश्चय करे है तैसे सिद्ध . वेताभी अपनी मुक्तिते सर्वको विमुक्तदेखता है केवल अपने को ही मुक्त नही देखता किंतु सर्वको मुक्त देखता है जो अपने को मुक्त जाने है और कोमुक्त नही जानता सो ब्रह्मवेनाभी नही न मुक्त है सो कहनेमात्र मुक्त है कोई अविद्याबंध मुक्त नदी जैसे विवेकी तरंगोंको जलरूप जानता है मुकुटको कनकमात्र जानता है तैसे जो आत्मज्ञानसे अपनेको सर्व ब्रह्ममात्र जानता है सो ब्रह्मवेत्ता अतदर्शी है अविद्याधसे विमुक्तभी है अद्वैतदर्शी सिद्धकी निद्राते उठे हुवे समान स्वप्नसृष्टिसम संसारको न देखता हूवा पूर्ण ब्रह्मविद्वरिष्ठकी लोकविधिकी रीति अनुसार कर्तव्य कर्म इत्यादिकों के अभाव होने से परार्थकमोंमे प्रवृत्ति बनती ही नही ॥ ९ ॥ शिष्य उवाच - कुर्वन्नपि न लिप्यते इस प्रवृत्तियोतक वाक्यकी क्या गति क्या व्यवस्था करोंगे ॥ श्रीगुरुरुवाच - स्वशरीरयात्रा मात्र परत्वविषे यह वाक्य है परार्ध वास्ते नदी || काहेते जो सर्वकर्मका संन्यासी है तथा सर्वदा ध्यान परायण होनेते तिसको परार्थ कर्म करनेका अवकाश कहां है || For Private and Personal Use Only

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