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( ५९ )
१९ ॥ तैसे अनंतशक्तिवाला इश्वर उपादानकारणोंसे विना ही केवल मायासे उत्पत्तिस्थितिनाश करे है | १६ | स्वयं महेश्वर मायासें उपास्य उपासक, गुरु शिष्य, स्वामि दासरूप क्रमसे रचकर क्रीडा करे है | १७ | तिस अभिन्न ईश्वरमे भिन्न भावना से करते है जैसे यह राहुका शिर है यह आकाशका छिद्र है यह मेरा आत्मा है यह प्रतिमा का स्वरूप है इस कल्पनाके समान भेद कल्पना जाननी । १८ । जैसे एक ही मनुष्य पिताका पुत्र बनता हूवा पुत्रका स्वयं पिता कहावता है जैसे एकही नर विषे पुत्र पिता नाना नामकी रचना है तैसे एक ही महेश्वर नानास्वरूप नाना नामवाला है ॥ १९ ॥
॥ यह जीव जो है सो ईश्वरका टुकडा नही न कार्य ही है किंतु " तत्सृष्ट्वा तदेवानुप्राविशत् " इस श्रुतिवाक्य से स्वमाया करके स्वयं सर्व मूर्तियों विषे विराजमान भया है सोई माताके स्तनोमे दुग्ध रच कर बालक रूप से पान करे है ||२०|| बिना ही संस्कारोंसें जो दुराग्रहसें संस्कार मानोगे तो एकस्थानमें शयन करता हूवा दूसरे नगरमे अपनेको स्वभावस्थामे चलता देखता है तबमै पूर्वस्थानमे सोया हूं एसे संस्कार क्यों नहीं स्फुरण होते जब प्रतिदिन के संस्कार प्रतिदिन नाश पावते है :
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