Book Title: Vedant Prakaranam
Author(s): Vigyananand Pandit
Publisher: Sarasvati Chapkhanu
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अथ श्री विज्ञानकमलाकराख्यं वेदान्तप्रकरणम्, ब्रह्मनिष्ठ-पण्डित-श्रीस्वामि विज्ञानानन्दाख्येन विरचितम् । For Private and Personal Use Only Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 20 अथ श्री विज्ञानकमलाकराख्यं वेदान्तप्रकरणम्. ब्रह्मनिष्ठ - पण्डित - श्रीस्वामि विज्ञानानन्दाख्येन. विरचितम् । • संवत् १९७२ शकाब्दाः १८३७ For Private and Personal Use Only श्री " सरस्वती" छापखानुं - भावनगर. SEAS Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir MACAA 6666666 3606 C 066060yOUSE LOON ॥श्रीनाथ गिरिवरधारिणे नमः॥ DESESE Mooyeyeoneseneononyoneryoneeronorroresooyoycommeyeryoneroyercocycoomorrore 88883838 REPE3368GRESERS soomyoporosconomeremeGyayampresenceacococcerencoreocccccceeorge Sataste ote ote ote ote ote ote ote ote ote ote ote ote ote ote ote ote ote ote ote ote ote ote ote ote ote ote ote ote ote ote ote ote otester SCE ॥ शिखरिणी छंद.॥ क्वचित्कृष्णः स्वामी प्रवदति महावाक्यममलं क्वचिद्भूता भोगी युवतिगणयोगी यदुपतिः ।। क्वचित्क्रोधीभूत्वा प्रहरति खलं कंसकुमति प्रमोश्चयं क्रीडा भवति सुखदा बालकसमा ॥ AOCAL မ မ မ ခံ For Private and Personal Use Only Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - प्रस्तावना (उपोद्घात) धियोयोनःप्रचोदयात् ॥ अर्थः जो परमात्मा हम सर्व के बुद्धियोको प्रेरना करे है तिस परमात्मा करके प्रेरित भयीजा हमारी बुद्धि तिस बुद्धि करके मुमुक्षुयो के अपरोक्षज्ञानार्थ तथा संस्कृतिमे वेदांत संबंधि संभाषणार्थ यह विज्ञान कमलाकर नामा ग्रंथ निर्माण भया है जिसमे षट् शास्त्रोंका संक्षेपसे वर्णन तथा अपरोक्ष ज्ञानोपयोगी अष्टावक्रादिकों के प्रश्नोनर दिखाय ग्रंथ समाप्त कीया है सो अंतमे सूचीपत्र द्वारा 'पचीस' कमलोंमे प्रसिद्ध कीया है तिस ग्रंथकी लोकमे प्रसिद्धिं वास्ते निष्काम प्रेरनासे जिनधर्मानुरागी धन द्वारा मुद्रणालयमे मुद्रत करने वास्ते अगाउसे ग्राहक हुवा है तिन महाशयोका नाम. रु. १३५) शेठि नारायणदास देवीदास महिता ठे० सम्परा. ९०) श्री महंत लक्ष्मणगिरि ठि० मोटा गोपनाथ. ५०) रा. रा. छगनलाल घेलामाई डेप्युटी आ. पो. एजंट गोधरा. २०) रा. रा. लक्ष्मीशंकर ठाकरसी पंड्या जवेरी ठि० महुवा. १५) रा. रा. बछराज नगरशेठ ठि० महुवा. १५) शेठि माधवजी दलपतराम ठि० जांजमेर. ५) श्री महंत गोगाराम ठि० पीपावाव. १०) दुर्लभ परशोतम तथा गोरधरभाइ ठि० महुवा. For Private and Personal Use Only Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir शुद्धिपत्र, पत्रांक. लींटी. अशुद्धिः शुद्धिः | पत्रांक. लींटी. अशुद्धि. शुद्धि. ४ १० तत्प्राप्यं तत्माप्य १२ १८ रज रज्जारेवे ३१ २२ वतती बनती। १३ विरोधा विरोधी ३८ १३ सा सः १४ ६ भववि भवति आगे सर्वत्र समाधि स्त्रीलिं ६ लोभदि लोभादि गको पुलिंग जानो. १५९ है दो येदो ५० १८ प्रवृय प्रवृत्त्य ३४४ स्वस्य त्वस्य ५३ १९ जाविश्व जोविश्व ८ व्यामा व्योमा ९ वृया वृत्त्या १३ खंडिति खंडित १७ पति पतिने ९ जाग्रतमे प्रतिस्वममे १९ भाक्तेति भोक्तेति ८ गतानक गतानेक १३ पदार्थ पदार्था १४ वर्णा वर्णो ९ विषय विषयो द्व विज्ञानकांडकी शुद्धी. १० संबंधवान् संबं. ६ रनेनाहो रनेनाधवंतो धितेनाहो २० दिवेका दिकांके २ मध्व मध्य २१ संसार संसारकी १५ रऽस्य रेऽस्य ८८ १४ कांक्षी कांक्षा ५ १८ उलूल उलूक ९२ २२ ष्यति ष्यसि १७ अज्ञान अज्ञानी ९४ . १३ तेषुरु तेष्वेक ६ आशा आज्ञा अनिर्वचनीय कांडस्य शुद्धः १० ज्ञानाज्ञन ज्ञानाज्ञाना ९ १३ सूपहै रूपहै १७ भागी भोगी १० १ तत्वत्वा त्वत्वाक्य १२ इसका खंडन कर्ते १० १८ शर्ति शक्ति है अर्थात् ११ ७ अगकर अंगीकार । ६८ १४ रकजीव रेकनी EEEEEEEEEEEEEEEEFENCE REEEEEEEEEEEEEEEEEEEEE * * * * * For Private and Personal Use Only Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥ ॐ श्रीगणेशाय नमोनमः ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ ॥अथ श्रीविज्ञानकमलाकरनामकोऽयं ग्रंथः प्रारभ्यते॥ ॐ ॥ ॐ प्रथमकमले मंगलपूर्वकभूमिकाकथनम् ॥ * ॥शार्दूलविक्रीडितम् छंद ।। वंदे श्री कमलापति शिवमुमां वाणीमजं निर्गुणं, यस्याज्ञानवशाद्विभाति सकलं स्वप्ने यथा संकटम् । यस्य ज्ञानवशान्न भाति निखिलं शून्ये यथा पंकजं, तं वंदे मम मुक्तये वरगुरुं विज्ञानसौख्यप्रदम् ॥१ ॥शिखरिणी छंद ॥ गुणातीतोऽभीतो हरति निजबोधेन निखिलं, रमानाथो रामो दशवदनहंता विलसतु। तथा शंभूः शूली जयतु पुरहर्ता त्रिनयनो, मुरारिः कंसारिः कमलकरकृष्णो विजयते ॥ २ ॐ श्री गणेशाय रमेशाय गौरीशाय नमोनमः अथ ग्रंथनिर्विघ्न समाप्ति वास्ते मंगलाचरण कर्तेहै श्री लक्ष्मीनारायण श्री गौरीशंकर श्री सरस्वती ब्रह्मा श्री निर्गुणब्रह्मको मै वंदना करता हूं जिस निर्गुणके अज्ञानसे संसार स्वप्न संकट समान भासता है पुनः तिस ब्रह्मक ज्ञानस यह जगत् ख पुष्प सम अह. श्य हो जाता है तिस ब्रह्मकू मै नमुंडं एवं मोक्षार्थ विज्ञानसौरव्य प्रदाता सद्गुरुजीकों वंदों हुं पुनः द्वैतारि रावणारि त्रिपुरारि कंसारिको प्रणमो हुँ । For Private and Personal Use Only Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (४) ॥ ब्रह्मध्याने रागोत्पादनायोदालकप्रार्थनां शृणुत॥ कदाऽहं त्यक्तमनने पदे परमपावने चिरं विश्रांतिमेष्यामि मेरुशृंग इवांबुदः ॥१॥ इदं कृत्वेदमप्यन्यत्कर्तव्यमिति कल्पनाम् कदांतर्विहासष्यामि पदविश्रांतया धिया ॥२॥ अंतः समः समाकारः सौम्यः सर्वार्थनिस्पृहः ॥ कदोपशममेष्यामि मंथमुक्तामृताब्धिवत् ॥३॥ कदा विकल्पजालं मे न लगिष्यति चेतसि ॥ स्थितमप्युज्झितासंगं पयः पद्मदले यथा ॥ ४ ॥ किं तत्प्राप्यं प्रधानं स्यायद्विश्रांतो न शोच्यते यत्प्राप्य जन्मना नूयः संबंधो नोपजायते ॥ ५॥ सबाह्याभ्यांतरं सर्व शांतकल्पनया धिया। पश्यश्चिन्मात्रमखिलं भावयिष्याम्यहं कदा ॥६॥ इहितानीहितैर्मुक्तो हेयोपादेयवर्जितः। कदांतस्तोषमेष्यामि स्वप्रकाशपदे स्थितः ॥७॥ कदोपशांतमननो धरणीधरकंदरे ॥ समेष्यामि शिलासाम्यं निर्विकल्पसमाधिना ॥८॥ १॥ कश्चित्पडितमानी सन्स्वयं शास्त्राणि दृष्ट्वा. संशयाविष्टत्वात्सुखमप्राप्य समित्पाणिः सन्, ब्रह्मनिष्ठं वेदविशारदं सद्गुरुं साष्टांगप्रणामपूर्वक सविनयवाक्यमब्रवीत्, “भोः स्वामिन् सर्वशास्त्रेषु मोक्षप्रदं किं शास्त्रं मया विनिश्चित्याश्रयणीयम् । For Private and Personal Use Only Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir निरंशध्यानविश्रांतेर्मूकस्य मम मूनि ॥ कदा तार्यं करिष्यंति कुलायं वनघूर्णकाः ॥१॥ न वरमाकुलशास्त्रविचारणं न च वरं परकार्य विवेचनं ॥ न वरमयकथाक्रमवर्णनं स्थितिमुपैति हि यत्र सतां मनः ॥२॥ न वरमेकमहीतलराजता न च वरं विबुधामररूपता। न च वरं धरणीतलनागता स्थितिमुपैतिहि यत्र सतां मनः ३॥ विगतसर्वसमीहितकौतुकः समुपशांतहिताहित कल्पनः ॥ प्रकृतिसंव्यवहारसमाशयो भवति मुक्त मना पुरुषोत्तमः ॥४॥ आत्मानदी संयमतोयपूर्णा सत्यावहा धर्म तटा दयोर्मी ॥ तत्राभिषेकं कुरु पांडुपुत्र न शुद्धयते वारिणश्चांतरात्मा ॥ ५॥ आनंदमूलगुणपल्लवतत्वशाखं वेदांतपुष्पफलमोक्ष रसाद्धि पूर्णम् ॥ चतोविहंग हरितुगतलं विहाय संसारशुष्कविटपे वद किं रतोऽसि ॥६॥ __ १ कोइ पंडित अपने बुद्धिसे शास्त्रोंका अवलो. कन करके संशयाविष्ट होनेसे दुःखी हुवा हाथमे भेट लेकर ब्रह्मवित् वेदवक्ता सद्गुरुको साष्टांगः प्रणाम करके प्रार्थना करता भया ' हेनाथ सर्वशास्त्रोमें मोक्षप्रद शास्त्र कौन है जिसकामै आश्रयकरों For Private and Personal Use Only Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥ श्रीगुरुरुवाच, "भो विद्वन् प्रसिद्धं हि लोके यच्चतुर्विधपुरुषार्थेषु धर्मार्थकाममोक्षाख्येषु पारंपर्येण मोक्षस्योत्तमत्वमिति। तस्योत्पादकं हि वेदांतप्रतिपाचं ब्रह्मज्ञानमवश्यमेवाश्रयणीयं ब्रह्मात्मैकत्वप्रतिपादनात् , 'तमेवविदित्वातिमृत्युमेति ना न्यः पंथाविद्यतेऽनाय' इति श्रुतेश्च ॥ ॥ अन्यशास्त्राणि तु द्वैतप्रतिपादकत्वात् , द्वितीयाद्वै भयं भवति' इति श्रुतेश्च भयप्रदत्वेन त्वया तृणवत्त्याज्यान्येव । ततश्च सर्वशास्त्राणां मंडनं वेदांतेन खंडनं च दर्शयिष्यामः ॥ इति प्रथमकमलं मंगलग्रंथभूमिकात्मकं समाप्तम् १७॥अथ द्वितीकमले सांख्यमतमंडनं खंडनंच॥ ____अस्य सांख्यस्य मते प्रकृतिविकृतिशून्योऽ संगः पुरुषविशेषश्चैकंतत्त्वमस्तीति स्वीकृतम् । सत्त्वरजस्तमोगुणानां साम्यावस्था प्रधानं तु द्वितीयं तत्त्वमस्ति तत्प्रधानं प्रकृतिरेव न विकृतिरिति। महत्तत्त्वमहंकारः पंचतन्मात्रा ति सप्त प्रकृतिविकृत. यश्च ॥ पंचीकृतपंचमहाभूतं दशेंद्रियं मनश्चैकमिति षोडशा विकृतिरूपा भवंति ॥ For Private and Personal Use Only Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (७) उतरं ॥ ' हे सुजन ! लोकप्रसिद्ध धर्मार्थकाममोक्षरूप चतुष्टयपुरुषार्थोमें मोक्ष ही परंपरासे उत्तम है. तिसमोक्षका उत्पादक वेदांत है तिसवेदांत करके प्रतिपाद्य ब्रह्मज्ञान तुमने अवश्य आश्रयकरणा चाहीये. जो ज्ञान ब्रह्मात्माकी एकता प्रतिपादन करे है तथा श्रुतिभी एसैही कहेहै. एकब्रह्मको जानकरके मृत्युसे अभय होताहै दुसरा कोईभी मोक्षका मार्ग नही. . ॥ और दूसरे शास्त्र केतका प्रतिपादक होनेते और द्वैतदृष्टि भयका कारण है एसे श्रुतिवाक्यते भी दूसरे शास्त्र तृणसमान त्याग करणा. इस कारण ते मै तुमको सर्वशास्त्रोका प्रतिपादन विस्तारसे कहता हूं. ॥इति प्रथम कमलम्. मंगलग्रंथ भूमिका रूपं अलं.॥ १॥७॥ अथ द्वितीयकमलमे सांख्यमत खंडन ॥६॥ इस सांख्यमतमे कारणकार्यभावसे रहित अ. संग पुरुषविशेष एकरूप सो एकतत्त्व है. और सत्वरजस्तमो गुणोंके समान विभागवाली जो प्र. धान है सो दूसरा तत्त्व है. सो कैसा प्रधान है जो कारणरूप है कार्यरूप नही है. महत्तत्त्वअहंकार पंचतन्मात्रा ये सप्त कारण तथा कार्यरूप है. एसे सांख्यवादी माने है. पंचीकृत पंचमहाभूत, दश इंद्रिय मन ये षोडश कार्यरूप है कारण नही. For Private and Personal Use Only Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (८) २॥ एवं सांख्यमते पंचविंशति तत्त्वानि संति। सांख्यमते तु ईश्वर स्यांगीकारो नास्ति, प्रधानमेब जगत्कारणमस्ति । तदेव प्रधानं पुरुषस्य भोगार्थ विषयाकारेण परिणमते, पुरुषस्य मोक्षार्थं च बुद्धौ विवेकरूपेणापि तदेव प्रधानं परिणमते ॥ ३॥ तथा सति वस्तुतस्तु असंगपुरुषे वंधमोक्षौ द्वौ न स्तः ॥ तथापि असंगोऽहमित्यविवेकादात्मनि बुद्धिधर्मान् ज्ञानसुखदुःखरागद्वेषादीन् मत्वा बंधं प्राप्नोति कर्तृत्वादिकं चाप्नोति। यदा तु रागद्वेषयुक्ताया बुद्धे रसंगोऽस्मीति यस्य विवेको जायते तस्यैव मुक्तिर्भवति न त्वन्यस्य तस्मादेव सांख्यमते नानाssस्मानो भवंति, न त्वेकात्मा. इति सांख्यस्य मतम्। ४॥ तत्तु सांख्यस्य मतं समीचीनं न भवति, वेद. विरुद्धत्वात् । वेदे हि, ' एकमेवाद्वितीयं ब्रह्म' इति 'हितीयादै भयं भवति' इति च प्रतिपादितं । किंच बुद्धौ नानात्वं बंधमोक्षी कर्तृत्वभोक्तृत्वमपि मत्वा पुरुषस्यासंगत्वं च मत्वाऽऽत्मनि नानात्वकथनस्य निफलत्वाच्च । तस्मात्सांख्यभतमनंगीकार्यमस्तीति ॥ [इति द्वितीयकमलं समाप्तं ] For Private and Personal Use Only Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २॥ इस रीतिसे सांख्यमतमे संपूर्ण पंचविशंति तत्व है. सांख्यमतमे ईश्वरको नहीं मानते है. किंतु प्रधान ही पुरुषके भोगार्थ विषयाकार परिणाम पावे है और पुरुषके मोक्षार्थभी प्रधानही बुद्धिमे विवेकरूपसें परिणाम पावे है. __ ३ ॥ वास्तवसे असंगपुरुषमे बंधमोक्ष दोनो नही. तथापि में असग है इस ज्ञानसे विना अपन स्वरूपमे बुद्धि के धर्म ज्ञान,सुखदुःख,रागद्वेषादिकोंक मानकरके बंधकू प्राप्त होवे है तथा कर्तृत्वभोक्तृत्वकों प्राप्त होते है और जब अपनेकू रागद्वेषवाली बुद्धिसे मै असंग हूं ऐसा ज्ञान जिसकों होवे तिसकीही मुक्ति होव है दूसरेकी नहि. तिस कारणते ही सांख्यमतमे नाना आत्मा मानेहै.॥इतिसांख्यमतवर्णनं॥ ४॥सोसांख्यका मत समीचीन नहि, वेदविरोधी होनेसें. काहेते जो वेदमे 'एकमेवाद्वितीयं ब्रह्मेति' 'द्वितीयाद्वैजयं भवतीति'एसे एक ब्रह्म और तते भय कथन कीयाहे और बुद्धिमे नानापणा कर्तृत्व भोक्तत्व बंधमोक्ष मानकरके पुरुषको असंग मानकरके फिर आत्मा नाना है एसा मानना निष्फल है इस गतिस सांग्यमत अंगीकार करना योग्य नही है. ॥ इति द्वितीय कमल समाप्त ॥ For Private and Personal Use Only Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १ अथ तृतीयकमले न्यायमतमंडनं खंडनं च दर्शयिष्यामः ॐ ॥ अस्मिन् न्यायमते ईश्वर एको नित्यो व्यापकश्च संरव्यापारिमाणपृथक्त्वसंयोगविभागज्ञानेच्छाप्रयत्नान त्यष्टगुणवानेव भवति । तेष्वष्टगुणेषु ज्ञानेच्छाप्रयत्नानि तु नित्यान्येव संति शेषपंचगुणास्तु अनित्या एव भवति। न्यायमंते जीवस्तु नानारूप एव नित्यो व्यापकश्चेति ज्ञानगुणतश्चेतनःस्वतस्तुजडात्मक एव ज्ञानेच्छासुखदुःखद्वेषप्रयत्नधर्माधर्म संस्कारसंख्यापरिमाणपृथक्त्वसंयोगविभागेतिचतु दशगुणवानपि भवति । पृथ्वीजलाग्निवायूनां परमाणवो नित्या एव । आकाशः कालश्च दिशश्च मनश्चेति सर्वाण्यपि नित्यान्येव भवंति ॥ २॥ अधुना न्यायमते बंधवर्णनम् । देदे याऽऽत्मत्वभ्रांतिर्भवति यथा ब्राह्मणोऽहं क्षत्रियो ऽहं वैश्योऽहमिति तत एव सजातौ रागो विजाती वेषश्च भवति । ताभ्यां धर्माधर्मयोः प्रवृति भवति ततश्च शरीरप्राप्तिर्भवति तत एवाऽऽत्मनो दुःखादयो भवंति तस्मात् शरीरे याऽऽत्मन आत्मत्वबुद्धिः साऽऽत्मन एव संसारस्य कारणं भवति तदेवाऽऽत्मनो बंध इत्युच्यते ॥ इति बंधवर्णनम् ॥ For Private and Personal Use Only Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १ ॐ ॥अथ तृतीय कमलमे न्यायमत मंडन खंडन॥ ॐ इस न्यायमतमे ईश्वर एक है तथा नित्य है; व्या पक है; संख्या, परिमाण, प्रथक्त्व, संयोग, विभाग, ज्ञान, इच्छा, प्रयत्न इन अष्ट गुणवाला है.तिन अप्टगुणोंमे ज्ञान, इच्छा, प्रयत्न ये तीन गुण नित्य है, बाकी अनित्य है.इस न्यायमतमे जीव नाना है तथा नित्य है, व्यापक है, ज्ञानगुणसे चेतन होता है,स्वतः जड है; और ज्ञान, इच्छा, सुख, दुःख, द्वेष, प्रयत्न, धर्म, अधर्म, संस्कार, संख्या, परिमाण, प्रथक्त्व, संयोग, विभाग,इन चतुर्दश गुणवाला है.और न्यायमतम पृथ्वी, जल, अग्नि, वायुके परमाणु नित्य है; तथा आकाश,काल,दिशा, मन,ये सर्वभी नित्य है. २ ॥ अब न्यायमतमे बंध ऐस मान है. देहमें जा आत्मत्वबुद्धि है जैसे मै ब्राह्मण हूं मै क्षत्रियशूद्र हूं तिसकारणसे सजातीयमे राग विजातीयमे द्वेष होवे है;तिन रागद्वेषसें धर्माऽधर्ममे प्रवृत्ति होवे है; तिससे शरीरकी प्राप्ति होवे है, तिससे आत्माको दुःखादिक होते है. तिस कारणते जा शरीरमे आत्मत्वबुद्धि है सा आत्मत्वबुद्धि ही संसारका कारणहै, सोई आत्माकों बंध है. ॥ ॥ इति बंधवर्णनम् ॥ For Private and Personal Use Only Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (१२) ३ * ॥ अथ न्यायमते यथा मोक्ष उक्तस्तं दर्शयिष्यामः ॥ॐ॥ यदा तु देहादिभ्योऽसंगोऽस्मीति ज्ञानं यस्य जीवस्य भवति तस्यैव जीवस्य मोक्षो भवति। नान्य. स्य ॥ अत एव सांख्यमतस्येव नाना जीवा एव। तेषां मध्ये यस्य यदाऽऽत्मा देहाद्भिन्न इति ज्ञानेन देहभ्रांतिनश्यति ततो रागद्वेषादयोऽपि विनश्यति ततो धर्माधर्मयोः प्रवृतिनं भवति ततश्च शरीरप्राप्तेरवसर एव न मिलति भोगाच्च प्रारब्धकर्मणो विनाशो भवति तस्मात् शरीरं नेत्रं त्वक् रसना श्रोत्रं घ्राणं मनः षड्विषयाः षड्ज्ञानानि सुखं दुःखमित्येकविं. शतिदुःखानां विनाश एव मोक्षो भवति । ___४॥शरीरस्यापि दुःखहेतुत्वात् दुःखरूपत्वमुक्तं स्वगादिसुखमपि विनाशभयतः दुःखरूपमेव॥ श्रोत्रस्याकाशरूपत्वान्नित्यत्वं मनश्चापि नित्यं भवति तयोविनाशो यद्यपि न संभवति तथापि मोक्षकाले करणगोलकस्य त्वगिद्रियस्य च विनाशात्सुषुप्तिवत्संयोगानावात् दुःखहेतू ते श्रोत्रमनसी न भवतः। For Private and Personal Use Only Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३॥ अब न्यायमतमे मोक्षका वर्णन इस प्रकार करते है सो विस्तारपूर्वक दिखाता हं.तं श्रवण कर. इन देहादिकोंते मै भिन्न हूं एसा ज्ञान जिस जीवको होवे है तिसी जीवकी मुक्ति होती है जिसको एसा ज्ञान नहीं तिसकी मुक्ति नहीं होती; इस कारण सांख्यमत समान न्यायमतमे भी नाना जीव मानेहै; तिन नाना जीवोंमे जब जिस जीवकी मै देहसे भिन्न हूं इस ज्ञानसें देहभ्रांति नाश होवे है तब तिसके रा. गद्वेष मिटजातें है, तिससे धर्माधर्ममे प्रवृत्तिभी नही होती, तिसते फिर शरीरकी प्राप्ति नही होती. लोगसें प्रारब्ध कर्मोका क्षय होताहै तिस कारणते शरीर, त्वचा, नेत्र, रसना, श्रोत्र, घाण, मन, षट् विषयों, षट् ज्ञान,सुख दुःख इन एकविंशति दुःखोंका नाश होता है; यही न्यायमतमे मोक्ष है. ४॥ शरीरको दुःखका कारण होनेते दुःखरूप मान्या है, स्वर्गादि सुखभी नाशके भयते दुःखरूपही है. श्रोत्र इंद्रियको आकाशरूप होनेते नित्यमानते है, और मनकोंभी नित्य मानते है, तिन दोनो श्रोत्र मनका नाश यद्यपि नही होता तथापि मोक्षकालमे करणगोलकका, और त्वचाइंद्रियका विनाश होनेते सुषुप्तिसमान संयोगके अभावते ते श्रोत्र, मन, दोनो दुःखका कारण नही होते. For Private and Personal Use Only Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५ ॥ इदमेव न्यायानुसारेण मोक्षस्य स्वरूपं प्रतिपादितम् ॥ * ॥ तेषां मतमपि समीचीनं न नवति तथाहि त्वं शृणु ॥ ईश्वरस्य नित्येच्छानित्यप्रयत्नयोश्चांगीकारे प्रलयो न स्यान्न वा कस्यचिन्मुक्तिरपि स्यात्। किं च आत्मनो नानत्वस्य व्यापकत्वस्य च प्रतिपादनादपि तन्मतं विरसमेव नाति। ६॥ तथा हि यदि व्यापका नाना चात्मानो जवेयुस्तर्हि नानाऽऽत्मनां सर्वशरीरेषु व्यापकत्वादे. वांतर्बहिर्विजागो न स्यादिमानि स्थूलवस्तूनि तव संति वा मम संति सूक्ष्मवस्तूनि मम संत्यस्य न संतीति। तथाऽऽत्मनो नित्यत्वकथनादपि पूर्वकर्माण्यपि कस्य संति कस्य न संतीति निर्णयो ब्रह्मणापि कर्तुं न शक्यते। एवं यदाऽस्य मते कश्चिन्मुक्तो नवतदा साधनं विनैव सर्वस्य मुक्तिरपि नवितव्या । तथैव यदा काश्चतु दुष्कृतेन नरकं व्रजति तदा तेन सह सर्वेषां नरकपतनमपि दुर्वारमेव जविष्यति। तस्मादेव तन्मतमसारमेव ज्ञातव्यं । For Private and Personal Use Only Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( १५ ) ५ ॥ यह न्यायमतानुसारी मोक्षका वर्णन कीया है. || अब खंडन करते है सो श्रवण करो || ॥ तिनका मतभी समीचीन नही, सो प्रकार यह है | जब तिनोके मतमे ईश्वरकी इच्छा, प्रयन दोनो नित्य मान्या है तब तिनोंके मतमे न प्रलय और न किसीजी जीवका मोक्ष होना चाहीये. " ६ ॥ और आत्मा नाना है व्यापकभी है जब एसेमान्या है तब स्थूलसूक्ष्मपदार्थों का बाहर भीतर जेद नही होना चाहीये, जो यह वस्तु इसकी है यह इसकी नही. तथा आत्मा नित्य होनेते पूर्वसंचित कर्मोका भेदजी नही होना चाहीये, जो कौनकर्म किसका है कौन किसका नही यह निर्णय ब्रह्मा से भी होना कठिन है. और इस मतमे जबकिसीकी मुक्ति होवे तब तिसके साथ साधन विना सर्वकी मुक्ति होनी चाहीये तथा किसी दुष्कृतक से एकका नरकपतन होवे तो तिसके साथ स वैका पतन होना चाहीये क्यों जो आत्माको नाना व्यापक मानने से सर्वका मोक्षमे तथा नरकप्रदाता कर्मों में समान संयोग है. For Private and Personal Use Only Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( १६ ) ७ ॥ कश्चित्तु नवीन नैयायिक एवं वदति, आत्मानो व्यापका नवै जवंति किंतु शरीरमात्रा एवात्मानः संति । तदपि न संजवति न्यूनाधिकशरीरेषु लघुदीर्घपरिणामित्वेन विकारित्वात् घटवनाशवत्वाच्चा यदि च शरीरमात्रमेव ब्रह्म भवति ह्रस्वं वृद्धिं च नानोतीति स्वीकारे केन शरीरेण तुल्यं जवति न्यूना - धिकशरीरे ब्रह्मणः कीदृशी गतिर्भवति तदुत्तरे नैयायिकस्य विना मूकनांव द्वितीया गतिरेव न दृश्यते । ॥ इति न्यायमतस्य तृतीयकमलं समाप्तं ॥ ॥ ॥ अथ चतुर्थकमले मीमांसकमतमंडनं खंडनं च प्रतिपाद्यते ॥ ॥ १ ॥ अस्य मीमांसकस्य मते कर्म द्विविधं भवति, एकं निषिद्धं द्वितीयं विहितं चेति । १तदेव निषिद्धं कर्म यद्वे देन पुरुषस्य निवृत्यर्थं प्रतिपादितं यथा 'समूलो ह वै शुष्यति योऽनृतं संभाषते । यथा वा 'नव्यादसदप्रियम् इति श्रुतिस्मृतिप्रमाणादसत्संज्ञापणस्य कर्मणः निषिद्धत्वमिति ॥ For Private and Personal Use Only Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७॥ और नर्वान कोई नैयायिक आत्मा व्यापक नही एसे माने है सो मतभी ठीक नही. काहेते जो न्यूनाधिक शरीरमे न्यून अधिक होनेते, विकारी होनेते आत्मा घटवत् नाश होवेगा और शरीरमात्र माने लघुदीर्घ होना नहीं माने तो कौन शरीरतुल्य मानेगे और जब कर्मवशते लघुदीर्घशरीरकी प्राप्ति होव तब आत्माकी कैसी गती होवेगी इस उत्तरमे मौनबिना नैयायकोकी दुसरी कौन गती होवेगी. ॥इति श्री तृतीयकमलमे न्यायमत समाप्त भया.॥ * ॥ अथ चतुर्थकमलम मीमांसामतमंडनग्लंडन ॥ * १ ॥ इस मीमांसकके मतविष विहित निषिद्ध भेदसे कर्म दो प्रकारका अंगीकार कीये है. तिन दोनोमे १ जो निषिद्ध कर्म है सो एकही है जो पुरुषके निवृत्ति बाम्ते कथन कीया है जैसे अ. प्रियवाक्य, असत्यवाणी न बोलनी चाहीय. जो असत्यसंभाषण कर है सो समूलनाशकोंप्राप्त होता है एसे श्रुति कहती है. For Private and Personal Use Only Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (१८) २ ॥ विहितं कर्म तु प्रायश्चित्तं काम्यं नित्यं नैमित्तिकं चेति भेदाच्चतुर्विधं भवति तत्क्रमशः प्रतिपाद्यते, सावधानमनसा शृणुविहितं प्रायश्चित्तं कर्म चासाधारणसाधारणभेदन द्विविधं । तयो मध्ये यदेकपापविनाशकं भवति तदसाधारणमस्ति यथाऽश्वमेधयज्ञो ब्रह्महत्यानाशको नान्यस्येति। साधारणप्रायश्चित्तं तु सर्वपापविनाशकं कर्म भवति यथा गंगास्नानादिकं परमेश्वरनामोच्चारणंचेत्येकम् २ विहितं काम्यकर्म तदेव भवति यत्कामनया कृतं स्यात् यथा स्वर्गकामोऽग्निहोत्रं जुहुयादिति। द्वितीयम् ३ विहितं नित्यकर्म तदेव भवति यत्तु प्रतिदिनं करणीयं यथा स्नानसंध्यादिकं, तदकरणे पापं भवति करणे फलं नास्तीति तृतीयं ४ विहितं नैमित्तिकं कर्म तदेव भवति यत्तु यथाकाले कर्तव्य भवति यथा श्राद्धे ग्रहणादौ कर्म क्रियते तस्यापिकरणे फलं नास्ति अकरणे तु प्रत्यवायो भवति । इति चतुर्थं विहितं कर्म विज्ञातव्यं । For Private and Personal Use Only Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (१९) २॥ और दूसरा जो विदितकर्म है सो प्रायश्चित्त, काम्य, नित्य, नैमित्तिकभेदसे चारप्रकारका है तिनोका क्रमसे वर्णन करते है. तिन चारोंमे १प्रायश्चित्त कर्म असाधारण साधारण भेदसे दो प्रकारका है. तिनमे एक पापनाशक-असाधारण प्रायश्चित्त है जैसे अश्वमेश्यज्ञ; एक ब्रह्महत्यानाशक है और सर्वपापनाशक साधारण प्रायश्चित्त है जैसे गंगास्नान तथा हरिद्रनामोच्चारण है. और चारोमे जो दूसरा विहितकर्म है सो काम्यकर्म है, जैसे स्वर्गकी कामनावाला अग्निमे हवन करे. और चारोंमे तीसरा नित्य विहित कर्म है जैसे स्नानसंध्यादिक जो शुभकर्म है तिन क. मौके न करणेसे पापहोवे है करनेसे फलनही होवे है. और सर्वदा कर्म करणीय है. और चौथा नैमित्तिक विहितकर्म है जैसे श्राद्धकर्म ग्रहणमे जो कर्म है तिनकेभी नही करनेसे पाप होवे है, तथा करनेसे फल नही होवे है. और यथासमय कर्म करने योग्य होवे है ते नैमित्तिक कर्म कहे है. For Private and Personal Use Only Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ( २० ) Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३ ॥ तथा सति यथा मीमांसकमते कर्मभिमुक्तिर्भवति तत्प्रकारमधुना सावधानमनसा शृणु । काम्यनिषिद्धे द्वे कर्मणी नैव कर्तव्ये ततः स्वर्गं नरकंचन गच्छति, नित्यं नैमित्तिकं च कर्म कर्तव्यमेव, तदकरणे यत्पापं भवति तत्पापं तयोः करणेन न भवति, इदमेव तयोः फलं न ततोऽधिकं फलमस्ति । यदि तु ज्ञातपापं भवेत्तदा तन्निवृत्यर्थमसाधारणं प्रायश्चित्तं कर्म कुर्यात् यत्तु संचितं पापं भवति अस्मिन् जन्मनि वाऽज्ञातपापं यदस्ति तन्निवृत्त्यर्थं तु साधारणं प्रायश्चित्तं गंगास्नानादिकं कर्म कुर्यात् ततस्तु सर्वपापानि विनश्यति तच्छास्त्रप्रसिद्धमेवेति ॥ ४ ॥ गंगास्नानादिकं कर्म तु न केवलं पापनाशकं किं तु सकामिनां स्वर्गप्रदमपि निष्कामिनां तु चित्तशुद्धिद्वारा मोक्षप्रदमेव भवति । तथा सति मुमुक्षोः साधारणप्रायश्चितेन कर्मणा चित्तशुद्धिद्वारा मोक्षो भवति । तस्य मुमुक्षोः संचितपुण्यपापाख्यकर्मणां ब्रह्मज्ञानिनः कर्मत्रदेव विनाशो भवति यद्वा मुमुक्षुर्योगीवदेककाले एकजन्मनि वा संचितकर्मणां फलं प्राप्य विमुच्यते । तस्मादेकजन्मना मुमुक्षु त्रिमुच्यते । For Private and Personal Use Only Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३॥ अब जैसे कर्मसे मोक्षमाने है सोभी तुम श्रवण करो. काम्यकर्म तथा निषिद्धकर्म न करना यांते स्वर्गको वा नरकको नही जावेगा; और नित्य, नैमित्तिक कर्म ये दोनो करने चाहिये, काहेते जो तिनोके न करनेसे जो पाप होवे है सो कम करनेसे होवेगा नही. यही नित्यनैमित्तिक कर्मों का फल जानना, तिसते अधिक फल नही. और जो ज्ञातपाप होवे तो असाधारण प्रायश्चित्तसे तिस पा. पकी निवृत्ति करनी चाहीये. और जो अज्ञात पाप होवे तथा संचित पाप है तिन सर्वकी निवृत्ति वास्ते साधारण प्रायश्चित्तकर्म करने चाहीये. तिसते सर्व पाप नाश होवे है. ४॥ और जो गंगास्नान, हरिनामोच्चारण, साधारण प्रायश्चित्तकर्म है ते पापनाश करके सकामीयोंको स्वर्गकीभी प्राप्ति करे है. तथा निष्कामीयाको चित्तकी शुद्धिद्वारा मोक्षकभिी प्राप्ति करे है. तिस मुमुक्षु निष्कामी पुरुषका संचितपुण्यकर्म ज्ञा. नीके कर्मसमान नाशकों प्राप्त होवे है. अथवा मुमुक्षु होनेते योगी समान एक जन्मविषे पुण्यकर्मका फलनोगकरके मुक्ति पाव है. यांते मुमुक्षु एकजन्म पावे है अधिक जन्म नही. For Private and Personal Use Only Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( २२ ) ५ ॥ यद्वा नित्यनैमित्तिककर्मसु यत्क्लेशो भवति तेन संचितपापानि विनश्यंति, शेषं पुण्यमात्रं यदस्ति तस्मादागामिजन्मनि केवलं सुखमनुभूय विमुच्यते यद्वा कामनाऽभावादेव संचितपुण्यं विनश्यति ततः स्वर्गं नरकं वाप्यगत्वा मुमुक्षुर्विमुक्तो भवति, शुभाशुभकर्मणोरभावात् ॥ ६ ॥ इत्येवं मीमांसकमतेन प्रदर्शितस्य मोक्षस्यासंभवः, 'ऋते ज्ञानान्न मुक्ति' रिति श्रुतिवचनविरोधात् । यदुक्तं नित्यनैमित्तिककर्मणोरकरणे यत्पापं भवति तत्पापं तेषां करणेन न भवति, इदमेव नित्यनैमित्तिककर्मणोः फलं न ततोऽधिकमिति तदपि मिथ्याप्रलापं न सत्यं तेषां वाक्यं, भाष्यकारवचनविरोधात् ॥ भाष्यकारेणोक्तं यदि नित्यनैमित्तिककर्मणोः फलं स्वर्गप्राप्तिं श्रुतिर्न वदेत्तह्यनर्थक्यमेव तयोः प्रसज्येत निष्फलत्वादितेि ॥ For Private and Personal Use Only Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (२३) ५॥ अथवा नित्यनैमित्तिक कर्म करनेमे जो क्लेश होवे है तिससे ही संचितपाप नाश होवे है, बाकी जे पुण्यसंचित है तिसते आगामी जन्मविषे केवल सुखभोग करके मुक्तिको प्राप्त होवे है. अथ. वा कामनाके अभावत संचितपुण्य नाश पावे है, यांते शुभाशुभकर्मोके अभाव होनेते स्वर्ग वा नरकको मुमुक्षु प्राप्त होवेगा नहीं किं तु मुक्तिको ही प्राप्त होवेगा. इस रीतिसे मीमांसक मोक्ष माने है. इति मोक्षवर्णनं. ६॥ दे शिष्य यह जो मीमांसकमतानुसारी मोक्ष तुमको कहा है सो वेदविरुद्ध होनेसे समीचीन नही. 'ऋते ज्ञानान्न मुक्तिः 'ज्ञानसें विना मुक्ति नही होती, इस श्रुतिवाक्यते विरोधी जो कर्मसे मुक्ति मानी है सो अंगीकार नही है. और जो कहा है नित्य, नैमित्तिक कर्मके नही करनेते जो पाप होवे है सो तिनोंके करनेसे होवे नही यही नित्य, नैमित्तिक कर्मोंका फल है तिसते अ. धिकफल नही, सोभी भाष्यकारके वचन साथ विरोधी होनेसे तिनोके वाक्य त्यागने योग्य है. For Private and Personal Use Only Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ( २४ ) Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७ ॥ किंच यदुक्तं तयोरकरणे पापं भवतीति तदप्युन्मत्तवाक्यवच्याज्यं भगवद्वचनविरोधात् । भगवता सर्वज्ञेनोक्तं 'नासतो विद्यते भाव इति । तस्मादभावरूपाकरणात् भावरूपस्य पापस्योत्पत्तेर स्वीका रात् । किं च यदुक्तं वासनाऽभावादेव संचितपुण्यकर्मणां फलं न भवति इत्येतद्वाक्यं कथं ग्राह्यं भवति । यतः पापकर्मणां फलं यद्दुःखं भवति तद्दुःखरूपफलं कस्यापि नो भवितव्यं पापकर्मणां फलं यद्दुःखं भवति तद्दुःखं भोक्तुं सर्वेषां कामनाया अभावात् ॥ For Private and Personal Use Only " ८ ॥ यथा कामनाऽभावा दुःखफलस्याऽभावो न भवति तथा कामनाऽभावमात्रेणापि पुण्यकर्मणां फलं यत्सुखं तदपि भोगमंतरेण न विनश्यति, ज्ञानाभावात् । अवश्यमेव भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभमिति प्रमाणाच्चेच्छ्राऽभावात्पुण्यं न विनश्यति Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org (२५) ७ ॥ और जो कहा है नित्यनैमित्तिक के न कर नेसे पाप होवे है. सो भगवानके वचनसाथ विरोधी होनेते तिनोंके वाक्य उन्मत्तके वाक्यसमान त्यागने योग्य है. सो भगवानका यह वाक्य है. ' नासतो विद्यते भावो इति अर्थ यह है जो अभावकी सत्ता नही होती इति. यांते नहीकरने रूप अभावते पापरूप भाव वस्तु कैसे उत्पन्न होवेगी ? यांते तिनोका कथन मिथ्या है. और जो कह्या वासनाके अभावते संचितपुण्यकर्म फल नही देवेगा सो कैसे जाननेमे आवे ? जो एसेही होवे तो दुःखप्रद जो पापकर्म तिनोका फल किसीकोभी नही होना चाहीये. पापकर्मों के फल जो दुःख तिनो भोगनेकी सर्वको कामना नही. " Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ८ ॥ यांते जैसे कामनाके अभाव होने पर भी पापकर्मका फल जो दुःख सो भोगना ही होवे है; तैसे वासनाके अभावमात्रसे पुण्यकर्म भी फल देनेसें विना नाश नही होते. जो दुराग्रह से नाश मानो तो वेदप्रमाणसें विना यह अदृश्य अर्थ तुमारे कपोलकल्पनासें कैसे माननेमे आवे ? For Private and Personal Use Only Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (२६) ९॥ यच्चोक्तं ज्ञानिनां संचितकर्मनाशवन्मुमुक्षु. रपि कर्मफलं न विंदते इति तदपि न संभवति, यतो ज्ञानिनां जीवब्रह्मणोरैक्यत्वज्ञानेन कर्मोपादानमज्ञानं विनष्टं भवति । ततः कर्मणामुपादानकारणाऽज्ञाननाशे सत्येव कार्यभृतं कर्म विनश्यति। मुमुक्षुस्तु ज्ञानाऽभावादज्ञानसद्भावे सति कार्यभृतकर्मणः सद्भावात् ज्ञानीव कर्मभिर्न विमुच्यते । ' नाभुक्तं क्षीयत कर्म कल्पकोटिशतैरपि इति स्मरणाच कर्मफलभोगायैव जन्म प्राप्नोति, विना ज्ञानं च मोक्षं न प्राप्नोति ॥ . १० यदुक्तं साधारणप्रायश्चित्तन गंगास्नानेन परमेश्वरनामोच्चारणेन च सर्वपापानां विनाशं कृत्वा मुमुक्षुर्विमच्यते इति, तदपि चित्तशुद्धिद्वारा ज्ञानप्राप्तौ सत्यामेव विमुक्तो भवितव्यः। तव मते तु ज्ञानानंगीकारादज्ञाने विद्यमाने सति तत्कार्यकर्मणां सद्भावात्कथं मुमुक्षुर्मुक्तिं प्राप्नुयात्?जन्मैव विंदतेइति ।यत्तूक्तं नित्यनैमित्तिककर्मसु यदुःखं भवति तेन संचितपापानि विनश्यति इति । तदपि तक क. पोलकल्पितत्वात् वेदप्रमाणाऽभावाच्चानादरणीयमिति। बहुजन्मसु कृतपापानां फलमिदमेव, यदस्मिन् जन्मनि नित्यनैमित्तिककर्मसु क्लेशमात्रमिति, For Private and Personal Use Only Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (२७) - ९॥ और जो कह्या ज्ञानी समान मुमुक्षुभी कर्मफल नही भोगेगा सोभी मिथ्या कहा है. का. देते ज्ञानीके कर्म तो ब्रह्मात्मैकत्वज्ञानसे कर्मोपादान अविद्याके नाश होने पर नाश होवे है; मुमुक्षुको एकत्वज्ञान के अभावते कर्मोपादान अविद्याकै सद्भाव होनेपर कैसे कर्म नाश होवगेकिंतु नही नाश होवेगा. 'नाभुक्तं क्षीयते कर्म कल्पकोटिशतैरपि।अर्थ-यहःजो. विनाभोगे शतकोटीकल्पपर्यंतभी कर्मोका नाश नही होता. इस प्रमाणसे मुमुक्ष विमुक्त नही होगा किंतु ज्ञानविना अज्ञानके सद्भावसे जन्मको ही प्राप्त होवेगा. १॥और जो कह्या साधारणप्रायश्चित्त गंगास्नानादिकास सर्वपाप नाश होवेगे सो यह कहनाभी मिथ्या है. काहेते जो गंगास्नानादिक कर्म सर्वपापोंका नाशक तो अंतःकरणकी शुद्धि करके ज्ञानोत्पत्तिद्वारा होवे है. तुमारे मतमे ज्ञानका अंगीकार कीया नहीं. यांते ज्ञानबिना कर्मोपादान अविद्याके सद्भाव होनेते गंगास्नानादिकभी सर्वपापनाशक बने नही. किंतु कर्मवशते जन्मही पावेगा, अज्ञानीहोनेते. और जो कह्या नित्य, नैमित्तिक, कर्ममे जो क्लेश होवे है तिसते संचितपाप नष्ट होते है. सो अनंतजन्मके पाप इस एक जन्मके नित्य, नैमित्तिकके करनेमे जो क्लेश तिससे नाश होवेगे, For Private and Personal Use Only Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (२८) एतददृष्टत्वाद्वेदप्रमाणं विना कथं स्वीकार्य भवेत् ? ॥ ११ ॥ यदुक्तं संचितपुण्यकर्मणां फलं योगीवन्मुमुक्षारेकजन्मनि भवतीति । तदपि सिद्धयो. गीवादित्यत्र वेदप्रमाणं विना अष्टांगयोगसाधनेषु प्रवृत्तिमंतरेण चापुण्यवतः स्वर्गप्राप्तिवदविश्वासादुपेक्षणीयमेव तस्य मतं। तस्मान्नित्यनैमित्तिककर्मणां फलभोगाय संचितकर्मणां फलभोगाय च ज्ञानमंतरेणानेकानि जन्मानि भविष्यतिनतु मुक्तिभविष्यति तदुक्तम् ' यदा चर्मवदाऽऽकाशं वेष्टयिष्यति मानवाः । तदा देवमविज्ञाय दुःखस्यांतो भविष्यति॥' ॥ १२ ॥ किंच मीमांसकमते कर्मफलं पंचविधं भवति, तदपि मुमुक्षोर्मुक्तिसाधने नोपयोगी भवति ॥ तथाहि यथा घटस्योत्पत्तिः कुलालकृतस्य कर्मणः फलं भवति तथा मुमुक्षोः परमानंदस्य प्राप्तिः कंठस्थभूषणवन्नोत्पद्यते।तथाऽनर्थस्याज्ञानतत्कायस्य निवृत्तिरपि रज्जुज्ञानेन सर्पनिवृत्निरिव ब्रह्मज्ञानेव भवति, न तु कोटिकर्मभिः। “ न कर्मणा न प्रजया” इति श्रुतेः संसारानर्थस्य नित्यनिवृत्तत्वाच्च For Private and Personal Use Only Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (२९) यह वार्ता अदृष्ट होनेते वेदप्रमाणसे विना केवल तुमार मुखके कहनेमात्रसे विश्वासके योग्य नहीं है. ११ ॥ और जो कह्या संचितपुण्यकर्मोंका फल मुमुक्षुको योगीसमान एकजन्मविषे होवे है, सोभी सिद्धयोगीविना अन्यको नही. अन्यके प्राप्तिविष कोइ प्रमाण नहीं है. यांते नित्य नैमित्तिक कर्मों के फल भोगने वास्ते संचित कर्मोंके फल भोगने लीये अनेक जन्मोंकी प्राप्ति ज्ञानविना हावगी. यह वाता “ यदा चर्मवदाकाशं वेष्टविष्यंति मानवाः। तदा देवमविज्ञाय दुःखस्यांतो भविष्यति ॥” इस श्लोकमे कही है. अर्थ यह हैः-जब मनुष्य चर्मसभान आकाशको वेष्टन करे तो ब्रह्मज्ञानविना मुक्तिभी पावेगा. ईहां पर्यंत संक्षेपसे मीमांसाका खंडन दिखाया. थोडासा औरभी तिनोका मंडन खंडन श्रवण करो, संक्षेपसे कहता हूं. १२ ॥ इस मीमांसकमतविष कर्मोंका फल पांचप्रकारका मान्या है सोभी मुमुक्षुको ब्रह्मज्ञानमे उपकार करता नही. जैसे कुलालव्यापारसे घट उत्पन्न होवे है तैसे ब्रह्मजिज्ञासुको कंठविषे भूषणसमान परमानंदकी उत्पत्ति नहीं होती, नित्यप्राप्त होनेसे;तथा अज्ञानकी निवृत्तिभी रज्जु. सर्पवत् ज्ञानसे होवे है, कोई कमसे उत्पन्न होवे नही. For Private and Personal Use Only Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तदर्थे मुमुक्षोः कर्मणि प्रवृत्तिर्न संभवति ॥ ॥ १३ ॥ यथा दंडप्रहारकर्मणः फलं घटविनाशो भवति तथा मुमुक्षोः संसारनिवृत्यर्थं कमणि प्रवृत्तिर्न संभवति तस्यानर्थरूपसंसारस्य भ्रमसिद्धत्वादेव ज्ञानेन निवृत्तिर्भवति न तु कर्मणा । ॥यथा वा गमनकियाफलं ग्रामांतरस्य प्राप्तिर्भवति तथा न मुमुक्षाब्रह्मप्राप्तये गमनक्रियायां प्रवृत्तिः संभवति, 'तत्त्वमसीति श्रुतेः स्वस्वरूपप्रतिपादनात् " यत्साक्षादपरोक्षाद्वह्म” इति श्रुतेश्चातिसमपिमेव. ॥ १४ ॥ यथा पाकक्रियाफलं परिणामि भोजनं भवति तथा न मुमुक्षोस्तादृगर्थे कमणि प्रवृत्तिः संभवति, आत्मनः कूटस्थत्वात् , निर्विकारत्वाद. परिणामित्वाच्च ।। यथा प्रक्षालनकर्मणः फलं मलनिवृत्तिर्भवति न तथा मुमुक्षोस्तादृक्कर्मणि प्रवृत्तिः सं. भवति ब्रह्मणो निराकारत्वात्स्फटिकमणिवच्छतस्वरूपत्वात्तदेव मुमुक्षोःस्वस्वरूपत्वात्। “तत्वमसि इति श्रुतेश्च॥ चित्तस्य मलनिवृत्तिश्चत्सापि मुमुक्षुत्वात्पूर्वमेव तत्र विद्यते तदर्थेऽपि कर्मापेक्षा नास्त्यव। अविद्यारूपमलनिवृत्तिश्चेत्साऽपि ज्ञानेन, न तु कर्मकोटिभिर्भवति। अतः कर्मणि प्रवृत्तिर्न भवत्येव । For Private and Personal Use Only Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ३१ ) यांते ब्रह्मजिज्ञासूकी उत्पत्तिरूप प्रयोजन वास्ते कर्मोंषि प्रवृत्ति बनती ही नही, घटउत्पत्तिवास्ते कुलालकी न्यांई इति. १३ || और जैसे दंडप्रहारसे घट नाश होवे है सभी अज्ञान नाशवास्ते मुमुक्षुकी प्रवृत्ति कविषे होवे नही. किंतु अज्ञानका नाश ज्ञानसेही होवे है, कर्म से नही ।। और जैसे गमनक्रियाका फल ग्रामांतरकी प्राप्ति होवे है तैसे मुमुक्षुको "तत्वमसि " तुम ब्रह्म हो. ऐसे वेद वाक्यसे तद्रुप होनेते गमन क्रिया भी कछु प्रयोजन नहीं है. १४ || और जैसे पाकक्रियाका फल अन्नका परिणाम भोजनरूपकी प्राप्ति होवे है, सोभी मुमुक्षुको निर्विकार कूटस्थरूप होनेसे इच्छाका विषय नही होते तिस कमविषे प्रवृत्ति दावे नही | और जैसे प्रक्षालनरूप क्रियासे मलकी निवृत्तिरूप फल होवे है तिसवास्तेभी मुमुक्षुकी प्रवृत्ति बने नही. आत्माको स्फटिकमणिवत् शुद्ध होनेते ॥ चित्त की मल निवृत्ति वास्ते प्रवृत्ति कहो सोभी मुमुक्षु होने से प्रथमढ़ी सिद्ध है अज्ञानरूप मलनिवृत्ति वास्ते प्रवृत्ति कहो सो तो ज्ञानविना कोटि कमसेंभी नही होवे है. तिसवास्ते भी मुमुक्षुकी कर्मों मे प्रवृति नदी वतती. For Private and Personal Use Only Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (३२) ॥ १५ ॥ यथा वस्त्ररंजनकर्मणा गुणांतरस्यो. त्पत्तिफलं भवति तादृकर्मण्यपि मुमुक्षुः प्रवृत्तिं न करोति। तस्य स्वरूपस्य निर्गुणत्वात् तत्र रंजनगुणस्य स्थिातरेवाकाशे कमलस्य स्थितिरिव मनसापि संभावयितुमप्ययोग्याऽस्ति,तदा निर्गुणे गुणस्य स्थितेस्तु कथैव का । पूर्वमलनिवृत्तिधुना गुणोत्पत्तिरिति युगलमेकं कर्म बोद्धव्यं न तु युगलं ।तस्मात्पंचविधं कर्म न तु षड़विधं कर्म ॥ इति चतुर्थकमले मीमांसामतवर्णनं समाप्तम् ॥ ॥ अथ पंचमकमले षड्पदार्था अ नादयः प्रतिपाद्यते ॥ ॥तच्च कर्म सादि भवति ब्रह्म तु अनादि भवति तत्प्रसंगात जीवेशादीनामप्यनादित्वं दर्शियिष्यामः। तत्र प्रमाणं तावच्छृणु ‘जीव ईशो विशुद्धा चि तथा जीवेशयोर्भिदा ॥ माया च तच्चितार्योगः षड़स्माकमनादयः ॥ For Private and Personal Use Only Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (३३) १५॥ और जैसे वस्त्ररंजनरूपकर्मसें गुणांतरकी प्राप्तिरूप फल होवे है सो मुमुक्षुका स्वरूप निर्गुण होनेते तिस वास्ते रंजनकर्मविषेभी मुमुक्षुकी प्रवृत्ति संभवती नदी. पूर्व मलनिवृत्ति कही, अब रंजन कर्म कह्या, सो दोनो एक जानना. यांते कर्म पांच प्रकारके है षट्, प्रकारके नहीं॥ ॥ इति चतुर्थकमलं मीमांसावर्णनात्मकं समाप्तम् ॥ * ॥ अथ पंचम कमलमे षड्पदार्थ अनादि कथन करेंगे। १ कर्म उत्पनिवाला होनेसे सादि है और ब्रह्म अनादि है. यांते, इस प्रसंगसे औरभी जो अनादि षट् पदार्थ है सोभी दिखावते है, श्रवण करो. ब्रह्म अनादि अनंत है, और जीव, ईश, अरु दोनो ईश जीवका भेद, माया, संबंध; ए पांच अनादि सान्त है " जीव ईशो विशुद्ध चित्तथा जीवेशयोर्भिदा मायाच तच्चितोर्योगः पदस्माकमनाहयः । इस प्रमाणसे एक जीव दूसरा इश्वर, तीसरा शुद्ध चतन चतर्थ जीव ईश्वरका भेद, पंचमी माया, षष्टमो मायाचेतनका संयोग ये षट्वेदांतमतमे अनादि माने है. सो जैसे अनादि है सो क्रमसे दिखावते है For Private and Personal Use Only Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (३४) २ ॥ अस्यायमर्थः । ब्रह्म अनादि अंतरहितं च भवति । अविद्याया अधिष्ठानत्वादेवाविद्यासकाशामा पश्चाद्भावीशाज्जीवाद्वा ब्रह्मणः उत्पन्यसंभ. वात्सिद्धा ब्रह्मण अनादिरूपता ॥१॥माया अनादिः सांता च ब्रह्मणो निर्विकारित्वादेव । तस्मात् वा मायाधीनत्वादीशाज्जीवाद्वा मायाया जनिरसंभवादनादिर्भवति ॥ ३ ॥ ईशजीवो चानादी सांतौ च । केवलब्रह्मणः केवलमायातश्च परस्पराज्जीवेशामा जीवेश्वरसिद्धयनंतरसिद्धाद्भेदामा तयोरुत्पत्त्यसंभवात् तो जीवेशो जन्मरहितौ भवतः ॥३४॥ For Private and Personal Use Only Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (३५) २||अर्थः- ब्रह्म अनादि तथा अनंत है, मायाका अधिष्ठान होनेसे. तिस मायासे ब्रह्मकी उत्पत्ति होवे नही जैसे अंधकारसे गृहकी उत्पत्ति नही होती, और जैसे पुत्रसे पिता उत्पन्न होवे नही, तैसे - ह्मका आभास रूप तथा पश्चात् भावी एसे जीवईशते भी ब्रह्मकी उत्पत्ति नही होनेसे ब्रह्म अनादि है. तथा 'सत्यं ज्ञानमनंतं ब्रह्म' इस श्रुति प्रमाणसे अनंतभी है. माया अनादि तथा ज्ञानसे नाश होनेते सांतभी है. बह्म निर्विकार होनेते मायाको उत्पन्न करता नही. तथा मायाते पश्चात् जन्म पावनेवाले जीवईश्वर भी मायाकी उत्पत्ति नहीं होनेते माया अनादि है. 'मायाऽऽभासेन जीवेशौ करोति' इस प्रमाणसे मायाद्वारा जीवेश प्रगट होनेते मायाको कैसे उत्पन्न करेगे ? याते माया अनादि है तथा ज्ञानसे अंतवाली है || ३ ॥ जीव, ईश्वर अनादि है तथा ज्ञानसे नाशवंत होनेसें सान्त कह्या है. केवल ब्रह्मसे केवल मायासें तथा परस्पर जीवईश्वरकी जीवईश्वरसे और जीवेश्वर सिद्ध होनेपर जो जीवेश्वरका भेद तिससेभी जीवईश्वरकी उत्पत्ति नही होनेते, जीव ईश्वर दोनो अनादि है. For Private and Personal Use Only Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (३६) संबंधो मायाचितोश्चानादिः सांतश्च । माया. ब्रह्मणोरनादित्वात्तयोस्तादात्म्यसंबंधोप्यनादिरेव ज्ञातव्यः ॥५॥ ॐ ॥ जीवेशयोर्भेदोप्यनादिस्सांतश्च । द्वयोः स्वस्मादुत्पत्यंगीकारे सत्यात्माश्रयः । अनादिस्वादव परस्परादपि तयोरुत्पन्यसंभवादनादिमतो. द्वयोर्भेदोप्यनादिरस्ति, ततश्च सर्वेप्यजन्याः। दुराग्रहेण जन्यत्वस्वीकारे कस्मिन् ॥वत्सरे किं जातमित्यत्र प्रमाणादर्शनादश्रवणाच्चानादय एव मंतव्याः ॥६॥ ५ ॥ अनादिशब्दो बहुकालवाचकोऽप्यस्ति । यथा स्वप्नकाले तत्क्षणेपि जाताः पदार्था नैव ज्ञायंते कस्मिन् काले जाता अभवन् , किं तु तस्मिन् काले तु तेषां जनिरदर्शनाद नादिकालिन एव सं. तीति ज्ञायते, तत अनादिशब्दो बहुकालवाचकोपि भवतीति सिद्धम् ॥ इति पंचमकमले षट्पदार्थानां वर्णनम् । * ॥ अथ षष्टकमले अष्टांगयोगस्य प्रतिपादनं क्रियते ॥ १॥ यमनियमआसनप्राणायामप्रत्याहारधारणाध्यानसमाधय अष्ट योगस्य सहकारिणो भवति, तेषां क्रमशः प्रतिपादनमेवमेव । For Private and Personal Use Only Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ३७) माया और चेतनका संयोगभी अनादि सान्त है. माया ब्रह्मको अनादि होनेसे तिनोका संयोगभी अनादि है, ज्ञानसे नाश होनेसे सान्तभी है ॥ ४ ॥ जीवईश्वरका भेदभी अनादि तथा ज्ञानसें नाशवंत होनेते सान्तभी कह्या है. जीवेशकी उत्पत्ति अपनेसे माननेमे आत्माश्रयदूषण होव है, परस्परोत्पत्ति माननेसे अनादित्वकी हानी होनेसे; अनादियोंका भेदभी अनादिही मान्या है. सादि माननेसे कौनवत्सरमे कौन उत्पन्न हुवा ? एस प्रमाणकाभी अभाव होनसे षट् पदार्थ अनादि है॥ ___ ५॥ और अनादि शब्द बहुत कालकाभी नाम है. जैस स्वप्नपदार्थ स्वप्नकालविषे नही जानपरते जो किस समय उत्पन्न भये; किंतु तिसकालमे बहुत कालके अनादि है एसे जाननेसे अनादि शब्द बहु कालका वाचक है. यह लोकप्रसिद्ध वार्ता है॥ * इति श्रीपंचमकमले षट् पदार्थकथनं । * *॥ अथ षष्ट कमलमे अष्टांग योगका वर्णनं ॥ १॥यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, सविकल्प, निर्विकल्प, भेदसे दो प्रकारकी समाधि, ये अष्ट योगके अंग है. सो यथा क्रमसे प्रतिपादन करते है. For Private and Personal Use Only Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अहिंसा स त्यमस्तेयं ब्रह्मचर्यमपरिग्रह इति पंच यमाः संति ॥१॥ शौचम्संतोषःतपः स्वाध्याय ईश्वर. प्रणिधानमिति पंच नियमाः॥२॥आसनानि सिद्धपद्मपश्चिमतानकपालि मयूरादीनि संति ॥ ३ ॥ रेचकपूरककुंभकाख्याः प्राणायामा भवंति ॥४॥ २॥प्रत्याहारश्च 'यतो यतो निश्चरति मनश्चंचलम स्थिरम्। ततस्ततो नियम्यैतदात्मन्येव वशं नयेत्'५॥ ॥ धारणा तु निर्विकल्पात्मनि वृत्ते निरंतर स्थितिकरणं यदस्तिदाध्यानं च निर्विकल्पात्मनि वृत्ते निरंतरं प्रवाहो योस्तीति।७। समाधिश्च व्युत्थानसंस्कारतिरस्कारे सति निरोधसंस्कारपूर्वकमंतःकरणवृत्ते निरंतरं निर्विकल्पात्मनि एकाग्रतारूपपरिणामः ॥८॥ ३ ॥ सा समाधिरपि सविकल्पनिर्विकल्पभेदेन द्विविधा भवति । तयोर्याः सविकल्पसमाधिरस्ति साऽपि शब्दानुविद्धशब्दाननुविद्धभेदेन हिविधा भवति, तयोरपि भेदं श्रुणुत । अहं ब्रह्माऽ स्मीति शब्दोच्चारणपूर्वका या समाधिः सा शब्दानुविद्धरूपा सविकल्प समाधिर्भवतीति ॥ अहं ब्रह्माऽस्मीति शब्दोच्चारणं विना या समाधिः सा शब्दाननुविद्धरूपा । सविकल्पसमाधी त्रिपुटेर्भानं ब्रह्मरूपेण भवति। यथा भूषणानि कनकमयानि संति तद्वत्कार्यप्रपंचोऽपि ब्रह्मरूप एव भासते॥ For Private and Personal Use Only Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (३९) अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, यह पांच प्रकारके यम कथन करे है. शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय, ईश्वरप्रणिधान, यह पांच प्रकारके नियम कहे है ॥ ___ आसन-सिद्धासन, पद्मासनादिक बहुत है. प्राणायम-रेचक, पूरक, कुंभक,केवलकुंभक है. २॥ प्रत्याहार.इंद्रियोंको विषयोंते रोक करके प्रतिक्षणं निर्विकल्प परमात्मामे स्थिर करना ॥ धारणा-वृत्तिकी स्थिति-निर्विकल्पात्मामे अधिककाल रोकनेके सामर्थ्य का है. ॥ ध्यान. वृत्तिका प्रवाह निर्विकल्पात्मामे होना. ॥समाधि-विजातीयाकारविना निर्विकल्पाकार सर्वदा वृत्तिकी स्थिरता होनेका नाम है. ३॥ सा समाधि सविकल्प, निर्विकल्प, भेदसे दो प्रकारकी कही है, सो प्रकार श्रवण करो. सविकटप समाधि. जिसमे मै ब्रह्म हूं एसा शब्द होवे सा शब्दानुविद्धरूप सविकल्प समाधि है । मैं ब्रह्म हूं एसा जिसमे उच्चारण न होवे तिस समाधिका नाम शब्दाननुविद्ध सविकल्प समाधि है । मैं ब्रह्म हूं इस त्रिपुटीका भान सविकल्प समाधिमे होवे है सो अभेदरूपसे होवे है जैसे कुंडल कनकरूप है एसे अभेद भासे है. For Private and Personal Use Only Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (४०) ४ ॥ निर्विकल्पसमाधिस्तु अंतःकरणवृत्तेनिरंतरं निर्विकल्पात्मनि त्रिपुटेर्भानं विनैव या स्थितिरस्तीति सा निर्विकल्पसमाधिर्भवति । निर्विकल्पसमाधौ हि त्रिपुटौ विद्यमानायामपि त्रिपुटेभीनं न भवति, यथा समुद्रे लवण विद्यमानेपि तद्भानं कस्यापि नेत्रेण न भवति॥ ५ ॥ सा पुनर्निर्विकल्पसमाधि रपि अद्वैतभा. वनारूपा अद्वैतावस्थानरूपाच द्विविधा भवति । तयोर्या अद्वैतभावनारूपास्ति तत्र वृत्तौ सत्यामपि वृत्तेर्भानं न भवति तदा साऽद्वैतभावनारूपसमाधिज्ञेया। यथोदके सैंधवस्य प्रतीतिर्न भवति तस्मिन् विद्यमाने सत्यपीति, तद्वदत्रापि। 'सर्वथैव विस्मृतिश्चेत्सूक्ष्मतां परमां ब्रजेत्। अलीनत्वान्ना निद्रेषा ततो देहोऽपि नो पतेत्॥ इत्यनेन श्लोकेन । इयं समाधिरद्वैतभावनारूपा वशिष्टेनाप्युक्ताऽस्ति ॥ For Private and Personal Use Only Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (४१) ४ ॥ निर्विकल्प समाधि तिसको कहते है जिसमे मै ब्रह्म हूं इस त्रिपुटीकाभी भान नही होता. निर्विकल्प समाधिमे त्रिपुटी है परंतु जैसे समुद्रसे सैंधव पृथक प्रतीत नहीं होता तैसे ब्रह्मसे भिन्न त्रिपुटीका स्फुरण नही होता, तद्रूप होनेसे. ५॥ पुनः निर्विकल्प समाधि अद्वैतभावनारूप अद्वैतावस्थानरूप भेदसे दो प्रकारकी होती है. तिसमे जा अद्वैतभावनारूप निर्विकल्प समाधि है तिसमे त्रिपुटीके विद्यमान होने परभी त्रिपु. टिका भान होता नहीं जैसे जलमे लवण होवे तौभी नेत्रंद्रियसे देखणे विषे आवता नही, तद्वत् त्रिपुटीका न भासना जानना ॥ तिसमे श्रीवशिष्ठका श्लोक प्रमाण है. तहां कहते है कि जब अंतः. करणमे निर्विकल्प ध्यानकी प्रबलतासे सर्व पदाथोकी विस्मृति द्रढ होवे है तब सूक्ष्म परब्रह्मको प्राप्त होवे है. तहां अंतःकरणका अत्यंताभाव न होनसे यह समाधिवालेका देहभी गिरता नही.' एसे श्रीवशिष्ठग्रंथमे वशिष्टजीने कह्या है. सा अद्वैतभावना नामवाली समाधि जाननी ॥ For Private and Personal Use Only Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ४२ ) ६ ॥ निर्विकल्पसमाधिरद्वैतावस्थानरूपा या ऽस्ति तत्र तु वृत्तेरेव विलयो भवति यथा तप्तलोहे जलबिंदु विलयं याति न पुनरावर्तते तद्वदेव वृत्तिर्विलयं प्राप्य पुनर्नावर्तते, "न स पुनरावर्तते " इति प्र माणात् ॥ सुषुप्तौ वृतेरज्ञाने लयत्वात् देहस्य पतनं भवति, तदा सुखमपि स्पष्टं न विज्ञायते अज्ञानावृतस्वात्, अतो भवति सा सुषुत्यवस्थ ।। निर्विकल्पसमाधौ वृत्तिः परमानंदे विलयं याति तत्र सुखमपि निरावरणं स्पष्टं भासते । अतस्तयो भेद एवं योगिभिः प्रतिपादितः ॥ ७ ॥ तस्मात्स एव योगी जीवन्मुक्तो भवति यश्चत्वारि विघ्नानि त्यक्त्वा अखंडे निर्विकल्पानंदे सर्वदैव तिष्ठति । इति समाधिकथनं । समाधौ चत्वारि विघ्नानि भवति तेषां नामानि लक्षणानि जयकारणानि चैवं संति । लयविक्षेपकषायरसास्वादानि विघ्नानां नामानि संति । लक्षणानि त्वं । For Private and Personal Use Only Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६और दूसरी जोनिर्विकल्प समाधि अद्वैतावस्थानरूप है नहीं तो त्रिपुटिका अरु वृत्तिका अत्यंतलय हो जाता है.जैसे तप्तलोहामे जलबिंदु लय होजावे है तैसे त्रिपुटिके आकारवाळी वृत्ति लय होइ जाती है, शेष निर्विकल्प अपना रूपही रहि जाता है. और सुषुप्ति अवस्थामे अंतःकरणका तो कारण अज्ञानसे लय होव है यांते देह गिर पडता है. और निर्विकल्प समाधिमे वृत्ति ब्रह्मानंदमे लय होवे है यांते देह गिरता नही तथा सुखका भान स्पष्ट होवे है, और सुषुप्तिमे स्पष्ट सुखका भान नही होता; इतना निर्विकल्प समाधिका सुषुप्तिका भेद जानना ॥ ७ ॥ इस निर्विकल्प समाधि करनेमे चार प्रकारके विघ्न प्राप्त होते है. जो तिनका नाश करके सर्वदा निर्विकल्प परमात्मामे निमग्न रहे है सो पुरुष जीवन्मुक्त होता है, फिर विदेहमुक्तभी होवे है. इस रीतिसे संक्षेपते समाधिका वर्णन कीया है । अब चार विघ्न तथा तिनोके निवृत्तिका उपाय कहे है सो श्रवण करो. लय, विक्षेप, कषाय, रसास्वाद यै चार विघ्न कहे है ॥ For Private and Personal Use Only Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (४४) ८॥ लयविघ्नं ब्रह्मानंदं परित्यज्य निद्रायां अंतःकरणस्य प्रवृत्तिरिति ! तं संबोधयित्वा ब्रह्मानंदे स्थापयेत् इति विघ्नस्य जयसाधनम् ॥१॥ ॥ वि. क्षेपविघ्नं ब्रह्मणः सूक्ष्मत्वेन तत्र वृत्तेरतदाकारतारूपमस्ति । तां वृत्तिं शमयित्वा ब्रह्मानंदे स्थापयेदिति जयोपायः ज्ञातव्यम ॥ २॥ ॥ कषायविघ्नं बाह्यांत एव कांतादिविषयेषु रागात्मकरूपं ॥ तं रागं विषयेषु दोषदृष्टया परित्यज्यांतःकरणस्य वृत्तिं ब्रह्मणि स्थापयेत् । अयं तस्य जयोपायोऽस्ति । ९॥ ननु कीदृशी दोषदृष्टिर्भवति यया विषयेषु रागो न स्यादिति चेत्तदा शृणु। अनित्यानास्माऽशुचिदुःखस्वरूपे देहे या नित्यत्वाऽऽत्मत्वशुचित्वसुखरूपत्वभावना सा चतुर्विधाऽविद्याऽस्ति तामविद्यां शरीरेऽशुचित्वादिदोषदृष्टया विनाशयिवा स्वकीये देहे विषयरूपकांतादौ च रागं त्यक्त्वा मनो ब्रह्मणि स्थापयेत् । For Private and Personal Use Only Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (४५) ८|लय विघ्न तिसका नाम है जो मन खात्मध्यानको त्याग करके निद्रामे लय हो जावे हैं. तिस मनको अल्प आहार सेवन से प्रबोध करके ब्रह्मानंदके ध्यानमे फिर स्थिर करे. ॥ विक्षेप विघ्न तिसका नाम है जो ब्रह्मको सूक्ष्म होनेसे तिसमे चित्तकी स्थिरता दृढ नही होनी. तिस चित्तको शांति करके फिर ब्रह्ममे स्थिर करना. * ॥ कषाय विघ्न तिसका नाम है जो अंतबह्य स्त्रीआदिक विषयका चिंतन करना. तिस विघ्नको विषयोमे दोषदृष्टि करके निवृत्त करके अपने मनको ब्रह्मानंदमे स्थिर करना. यही दोषके निवृतिका उपाय है ॥ ९ ॥ दे गुरो कैसी वह दोषदृष्टि है जिस दोषदृष्टिसे विषयोंका तथा देहकुटुंबका ध्यानसमयविषे स्मरण न होवे. ॥ श्री गुरु कहता है हे प्रिय यह स्वदेह तथा ब्यादि जे विषय है अशुचि अनित्य दुःखरूप अनात्मरूप है ऐसे योग शास्त्रमे कहा है तथा सर्व विवेकीयोके अनुभव सिद्ध भी है; तिस अशुचिमे शुचित्वबुद्धि जैसे 'मै ब्राह्मण हूं, मैं क्षत्रिय हूं, मै वैश्य हूं, इत्यादि विपरीत ज्ञान होना तथा जो अनित्य है तिसमे नित्यत्वबुद्धि होनी तैसे जो अनात्मा तिसमे आत्मत्वबुद्धि होनी For Private and Personal Use Only Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (४६) किंच — कृष्णो भोगी शुकस्त्यागी जनको राज्यकर्मकृत् । वशिष्टः कर्मकर्ता च नारदः कलहप्रियः ॥ वामदेवोऽगनारतः कर्कटी पिशिताशनी । ह्येतेषां ज्ञानमेकं हि स्वभावस्तु पृथक् पृथक् ॥' १०॥ एवं परमार्थदृष्टयाऽभेददृष्टिं कृत्वा पूर्वोक्तप्रकारेण दोषदृष्टया च भेदात्मके देहे वर्णाश्रमादौ कांतादिविषये चरागं त्यक्त्वा मनो ब्रह्मानंदे स्थापय For Private and Personal Use Only Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (४७) तथा जो दुःखरूप तिसमे रम्यसुखरूपताकी भावना करनी इसीको योगीजन अविद्या नाम अज्ञान कथन करते है. तिनो अशुचि देहादिकोमें जा पुनः शुचित्वादिभावना त्याग कर अशुचित्वादि दोषदृष्टि दृढ करनी; तिस दोषदृष्टि से देह, कुटुंब, कांतादि विषयोमे राग निवृत्त हो जाता है. जब राग निवृत्त होय जाव तब तिस विरक्त मनको परमानंदम निमग्न करे. और इस संसारम ज्ञानीजनाकी दो दृष्टि होती है, एक ज्ञानदृष्टि दूसरी व्यावहारिक दृष्टि.तिसमे ज्ञानदृष्टि 'अहं ब्रह्मास्मि यह एकरूपही है; व्यवहारवाली भेददृष्टिकी उपेक्षा करके वृत्ति परमार्थरूपमे विलय करे ॥ तदुक्तं ॥ कृष्णचंद्र भोगी भया, शुकदेव त्यागी इवा, जनक राजमे मग्न हुवा, वशिष्ट कर्म करनेवाला, वामदेव वामामे रमता रहा, नारदजी तो कलहमे कुशल, कर्कटी मांसाहारी भाहै इत्यादि स्वस्वस्वभावमे सर्व भिन्न भिन्न व्यवहारके करता भये है, परंतु ज्ञाननिष्टा 'अहं ब्रह्मास्मि' यह सर्वकी समान है; यांते स्वात्मदृष्टिसें प्रचलित क्षणमात्रभी नही होत ॥ १०॥ इस रीतिसें परमार्थदृष्टि परिपक्क करके भेदसे दृष्टि विमुख कर देह,कुटुंब,कांतादि विषयोंसे मन निरुद्ध करके स्वचित्तको सच्चिदानंदमे रोकना For Private and Personal Use Only Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (४८) । भागवतेऽप्येवमुक्तं न यस्य जन्मकर्मभ्यां वर्णाश्रमादिजातिभिः । अहंभावो प्रसज्येत देहे वै स हरेः प्रियः ॥ गीतायामपि ' इहैव तैर्जितः सो येषां साम्ये स्थितं मनः । निर्दोष हि समं ब्रह्म तस्मात्ते ब्रह्मणि स्थिताः' ॥अतोपि समे ब्रह्मानंदे मनो स्थापयेत्, न तु भेदात्मके देहे विषयेषु वा। इयमेव कषायविघ्नविनाशकोपायभृता दोषदृष्टि रुक्ता ॥३॥ ११ ॥ रसास्वादरूपविघ्नं दुःखाभावजन्यसुखस्य चिंतनं ब्रह्मानंदस्य वा चिंतनरूपं परित्यज्यांतःकरणं ब्रह्माणि स्थापयेत् । यथा निर्विघ्नं सर्प हत्वा तजन्यं सुखं प्राप्य यदि निधिं न स्वीकरोति तदा निधेः सुखं कथं लभेत्? एवं रसास्वादे लंपटो भूत्वा मुख्यब्रह्मानंदाद्विमुखो भवति तस्माद् व्यर्थकालो गच्छतीति चिंतयित्वा परमानंदे मनो नियाजयेदिति विघ्नहर उपायो ज्ञातव्यः, तमाश्रित्य विघ्नं हत्वा निर्विकल्प स्थिरो भवेत् ॥ ४ ॥ For Private and Personal Use Only Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (४९) श्रीभागवत तथा श्रीभगवद्गीतामेभी पूर्वोक्तकहा है. ॥ भागवतमें 'जिस आत्मारामी पुरुषकों स्वजन्म, कर्म, वर्ण, आश्रम, जाते आदिकों मे अहं अभिमान नही सो हरिकों प्रिय है'. ॥ गीतामें जिस आत्मवेत्ताका मन सर्वत्र सम, परमात्मामे आसक्तिवाला है तिसने इसी ज. न्ममें अपने संसारद्वैतका नाश कीया. जो समपदमें तथा द्वैतदोषसे रहित पदमें स्थित है तिनोंकी परमात्मामें स्थिति जानो;यांते सम ब्रह्ममे मग्न रहना. पूर्वोक्त प्रकार से देहविषे तथा वियों विषे दोष दृष्टि करना, इससे कषाय विनका नाश होता है। ११ ॥ रसास्वादरूप विघ्न तिसको कहते है जो संसारके दुःखाभावका चिंतनरूप है तथा आत्मानंदके सुखका चिंतन रूप है. तिसको व्यर्थकाल जानेका स्मरण करनेसें निवृत्ति कर मनकों निर्विकल्पमे लगावे; जैसे मूढ पुरुष निधिके प्रतिबंधरूप सर्पको मार करके भी निधिको न ग्रहण करे किंतु सर्पनिवृत्तिजन्य सुखकाही चिंतन करे तो निधिसुखसे विमुख ही रहता है, तैसे रसास्वादमे आसक्तिवालाभी सच्चिदानंद मुख्यसुखसे विमुख रहता है. ताते रसास्वादका त्याग कर अखंडानंदके ध्यानपरा. यण होवे, ये निवृत्तिका उपाय कहा. For Private and Personal Use Only Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (५०) १२ ॥ पंच भूमिकाश्चित्तस्य भवंति तासां नामानि विमानि संति, वं शृणु । क्षेपमूढताविक्षपैकाग्रतानिरोधाख्यानि नामानि, तैश्च सह चित्तस्यापि क्षिप्तं मूढं विक्षिप्तमेकाग्रं निरुद्धमिति नामानि भवंति । तेषां नाम्नां क्रमशः अर्थमपि शृणु । लोकवासना शास्त्रवासना देहवासना चेति क्षेपा भवंति । निद्रादौ प्रमादे तामसे कर्माण च या प्रवृत्तिरस्ति सा मूढता। __१३॥ ध्यानावस्थितस्य मनसः पुनरपि या बहिः प्रवृत्तिरस्ति सो विक्षेपः । अंतःकरणस्य वृत्तेरतीतवर्तमानयोः कालयोः यः समानाकारः परमात्मनि परिणामः सा चितस्यैकाग्रता भवतीति त्वया ज्ञातव्या । एकाग्रताया अभ्यासबलेन या वृद्धिः सा निरोधाख्या भूमिका भवति । १४ ॥ अत्रापीदं विचारणीयमस्ति तच्छृणु । क्षिप्तमूढांतःकरणयोः समाधौ प्रवृत्तिरेव नास्ति, विक्षिप्तांतःकरणस्य समाधौ प्रवृत्तिर्भवति । एकाप्रतानिरोधौ तु समाधौ प्रवृ यनंतरं भवतः। For Private and Personal Use Only Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (५१) १२ ॥ अब चित्तकी जे पंच भूमिका है तिनोका नाम तथा तिन भूमिकाबाले चित्तका क्रमसें नाम कथन करते ह. क्षेप, मूढता, विक्षेप, एकाग्रता, निरोध, ये तो भूमिकाका नाम है. तिसवाले चित्तका नाम क्षिप्त, मूढ, विक्षिप्त, एकाग्र, निरुद्ध है. अब क्षेपादिक पांच भूमिकाका अर्थ लिखते है. लोकवासना, देहवासना, शास्त्रवासना, क्षेप है. निद्रादि तामस कर्ममे आसक्ति मूढता है. १३ ।। ध्यान छोडकरके जा चित्तकी वहिमुखता यदा कदा होवे है तिसका नाम विक्षेप कहा है. अतीतवर्तमान कालमे जा चित्तकी ब्रह्माकारता है तिस चित्तके एकाकार परिणामताका नाम एकाग्रता योगीजन कहते है. अभ्यासकी प्रबलतासे जा एकाग्रताकी वृद्धि होनी, तिसका नाम निरोध भूमिका है. १४ ॥ अब पंचभूमिकाके कथनका प्रयोजन दिखावते है. क्षिप्त अर मूढ मनकी ध्यानमे अधिकारताही नही. विक्षिप्तांतःकरणकी ध्यानमे प्रवृत्ति बन सके है. एकाग्र और निरुद्ध ये दो मनकी अवस्था समाधिसे उत्तर कालमेही होवे है. For Private and Personal Use Only Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (५२) यावदंतःकरणमास्ति तावद्रागादिर्न नश्यत्येव, र वे. रुष्णताप्रकाशवत् । तथाऽप्यनुद्भूतरागादिमतोऽतः करणस्य समाधौ प्रवृत्तिर्भवत्येव। उद्धृतरागादिम. तोऽतःकरणस्याधिकारस्तु न भवतीति पंचभूमिकाकथनस्याभिप्रायोऽस्ति ॥ इति षष्टकमलेऽष्टांगयोगकथनं समाप्तम् ॥ *१॥ अथ सप्तमकमले राजयोगं श्रीशंकरा. चार्योक्तं शृणु। परिपक्वं मनो येषां केवलोऽयं च सिद्धिदः। किंचित्पक्वकषायाणां हठयोगेन योजितः ॥ १ यमः-सर्वं ब्रह्मेति विज्ञानादिंद्रियग्रामसंयमः। यमोऽयमिति संप्रोक्तोऽभ्यसनीयो मुहुर्मुहुः।।२ नियमः-सजातीयप्रवाहश्च विजातीयतिरस्कृतिः । नियमोऽयं परानंदो नियमात्क्रियते बुधैः ॥३ आसनं-सिद्धं यत्सर्वभूनादि विश्वाधिष्ठानमद्वयं । यस्मिन्सिद्धाः समाविष्ठास्तद्वै सिद्धासनं विदुः॥४ For Private and Personal Use Only Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (५३) जबतक अंतःकरण है तब पर्यंत तो तिसके धर्म जे रागद्वेषादिक है ते सूर्यमे उष्णता स नि निवृत्त होतेही नही. तथापि उद्धृत रागद्वेषवाले मनकी समाधिमे अधिकारता न होने परभी जो अंतःकरण अनुद्भुत रागद्वेषवाला है तिस अंतःकरणकी समाधिमे निर्विघ्न प्रवृत्ति हो सकति है. यही पंच भूमिकाके वर्णन करनेका सिद्धांत है, सो हे शिष्य तुमार तांइ कह्या ॥ ॥ इति श्रीषष्ट कमलमे अष्टांग योग समाप्त ॥ १ ॥ अथ सप्तम कमलमे श्रीशंकराचार्यानु सारी राजयोगका वर्णन ॥ * सर्व पापसे रहित मनवाले मुमुक्षजनको यह राजयोगही मुक्तिप्रदाता है. और किंचित्पापाचारी चंचल पुरुषको अष्टांग योगमे अधिकार कह्या है. १ __ संपूर्ण जगतमे ब्रह्मदृष्टि करके जो इंद्रियोंका संयम करना इसका नाम यम कथन किया है.२ विजातीय ज्ञानविना अखंड ब्रह्माकार वृत्ति करके रहनेका यत्न करना तिसका नाम नियम है.३ जा विश्वका अधिष्ठान है तथा जो अद्वितीय जगतका कारण करके प्रथमही सिद्ध है तथा जि. समे सर्व सिद्ध पुरुष स्थित होते है सो ब्रह्म सिद्धासन जानना. ४ For Private and Personal Use Only Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (५४) प्राणायामः-चित्तादिसर्वभूतानां ब्रह्मत्वेनैव भावनात्। निरोधः सर्ववृत्तीनां प्राणायामः स उच्यते॥५ निषेधनं प्रपंचस्य रेचकाख्यः समीरणः । ब्रह्मैवाऽस्मीति या वृत्तिः पूरको वायुरीरितः॥ ६ ततस्सद्वृत्तिनैश्चल्यं कुंभकः प्राणसंयमः । अयं चापि प्रबुद्धानामज्ञानां घ्राणपीडनं ॥ ७ देहसाम्यं-अंगानां समतां विद्यात्समे ब्रह्मणि लीयते॥ नो चेन्नैव समानत्वमृजुत्वं शुष्ककाष्टवत् ॥ ८ मौनं-वाचो यस्मान्निवर्तते तद्वक्तुं केन शक्यते । प्रपंचो यदि वक्तव्यः सोपि शब्दाविवर्जितः॥९ इति वा तद्भवेन्मौनं सतां सहजसंज्ञितम् । गिरा मौनं तु बालानां प्रत्युक्तं ब्रह्मवादिभिः॥१० एकांतदेशः-आदावंते चमध्ये च जनो यस्मिन्न विद्यते। येनेदं सततं व्याप्तं स देशो विजनः स्मृतः॥११ प्रत्याहारः--विषयेष्वात्मतां दृष्ट्वा मनसश्चिति मजनं । प्रत्याहारः स विज्ञेयोऽभ्यसनीया मुमुक्षुभिः॥१२ For Private and Personal Use Only Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (५५) चित्तादि सर्व जगतकों ब्रह्मदृष्टिसे देखना तिस करके जो सर्व वृत्तियोंका निरोध होना सो प्राणायाम जानना. ५ तीन कालमे जगत नहीं इस निश्चयका नाम रेचक है. मैं ब्रह्म सच्चिदानंद स्वरूप हूं इस वृत्तिको पूरक जानना. ६ सच्चिदानंद मे निश्चल वृत्तिका नाम कुंभक प्राणायाम है. एसा प्राणायाम ज्ञानयोंका है. नासा बंधकर प्राणीको रोकना ये मंदजन करते है. ७ सम ब्रह्मवृत्ति रहनेको समानता कहीं है. शुष्क काष्ठ समान शरीर रखना ये समानता नही है. ८ परमात्माविषे वाणीकी विषयता नही यही मौन जाननी, अथवा जगत् अनिर्वचनीय है वाणीका विषय नही. ९ एसी मौन सहजनामवाली ज्ञानी जनोकी जाननी; तूष्णी होड़कर बेठना यह मौन मूर्खोकों करना कहा है. १० ३ ॥ आदि मध्य अंत इन तीन कालमे मैं जीव हूं एसे जिस ब्रह्ममे सकल्पभी नही सो ब्रह्म सच्चिदानंदात्मादी विजन एकांत देश कहा है ११ सर्व विषयको अधिष्ठान ब्रह्मात्मरूप जान करके जो ब्रह्ममे ही मग्न रहता है सो प्रत्याहार जानो. १२ For Private and Personal Use Only Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (५६) दृक्स्थितिः-दृष्टिं ज्ञानमयीं कृत्वा पश्येदात्ममयं जगत्। सा दृष्टिः परमोदारा न नासाग्रावलोकिनी॥१३ दृष्टादर्शनदृश्यानां विरामो यत्र वा भवेत् । दृष्टिस्तत्रैव कर्तव्या न नासाग्रावलोकिनी॥१४ धारणा-यत्र यत्र मनो याति ब्रह्मणस्तत्र दर्शनात्। मनसो धारणं चैव धारणा सा परा मता ॥ १५ ध्यानं-बह्मैवाऽस्मीति सत्या निरालंबतया स्थितिः। ध्यानशब्देन विख्याता परमानंददायिनी ॥१६ समाधिः-निर्विकारतया वृ या ब्रह्माकारतया पुनः। वृत्तिविस्मरणं सम्यग् समाधिर्ज्ञानसंज्ञिकः ॥१७ ज्ञानामृतेन तृप्तस्य कृतकृत्यस्य योगिनः। न चास्ति किंचित्कर्तव्यमस्ति चेन्नस तत्त्ववित॥१८ बुद्धिर्विनष्टा गलिता प्रवृत्ति जीवात्मनोरेकतयाधिगत्या। इदं न जानेऽप्यनिदं न जाने किं वा कियद्वा सुखमस्त्यपारं । १९ ॥ नाप्नोति कर्मणा मोक्षं विमूठोऽभ्यासरूपिणा । __ धन्यो विज्ञानमात्रेण मुक्तस्तिष्ठत्यविक्रियः॥२० For Private and Personal Use Only Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (५७) “सर्वं खल्विदं ब्रह्म ।” इस ज्ञानदृष्टि से सर्व जगतको ब्रह्मरूप देखनाही सुंदर दृष्टि है, नासाको देखना उत्तमदृष्टि नहि है. १३ । दृष्टा, दर्शन, दृश्य, इन तीनोका जहां अभाव है एसे निर्विकल्प स्वरूपको ही अनुभव करना. नासाके अग्र भागसे दृष्टि हटाय लेनी. १४ जहां जहां मन जावे तहांही ब्रह्मरूप यह है एसे अधिष्ठान ब्रह्मविषे मनके स्थितिको धारणा कहींहै१५ मै सदानंदस्वरूप हूँ एसे विषयचिंतन विना जा परमानंददायनी मनकी दृढ स्थिति है,सो ध्यान है१६ ____ में निर्विकार हूं, मैं ब्रह्म सच्चिदानंदस्वरूप हूं इस प्रवाहसे संसारद्वैतकी अखंडविस्मृति जब होइ जावे तिसका नाम समाधि जाननी. १७ एसे ज्ञानामृतकरके उन्मत्त योगीको किंचित् भी कर्तव्यका भान नहीं रहता, जिसको कर्तव्य कर्मका भान रहता है सो पूर्णयोगी न जानना, यह अर्जुनको कृष्णकमलापति उत्तरगीतामे कहा है.१८ निर्विकल्पस्थितिसमय मेरी बुद्धि शांत होगई है यांते प्रवृत्ति कहा होवे; परावरकी एकताके अनुभवस परोक्षापरोक्षकाभी भान नहीं रहा, कितना सुख है तिसका भी अंत मिलता नहीं ये आचार्य श्रीपूज्यपादोंका अनुभव है. १९-२० For Private and Personal Use Only Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (५८) ॥ पूर्वविंशति श्लोकस्याऽर्थः॥ क्वचिन्मूढो वि. द्वानित्याचार्यवचनात् ।। व्यवहारे विमूढोऽपिसन्। ॥ ब्रह्मविद्ब्रह्मैवभवतीतिश्रुतेश्च स एव विद्वान्स्वयं ब्रह्मरूपत्वान्मुक्तोऽविक्रियो धन्यश्च भवति स विज्ञान मात्रेणैव तिष्ठति न तु मानसेनाऽभ्यासकर्मणा मो. क्षं प्राप्नोति ॥ अयमेव हि ते बंधस्समाधिमनुतिष्ठसीतिस्मृतेः ॥ ॥ उतरविंशति श्लोकार्थस्तु भाषायां ॥नाप्नोति कर्मणा मोक्षं विमूढोऽभ्यासरूपिणा धन्यो विज्ञानमात्रेण मुक्तस्तिष्ठत्य विक्रियः ॥ २० मूढो नाप्नोति तदब्रह्म यतो भवितुमिच्छति । अनिच्छन्नपि धीरो हि परब्रह्मस्वरूपभाक् ।। २१ न शांतिं लभते मूढो यतः शमितुमिच्छति । धीरस्तत्वं विनिश्चित्य सर्वदा शांतमानसः ॥२२ येन विश्वमिदं दृष्टं स नास्तीति करोतु वै । निर्वासनः किं कुरुते पश्यन्नपि न पश्यति ॥ २३ येन द्रष्टं परं ब्रह्म सोहं ब्रह्मेति चिंतयेत् । किं चिंतयति निश्चिंतोद्वितीयं यो न पश्यति॥२४ कर्तृत्वं कारकापेक्षमकर्तृत्वं स्वभावतः । कर्ताभाक्तेति विज्ञानं मृषैवेति सुनिश्चितम् ॥२५ ॥ति सप्तमकमले श्रीशंकराचार्योक्तराजयोगोऽलं॥ For Private and Personal Use Only Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (५९) जो मूढ मनुष्य है सो मानसकर्मरूप जो योगाभ्यास है तिससे मुक्तिको नहीं प्राप्त होता है; जो श्रेष्ठ है सो ज्ञानमात्रसे अक्रिय रूपहोता है. २० मूढजन ब्रह्मको नही प्राप्त होता अपने ते भिन्न ब्रह्म है भै तिसका स्वरूप बन जावों एसी इच्छा करनेसे ॥ और ज्ञानी ब्रह्म होनेकी इच्छा न करता दवाभी नित्य परब्रह्मका स्वरूपही है ये अष्टावक्रके वाक्य है. २१ ___ तैसे मूढ शांति नही पावता; शांतिरूप हवा शांतिको ढूंढता है, ज्ञानी अपनेको शांतरूप मान. नेसें शांतिमें मग्न रहता है. २२ जो जगतको देखे है सो तिसके अभाव का यत्न करता है ज्ञानी द्वैतको न देखे है, न तिसके नाशकी चिंता करे है. २३ जो अपने ते भिन्न चैतन्यको जाने है, सो पुरुष एसी उपासना करे जो मै चैतन्य हूं और मैं अखंड हूं जो एसे जाने है सो किसका ध्यान करे ? २४ _मै कर्ता हूं यह दृष्टि कारकोंकी अपेक्षासे होती है, स्वरूपसे तो अकर्ताही है कर्ता नही; मै कर्ता भोक्ता हूं ये जानना मिथ्या निश्चय है. यह संपूर्ण अष्टावक्रका अनुभवामृतदृष्टि है ॥ २५ इति श्री सप्तम कमलमे राजयोग समाप्त ।। For Private and Personal Use Only Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (६०) १ॐ ॥ अथ अष्टमकमले राजयोगस्य ज्ञानसप्त भामेकानां कथनम् ॥ * ज्ञानभूमिः शुभेच्छा स्यात्प्रथमा सा प्रकीर्तिता। विचारणा द्वितीया स्या त्तृतीया तनुमानसा ॥ १ सत्त्वापत्तिश्चतुर्थी स्यात्ततो संसक्तिनामिका । पदार्थाभावनी षष्ठी सप्तमी तुर्यगा स्मृता ॥२ शणाति ब्रह्मविद्यां यश्चतुस्साएनवान्नरः । ब्रह्मनिष्टगुरोस्सैषा शुभेच्छा नाम भूमिका ॥३ दृष्टांतैबहुभिनित्यं महावाक्यार्थचिंतनम् । द्वितीया भूमिका ज्ञेया सुजनैः सुविचारणा॥ ४ २॥महावाक्यस्य लक्ष्यार्थे यः करोति स्थिरं मनः। ध्यानाख्या भूमिका ज्ञेया तृतीया तनुमानसा॥५ भूमिकात्रितयं त्वेतद्राम जाग्रदिति स्थितम् । यथावतेंदबुद्धयेदं जगज्जाग्रति दृश्यते ॥६ अद्वैते स्थैर्यमायाते द्वैते च प्रशमं गते । पश्यति स्वप्नवल्लोकं चतुर्थी भूमिकामिताः॥७ For Private and Personal Use Only Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ६१ ) १ अथ अष्टम कमलमे ज्ञानकी सप्तभूमिका राजयोगावलंबी कहते है. ॥ ॥ ज्ञानके भूमिकाका नाम शुभेच्छा, सुविचारणा, तनुमानसा, ॥ १॥ सत्त्वापत्ति, असंसक्ति, पदार्थाजावनी, तुर्या है. अब क्रमसे इनोका यह अर्थ है. ॥२॥ जो मुमुक्षु साधनचतुष्ठयसंपन्न हूवा वा ब्रह्मवेत्ता सद्गुरुसें ब्रह्मविद्याका श्रवण करता है सा शुभेच्छा है. ॥३॥ सो मुमुक्षु जब महावाक्य तत्वमसि " इसका अर्थ जीवब्रह्मकी एकताको नानाप्रकारके दृष्टांतों से विचारता है तब ज्ञानी तिसका नाम सुविचारणा कहते है. ४ ॥ (< २ ॥ सो मुमुक्षु जब महावाक्योंके अखंड निर्विकल्प लक्ष्यार्थमे खमनको स्थिर करे है सा तनुमानसा भूमिका कही है. यह तीसरी ध्यानरूपी भूमिका है. ॥५॥ हे श्रीरामचंद्र, मुमुक्षु यहांसूधी इस संसारको नाना भेदवाली जाग्रत् जाननेसे ब्रह्मवेत्ता इन तीनों भूमिकाका नाम जाग्रत् कहते है. ॥६॥ सो मुमुक्षु निर्विकल्पमे दृढ स्थिरता पाय कर स्वयं निर्विकल्प हूवा अपरोक्षज्ञानी होता है. इस ज्ञानीकी अद्वैतमे दृढ स्थिति होती है, द्वैत नही भासता है. जो देहयात्रासमय संसार भासे तो स्वप्न समान जानता है. यह चतुर्थ भमिका है. ||७|| For Private and Personal Use Only Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ( ६२ ' ) पंचमीं भूमिकामेत्य सुषुप्तिपदनामिकाम् । शांताशेषविशेषांशस्तिष्ठत्यद्वैतमात्रके ॥ ८ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अंतर्मुखतया नित्यं बहिर्वृत्तिपरोऽपि सन् । परिश्रांततया नित्यं निद्रालुरिव लक्ष्यते ॥ ९ ३ ॥ कुर्वन्नभ्यासमेतस्यां भूमिकायां विवासनः । षष्ठीं गाढसुषुप्त्याख्यां क्रमात्पतति भूमिकां ॥ १० यत्र नासनसद्रूपो नाहं नाप्यनहंकृतिः । केवलं क्षीणमनन आस्ते द्वैतैक्यनिर्गतः ॥ ११ परप्रयुक्तेन चिरं प्रयत्नेनाऽवबोधनम् । पदार्थभावनी नाम षष्ठी भवति भूमिका ॥१२ भूमिषड्कचिराभ्यासाद्भेदस्यानुपलंभनात् । यत्स्वभावैकनिष्ठत्वं सा ज्ञेया तुर्यगा गतिः ॥ १३ समाप्ता: ॥ ॥ इति अष्टमकमले ज्ञानस्य सप्त भूमिकाः १ * ॥ अथ नवमकमले राजयोगावलंबी सुरघुपरिघयोः संवादः ॥ For Private and Personal Use Only Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (६३) ये ज्ञानी अभ्यासवलसें अद्वैतमे सर्वदा स्थिति करे है, तिसके विशेष ज्ञान संपूर्ण निवृत्त होय जाता है. इस भूमिको सुषुप्तिनाम पंचम भूमिका कहते है. ८ यहां ज्ञानी बहु काल अंतर्मुख रहता है, कोइ काल देहयात्रा मात्र करे है. थका हुवा निद्रालु समान देख परता है. ॥९॥ ३॥ यहां ज्ञानी वासनारहित दृढाभ्याससे गाढ सुषुप्ति नामवाली षष्ठी भूमीको पावता है.॥१०॥ . जहां न सत्का भान न असत्का भान होवे है. जहां में वा तुम भासता नही, एक तथा द्वैतका भान रहता नही, निर्विकल्पही रहता है. ॥ ११ ॥ जब दूसग बहु यत्न करे निर्विकल्प स्थितिसे जगाय भोजन करावे है, तब पदार्थ भावनी षष्ठी भूमिका कही है.॥१२॥ ___ जब यह ज्ञानी एकरूप रहजावे उठे नही ऐसे षट् नूमिकाका क्रमसे अभ्यास करता है तब सा तुर्य भूमिका कही है. इस सप्तमी जूमिकामें थोरे दिन विषे शरीर स्वयं नाश होता है. ॥ १३ ॥ इति अष्टमकमलमे सप्त भूमिका समाप्त ॥ १॥ अथ नवमकमलमे राजयोगी सुरघुपरिघका __ संवाद वर्णन होवेगा ॥ ॐ For Private and Personal Use Only Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (६४) कदाचित्परिघनृपतिनगरे सर्वप्रजा दुर्भिक्षण पीडिताऽभवत् । तां दुःखपीडितप्रजां परित्यज्य तीनवैराग्येण विनिर्जनवने समाधौ निमग्नोऽनृत् । बहुकालादनंतरं समाधिमुत्सृज्य स परिघराजर्षिः सुरघुप्रजापतेर्दढज्ञाननिरतस्य समीपं गत्वा तेन सह सूर्यचंद्रसमैकासने स्थित्वा ज्ञानध्यानसंबंधिसंवादं चकार ॥ अथैवं प्रियया तत्र विश्रंभकथया चिरम्। प्राक्तनस्नेहगर्भिण्या स्थित्वोवाचाऽयुधाभिधः ॥ १ परिघ उवाच यद्यत्संसारजालेऽस्मिन् क्रियते कर्म नूमिप । तत्समाहितचित्तस्य सुखायान्यस्य नाऽनघ ॥२ कञ्चित्संकल्परहितं परं विश्रमणास्पदम् । परमोपशमं श्रेयः समाधिमनुतिष्ठसि ॥३ २॥ सुरघुरुवाच एतन्मे ब्रूहि भगवन्सर्वसंकल्पवर्जितं । परमोपशमं श्रेयस्समाधिर्हि किमुच्यते ॥ ४ यो ज्ञो महात्मन्सततं तिष्टन व्यवहरंश्च वा। असमाहितचित्तोऽसौ कदा भवति कःकिल॥ ५ For Private and Personal Use Only Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (६५) एक परिघनामवाला अष्टांगयोगी राजा था. तिसके राज्यमे जब दर्भिक्ष भया तिसमें प्रजाको बहुत दुःखी देख करके तिसके दुःख निवृत्त्यर्थ प्रयत्न न करके संपूर्णदुःखी प्रजाका परित्याग करके अज्ञात विजन वनमे समाधिस्थितिम बहुत संवत्सर व्यतीतकरके जब समाधिसे चित्न उद्वेग हुवा तब तिसका ज्ञाननिष्ट सुरघुराजा परमस्नेही जो था तिसके मिलनेको गया. जब परस्पर एकासनपर दो चंद्रसूर्य समान विराजमान भये तव परिघ राजा प्रिय विश्वासवाली पूर्वस्नेहसंबंधि कुशलता पूछकरके अमृतवाली वाणीसें बोलता भया. परिघ उवाच ॥ दे राजन् हे सुरघो, इस संसारजालमे जो कर्म कीयेजाने है सो समाधिवालेको मुख देवे है ओर जो समाधि रहित चंचलचित्तवाला है तिसको सुख देते नही ॥ २ हे प्रियतम आप कबी निर्विकल्प परमशांति देनेवाली परमविश्रांतिका स्थान जा समाधि है तिसको करते हो? क्या नही करते ? तिसके सुननेकी हमारी बहुत इच्छा है.॥३ ____२॥ सुरघुरुवाच ॥ हे भगवन् यह हमको सुनावो, निर्विकल्प शांतिदाता एसी समाधि किसको कहते हो ? ४ हे महात्मन्, जो ज्ञानी है सो व्यवहारमे वा ध्यानमे क्या स्वनिष्ठा ते चलता है ? ५, For Private and Personal Use Only Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (६६) नित्यं प्रबुद्धचित्तास्तु कुर्वन्तोपि जगरिक्रयाम् । आत्मतत्वैकसंनिष्ठाः सदैव सुसमाधयः ॥६ बद्धपद्मासनस्यापि कृतब्रह्मांजलेरपि । अविश्रांतस्वभावस्य कः समाधिः कथं च वा॥७ तत्वावबोधो भगवन्सर्वाशातृणपावकः । प्रोक्तः समाधिशब्देन न तु तूष्णीमवस्थितिः॥८ ३॥ समाहिता नित्यतृप्ता यथाभूतार्थदर्शिनी। साधो समाधिशब्देन परा प्रज्ञोच्यते बुधैः ॥९ अक्षुब्धा निरहंकारा द्वंद्वेष्वननुपातिनी। प्रोक्ता समाधिशब्देन मेरोः स्थिरतराकृतिः॥१० निश्चिंताऽधिगताभीष्टा हेयोपादेयवर्जिता । प्रोक्ता समाधिशब्देन परिपूर्णा मनोगतिः॥११ यतःप्रभृति बोधेन युक्तमात्यतिकं मनः । तदारभ्य समाधानमव्युच्छिन्नं महात्मनः ॥ १२ न हि प्रबुद्धमनसो भूत्वा विच्छिद्यते पुनः । समाधिर्दूरमाकृष्टो बिसतंतुः शिशोरिव ॥ १३ ४॥ समग्रदिनमालोकाद्विरमत्यक्षयो यथा। आजीवितांतं नः प्रज्ञा तथा तत्त्वावलोकनात्॥१४ For Private and Personal Use Only Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (६७) जो आत्मनिष्ठ ब्रह्मज्ञानी है ते सर्वदा जग. के कार्य करते हुएभी सर्वमे ब्रह्मदृष्टिरूप समा. धिवालेही है.॥६॥ हे राजन् , बाहरसें पद्मासन लगानेसें ब्रह्मांजलि करनेसें अंतरमें विषयवासनासे विक्षिप्तचित्तवालेको क्या समाधि होती है ? ७ हे भगवन् , ब्रह्मात्मैक्यज्ञानअग्नि जो है सो सर्व आशारूप तृणके जलावनेवाला समाधिनामसे कहा है. केवलपद्मासनवाला मौनी समाधिवाला नही.८ __॥ बुद्धिमानोने शांत नित्यानंदी यथार्थ ज्ञातृ ऐसी जा निर्मल प्रज्ञा है तिसीका नाम समाधि कहा है.९ निर्भय तथा देहाभिमानसे रहित रागद्वेषते विना जा बुद्धि सुमेरुसमान अचल है तिसको समाधि कहा है. १०चिंतारहित ब्रह्मज्ञानसें पूर्ण तथा ग्रहणत्यागक कल्पनासे रहित जा पूर्ण मनकी वृत्ति है साई समाधि है. ११ जिस काल भै ब्रह्म हं एसा निश्चय भया तबसें महात्मालोकोकी अखंड समाधि बनी रहती है. १२ जैसे बालकसे दूर खेंची कमलकी तंतु टूट परती है तैसे ब्रह्मतत्त्व वेत्ताकी समाधि एकवार लगी हुई फिर नही टूटती. १३ ॥जैसे सूर्य संपूर्ण दिन प्रकाशसें ही समाप्त करे है तैसे ज्ञानियोकी बुद्धिभी मरणपर्यंत ज्ञानसे पूर्ण रहे है. १४ For Private and Personal Use Only Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (६८) अजखमंबु वहनाद्यथा नद्या न रुध्यते । तथा विज्ञानदृक् बोधात् क्षणमात्रं न रुध्यते॥१५ न विस्मरत्यविरतं यथा कालः कलागतिम् । न विस्मरत्यविरतं वात्मानं प्राज्ञधीस्तथा ॥१६ न विस्मरति सर्वत्र यथा सततगो गतिम् । नावस्मरति निश्चयं चिन्मानं प्राज्ञधीस्तथा॥१७ गतिः कालकला यद्वञ्चिन्वाना समवस्थिता। चिञ्चितिश्चैत्यरहिता चिन्वाना गतयस्तथा ॥१८ यथा सत्ताविहीनात्मा पदार्थो नोपलभ्यते। तथाऽऽत्मज्ञानहीनात्मा कालो ज्ञस्य न लभ्यते१९ न संभवति संसारे गुणहीनो गुणी यथा। न संभवत्यात्मसंविद्वर्जितो ह्यात्मवांस्तथा॥ २० सर्वदेवाऽस्मि संबुद्धः सर्वदैवाऽस्मि निर्मलः । सर्वदेवास्मि शांतात्मा सर्वदास्मि समाहितः॥२१ ६ ॥ भेदः केन समाधेर्मे जन्यते कथमेव वा। आत्मनोऽव्यतिरेकेण नित्यमेव सदात्मता ॥ २२ तस्मात्कदाचिदपि मे नासमाधिमयं मनः। नो वा समाहितं नित्यमात्मतत्त्वैकसंभवात्॥२३ For Private and Personal Use Only Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जैसे नदीयोंका जल प्रवाहसे विना एक ठकाणे रुकता नही तैसे ज्ञानवालेकी दृष्टिभी ज्ञानप्रवाहते नही बंद होती. १५ जैसे काल भगवान् जीवोंके आयुःचिंतन करनेमे चूकता नही, तैसे ज्ञानी अखंड आत्मचिंतनसे नहीं चूकता. १६ । ५॥ हे महामुने! जैसे वायु गमनक्रियासे कबी बंद नहीं होता तैसे ज्ञानीकी बुद्धिभी चैतन्यको भूलती नही. १७ जैसे कालकी गमनशक्ति स. वत्र देखती रहती है, तैसे दृश्यरहित चितिदेवीभी स्फुरणरूपसें सदा स्थित होई स्वमहिमामे स्थिर रहती है. १८ जैसे अस्ति नाम है इस सत्तासें विना कोइ पदार्थ नही तैसे ज्ञानीको ज्ञान विना खाली कोई समय नही. १९ जैसे गुणीपदार्थ संसारमें गुणविना होता ही नही तैसे ज्ञानवान्भी आत्मज्ञानरहित होताही नही. २० मै सर्वदा ज्ञानरूप हूं सर्वदा निर्मल दूं सर्वदा शांतात्मा हूं स. र्वदा समाधिवाला हूं. २१ ६॥ हे मुने हम चेतन रूपका और समाधिका किसने भेद उत्पन्न कीया है मेरेको अभिन्न होनेसे सर्वदाही सत्य आत्मता अखंडित है यही समाधि है. २२ एक आत्मस्वरूप ही होनेते कबीभी मेरामन असमाधिवाला वा समाधिवाळा नही होता. २३ For Private and Personal Use Only Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (७०) सर्वगः सर्वदेवात्मा सर्वमेव च सर्वथा। असमाधिर्दिकोऽसौस्यात्समाधिरपि कःस्मृतः२४ नित्यं समाहितधियः सुसमा महांतः तिष्ठति कार्यपरिणामविभागमुक्ताः । तेनाऽसमाहितसमाहितभेदभंग्या नित्योदितः क नु स उत्तमवाक्प्रपंचः ॥ २५ ॥ इति श्रीनवमकमले राजयोगिसुरघुपरि घयोः संवादः संपूर्णः ॥ हरि ॐतत्सत् ॥ * १॥ अथ दशमकमले विषयसंबंधावनुबं धेषु प्रवक्ष्यामि ॥ ॐ अधुना ग्रंथारंभे अनुबंधचतुष्टयानां विषयप्र. योजनसंबंधाधिकारिणां सविस्तारं प्रतिपादनं क्रियते। For Private and Personal Use Only Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (७१) हे परिघ, परम प्रियतम, सर्वरूप सर्वकाल आत्माही व्यापक है तो असमाधि क्या है, और हमारे लीये समाधि जा कही सोभी क्या कही. २४ हे मुने जे ब्रह्मावस्थिति रूप समाधिवाले तथा समदृष्टिवाले कार्यकारणभावविभागके कल्पनाही. नतावाले महात्मा लोकस्थित है तिनोंमे इस समाधि असमाधिरूप भेदके व्याजद्वारा यह आपके उत्तम वाकरचना नित्य ब्रह्मरूपोंमे विस्तार पाय सकती नही है, अर्थात् एक अद्वितीयमे ये वाणी प्रवृत्ति कर सकती नही. २५ ॥ इतिश्री नवम कमलमे राजयोगी परिघसुरघुसंवाद संपूर्ण ॥ * ॥ १ अथ दशम कमलमे विषय संबध दोनो अनुबंधोंका कथन होवेगा ॥ अब वेदांत प्रकरणरूप जो यह विज्ञानकमलाकर नामवाला ग्रंथ है तिसके प्रारंभमे कथन करने योग्य जे अनुबंध चतुष्टय है, तिनोका निरू. पण करते है. For Private and Personal Use Only Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (७२) तेषां नामानि तु विषयसंबंधाधिकारिप्रयोजनानि सति । यथा वैदकग्रंथेऽनुबंध चतुष्टयं भवति तथात्रापि ज्ञातव्यम् । यथा वैदकग्रंथे रोगनिदानौषधयो विषयाः संति तथात्र जीवब्रह्मणोरक्यमेव विषयो। यथा वैदकग्रंथ रोगवान धिकारी भवति तथात्रापि ब्रह्म जिज्ञासावानेवाधिकारी ज्ञेयो । यथा तत्र रोगनिवृत्तिपूर्वका शरी: पुष्टिरेव प्रयोजनमेवमत्राप्यनर्थनिवृत्तिपूर्वकपरमानंदप्राप्तिरेव प्रयोजनं भवति । वैदकवेदांतयोरुभयोरपि ग्रंथविषयमिथः प्रतिपादकप्रतिपाद्यसंबंद्धवान् एवं सत्यत्रादौ विषयं जीवब्रह्मणोरैक्यं खंडनमंडनपूर्वकं त्वं शृणु ॥ २॥ शिष्य उवाच-भो गुरो कृपालो कोऽहमस्मि। किं ब्रह्मणो भिन्नोऽभिन्नो वा। भिन्नश्चेनदा "द्वितीयाद्वै भयं भवतीति " श्रुत्या मुक्तिर्न स्यादभिन्न श्चेत्तदभिन्नतारूपजीवब्रह्मणोक्यमेव ग्रंथस्य विषयो भवति। स विषयो यथा न संभवति तथा ब्रीमि जीवस्य ब्रह्मणश्च द्वयोरपि स्वरूपतो धर्मतश्च भेददर्शनादेक्यं न संभवति । For Private and Personal Use Only Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (७३) तिनोका नाम विषय, प्रयोजन, संबंध, अधिकारी है. जैसे वैदक ग्रंथके चार अनुबंध होते है तैसे वेदांतके होते है; जैसे रोग, औषधियों तथा निदानोंका रूप वैदक ग्रंथोंका विषय है, तैसे वेदांतका जीव ब्रह्मकी एकता विषय है. जैसे अनर्थकी निवृत्तिपूर्वक परमानंदकी प्राप्ति वेदांतोंका प्रयोजन है, तैसे रोगकी निवृत्तिपूर्वक जा शरीरकी पुष्टी है सो वैदक ग्रंथोंका प्रयो. जन है. जैसे वैदकमे रोगी अधिकारी है, से वेदांतमे मुमुक्षु अधिकारी है. वेदांत वैदक इन दोनो. ग्रंथोंमे जो विषय है तिनाका अरु ग्रंथोंका प्रतिपाद्य प्रतिपादक भाव संबंध है. ___शशिष्य उवाच.हे नाथ कृपालो । मै कवन हूं? क्या ब्रह्मसे भिन्न हूं अथवा अभिन्न हूं? जो भिन्न कहो तो “ द्वितीयाद्वै भयं भवतीति ” इस श्रुतिसे मुक्ति नही होनी चाहीये. काहेते यह श्रुति कहती है जो भेददृष्टिसें भय निवृत्त नही होती. और जो अभिन्न कहो तो अभिन्नता रूप जो जीव ब्रह्मकी एकतारूप ग्रंथका विषय है सो विषय जैसे नही बनता तैसे विस्तारसे कहता हं. जीव और ब्रह्मको स्वरूपसे धर्मोसे परस्पर विलक्षण होनेते तिन दोनोकी एकता बनती नही, सोदिखावताहूं. For Private and Personal Use Only Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (७४) तथाहि जीवो रागादिपंच क्लेशवान्, ब्रह्म तु पंचक्लेशराहतं तथैकरूपं च, 'एकमेवाद्वितीयमिति' श्रुतेः । जीवस्तु नानारूपो भवति नत्वेकः । एक श्चेत्तर्हि एकशरीरस्य सुखादिकं यत्तस्य सर्वशरीरेषु कथं नानुभवो भवति ।अत एव जीवस्य नानारूपत्वम्। ३ न चांतःकरणमेव नानारूपं सुखदुःखादिध. मवच्च, भवति नात्मनः सुखादिधर्मास्सति, तस्मा देवाऽऽत्मनः प्रतिशरीरे सुखादेर्भानं न भवति । जीवसाक्षी तु क्लेशरहित एकश्च तस्य भवति ब्रह्मणा सहैक्यमिति वाच्यं । जीवात्पृथक् साक्षिणोऽभावात्। यदि साक्षी पृथगस्तीति मन्यसे सोपि नानैव नत्वेकरूपः॥ __ ४ तथाहि अंतःकरणं तद्धर्मः सुखदुःखादिश्च साक्षिणा ज्ञायते नत्वंतःकरणेन न वा इंद्रियायते। तेषां प्रांगमुखत्वात्, ‘पराञ्चि खानि व्यतृणत्स्वयंभूः' इति श्रुते बहिर्मुखत्वश्रवणात्, इंद्रियाणां पंचीकृतभूतप्रकाशकत्वाच्च । For Private and Personal Use Only Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (७५) जीव तो राग, द्वेष, अभिनिवेश, अस्मिता अज्ञान, इन पंचक्लशवाला है. ब्रह्म पांच क्लेशोंते रहित है, तथा एकरूप है, और जीवतो नानारूप है एकरूप नहि, जो जीव एकरूप कहो तो एकके सुखीदुःखी हानेते सर्व सुखीदुःखी होने चाहीये. एसे होता नहीं यांते जीव नाना मानने चाहीये. ३ और जो कहो अंतः करण नाना है अरु सुखी दुःखीभी अंतःकरणही होता है आत्माके सुखदुःख धर्म नही यांते सर्व शरीरोंमे आत्माको सुखदुःखा. दिकोंका भान नहीं होता,जीवसाक्षीतो पांचक्लशते रहित है तथा एकरूप है तिसकी और ब्रह्मकी एकता बनती है.सो यह आपका कहना वनता नहीकाहेते जो जीवते भिन्न साक्षीका अभाव होनेते भिन्नसाक्षी मानना न चाहीये जो भिन्नभी मानो तोभी नाना मानना होवेगा, एक नही मान सकते. ४ सो दिखावता हं. अंतःकरणका ज्ञान तथा तिसके सुखदुःख रागद्वेषादिक जे धर्म है तिनोका ज्ञान केवल साक्षीसेंही होता है, अंतःकरणसें अथवा इंद्रियोतें होश नही सकता. इंद्रियोंको बहिर्मुख होनेते अंतःकरणके सन्मुखही नही होती. और इंद्रियोंको पंचीकृत भूतोंके जाननेकीही शक्ति है For Private and Personal Use Only Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (७६) तत्रापि भेदोऽस्ति त्वगिन्द्रयं नेत्रद्रियं च साश्रयं स्पर्श साश्रयं रूपं च विजानाति, रसना घ्राणं श्रोत्रं तु रसं गंधं शब्दमेव विजानाति न त्वाश्रयं। एवं पंचेंद्रियेभ्योऽतःकरणस्य ज्ञानं न भवति अंतःकरणस्यापंचीकृतत्वात्, इंद्रियेभ्योप्यंतत्वाच्च । तथांतःकरणं स्ववृत्तेरपि विषयो न भवति, यथा वन्दिः स्वदाहविषयो न भवति ॥ _ ५ ये सुखदुःखादयश्चांतःकरणधर्माः सन्ति तेऽपि अंतःकरणे संलग्नत्वेनांतःकरणस्य वृत्तिविषया नो भवन्ति। स एव विषयो भवति यस्तु यत्किंचिदपि दृरे स्यात् । यस्संलग्नो भवेत् स न विषयो भवति। यथा नेत्रे संलग्नं नेत्रांजनं नेत्रंद्रियवृत्तर्विषयो न भवति तद्वत् धर्मा अपि सुखादयोऽतःकरणे सलग्नत्वात्तवृत्तिविषया नभवंति। तस्मात् धर्मसहितांतःकरणस्य ज्ञानं स्वस्मात् स्ववृत्तरिंद्रियेभ्यो वा न भवति। तस्मात् साक्षिणः सकाशादेवांतः करणस्य तद्धर्माणां च सुखदुःखादीनां ज्ञानं भवति ॥ For Private and Personal Use Only Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (७७) तिनोंमे भी इतना भेद है. नेत्रेंद्रिय रूपको तथा रूपके आश्रय जे घटादिक है तिनोकों विषय करे है, तैसे त्वचाभी साश्रयस्पर्शको विषय करे है, शेष रसना, घ्राण, श्रांत्र ये तीनों इंद्रियों तो रस, गंध, शब्द, मात्रकुं अनुभव करे है, आश्रयको नही जानते. इस रीतीनें इंद्रियोंसें तो अंतःकरणका ज्ञान होइ सकता नही. अंतःकरणको अपंचीकृत भूतोंका कार्य दोनेते तथा इंद्रियोंते भी भीतर होनेते. जैसे अग्नि अपने दाद शक्तिका विषय नही होता तैसे अंतःकरण अपनी वृत्तिकाभी विषय नही होता. ५ और अंतःकरणके रागद्वेषादिक जे धर्म है ते भी अंतःकरण के वृत्तिके विषय नही होते, अंतःकरणमे संलग्न होनेते ॥ विषय सो होता है जो अपने आश्रयसे दूर होवे, जो संलग्न होवे सो विषय नही होता, जैसे नेत्रोंमे संलग्न जो अंजन है सो नेनेंद्रिय के वृत्तिका विषय नही होता तैसे अंतःकरण के जे सुखादिक धर्म है ते भी स्ववृत्तिके विषय नही होते. इस कारणते धर्मों सहित अंतःकरणका ज्ञान अंतःकरणसे अथवा तिसके वृत्तिसे अथवा इंद्रियों से भी नही होनेते तिस कारणते केवल साक्षीसही सधर्म अंतःकरणका ज्ञान होता है. For Private and Personal Use Only Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६ स साक्षी एकश्चेत्तर्हि एकशरीरे ये सुखादयः संति तेषां सर्वशरीरे भानं स्यात् , यतः सर्वशरीरे भानं न भवत्यतः नाना साक्षिणः संति नत्वेक साक्षी। तेषां नानासाक्षिणां एकब्रह्मणा सहैकताऽसंभवाज्जीवब्रह्मणोरक्यं ग्रंथस्य विषयः कथमपि न संभवति ॥ ७ समाधानं । यथा घटोपाधिकस्य घटाकाशस्य महाकाशेन सहैकताऽभावेपि निरुपाधिकस्य घटाकाशस्य महाकाशेन सहैकता भवत्येव। तद्वद्रागादिधर्मयुक्तांतःकरणविशिष्ठस्य जीवस्य ब्रह्मणा सहैकताऽभावेपि रागाद्यनधिकरणांतःकरणोपहितस्य साक्षिणो रागादिरहितस्य ब्रह्मणा सहैकता भवत्येव बाधकाभावात् ॥ ८पूर्व यदुक्तं, अंतःकरणस्य रागादिधर्मा ये संति तेंऽतःकरणेन न ज्ञायते किंतु साक्षिणा ज्ञायते। स साक्षी नानारूपोऽस्ति नत्वेकरूपः । एकश्चत्तर्हि एकस्य ये सखदुःखादयस्ते सर्वशरीरे कथं न ज्ञायते ज्ञातुः साक्षिण एकत्वात् ॥ ___ गुरुरुवाच । भो मुने तव कथनमनुचितं, यत एकमेवांतःकरणं तमोगुणेन रागादिविषयाकारण परिणमते । सत्त्वगुणेन तु तेषां रागादिविषयाणां ज्ञानाकारणापि तदेव परिणमते । For Private and Personal Use Only Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (७९) ६ सो साक्षी एक कहोंगे तो एकके सुखदुःखका सर्वशरीरमे भान होना चाहीये, नाना मा. नोंगे तो एक ब्रह्म के साथ साक्षीकी एकता नही होनते वेदांतग्रंथका विषयही न बनेगा. ७ श्री गुरुरुवाच-हे प्रिय जैसे घटउपाधि सहित जो घटाकाश है तिसकी महाकाशके साथ एकता नही भी बनती तौभी घटउपाधिरहित घटाकाशकी महाकाशके साथ एकता बने है. तैसे रागद्वेषवाले अंतःकरणसहित जीवकी ब्रह्मके साथ ययपि एकता नही बन है तौभी रागद्वेषवाले अंतः. करण उपाधिसे विनिर्मुक्त जो साक्षी है तिसकी ब्रह्मके साथ एकता बने है तिसमे कोइ दोष नही. ८ और जो आपने कहा है अंतःकरणके जे रागद्वेष, सुखदुःखादिक धर्म है ते अंतःकरणके विषय नही, किंतु साक्षीके विषय है, सो साक्षी नाना रूप है एकरूप नही. एकरूप जो मानो तो एकके दुःखी होनेसें सर्व दुःखी होने चाहीये; क्यों जो साक्षीको एकरूप मान्या है सो यह आपका कथन अनुचित है. काहेते जो एकही अंतःकरण तमोगुण करके रागद्वेषादिकेंको आकारको धारण करता है. और सात्विक गुणसे ज्ञानाकार परिणामको पावता है. For Private and Personal Use Only Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (८०) साक्षी तु "विदतादविदतादाधि” इत्यादिश्रुत्या ज्ञानाज्ञानविनिर्मुक्त एवास्ति। तस्य ब्रह्मणा सैहकता संभवति घटाकाशस्य महाकाशेन सहैकतावदिति सिद्धा साक्षिब्रह्मणोरकता। ९ त्वया यदुक्तं अंतःकरणविशिष्ठजीवाद्भिन्नः साक्षी नास्तीति तन्न संभवति । यतो जीवांदतःकरण विशिष्ठादन्यः साक्षी भवत्येव । यथा एका स्त्री गृहस्थाश्रमिणो विशेषणं, तस्याः सुखदुःखैः सुखी दुःखी भवतीति दर्शनात् सा च स्त्री संन्यासिनः उपाधिरपि भवति तस्याः सुखदुःखै सुखी दुःखी न भवतीत्यनु भवाच्च तस्य संन्यासिनः गुरुणाऽऽचार्येण सदकतावत् अंतःकरणोपाधिवतःसाक्षिणःसंन्यासिनो गृहस्थाश्रमिण इव जीवात्भेदोऽवश्यमेवास्ति । तस्यैकसाक्षिण एव ब्रह्मणा सहैकतासंभवात् , तच्चैक्यं वेदांतानां विषयः संभवति । एवं यो विषयः स एव प्रतिपाद्यमेवात्राऽस्ति ग्रंथस्तु प्रतिपादक एव । तयो ग्रंथविषययोः For Private and Personal Use Only Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (८१) और “ विदतादविदतादधि ” इति श्रुतिप्रमाणसे साक्षी ज्ञानाज्ञानसे रहित है यह कहा है. तिस साक्षीकी एकता ब्रह्मके साथ निर्विघ्न बनती है. घटोपाधिरहित घटाकाशकी महाकाशके साथ जैसे एकता बने है तैसे साक्षीकी ब्रह्मके साथ एकता बने है. ९ और जो आपने कहा अंतःकरणवाले जीवसे भिन्न कोईभी साक्षी बन नही सकता सो कहना नही बनता. काहेते अंतःकरण वशिष्ठ जीवसें भिन्नभी साक्षी है, जैसे एक स्त्री गृहस्थाश्रमीका विशेषण है, स्त्रीके सुखदुःखको अपनेमे अनुभव करनेसे; सा स्त्री पतिके संन्यासकाल. विषे पति संन्यासीकी उपाधि रूपभी है. तिसके सुखदुःखसे संन्यासी सुखी दुःखी नही होनेते; जैसे तिस संन्यासीपतिकी गुरुके साथ भोजनआसनादिकोंमे एकता होती है तैसे उपाधिरहित सा. क्षीकीभी ब्रह्मके साथ एकता बननेसे जीवब्रह्मकी एकतारूप ग्रंथका विषय निर्विघ्न बने है. यांत जो तुमने पूछाया में ब्रह्मसें भिन्न हूं अथवा अभिन्न हूं सो इतने प्रतिपादनसें तुं ब्रह्माभिन्न सिद्धभया यह जीव ब्रह्मकी एकता प्रतिपाद्य है. ग्रंथ प्रतिपादक होनेते ग्रंथका और ब्रह्मात्मैक्यताका For Private and Personal Use Only Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ८२ ) प्रतिपादकप्रतिपाद्यभावसंबंधो ज्ञेयः ॥ इति द्वावनुबंध प्रतिपादितौ, वक्षमाणकमले तु प्रयोजनं दर्श यिष्यामः । ॥ इति दशमकमले द्वौ विषयसंबंधानुबंधौ समाप्तौ ॥ १ * ॥ अथ एकादशकमले प्रयोजनानुबंधः प्रतिपाद्यते || ॥ शिष्य उवाच । भो देव जीवब्रह्मणोरेकत्वज्ञानेन किं भवति ॥ श्री गुरुरुवाच । जो शिष्य ग्रंथद्वारा ब्रह्मज्ञानेनाऽनर्थस्य निवृत्तिः परमानंदस्य प्राप्तिश्च भवतीति युगलमेव ग्रंथस्य प्रयोजनं भवति । ॥ ननु ॥ संसारस्य सत्यत्वात्सत्यस्य ज्ञानेन निवृतेरसंभवात् संसारनिवृत्तिमंतरेण संसारनिवृत्तिमंतरेण परमानंदस्य च प्राप्तेरयोगात् ततश्च कथं ग्रंथस्य प्रयोजनं सिध्यति । न च संसारस्य मिथ्यात्वाद्भवति तस्य ज्ञानेन निवृत्तिरिति वाच्यं । मिथ्यात्वस्य साधकेषु पंचविध साधनेषु एकस्याप्यदर्शनात् ॥ २ ॥ तथादि पूर्वदृष्टसत्यपदार्थस्य ज्ञान - जन्यसंस्कारः संसारस्य भ्रमत्वे कारणं । For Private and Personal Use Only Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ८३ ) प्रतिपाद्यप्रतिपादकभाव संबंध दूसरा अनुबंध जानना. आगे प्रयोजन अधिकारीकाभी निरूपण करेंगे. ॥ इति श्रीदशमकमलमे विषय संबंध दो अनुबंधाऽलं ॥ १६॥ अथ एकादश कमलमे अनुबंधो विषे प्रयोजनं ॥ || शिष्य उवाच. हे स्वामिन् आपने कहा तुम ब्रह्मसे अभिन्न हो सो एसे जीव ब्रह्मकी एकता जाननेसें क्या फल अनुभवसे सिद्ध होवेगा. ॥ श्री गुरुरुवाच. हे सुजन वेदांतग्रंथद्वारा ब्रह्मात्मैकत्वज्ञानसें अनर्थकी निवृत्ति और परमानंदकी प्राप्ति तुमको ज्ञात होवेगी. यह दोनो ग्रंथका प्रयोजन है. एसे श्रवण करके शिष्य फिर बोलता है । हे नाथ संसारको नित्य दोनेसें ज्ञानसे निवृत्ति कैसे होवेगी. संसारनिवृत्तिविना परमानंदकी प्राप्तिकी आशादी क्या करनी. तिस कारणते ग्रंथका प्रयोजनभी नदी सिद्ध होवेगा. जो कहो संसार मिथ्या है तिसकी ज्ञानसे निवृत्ति भी होती है सो अनुजवमे नही आवता. काइते मिथ्यापणेका साधक पांच पदार्थ है तिनमे एकभी नही देख परता. जो कहो ते पदार्थ कौन है तदां सुनो. २ ॥ एको पूर्वदृष्ट सत्यपदार्थ के ज्ञानजन्यसंसारके असत्यतामे कारण द. संस्कार For Private and Personal Use Only Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org www.kobaithong Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Acharya Sh kalasagarsuri Cyanmana तत्तु न संभवति, वेदांत प्रपंचस्य चित्सुखाचार्येण "अयं पट एतत्तंतुनिष्ठात्यंताभावप्रतियोगी पटत्वात् पटांऽतरवदिति” महाविद्यानुमाने अत्यंताऽभावस्वीकारात्॥ तथा 'नेह नानाऽस्ति किंचन' इत्यत्र 'अतोऽ. न्यदातमित्यत्र च श्रुत्याऽप्यऽत्यंताभावप्रतिपादनाच्च। महाविद्यानुमानस्य लक्षणं तु 'दृष्टांते प्रकारांतरण साध्यविषयत्वे सति पक्षे प्रकारांतरेण साध्यविषयत्वं महाविद्यात्वमिति विज्ञातव्यम् । For Private and Personal Use Only Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सो नही बनता काहेते जो वेदांतशास्त्रमे प्रपंचका अत्यंताभाव अंगीकार कीया है तिसमे चित्सु. खाचार्यने इस अनुमान करके जगत्का अत्यंताभाव सिद्ध किया है. जैसे यह जो पट है सो इन तंतुवोंमे अत्यंताभाववाला है पटत्वजातिवाला होनेते, द्वितीयपटवत् इति. जैसे द्वितीयपट पटत्वजातिवाला है तथा इन तंतुवोंमे अत्यंताभावचालाभी है तैसे यह पटभी पटत्वजातिवाला होनेते इन तंतुवामें अत्यंताभाववालाभी बलातका. रसे स्वीकार करना परेगा. इसका महाविद्याऽनुमान कहते है. तिसका लक्षण यह है जो दृष्टांतमे और रीतीसे रहिता हुवा पक्षमें प्रकारांतरसें रहे सो महाविद्याअनुमान जानना. इसअनुमानसें इस जगतका अत्यंताभाव स्वीकार कीया है. तैसे इस ब्रह्ममै जगत्का लेशमात्रभी नही. एक श्रुतिने एसा कहा है अरु इस ब्रह्मसे भिन्न सर्व जगत् असत् नाम अत्यंताभाववाला जानना. इतना दूसरीश्रुतिनेभी प्रतिपादन करनेसे संसारका अत्यं. ताभावही है. यांते संसारकों सत्य न होनेते सत्य वस्तुके ज्ञानजन्य संस्कारका अभावही एक साधनका अत्यंताऽभाव होनेसे संसारसत्यताही सिद्ध होती है. For Private and Personal Use Only Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (८६) ३॥ द्वितीयं प्रमेयस्य सादृशता ।साप्यत्र न दृश्यते ब्रह्मदृश्ययो विपरीतत्वात्॥ न च तृतीयं प्रमातरि भयलोभादिकं दृश्यते, अध्यासात्पूर्वं प्रमातुरेवाभावात् दृरतरा तत्र दोषसंभावना । अत एव न तुर्य साधनं प्रमाणगतपित्तकामलादिकं । तस्यापि प्रमाणस्याध्यासात्पूर्वमसंभवात् कुतश्च दोषसंभावना। नापि पंचमं मिथ्यात्वस्य साधकं साधनमस्ति । तच्चाधिष्ठानस्य सामान्यज्ञानं विशेषतश्चाज्ञानमिति। निरंशे स्वप्रकाशे च ब्रह्मणि कुतः संभवति विशेषरूपस्याज्ञानं सूर्येऽधकारमिव । कुतश्च निरंशे सामान्य विशेषभावश्च । तस्मात्पंचविधां कारणसामग्री विना मिथ्यात्वस्याभावाद्भवति जगत्सत्यं । तस्य ज्ञानेन. निवृत्त्यसंभवात्कुतः परमानंदप्राप्तिः कुतश्च ग्रंथस्य प्रयोजनसिद्धिर्वा इति चेत्तत्राद समाधानं ॥ ४॥ यदुक्तं सत्यवस्तुनो ज्ञानजन्यसंस्का रो यदि पूर्व भवेत्स एव भ्रमस्य कारणं भवतीति नियमो नास्ति । किं तु मिथ्यावस्तुनो ज्ञानजन्य. संस्कारोऽपि भ्रमस्य कारणं भवति यथा पूर्व सत्यसर्पमदृष्ट्वा इंद्रजालविनिर्मितं सर्प दृष्ट्वापि For Private and Personal Use Only Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (८७) ३ दुसरी प्रमेयकी सादृशता मिथ्यापणेमे कारणहै. साभी ब्रह्म जगत्को परस्पर विलक्षण होनेते नही बनती. तीसरा भयलोभादिकभी नही बनता. अध्याससे प्रथम प्रमाताकाही अभाव होनेते तिसमे भयलोभादिकोंका अंगीकारही असंभव है. और चतुर्थ कारण जो प्रमाणमें पित्तकामलादिक दोष है सोभी अध्याससे पूर्व प्रमाणका ही असंभव होनेते प्रमाणगतपित्तादिदोषोंकी आशाहीक्या करनी. और पंचम जो अधिष्ठानका सामान्य ज्ञान तथा विशेष अज्ञान मिथ्यापणेका साधक है सोनी नही बनता. ब्रह्मको आकाशवत् निरंश होनेते सामान्य विशेषनाव नही बनता तथा ब्रह्मको स्वप्रकाश होनेते तिसमे सूर्यके विषेतमकी न्याई विशेष अज्ञानभी नही बनता.इस कारण पंचप्रकारकी मिथ्यापनेके सिद्ध करनेकी सामग्रीके अनाव होनेते जगतकोसत्यताहीबने है. तिस सत्य संसारकी ज्ञानसे निवृत्ति नही होनेते परमानंदकी प्राप्तिकीभी आशाभंग होनेते ग्रंथका प्रयोजन नही बनता. आप इनका उत्तर कहो. ४ श्री गुरुरुवाच. हे विशालबुद्धे पूर्व जो तुमने कहा जो सत्यवस्तुके ज्ञानजन्यसंस्कार अध्या सके कारण है सो यह नियम नही.किंतु मिथ्या इंद्रजालविनिर्मित सर्पकों देख करकेभी For Private and Personal Use Only Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (८८) रज्वां सर्पभ्रांतिरुत्पद्यते तद्वदनादिमिथ्याप्रपंचमपि दृष्ट्वा ब्रह्मणि जगदध्यासो जायते सत्यवस्तुनो ज्ञानजन्यसंस्कार एवाध्यासकारणमिति नियमाभावात् । किं च यदुक्तं प्रमातादोषो भयलोभादिकं प्र. मेयदोषः साहशत्वं च नास्तीति तन्न संभवति यतः तेषां घटे ब्रह्मणि चास्तिभातिप्रियाणां सादृश्यदर्शनात् तेषां विद्यमानत्वात्तेषामभावकथनमनुचितम्॥ ५॥ ननु तेषामभावकथनं कथमनुचितम् । यतः कारणं तदेव भवति यस्य स्थितिः कार्यात्पूर्वमव्यवधानेन भवेत् । एतेषां त्रिदोषाणां तु अध्यासरूपत्वादध्यासात्यूर्वमुत्पत्तेरेवासंभवात् कथं कारणत्वं संभवति अव्यवधानेन पूर्वकालेऽनवस्थानादिति चेत्। ६॥ सत्यं तथापि त्रिदोषाणां भ्रमं प्रति यदि कारणता स्यात्तदा त्रयाणां स्थितावाकांक्षी भवेन्न तु प्रमाताप्रमाणप्रमेयाणां दोषा अध्यासं प्रति हेतयो भवंति, दोषत्रयं विनाप्याकाशे नीलतादेर्दर्शनात् । तस्मात्तेषां त्रिदोषाणामभावो भवतु, भ्रमं प्रति कारणत्वस्यासंभवात् । For Private and Personal Use Only Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रज्जुमे सर्पभ्रांति होवेहै.सत्यवस्तुके ज्ञानजन्यसंस्कारोंकीही अध्यासमे आवश्यकता नही है एसे निश्चय करना. और जो आपने कहा ब्रह्म अरु जगत्को विपरीत होनेते सादृशता नही बनती.जहांआधिष्ठान अध्यस्तकी परस्पर सादृशता होवे है तहांही अध्यास होवे है सो ठीक है. यहांभी घटादि दृश्य जगतमे और ब्रह्ममे अस्तिभातिप्रियता है सा सादृशता प्रत्यक्ष है "सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म" "सर्व खल्विदं ब्रह्म" इस श्रुतिसे दोनोमे अस्ति, भाति, प्रियता की सादृशता होनेते सादृशता नही है यह कहना क्या योग्य है? यांत सादृशता बननेसे अध्यासन्नी बने है तिसकी ज्ञानसे निवृत्तिभी सुखसे ही होवेगी. ५ शिष्प उवाच. दोषोंका अभाव कहना हमकों योग्यही है.काहेते जो कारण होवे है सो कार्यकी उत्पत्तिते अव्यवधान पूर्वकालमे ही होवे है. यहां सादृशता दोषवाले घटादिक और पित्तादि दोषवाले नेत्रादिक लोभादि दोषवाले प्रमाता ये संपूर्ण अध्यास रूप है यांते अध्यासत पूर्व तिनोका अभाव होनेते अध्यास प्रति कैसे कारण हो सकते है? ६॥ श्रीगुरुरुवाच.दे प्रिय ये अध्यासके प्रति नियमसे कारण होवे तो तिनोके होने की आवश्यकता होवे. इनोके न होनेसे भी जैसे आकाशमें नीलता नासे दे For Private and Personal Use Only Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (९०) तथात्राऽपि परमात्मनि दोषत्रयमतरेण जगतोऽध्यासरूपत्वं संभवति। किंच ब्रह्मणः स्वप्र. काशत्वाद्विशेषस्याज्ञानं तत्र न संभवति निरंशत्वाच्च सामान्यविशेषनावोऽपि न संभवतीति यत्कथनं तदपि न समीचीनं स्वस्वरूपे स्वयंप्रकाशेऽपि ब्रह्मणि मूढानां ब्रह्मादमस्मीत्यनुभवाभावदर्शनात् सूर्येऽप्युलूकानामंधकारवदिति । ७ तथा निरंशेऽपि ब्रह्मणि सामान्यभावस्य ब्रह्मास्ति ब्राह्मणोऽस्मि घटोऽस्ति त्वमसीति सर्वत्र सत्तारूपस्य दर्शनात् विशेषभावस्य च नित्यमुक्तोऽ. स्मि ब्रह्माहमस्मीति नित्यमुक्तत्वस्य ब्रह्मभावरूपत्वस्यापि जीवन्मुक्तपुरुषविशेषे दर्शनाच नवति स्वप्रकाशेऽज्ञानता निरंशे च सामान्यविशेषभावोऽपि। इयमेवाध्यासस्य सामग्री सिद्धा। ततो नवति संसारस्य मिथ्यात्वं ज्ञानेन निवृत्तिश्चातः परमानंदस्य प्राप्तिरपि संभवति। तदेव ग्रंथस्य प्रयोजनं एतावता सिद्धमिति ॥ __॥इति एकादशकमले प्रयोजनानुबंधस्य वर्णनम् ॥ हरिः ॐ तत्सत् ॥ For Private and Personal Use Only Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ९१ ) तैसे दोषत्रय विनाभी ब्रह्ममें प्रपंचका मिथ्या संभव हो सकता है यांते त्रिदोषका न होना दमकुं ईष्टदी है जहां एक समर्थ अविद्या रूप दोष है तदां दूसरेका क्या काम है. और जो आपने कहा है ब्रह्मस्वयं प्रकाश है तिसमे विशेष अज्ञान नही बनता निरंशमे सामान्य विशेषभाव भी नही बनता. सो यदभी तेरा कहना अज्ञात से है. कादेते ब्रह्मको सर्वरूपद्दोनेते मूढ रूपधारी ब्रह्मखरूपमे मै नित्यमुक्त स्वयं प्रकाश हुं अखंडानंदरूप हूं. एसे अज्ञान देखने मे आवता है. जैसे सूर्यमे उलूक और अंधजन अंधकार देखते है. ७ ॥ और निरंशमे सामान्यभाव विशेषभाव भी देखने आवे है . ॥ ब्रह्मास्ति ॥ ब्रह्म है. घट है यह सामान्यभाव है. मै नित्यमुक्त निर्विकल्पानंद घन सर्व व्यापी हुं. एसे विशेषरूपको तो ज्ञानवान जाने है यांते स्वप्रकाशमे विशेष ज्ञानकाअभाव तथा निरंशमे सामान्य विशेषभाव सिद्ध है. यही अध्यासकी सामग्री सिद्ध भई सामग्री के सद्भावसें संसार को असत्य दोनेते तिसकी ज्ञानसे निवृत्तिद्वारा परमानंदकी प्राप्तिभी निर्यत्न सिद्ध दो. नेते ग्रंथका प्रयोजन निर्विघ्न सिद्ध भया ॥ * ॥ इतिश्री एकादशकमलमे प्रयोजनं समाप्तं ॥ · For Private and Personal Use Only Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (९२) ॥ अथ द्वादशकमले अनुबंधेषु अधिकारिणो वर्णनं ॥ . १॥ अधिकारी तु विवेकवैराग्यशमादिमुमुक्षु तावान् भवति इत्यवधि अनुबंधानां मध्ये विषयप्रयोजनसंबंधाधिकारीत्यनुबंधचतुष्ठयस्य स्वरूपं प्रतिपादितं । अधुना तुभ्यं विवेकवैराग्यशमदमादिमुमु. क्षुतानां स्वरूपं ब्रवीमि तदनंतरं चतुस्साधनवतो नृपरंतिदेवस्य गाथां प्रवक्ष्य॥अद्य वैराग्यस्य विवेकस्य च वर्णनं करोमि ॥ मालिनी छंदःअजशिवसुरलोकान्सर्वदा द्वेषदीप्तान् त्यजति वरविरागी यत्नसाध्याननित्यान् । भजति परमपूज्यं सत्यमात्मस्वरूपं न भजति निजदेहं नाशबुद्ध्या विवेकी ॥ ब्रह्मलोकेऽपि रागद्वेषादयस्संति तत्र प्रमाणं ॥वाल्मीकिरुवाच ॥सनत्कुमारो निष्काम अवसद्ब्रह्म सग्ननि।वैकुंठादागतो विष्णुप्रैलोक्याधिपतिःप्रभुः १ ब्रह्मणा पूजितस्तत्र सत्यलोकनिवासिभिः॥ विना कुमारं तंदृष्ट्वा युवाच प्रभुरीश्वरः ॥२॥ सनत्कुमार स्तब्धोसि निष्कामो गर्वचेष्टया ॥ अतस्त्वं भव कामार्तः शरजन्मति नामतः ॥३॥ तेनाऽपि शापितो विष्णुः सर्वज्ञत्वं तवास्ति यत् ॥ किंचित्कालं हि तत्त्यक्त्वा त्वमज्ञानी भविष्यति ४ For Private and Personal Use Only Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (९३) ॥अथ द्वादश कमलमे अधिकारीका लक्षण सुनो। १॥ अब अधिकारीके वैराग्य विवेक शमादि मुमुक्षुता. इन साधन चतुष्टयका. यथाक्रमते वर्णन करते है. पश्चात् चतुष्टय साधन संपन्न धर्मात्मा महाराज रंतिदेवकी कथा तुमको श्रवण करावेंगे अब वैराग्य विवेकवाले पुरुषोत्तमका लक्षण सुनो. - २॥ वैरागीपुरुष एसे होते है जो ब्रह्मलोक, शिवलोक, इंद्रलोक, इन सर्वलोकोकों परस्पर रागद्वेषरूप अग्निसे पूर्ण जानकर इनोंके प्राप्तिकी ईच्छाही नही करते; जैस ब्रह्मलोकमे दक्षको शिवजीने नभस्कार न कीया तो दक्षने शंभुको शाप दिया. फिर कवी तिसही ब्रह्मलोकमे विष्णुदेवको सनत्कुमारने नमस्कार न कीया, यांते परस्पर शाप दीया. जनक तथा वशिष्ट एवं विश्वामित्र वशिष्ट परस्पर शाप देत भये है इत्यादि पुराणोक्त सहस्र वार्ता प्रसिद्ध है. इससे वैरागी इनों परलोक तथा सिद्धियोंकी आकांक्षाही नही करते हुए नित्यानंद स्वतंत्र स्वात्मसुखमे सर्वदा शांत रहते है अथवा रहनकी इच्छा करते है. ब्रह्मलोकादि इतने पराधीन है सो कहां तक कहीये यांते विवेकी पुरुष नित्यात्माको जानके तदाकारही रहते हैं, वा तदाकार रहनेकी सर्वदा इच्छा करते है. अनित्य देहादिकोंकी उपेक्षा करे है For Private and Personal Use Only Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (९४) ॥ शमदमोपरतित्रयाणां स्वरूपं ॥ द्रुतविलम्बितं छंद:मनास भोगरतिक्षतिकृच्छमो विरतिकृच्च दमो भवतीन्द्रियात् । उपरतिर्विरतिर्विषये सदा वदति वेदविदां वरदैशिकः तितिक्षा, समाधानता, श्रद्धा,मुमुक्षुतेतिचतुर्णा स्वरूपं॥ शार्दूलविक्रीडितं छंदः-- शीतोष्णे समता दि सौम्य सततं या सा तितिक्षा मता या बुद्धेः सुखशांतसत्यविमले प्रीतिः समाधानता । वेदे दैशिकवाचि यापि सुरुचिः श्रद्धा हि सा वै शुभा मोक्षेच्छा हि भवाच्च यानघ मुमुक्षुत्वं हि मोक्षप्रदम् "ये तु रागढेषादिभ्योविमुक्तास्संतितेषुरुकस्य कथांशणु ॥ लुब्धक उवाच ॥ मुने मदीयवाणेन विद्धो मृग श्हागतः॥क्क प्रयातो मृग इति प्रत्युवाच स तं मुनिः१ समशीला वयं साधो मनयो वनवासिनः॥ नास्माकमस्त्यहंकारो व्यवहारेषुयःक्षमः ॥२॥ सर्वा णींद्रियकर्माणिकरोतिहिसरवमनः ॥ अहंकारमयंतन्मे नुनंप्रगलितं चिरम् ॥३॥ जाग्रत्स्वप्नसुषुप्त्याख्या दशा वेनि न काश्चन ।। तुर्य एव हि तिष्ठेऽहं तत्र दृश्यं न विद्यते ॥ ४ ॥ ॥इति द्वादशकमलं वैराग्यादिचतुष्टयसाधनात्मकमलं॥ For Private and Personal Use Only Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (९५) ३ ॥ अरु जिससे मन निर्विषय हुवा शांति पावे है तिस शम गुणका नित्य सेवन करता है. तथा जिस पूर्वोक्त ब्रह्मलोकादिकोंमे दोषदृष्टि से सर्वइंद्रियों को स्वाधीन रखता है, तथा जो खल्पाहारसें, ब्रह्मचर्य से शांतात्मा जितेन्द्रियवान् पुरुष है, सो दम गुणवान् कया जाता है. सोई महात्मा जब शरीर करके विषयोंका त्यागकर संन्यासी होता है, सो उपरति गुणसे विभूषित होता है. सर्व निवृति होने के कारण ब्रह्मानंदमे सर्वदा मग्न रहता है. 66 एवं सोई पुरुष मानापमान शीतोष्णादिकों का जब सहन करता है तब तितिक्षु नामसे प्रसिद्ध होता है; तथा वह विद्वान् जब सच्चिदानंदमे सामान्यरीतिसें रहिनेका प्रेम रखता है तब सो समाधानवाला सर्वदा सुखी मनुष्यजानना. और जो मुनि “ तत्वमसि " महावाक्योंमे सर्वदा विश्वासपूर्वक संलग्न है सो श्रद्धालु जानना ॥ पुनः जो विवेकी सुजन पुरुष वस्त्रों वह्निस्पर्शवाले समान जलकी ईच्छावत् विश्वाग्निसे निवृत्तिलिये ब्रह्मानंदजलकी इच्छाविना त्रिलोककों भी नही चाहता सो अधिकारी जानो आगेरंतिदेव राजाकी कथाको तुम श्रवणकरो. * ॥ इतिश्री द्वादश कमलं समाप्तं हरि ॐ तत्सत् ॥ For Private and Personal Use Only Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (९६) ॐ अत्र शास्त्रानुबंधयोः कांडसमाप्तौ मंगलस्थानीयं । सामवेदीय द्वांदोग्यकेनोपनिषदोः शांतिपाठ माश्रयामि ॐ ॥ आप्यायंतु ममांगानि वाक् प्राणश्चक्षुः श्रोत्रमथो बलमिंद्रयाणि । च ॥ सर्वाणि सर्वं ब्रह्मोपनिषदं मादं ब्रह्म निरा कुर्या मामा ब्रह्म निराकरोदनिराकरण मस्त्वनिराकरणं मेऽस्तु तदात्मनि निरते य उपनिषत्सु धर्मास्ते मयि संतु ते मयि संतु ॥ हरि ॐ शांतिः ३ ॥ अर्थः॥ ॐकार एक यह प्रार्थना करता हु हमारे वाक् प्राण चक्षुः श्रोत्र बल वाकी भी सर्व इंद्रियों विषयवासना से रहित होकर ब्रह्मज्ञान वास्ते अंगरूप नाम साधनरूप आप्यायं तु नाम पुष्ट योग्यता वाले हो जावे | और दूसरी प्रार्थना यह है | उपनिषद् गम्य सर्व रूप ब्रह्म है तिस ब्रह्मका मै विस्मरण न करूं सो ब्रह्म मेरी भी उपेक्षा न करे मेरे से ब्रह्मका अनादर न होवे तथा ब्रह्मसे भी मैं अनादरको न पावों और तीसरी प्रार्थना यह है ॥ जे वेद पवित्र धर्म कहे है ते संपूर्ण आनंदरूप तथा ब्रह्माभिन्न जो मैतिस हमारेमे निवास करे ।। हरिॐ ॥ ॐ सहनाववतु ये पाठसामने लिखा है अर्थ यहां सुनो ॥ गुरुशिष्यका पठनपाठ गुरुशिष्य दोनोकी रक्षा करे सुख भोगावे बलवान् तेजस्की करे गुरुशिष्यकों यपस्पर द्वेषवान् न करावें. For Private and Personal Use Only Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥ॐ श्रीगणेशायनमः॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय॥ ॥अथ श्रीविज्ञानकमलाकरेऽनिर्वचनीय कांडं प्रारभ्यते ॥ मंगलाचरणमत्र यजुर्वेदस्य शांतिपाठ एवास्ति ॥ शुक्लयजुर्वेदे बृहदारण्यकेशोपनिषदोः शांतिपाठः।। ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात्पूर्णमुदच्यते॥ पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते॥ॐ शांतिःशांतिः शांतिः ॐ शंनोमित्रः शंवरुणः शंनोभवत्वर्यमा शंनइंद्रो बृहस्पतिः शंनो विष्णुरुरुक्रमः नमो ब्रह्मणे नमस्ते वायो त्वमेव प्रत्यक्षं ब्रह्मासि त्वामेव प्रत्यक्षं ब्रह्म वदिष्यामि ऋतं वदिष्यामि सत्यं वदिष्यामि तन्मामवतु तद्वक्तारमवत्ववतुमामवतु वक्तारं। हरिः ॐ शांतिः ३ अर्थः।। ईश पूर्ण है जीव भी पूर्ण है ब्रह्मसे अभिन्न जीव भी पूर्ण प्रगट भया है पूर्ण इसजीवके लक्ष्यरूपको सो मैं हूं: एसे जानकर पूर्णही शेषस्वयं रदिजाता है. शांतित्रय अध्यात्म अधिभूत अधिदेव साप माशार्थ है ? अर्थः॥ मित्र वरुण अर्यमा इंद्र बृहस्पति विष्णु वामन मुजे सर्वसुख देवो । ब्रह्मकेताई नमस्कार दो हे वायो तेरे ताई नमस्कार हो आप साक्षात् ब्रह्म हो आपको ही साक्षात् ब्रह्म कहेंगे सत्य बोलेंगे सत्य ब्रह्मको ही जपेगे वह ब्रह्म मेरी श्रीगुरुकी रक्षा करे पुनः रक्षा करे। ॥ॐ सहनाववतु सह नौ भुनक्तु सद वीर्य करवावहै। तेजस्विनावधीतमस्तु माविद्विषावहै॥ॐ शांतिः॥३॥ For Private and Personal Use Only Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ( २ ) * १ ॥ अथ त्रयोदशकमले रंतिदेव नृपतेः कथावर्णनं । + Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रंतिदेवस्य ही यश इहामुत्र च गीयते ॥ वियद्वित्तस्य ददतो लब्धं लब्धं बुभुक्षतः ॥ १ ॥ निष्कंचनस्य धीरस्य सकुटुंबस्य सीदतः ॥ व्यतीयुरष्टचत्वारिंशदहान्यपिबतः किल ॥ २ ॥ घृतपायससंयावं तोयं प्रातरुपस्थितम् ॥ कृच्छ्रप्राप्त कुटुंबस्य क्षुत्तृभ्यां जातवेपथोः ॥ ३ ॥ अतिथिर्ब्राह्मणः काले भोक्तुकामस्य चागमत् ॥ तस्मै संव्यभजत्सोऽन्नमादृत्य श्रद्धयान्वितः ॥ हरिं सर्वत्र संपश्यन् स भुक्त्वा प्रययौ द्विजः ॥ ४ ॥ For Private and Personal Use Only Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (३) * १॥ अथ त्रयोदश कमलमे रंतिदेव राजाकी कथा। * एक महाराजा रंतिदेव होताभया जैसे धर्मराजा वा हरिश्चंद्रराजा किसी कारणते स्वराजतेरहितहोते भये है तैसे इस रंतीदेवकीभी विनाराजते निर्जन वनमे स्थिति होतीभयी, सो स्वराजमे एसा दया धर्मसे समय व्यतीत कीया है कि जिसका गुणानुवाद स्वर्गलोकमें गायन होताथा ॥१॥ तिसी महा राजकी वनमे एसी स्थिति होतीभई जो ४८ दिन अन्न जल विना कुटुंब समेत क्षुधा पिपासासे पीडित होतेभये ॥२॥ एसी महेश्वर तिसकी परीक्षा करता भया. पश्चात् एक दिनमेस्वर्णके थालमे नानाविचित्र छपनप्रकारके भोग्यपदार्थ तथा जलपूर्ण पात्र परमेश्वर प्रेरित तिसके सन्मुख नयनगोचरभया ॥ ३ ॥ जब राजाक्षुधापिपासासे कांपताहवा अरु क्षुधापपासासें पीडित निजपरिवारको यथायोग्य अन्नजल देकरके शेषविभाग अपने अन्नजलके भक्षणमे प्रवृत्ति करने लगताही है तिलीक्षणमे एक क्षुधातुर ब्राह्मण अतिथिने याचना करी. हे प्रभो मै क्षुधातुरको खानेकों देवो तब राजाने तिसको परमात्माका स्वरूप जानकर नमस्कार स्तुति पूजा पूर्वक स्वभोजन विभागमेंसे अर्धविभाग ब्राह्मणदेवको समर्पण कीया. सो भूसुर प्रसन्नमन जाता रहा.पश्चात् खानेमे प्रवृत्ति कर्त्ताही है। For Private and Personal Use Only Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (४) २॥ अथाऽन्यो भोक्षमाणस्य विभक्तस्य महीपतेः ॥ विभक्तं व्यभजत्तस्मै वृषलाय हरिं स्मरन् ॥ ५॥ याते शूद्रे तमन्योऽगादतिथिः श्वभिरावृतः ॥ राजन्मे दीयतामन्नं सगणाय बुभुक्षते ॥ ६ ॥ साढत्यावशिष्टं यछुमानपुरस्कृतम् ॥ तञ्च दत्वा नमश्चक्रे श्वभ्यः श्वपतये विभुः ॥ ७ ॥ पानीयमात्रमुच्छेषं तच्चैकपरितर्पणम् ॥ पास्यतः पुल्कसोऽभ्यागादपोदेह्यशुभस्यमे ॥ ८॥ तस्य तां करुणां वाचं निशम्य वियुतश्रमाम् ॥ कृपया भृशसंतप्त इदमाहामृतं वचः ॥ ९ ॥ ३॥न कामयेहं गतिमीश्वरात्परामष्टर्धियुक्तामपुनर्भवं वा। आति प्रपद्येऽखिलदेहभाजामतःस्थितो येन भवत्य दुःखः॥१०॥ For Private and Personal Use Only Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ५ ) २ || तत्काल एकशुद्र अतिथी आयपहुंचा. वो बोला हे महाराज मुजक्षुधातुरको भोजन देवो. तिसको भी सर्वव्यापी परमेश्वरजान नमस्र पूजन करके अर्धभाग स्वभोजन में समर्पण कीया. ५ जबी शूद्र प्रसन्नमन होय जाताभया तबी महाराज फिर भोजन करनेमे प्रवृत्ति करता ही है. तब एक बहु श्वानोकेसाथ अतिथिने दर्शनदीया ॥ ६ ॥ तिसकोभी श्वानोसमेत परमेश्वररूपजान नमस्कारादिको से आदरपूर्वक संपूर्ण भोजन समर्पणकीया. जब सो श्वानसमेतअतिथि गया ॥ ७॥ तब महाराजकेपास केवलजलमात्र शेषरहा. अरु पीनेका प्रारंभ करताही है तबतक तो एक चांडाल वेशधारी अतिथि आयपहुंचा अरु कदनेलगा हेमहाराज. मै अमंगलमूर्त्ति चांडालके तांई पानी देवो ॥ ८ ॥ न देवोगे तो ये मेरेप्राण गयाही जानो. तब महाराज रंतिदेवकी अपने क्षुधापिपासा दुःखकी व्यथा भूल गई. अरु पिपासापीडित चांडाल अतिथिकी व्यथासें दुःखी हुवा महाराज अमृतरूपी वचनासें तिसका सिंचन कीया ९ ३॥ महाराज कहते है हमको अष्टसिद्धियों समेत मोक्षभी नही चाहीये हम चाहते है की प्राणीमात्रके दुःखको मै प्राप्तदोवों जिससे यदजीवमात्र निर्दुःखढुवा सुखसें जीवता रहै ॥१०॥ For Private and Personal Use Only Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir क्षुत्तृट्समो गात्रपरिश्रमश्चदैन्यंक्लमः शोकविषाद मोहाः। सर्वे निवृत्ताः कृपणस्य जंतोर्जिजीविषोर्जीव जला पणान्मे ॥ ११ ॥ इति प्रभाष्य पानीयं म्रियमाणस्य पिपासया। पुल्कसायादाद्वीरो निसर्गकरुणो नृपः ॥१२॥ तस्य त्रिभुवनाधीशाः फलदा फलमिच्छतां । आत्मानं दर्शयांचकुर्मायाविष्णुविनिर्मिताः॥१३॥ ४॥ भो शिष्य ये सत्पुरुषा एतादृशाः सन्ति तेषांहि अपरोक्षज्ञानं सुलभं भवति तदुक्तं वासिष्ठे ग्रंथे॥ अपि पुष्पदलनाद्वै नयनोन्मीलनात्तथा । सुकरोऽहंवृत्तेस्त्यागो नाऽत्रक्लेशो मनागपि । भोः सौम्य सर्वमिदमहंच वासुदेव इति ज्ञात्वा जीवन्मुक्तः सन्विदेहमोक्षं प्राप्य न स पुनरावर्तते ॥ ___ ॥सः शिष्योऽपि गुरुदेवस्य वाक्यं श्रुत्वा पुनरपि नम्रतासंयुक्तः सन् उवाच-भोः स्वामिन् सर्वमिदमहं च वा सुदेव इति ज्ञाने सति गुरुशिष्यादिद्वतज्ञानं कथं सिद्ध्यति. For Private and Personal Use Only Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (७) इस चांडालकी पानीबिनादीनावस्थातथा शोकमोद परिश्रमग्लानी है सा संपूर्ण हे, ईश्वर हमारे जलमात्र समर्पणले निवृत्तिकरो ॥११॥एसे कहकर जल. मात्रभी तिसको समर्पण किया ॥१२॥ एसे कृपालु धीरात्मा महाराज रंतिदेवको सर्वरूपसे अर्थात् ब्राह्मण शूद्र श्वानसमेत जो आयाथा तथा जल पीनेवाला चांडाल इन सर्व रूपोंसे अंतर्यामीने स्वस्वरूपसे दर्शनदेकरके महाराजरंतिदेवको कृतार्थ कीया १३ ४॥ हे सौम्य एसे पुरुषोत्तमदी चतुष्टयसाधनसंपन्न मोक्षाधिकारी होते है एसे पुरुष मोक्ष न चाहे तोबी बलात्कारसे मोक्षमिले है. एसेपुरुषोंके लीये वासिष्ठ मे वसिष्ठजी कहते है, जो फूलमर्दनमे नेत्रोंके निमीलनमे तो श्रम होवे है परंतु पूर्वोक्तपुरुषोंकेलीये मोक्षमे यत्न वा विलंब लागतानही. एसे पुरुष गुरु उपदेशसें “तत्वमसि' महावाक्यसें अपने सहित सर्वको वासुदेवजानकरके जीवन्मुक्ति तथाविदेहमोक्षको प्राप्तभये. फिर जन्ममरणमें नही आवता है शिष्य उवाच ॥ हे प्रभो जब रंतिदेवराजाको सर्ववासुदेव निश्चयभया तब भेदव्यवहार कैसे सिद्ध होवेगा? अरु सर्वजगत् भेदव्यवहारसे व्याप्त देखनेमे आवे है यांते सर्व एकवासुदेव कैसे निश्चयहोवे ॥ For Private and Personal Use Only Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (८) श्री गुरुरुवाचस्थाणी चौरमहिरज्वां यथाऽऽकाशे च नीलताम् । पश्यंत्यज्ञा जले कांचं भ्रांत्या द्वैतं तथाऽद्वये ॥ शिष्य उवाच-भो भगवनत्र भ्रमस्थले पंच ख्यात यः श्रूयंते ताः यथा भवंति तथा कृपया सविस्तरं मह्यं वक्तव्याः इति शिष्यप्रार्थनां श्रुत्वा आदी ख्यातिचतुष्टयं यत्पूर्वपक्षरूपं तस्य मंडनं खंडनं च श्रीगुरुरब्रवीत् वक्षमाणकमले ॥ ॥ इति त्रयोदशकमले रंतिदेवस्य कथा समाप्ता । * १॥अथ चतुर्दशकमलेख्यातिचतुष्टयं प्रतिपाद्यते ।* अधुना असत्ख्यात्यात्मख्यात्यन्यथाख्यात्य. __ ख्यातीनां वर्णनम् ॥ बुद्धमतानुयायी माध्यमिक असतख्याति वदति तच्छृणु। सर्वशून्यरूपं भवति तस्मात् रज्जुदेशेऽन्यत्रवा सर्पस्यात्यंताभावोऽस्ति तस्यात्यंताभावरूपस्य सर्पस्य रज्जुदेशे यद्भानं कथनं च साऽसतुख्यातिरस्ति तत्तु न संभवति ' नासतो विद्यते भावो' इति भगव. द्वाक्येन विरोधात् वंध्यापुत्रस्य कनकं विना कुंडलस्य मृदंविना घटस्य तंतुंविना पटस्य च भानादर्शनाच्च सर्वत्रात्यंताऽभावस्य तुल्यत्वात् For Private and Personal Use Only Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीगुरुरुवाच-जैसेस्थाणुमें चौर. रसीमें सर्प. आकाशमे नीलता, जलमे कांचका भ्रमहोवे है तैसे अद्वैतमे द्वैत भासे है ।। शिष्य उवाच-इस भ्रमस्थलमें पंडितोसें पांचख्याति सुनी है, सो मैं जानता नही आप विस्तारसे सुनाइये. शिष्यका प्रश्न सुनकर श्री गुरु पूर्वपक्षरूप चारख्याति कहते है ।। इति श्री त्रयोदशकमलमे महाराजारंतिदेवकी कथाऽलं *१॥अथ चतुर्दश कमलमे चतुष्टय ख्यातिकाकथन* अब चारख्याति. असतख्याति, आत्मख्याति, अन्यथाख्याति, अख्याति इनोका क्रमसे निरूपण करते है. बुद्धानुसारी माध्यमिक है ते असतख्या. तिको मानते है सो तिस असत्रख्यातिकी रीतिएसे है॥सर्वप्रपंच शून्यसूप है तिसकारणतें जहां रज्जुमे सर्पभासता है सो सर्पकढूंभी नही. रज्जुदेशमे वाः अन्यदेशमे सर्पका अत्यंताभावही है, तिस अत्यंता, भाववाले सर्पका जो रज्जुदेशमे भानहोना तथा कथनहोना तिसकानाम असत्रख्याति है, एसे बौद्धमानते है सो अयोग्य है. काहेते, असत्का भाव नाम होवनादोताही नहीं यह श्रीकृष्ण कहिगये है. एवं बंध्याके पुत्रका और विना कनकसे कुंडलका, मृत्तिकाविना घटका, तंतुविना पटकाभी भान होना चाहीये,काहेते, जो असत्यत्व सर्वमे तुल्यही है ॥ For Private and Personal Use Only Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (१०) यथा बंध्यापुत्रादीनां भानं न भवत्यत एवा सत्यं तत्ववाक्यमिदं यदसतो दर्शनं कथनं चेति सर्वस्य शून्यवांगीकारे तव वक्त्तुरभावात् वदतो व्याघातः ॥ २ ॥ बुद्धानुयायिनो योगाचारस्य मते चैवमस्ति प्रतिक्षणे नाशमुत्पत्तिं चाप्नोति या बुद्धिर्नाम विज्ञानं तदेव सर्वरूपमस्ति ततो रज्जुदेशेऽन्यत्र वा सर्पस्तु कापि नास्ति किं तु क्षणिकविज्ञानरूपा या बुद्धिस्तस्या सर्पाकारण भानं कथनं च साऽऽत्मख्यातिर्भवति तत्कथनमप्यनुचितं यतो यावदधिष्ठानस्य ज्ञानं न भवति तावत्कालपर्यंतं सर्पभ्रमो न निवर्तते यदि क्षणिकं भवेत् तदा तु रज्जुज्ञानं विनापि क्षणकाले स्वयमेव नश्येत् यतो रज्जुज्ञानं विना बहुकालपर्यंतमपि न नश्यति ततोऽस्यापि कथनमसत्यमिदं यत्सर्पस्य क्षणमात्र भानमिति ॥ ३|| प्राचीन नैयायिका वैशेषिकाचैवं वदंति यथा पित्तदोषात् जठराम्रो पाचनशक्तिवृद्धिं प्राप्य वहुभोजनमपि पचति तथा नेत्रंद्रियमपि तिमिरपितकामलादि दोषादधिकदर्शनशतिं प्राप्य दूर For Private and Personal Use Only Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (११) जैसे वंध्या पुत्रादिकोंका भाननहींहोता तैसे जो सर्पभी असत्यहोता तो भासतानही तथा सर्व शून्य दोनेते तुम कहनोवालकाभी असत्यहोनेते तुम कथन करनेमे कैसे सामर्थ्य को धारते, यांते असत्ख्यातिका कथनभी असतहोनेते आनादरणीय है ॥ २ ॥ दूसरे बौद्ध जे योगाचार कहावते है. तिनके मतमे आत्मख्यातिका अगंकर है सो इस रीतिसे है. क्षणक्षणमे उत्पत्तिनाशको प्राप्तहोतीजो बुद्धि नाम विज्ञान सोइ सर्परूपहोइ भासता है. बुद्धिसे भिन्न रज्जुमे वा अन्यत्र कहूंभी सर्प हैनही, किंतु क्षणिक विज्ञानरूपजा बुद्धि है तिसकाही सर्परूपसे भान अरुकथनहोना तिसकानाम आत्मख्याति कही है। यहभी कथन मिथ्याही है काहेते. जबपर्यंत अधिष्ठानका ज्ञान नहीहोता तब बहुतकाल पर्यंतभी भ्रम निवृत्त नहींहोता, जो सर्प क्षणिक विज्ञानरूप होवे तो अधिष्ठानज्ञानविना स्वयंक्षणानंतर भ्रम नाश होइजाता जबकि ज्ञानविना बहुकालपर्यंतभी नाश होवे नही यांते आत्मख्याति वादभी असत्यही है. ३॥ प्राचीन नैयायिक अरु वैशेषिक अन्यथाख्याति इसरीतिसे मानते है जैसे पित्तदोषसे जठराग्नि बहुत. भोजनके पचावनेको समर्थ होवे है, तैसे नेत्रभी पित्तादिदोषसे देखनमे अधिकसमर्थ वालाहुवा दूर For Private and Personal Use Only Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (१२) वल्मीकेस्थितस्य सर्पस्यान्यत्र नामरज्जुदेशेऽत्रापरोक्षण भान कथनंच भवति साऽन्यथाख्यातिर्भवति तदेवार्थाध्यासो ज्ञानाध्यासश्चेति वदंतीयमेकान्यथाख्यातिरिति तन्मतमनादरणीयमस्ति यदि सदोषान्नेत्रंद्रियात्दूरस्थितस्य सर्पस्य भानं भवेत्तर्हि मध्यस्थानां भानं कथं न भवति यतश्च मध्यस्थानां भानं न भवति तस्मात्तेषां कथनमुन्मत्कथनवत्याज्यं ॥ ४॥चिंतामणिग्रंथम्य कर्ता चिंतामणिकारस्तु नवीन नैयायिकस्तस्य तु मते सदोषनेत्राद्रजोरेवान्यथा नाम सर्पाकारेण भान कथनंच सान्यथा ख्यातिभवति सोऽयं ज्ञानाध्यासोपि कथ्यते. तस्य मतमप्यसमी. चीनमस्ति यतो ज्ञेयं रज्जुर्ज्ञानं सर्पस्य तत्कथं संभवति यथाज्ञेयं मनुष्यस्तत्र ज्ञानं तु हस्तिनइति वद संभवमस्यापि नवीनस्य मतमिति ॥ ५॥अख्याति वादिनो ये सांख्यिनो मीमांसकाश्च प्रभाकरमतानुयायिनस्ते वेवं वदंति तथाहि, यत्र रज्यां सर्पज्ञानं भवति तत्रायं सर्प इति भानं भवति तत्रेयं रनोरेव सामान्यज्ञानमेकं ॥ For Private and Personal Use Only Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (१३) वल्मीक मे स्थित सर्पको सन्मुख रज्जुदेशमें देखे हैया का नाम अन्यथाख्याति मानते है, इसको अर्थाध्यास ज्ञानाध्यासभी कहते है सो अन्यथाख्यातिवादभी समीचीन नहीं है, काहेते. जोसदोष नेत्रसें जब दूरदेशविषे सर्पका भान मानते है तो मध्यस्थ पदार्थों का ज्ञानभी होनाचादीये अरु होतानही यांते अन्यथा - ख्यातिवादभी उन्मत्तके वाक्यवत् त्यागने योग्य है ॥ ४ ॥ और चिंतामणि ग्रंथ के कर्ता नवीननैयायिक युं कहता है. जो सदोषनेत्रोंसें रज्जुही अन्यथा नाम सर्पके आकार भासे है तथा सर्पनामसे कहने मेआवे है यांदीको अन्यथाख्यति माने है तथा ज्ञानाध्यासभी इसकानाम कहते है सो यहमतभी अनुभबसें विरोध होनेते त्यागनेयोग्य है कादेते जो पदार्थरज्जु तिसमे ज्ञान सर्पका दोवना यह कैसे अनुभ मे आवेगा जैसे अश्व मेश्वानका भान अंगीकारकरना नहीनता तैसे रज्जुको सर्पजानना नही बनता यांते चिंतामणिका मतभी चितविभ्रमवालेके कथन समान त्याज्य जानना. ५|| अब अख्यातिवादीजे सांख्यवादी अरुमीमांसक तिनोका मतनिरूपण करते है सो श्रवणकरो. जहां रज्जुमे सर्पका ज्ञान होता है तहां यह सर्प है एसा भानहोवे है. यहां यहपद रज्जुके सामान्य रूपका वाचक है. For Private and Personal Use Only Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org भ्रमस्य मस्तीति ॥ (१४) सर्पोऽस्तीति सर्पस्य स्मृतिज्ञानं द्वितीयज्ञानं एतेषां मते सर्वत्र द्वे ज्ञानस्तः भ्रमज्ञानं तु नास्त्येव तथापि प्रमातरि भयदोषं तिमिरदोषच प्रमाणे तद्वशात्पुरुषस्यायं विवेको न भवति मम द्वे ज्ञाने जाते द्विज्ञानयोरविवेक एव सांख्यप्रभाकरयोर्मते सर्प भ्रमो भवपि तस्य सर्पस्यज्ञानं कथनंच साऽख्यातीत्याहुः मे ज्ञाने जातियद्विवेकस्तदेवज्ञानं तेन ज्ञानेन सर्पनिवृत्तिर्भवतीतीयमेवाख्यातिवादिनोमत Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६॥ तेषां मतमपि विवेकाभावादेव समीचीनं तदेवं न संभवति अत्र भ्रमस्थले यदि सर्पस्य स्मृतिर्भवे - तर्हि सर्पस्य स्मृतिज्ञानाद्भयं पलायनं च कथं संभव - ति न च सर्पस्मरणमात्रेण कोऽपि पलायते जयं चानोति तस्मादीयमख्यातिरपि न संभवति किं च यदा रज्जुज्ञानं भवति तदाऽयं वदति मेऽस्यां रज्वामत्यंतासतः सर्पस्य प्रतीतिः संजाता न च कोऽपि बदति मे सर्पस्य स्मृतिरनूत् ॥ For Private and Personal Use Only Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अरु सर्प है यहपद सर्पके स्मृतिज्ञानका बोधक है. सो दूसराज्ञान है इनोंके मतमे सर्वत्र दो ज्ञानही होवे है यहपद रज्जुके सामान्य प्रत्यक्षज्ञानका बोधक है सर्प है यहपद सर्पक स्मृतिरूप द्वितीय ज्ञानका सूचक है यांते इसके मतमें कहभीभ्रम ज्ञान नही है तोभी प्रमातामे भय लोभदि दोष तथा प्रमाणमे पितादि दोष रहे है तिसके बलते पुरुषको एसा विवेक नहीरहसकता जो मेरेको दो ज्ञानभये है है दो ज्ञानका जो अविवेक है सोइ सांख्यीयों तथा मीमांसकोंके मतमे भ्रममानते है जब एसा ज्ञानहोवे जो हमको दो ज्ञानभये है तब तिसज्ञानसे सर्पभ्रमकी निवृत्ति होजाती दे॥ ६॥ यह तिनोंका मत है सोभी तिनोके अविवेककाही सूचक है. काहेते, जो रज्जुमे सर्पकी स्मृतिमात्र होवे तो भय अरु भागना नहींहोना चाहीये, काहेते. जो यहां भयभीत होता है तथा भागता है कहं भयते भागनेसे गढामे गिर मरभी जाता है सो सर्पके स्मृतिमात्रसें भय भागना मरना. अनुभव विरुद्ध होनेते एसा अख्यातिवादभी असतही है, और जब रज्जुका प्रत्यक्षज्ञानहोता है तब कहता है इस रज्जुमे हमको असत्सर्पका भान होता भया. एसा नहीकहता जो रज्जुमे सर्पकी स्मृति होतीभई For Private and Personal Use Only Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अतोपि मिथ्यैवाऽसत्ख्यातिरिति किं च एककालेंऽतःकरणस्य विज्ञानं नैव नवति तस्माद ख्यातिरसिद्धा नवतीति मंतव्यम् ॥ यतश्चतुर्णी ख्यातीनां कथनमुक्तप्रकारेणानादर. णीयमत एव यापंचमीख्यातिरनिर्वचनीयनामिका नवति सैवादरणीया तत्कथनमपिसविस्तारेणैवमास्त त्वं सावधानेन मनसा श्रवणं कुरु. साचानिर्वचनी यख्यातिः सदसद्विलक्षणरूपा नवतीति दर्शयिष्यामः इति चतुर्दशकमलं समाप्तं हरिः ॐ॥ * १॥ अथ पंचदशकमले अनिर्वचनीयख्यातेर्वर्णनं।* ॐ यत्र घटे घटस्य ज्ञानं भवति तत्रांतःकरणस्य वृत्तिर्नेत्रद्वाराबहिर्निर्गत्य घट समानाकारं प्राप्य घटस्थमावरणं नाशयित्वा घटोऽमिति घटं विजानाति तत्र घट ज्ञाने प्रकाशोऽपि सहकारी नवति प्रकाशं विना घटादिज्ञानं न संभवति यत्र तु रज्जौ सर्पनमो नवति तत्रांतःकरणस्य वृत्तिनेत्रद्वारा निर्गत्य रज्जुदेशं प्राप्यापि तिमिरादिप्रतिबंधके सति रज्जुसामान्याकारा न भवति ॥ For Private and Personal Use Only Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (१७) यांतभा अख्यातिमत असत्ही है और एक कालावच्छिन्न अंतःकरणमे विरोधी प्रत्यक्ष अरु स्मृति यह दो ज्ञान होतेभी नहीं यांते अख्याति अनादरणीय जाननी॥ है शिष्य इस उक्त प्रकारसे वे पूर्वपक्षरूप चार ख्यातियोंका मंडन तथा खंडन तुमसे कहि सुनाया. पूर्वोक्त दूषणोसें दूषित ये चारख्याति अंगीकारके योग्य नहीं किंतु वक्षमाणजा अनिर्वचनीय ख्याति है जा सत्असत्से विलक्षण रूप है सा तुमको वि. स्तारसे कहता हुं तुम सावधानमनसे श्रवण करो। इति श्री चतुर्दश कमलमे चतुष्टय ख्यातियोंका कथन समाप्तः * १॥ अथ पंचदश कमलमे अनिर्वचनीय ख्याति* जहां घटविषे घटका ज्ञानहोता है तहां अंतःकरण की वृत्ति नेत्रद्वारा बाहर निकलकरके घटसमाना. कार होइके घटका आवरणदूरकरके यहघट है एसे घटको जाने है तहां घटज्ञानमे प्रकाशभी सरकारी होता है विनाप्रकाश घटप्रत्यक्ष होताही नही। और जहां रज्जुविषे सर्पभ्रमहोवे है तहां नेत्रद्वारा अंतःकरणकी वृत्ति निकलकर रज्जुदेशमे जायकरभी प्रकाशविना रज्जुसमानाकार होतीनही॥ For Private and Personal Use Only Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (१८) २ ॥ तस्मात्कारणात् रज्जोरावरणं न विनश्यति तदा रज्जूपहितचेतने याऽविद्या सा परिणय सर्पाकारा भवति स सर्पो यदि सत्यः स्यात्तर्हि रज्जुज्ञानेन कथं निवर्तते तदेव सत्यं भवति यत्तु त्रिष्वपि कालेषु न विनश्यति स सर्पो यदि मिथ्या स्यात्तर्हि वंध्यापुत्र वन्नेत्र विषयो न स्यात् यतो रज्जुज्ञानेन नश्यति भवति च नेत्रविषयस्ततः सदसद्विलक्षणः सर्पभ्रमोऽनिर्वचनीय एव भवति तस्यानिर्वचनीयसर्पस्य यद्भानं कथनं च साऽनिर्वचनीयख्यातिर्भवति ॥ ३॥ यथा सर्पोऽनिर्वचनीयस्तथा सर्पज्ञानमपि अनिर्वचनीयं अविद्यापरिणामो न त्वंतःकरणस्य परिणामः सर्पनाशवत् ज्ञानस्यापि नाशदर्शनात् यदैव रज्जूपहितचेतने तमःप्रधानाऽविद्या सर्पाकारेण परिणमते तदा साक्षिणिस्थिता याऽविद्या सा सर्पस्य ज्ञानाकारेण परिणमते सर्पसर्पज्ञानयोरुत्पत्नौ निमित्तं रज्वावरणभंगाभावोस्ति साधिष्ठानज्ञानं च द्वयोर्विनाशे कारभवति ॥ For Private and Personal Use Only Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (१९) २॥यांते रज्जुका आवरण भंग न होनेते रज्जउपहित चेतनविषे जा अविद्या है सा साकार परिणामको प्राप्तहोती है सो सर्प सत्यहोवे तो रज्जु. ज्ञानसे नाश नहीहोता काहेते. सत्य तिसका नाम है जिसका तीनकाल विष नाश नही होवे. जो रज्जुमे सर्पमिथ्याहोवे तो वंध्यापुत्रवत् प्रतीत होना नहीचाहीये अरु प्रतीतहोवे है. रज्जुज्ञानसे नाशभी होवे है यांते सत् अरु असत्से विलक्षण होनेते सर्प अनिर्वचनीय कहा है तिस अनिर्वचनीय सर्पका जो भान अरु कथन सा अनिर्वचनीय ख्याति ३॥ यहां जैसे सर्प अनिर्वचनीय है तैसे सर्पका ज्ञानभी अनिर्वचनीय है अरु अविद्याका परिणाम है अंतःकरणका परिणामनही. काहते जो सर्पनाशवत् सर्पका ज्ञानभी नष्ट होजाता है जिसकाल रज्जु उपदित चेतनमे तमःप्रधान अविद्या साकार परिणामको पावे है तिसी कालविपे साक्षीमे स्थित जा अविद्या है सा सर्पके ज्ञानाकार परिणामको पावे है सर्प तथा सर्पकाज्ञान इन दोनों के उत्यत्तिविषे निमित्त रज्जुका आवरणभंग न होनाही है सर्पके अधिष्ठान रज्जुका ज्ञानजो है सो सर्प अ सर्पज्ञान इन दोनोंके नाशमे निमिनकारण जानना ॥ For Private and Personal Use Only Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (२०) ४॥स्वप्ने तु साक्ष्याश्रिताऽविद्या तमोगुणेन विषयाकारं सत्वगुणेन च ज्ञानाकारं परिणमते तथासति बाह्यसर्पादिभ्रमं स्वप्नंचांतर्धमं साक्ष्येवाऽविद्यावृत्या प्रकाशते सर्पादिभ्रमोऽविद्यायाः परिणामश्चेतनस्य च विवर्तएव “उपादान समसत्ताकत्वे सत्यन्यथा स्वरूपः परिणामः" "उपादानविपरीतसत्ताकत्वे सत्यन्यथा स्वरूपो विवर्तः” अन्यत्रापि स्वस्वरूपमपरित्यज्य रूपांतरप्राप्तिर्विवर्तः स्वस्वरूपं परित्यज्य रूपांतर प्राप्तिः परिणाम इति प्रतिपादितः ५ ॥ मिथ्या सर्पस्याधिष्ठानं रज्जूपहितचेतनं न तु रज्जूमात्रं रज्जोरपि सर्पवत्कल्पितत्वात् कल्पितं च कल्पितस्याधिष्टानं न भवति ततो रज्जु. विशिष्ट चेतनमप्यधिष्ठानं न संभवति विशिष्टवर्ति धर्मस्य विशेषणवर्तित्वनियमात् ॥ ननु अधिष्ठानज्ञानादध्यस्तस्य निवृतिर्भवतीति नियमात रज्जूपहितचेतनमेवसर्पस्याधिष्ठानं न र. ज्जुमात्रं ॥ चेतनस्यातींद्रियत्वात् For Private and Personal Use Only Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (२१) ४|| और स्वप्नावस्था मे तो साक्षीके आश्रितजा अविद्या है सा अविद्यादी तमोगुणसें विषयाकार परिणामकोंपावे है और सत्वगुण से ज्ञानाकारपरिणाकोपा है ति कारणते ही बाह्यसपदि भ्रमको तथा अंतर स्वमादिभ्रमको अविद्याकी वृत्तिद्वारा केवलसाक्षीही प्रकाशकरे है सो भ्रम अविद्याका पणाम है चेतनका विवर्त है उपादानके समान सत्तावाला उपादानसे विलक्षण स्वरूपवालेका नाम परिणाम है और उपादान से विपरीत सत्तावाला विलक्षण स्वरूपकों विवर्तक है | - ५॥ मिथ्या सर्पका अधिष्ठान रज्जुवाला चेतन है केवल रज्जुही नही रज्जुको भी सर्पसमान कल्पित होनेसे स्वयं कल्पित हूवा दूसरे कल्पितका अधिष्ठान नही होय सकता क्यों जो विशि ष्ट धर्म रहे है सो विशेषणमे भी नियमसे रहि सकता है जैसे जो नीलवस्त्रपर बैठेगा सो नील रंगपर भी नियमसे बैठेगा || For Private and Personal Use Only शिष्य उवाच - हे भगवन् अधिष्ठानके ज्ञान से ही कल्पितकी नियमसे निवृति होती है यहां सर्पका अधिष्टान तो रज्जु उपदित चेतन है केवल रज्जु नही ॥ यांते चेतनको मन इंद्रियों का अविषय होनेसे चेतनके ज्ञानसे विना केवल Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (२३) रज्जुमात्रज्ञानात्कथं कषित सर्पस्य निवृत्तिर्भवति ॥ ६॥ उत्तरं ॥ यत्र रज्वादिजडपदार्थानां ज्ञानमंतःकरणस्य वृत्तिरूपं भवति तत्रावरणभंगमात्रं वृत्तेः प्रयोजनं भवति तदावरणं जडाश्रितं न संभवति किंतु जडस्याधिष्ठानं यच्चैतन्यमस्ति तस्याश्रितं भवति तथासति रज्जुसमानाकारां. तःकरणवृत्या रज्वविच्छिन्नचेतनस्यावरणभंगः क्रियते वृत्तिगताभासेन रज्जुः प्रकाश्यते चेतनस्तु स्वेन प्रकाश्यतेऽतो वृत्तिज्ञानस्याधिष्ठानचेतनेन सह रज्जुरेव विषयो न रज्जुमात्रविषयोऽस्ति तस्मात्सर्वत्रैवांतःकरणजन्यवृत्तिज्ञानस्य ब्रह्मैव विषयो भवति तथा सति यदेव रज्जुज्ञानं तदेव मिथ्यासर्पस्याधिष्ठानरज्जूपहितचेतनस्य ज्ञानं भवति तेन सर्पस्य निवृत्तिः संभवति ॥ ___ ७ ॥ ननु भवत्वेवं सर्पस्य निवृनिस्तथापि सर्पज्ञानस्य निवृत्तिः कथं भवति तस्याधिष्ठानस्य वृत्यविच्छिन्न साक्षिचेतनस्याज्ञात त्वादितिचेत्तत्रोत्तरं ॥ For Private and Personal Use Only Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (२३) रज्जु मात्र ज्ञानसे कैसे कल्पित सर्पकी निवृति होवेगी। ६॥ श्री गुरुरुवाच हे शिष्य जहां रज्जु आदिक जड पदार्थोका ज्ञान अंतःकरणकी वृतिरूप होता है तहां वृत्तिका प्रयोजन केवल आवरणको भंग करना इतने मात्रही होता है, सो आवरण केवल जडके आश्रित नही रहिता किंतु जडका अधिष्ठान जो चेतन है तिलकेही आश्रित रहिता है. याते तिसवृत्तिने रज्जुवाले चेतनका ही आवरण भंग कीया जाता है और वृत्तिमे जो आभास है सो रज्जुको प्रकाशता है अरु चेतन स्वयं प्रकाशमान अपने प्रकाशसेही प्रकाशता है याते वृत्ति ज्ञानका विषय अधिष्ठान सहित रज्ज है केवल रज्जुमात्र विषय नहीं है तिस कारणते सर्वत्र अंतःकरणजन्य वृत्ति ज्ञानका विषय ब्रह्मदी होता है याते रज्जुका जो ज्ञान है सोईही मिथ्या सर्पके अधिष्ठान रज्जु उपहित चेतनका ज्ञान होनेते कल्पित सर्पकी निवृत्ति होनी चाहिये । ७॥ शिष्य उवाच--भो कृपानाथ आपके वाक्यानुसार सर्पको निवृत्ति सिद्ध भई तथापि सपके ज्ञानकी निवृत्ति तो नही होती तिस ज्ञानका अधिष्ठान जो वृत्तिवाला साक्षी है तिसके ज्ञानका अभाव होनेते कैसे निवृत्ति होवे ॥ For Private and Personal Use Only Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (२४) श्रीगुरुरुवाच-हे सोम्य विषयविद्यमाने सात विषयस्य ज्ञानं भवति विषयाभावे ज्ञानस्याप्यभावो भवतीतिनियमात रज्जुज्ञाने सति सर्पविषयस्याभावात्स्वयमेव सर्पज्ञानविनश्यति यथा का. ष्ठविषयनाशे वन्देर पि विनाशो भवति तद्वदत्रापिज्ञेयम् ॥ ननु तथापि सर्पज्ञानस्य कल्पितत्वादेवाधिष्ठानज्ञानमंतरेण कथं निवृत्तिः स्यादिति चेत. ॥समाधानं-निवृतिर्द्विविधा भवति एकाऽत्यतानिवृत्तिः अपरा तु कारणे कार्यस्य लयरूपा निवृत्तिर्भवति तयोर्या कारणेनाज्ञानेन सह कार्यस्य निवृत्तिः साऽत्यंतनिवृत्तिः ॥ सेयं निवृत्तिस्तु अधिष्ठानज्ञानादेव भवति तथापि लयरूपा निवृत्तिश्च अधिष्ठा. नज्ञानेन विनापि भवति यथा सुषुप्तौ प्रलये वा पदार्थानामज्ञाने विलयो ज्ञानमंतरेणापि भवति यथा प्रलये कर्माभावो निमित्तं तथाऽत्र साभावो निमित्तमिति ज्ञातव्यं ॥ For Private and Personal Use Only Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥ श्रीगुरुरुवाच-दे सोच जब विषय होता है तबही ज्ञान होता है जब विषयका अभाव होवे तो तिसके ज्ञानकामी अभाव होजाता है, यह नियम जानना. जब रज्जतानसे सर्पका अभाव भया तब सर्पज्ञानभी स्वयं नष्ट होजाता है. जैसे काष्ट विषयके अभाव होनेसे अग्निकाभी स्वयं नाश होता है तैसे सर्पज्ञाननाश होवे है ॥ ॥ शिष्य उवाच॥ हे देव तौभी सर्पके ज्ञानको कल्पित होनेते अधिष्ठानके ज्ञानविना निवृत्ति कैसे मानीपे यह संशय नही निवृत्त होता ॥ ॥श्रीगुरुरुवाच उपायका उपायांतरभीनिर्दोषहोताहै इस न्यायसे यहउतरभीग्रहणयोग्यहै निवृत्ति दो प्रकारकी होती है एक अत्यंत निवृत्ति होती है दूसरी कार्यकी कारणमे लयरूप निवृत्ति होती है. जा अत्यंत निवृत्ति है सा कारणअजान सहित कार्यकी निवृत्तिरूप है सा निवृत्ति तो अधिष्ठानज्ञान विना होती नहीं परंतु लयरूप निवृत्ति तो अधिष्ठान ज्ञानविना भी होती है जैसे कि विनाज्ञान भूषणोंका कनकमे लय सुषुप्तिमे वा प्रलयम पदार्थोंका अज्ञान विषे लय होवे है सो ज्ञानविना कर्मके अभावरूप निमि. त्तसे होवे है तैसे ज्ञानविना सर्पाभावरूप निमित्तते सर्पके ज्ञामकीभी निवृत्तिहोवे है ॥ For Private and Personal Use Only Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (२६) ८॥किंच याज्ञानेनात्यंता निवृत्तिः साप्यत्रास्ति शृणु. यदा' रज्जुप्रत्यक्षज्ञानं भवति तदांतःकरणस्य वृत्तिर्नेत्रद्वारा निर्गत्य रज्वाकारा भवति तदा रज्वविच्छिन्नं वृत्यविच्छिन्नं चेतनमेकमेव भवति रज्जुश्च वृत्तिश्च के उपाधी एकत्र स्थि. तत्वात्तस्मायदेव रज्वविच्छिन्दस्य ज्ञानं तदेव वृत्यविच्छिन्नस्य ज्ञानं भवति तेन सर्पज्ञानस्यापि निवृत्तिर्भवति इयमेवात्यंता निवृनिरस्ति । ९॥ ननु यदुक्तं यत्रोपाधी हे रज्जुर्वृत्निश्च यदा एकस्थाने भवति तदातदुपहितमेकं भवति तन्न संभवति यतो ज्ञानं प्रमाताऽऽश्रितं साक्ष्या श्रितं वा भवति न तु बहिः रज्जुचेतनाश्रितं ज्ञानं संभावयितुमपिशक्यं तथा: वृत्वविच्छिन्नचैतन्यं कल्पितसर्पस्याधिष्टानमपि न संभावयितुं शक्यते यदि वृत्यविच्छिन्नचेतनमधिष्ठानं भवेत्तदांतः सर्पस्य भानं कथं न भवति कथं च बहिर्भानं भवति For Private and Personal Use Only Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ዓ (२७) ८ ॥ जो तुम दुराग्रह कहो कल्पितकी निवृत्ति अधिष्ठान ज्ञानविना होतीहीही एसेतुम प्रसन्न हो तो युक्ति सर्पज्ञानकी विवृति अनि ज्ञान से भी कहता हुं || हे शिष्य जब रज्जुका प्रत्यक्षज्ञान होता है तब अंतःकरणकी वृत्ति नेत्रद्वारा जाइ रज्जुके समान आकारवादी होनेते रज्जु अरु वृत्ति दोनो उपाधि एकस्थानविषे रहनेते दोनो उपाधी काला चेतनभी दोनो का स्वयं एकही अधिष्ठान होता है यांते जो ज्ञान सर्पके अधिष्ठान रज्जुपालेचेतनका है सोईही ज्ञानवृत्तिवाला चेतन जो सर्पज्ञानका अविष्ठान है तिलकाभी ज्ञान है तिल ज्ञानसे सर्पके ज्ञानकीभी निवृत्तिने है यही अत्यंत निवृत्ति जाननी ९ ।। शिष्य उत्सव के सुरो को अपने कहा जहां रज्जु और वृद्धि ये दोनो उपाधी एकत्र होवें तहाँ उपदितभी एकदोहोता है सो नदी बनता कीदेते. जो ज्ञान है सो प्रमाताके आश्रित होवे है अथवा साक्षी के आश्रित होते है वादर रज्जुचेतन के आश्रित होइही नही सकता तैसे वृत्तिवाला जो साक्षी है सो कल्पित सर्पका अधिष्ठान नदी वन सकता जो अष्ठान वच्छिन्न चेतन कल्पित सर्पका अधिष्ठान होवे तो भीतर सर्पका मान क्यों न होना चाहीये. बाहरभान क्यों होता है Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private and Personal Use Only Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (२८) ततो भिन्नाधिष्ठानमेव भवति रज्जुज्ञानेन सर्पज्ञानस्य निवृत्तिश्च केनापि प्रकारेण न संभवति भिन्नाधिष्ठानत्वात्" १०॥ समाधानं-यदा मंदांधकारऽतःकरणस्य वृत्तित्रद्वारा रज्जु समानाकारा भवति तदा इदमाकारांतःकरणवृत्यविच्छिन्नचेतनस्थाऽविद्या तमोगुणेन सर्पाकारेण परिणमते सत्वगुणेन सर्पस्य ज्ञानाकारण च परिशमतेऽतः सर्पस्य ज्ञानरय वाविद्योपादानकारणं चेतनस्याधिष्ठानत्वात् विवर्तोपादानकारणत्वं तथा सति रज्जुप्रदेशे रज्वविच्छिन्नचेतनमेव वृत्यविच्छिन्नचेतनं सर्पसर्पज्ञानयोरधिष्ठानमेव तस्माद्रज्जुज्ञानेन सर्पस्य सर्पज्ञानस्य च निवृत्तिर्भवत्येव रज्जुदेशे वृस्यवच्छिन्नचेतनस्य सर्पसर्पज्ञानयोंईयोरप्यधिठानत्वात् ॥ ११॥ यत्र चैकस्यां रज्वां दशपुरुषाणां सपोऽयं दंडोऽयं, मालेयं, भूरेखेयमीयं जलधारा का प्रथक् प्रथक् ज्ञानं भवति किंवा सर्वेषां सर्पज्ञानं भवेत्तत्र यस्य रज्जुज्ञानं भवति तदा तस्यैव मिथ्या सर्पस्य निवृत्तिर्भवति, न तु सर्वेषां भ्रांतिनश्यति । For Private and Personal Use Only Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir यांते अधिष्ठीनोंकाभेद अवश्य मानना चाहीये तो फिर साक्षीको अज्ञातहोनेसें सर्पज्ञान न मिटेगा यांते रज्जुज्ञानसे सर्पके ज्ञानकी निवृत्ति तो कैसेभी नही बन सकती अधिष्ठानका भेद होनेते.इसका समाधानकहो। १०॥ श्रीगुरुरुवाच हे विद्वान जब मंद अंधकारमे अंतःकरणकी वृत्ति नेत्रसे निकसकर रज्जुके समानाकार होती है तब इदं आकारवाली जा अंतः करणकी वृत्ति है तिलनिवाले चेतनमे अविद्याही तमोगुणसे सर्पाकार और सत्वगुणसे सर्पके ज्ञानाकार रूपको धारण करे है इसकारण सर्प अरु सर्पके ज्ञानका उपादानकारण तो एक अविद्याही है अरु चेतनको अधिष्ठान होनेते विवोपादान कारणता है यांते रज्जु प्रदेशमे जो रज्जुवाला चेतन है सोई वृत्तिवाला चेतन है वही सर्पका तथा सर्पज्ञानका अधिष्ठान है तिसकारणते रज्जुज्ञानसे सर्प तथा सर्पज्ञानकी निवृत्ति निर्विघ्न होइ सके है ॥ ११॥ और जहां एकही रज्जुमे दश पुरुषोंकों किसको सर्प, किसको दंड, माला भूरेखा जलधारा, भिन्नभिन्न दृष्टिगोचर होवे है अथवा सर्वपुरुषोंको सर्पज्ञानही होवे है तहां जिसको रज्जुका ज्ञानहोवे है तिसकाही सर्प तथा सर्पकाज्ञान निवृत्त होवे है सर्वके श्नांतिजन्य पदार्थ निवृत्त नहीहोते For Private and Personal Use Only Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (३०) ततश्च वृत् हितचेतनश्वाधिष्ठानं भवति यदि रज्जुचेतनमधिष्ठान स्यात्ताई सर्वेषां ये दशामिथ्या पदार्था दृष्टिगोचरा भवंति ते सर्वेषां दृष्टिगोचरा भवेयुः यतो न सर्वेषां दृष्टिगोचरा भवत्यतो वृत्यविच्छिन्न चेतने मिथ्यावस्तु तज्ज्ञानं च भवति ततो रज्जज्ञानमेव वृत्तिचेतनज्ञानं तज्ज्ञानात्सर्पज्ञानस्य निवृत्तिभवत्येव ॥ L १२ ॥ तद्वत्स्वप्नेऽपि वृत्यविच्छिन्नं चैतन्यं पदा. र्थानां तेषां ज्ञानानां चाधिष्टानं भवति यस्य जागृति ज्ञानं भवति तस्य भ्रमस्य निवृत्तिरेव भवति न तु सर्वस्य स भ्रमो रज्यां सोवांतः स्वप्नो वा सदसद्विलक्षणाऽनिर्वचनीयः तस्यभानं कथनं च साऽनिर्वचनीया ख्यातिरिति ॥ ननु सर्वत्राधिष्ठानज्ञानात्कटिपतस्य निवृत्तिः श्रूयते For Private and Personal Use Only Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तिस कारणते वृत्यविच्छिन्न चेतनही अधिष्ठान है यह अनुभवसे सिद्धहोता है रज्जुवाला चेतन अधिष्ठान नहीबनता जो रज्जुवाला चेतन अधिष्ठान मानो तो जे दशपदार्थ सर्वकों प्रतीतहोते है ते एकएककोभी दश पदार्थ प्रतीतहोने चाहीये एसे तो होतानही यांते वृत्यविच्छिन्न चेतनही मिथ्यावस्तु तथा तिनाके ज्ञान इन दोनोका अधिष्ठान है यांते जो रज्जुकाज्ञान है सोई वृत्तिवालेचेतनका ज्ञान है तिसके ज्ञानसे सर्पकी तथासर्पके ज्ञानकी निवृत्ति होती है । यामे कोई संदेह नहीं है ॥ १२ ॥ तैसेही स्वप्नमे जो वृत्तिवाला चेतन है सोई स्वप्नके पदार्थोंका तथा तिनोके ज्ञानोका अधि जन है जिसको जाग्रतके स्थूल देहका ज्ञानहावे है तिसकाही स्वप्न निवृत्त होवे हे सर्वजनोका निवृत्त कबीनहींहोता यह भ्रांतिज्ञान रज्जुमे सर्परूप होवे अथवा स्वप्नरूपहोवे सो सत् असत्से विलक्षण होनेते अनिर्वचनीय है तिलअनिर्वचनीय पदार्थका जो भान अस्कथन है तिसका नाम अनिर्वचनीय ख्याति कहीजाती है ॥ शिष्य उवाच हे समर्थ सर्ववेदांतोमे एसाही श्रवणमे आके है जो अधिष्ठानके ज्ञानते कल्पित वस्तुकी निवृत्तिहोती है। For Private and Personal Use Only Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir न च श्रूयतेऽऽधारज्ञानान्निवृत्तिर्भवति तत्र किं कारणं कि माधाराधिष्ठानो भिन्नो वाऽभिन्नो वा आये तयोर्मेंदो वक्तव्यः द्वितीये अधिष्ठान शब्दवदाधारझानेन कल्पितस्य निवृत्तिर्भवतीति कथं न श्रूयते ॥ १३॥ श्रीगुरुरुवाच तत्र भिन्नपक्षमाश्रित्य सिद्वांतिराह यथा रज्जुरियमिति पदयुगलमस्ति तत्रे यमिति पदं सामान्यवाचकं अयं सर्प इति सर्पण सह दर्शनात्तत्रेयमिति पदमाधारवाचकं भवति तस्याधारस्य ज्ञानेन सर्पस्य निवृत्तिनं भवति रज्जु. रिति पदं विशेषवाचकं भवति तस्य वाच्यम्याधिष्ठानपदवाच्यताऽस्ति रज्जुरियमिति विशेषज्ञानस्य भ्रमनिवर्तकत्वादयमेव द्वयोर्भेदो दृष्टांते भवति ।। १४ ॥ दाष्टीतकेऽपि द्वयोर्भेद एवमस्ति ब्रह्मास्मि ब्राह्मणोहमस्मीति सत्पदवाच्यता ब्रह्मणि ब्राह्मणे च दर्शनादहमस्मीतिपदस्याधारवाचकत्वमस्ति For Private and Personal Use Only Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (३३) परंतु आधारज्ञानते कल्पित वस्तुकी निवृत्ति होती है एसे क्यों नही देखनमे आवता इससे संदेह होता है. जो अधिष्ठान तथा आधार यह दोनो शब्द भिन्न भिन्न है वा एकार्थका ज्ञापक है भिन्न कहो तो तिनोकाभेद सुनावनाचा. हीये एककहो तो आधारज्ञानते कटिपतकी निवृत्ति होती है एसा लेख क्यों नहीदेखनेमे आवता सोकदो। १३ ॥ श्रीगुरुभवाच हे प्रिय जैसे यह रज्जु है है यहां दो पद है “यह अरु रज्जु” तिसमे यह पदतो सामान्य वाचक है जो सर्पके साथभी रहता है जैसे कि यहस है यहां कल्पित सर्प साश्रमी यह मिलनेते सामान्य होनेसे आधारपदवाचक यह एसा पद है तिसके ज्ञानते सर्पकानाश नहीं होता अरु रज्जु है एसा जो पद है सो विशेषका वाचक है रज्जु पदार्थ जो है सो विशेष है अरु अधिष्ठान है तिसके ज्ञानते कल्पित सर्पकी निवृत्ति दोनेते रज्जुपदार्थकोअधिष्ठानपद वाच्यता कही है यही आधार अधिष्ठान दोनोका भेद जानना ॥ १४॥ अब दाटीतमे दोनोका भेद श्रवणकरो "ब्रह्माहमस्मि तथा "ब्राह्मगोहमस्मि” यहां आस्म नाम हैपना सो सामान्यहोनेते कल्पित ब्राह्मणके साथमेंभी अस्तिपना रहा है यांत आधारवाचक है For Private and Personal Use Only Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तस्थाधारस्य सच्छन्दवाच्यस्याज्ञाननाशकत्वं नास्ति तत एव कल्पितेन ब्राह्मगेन सहाऽस्मीति पदस्य व्याप्तिर्भवति नित्योऽहं विभुरस्मि परमानंदोऽस्मि विमुक्तो. स्मीत्यत्र नित्यत्वस्य परमानंदत्वस्य विमुक्तस्वस्य च विशेषपदवाच्यताऽस्ति तस्य विशेषज्ञानस्य भ्रम. नाशकत्वादेवाधिष्ठानपदवाच्यता भवति ॥ १५ ॥ ननु दृष्टांतेयथेयमिति सामान्यं आधारपदवाच्यं रज्जुरिति विशेषमधिष्ठामपदवाच्यं भवति ताभ्यां द्वाभ्यां सामान्य विशेषपदवाच्याभ्यामाधारा धिष्ठानाभ्यां तृतीयो भिन्न एव दृष्टा सर्दश्यते न तथा दाष्टीतके आधारा विष्ठप्नाभ्यां भिन्नः कश्चितद्रष्टा केनापि श्यते तत् द्रष्टा तु दाष्टोतकेऽपि. वक्तव्य इति चेत्तत्रोत्तरं १६ ॥ श्रीगुरुरुवाच-यत्र जडाधिष्ठानं भवति तत्र द्रष्टा भिन्न एव भवति यत्र तु स्वप्नवचेतनमधिष्ठानं भवति तत्र तु स एव द्रष्टा न तु ततोऽन्यद्रष्टा भवतीति सिद्धांतः सिद्धांते तु तव शंकाऽपि न संभवति यतः स्वप्ने रज्जुसादौ वा सर्वमेवहि कल्पितं भवति साक्ष्याश्रिताऽविद्यैव तमसा विषयाकारेण सत्वगुणेन ज्ञानाकारेण च परिणमते For Private and Personal Use Only Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तिसते मैंब्राह्मणहुँ इस कल्पित ब्राह्मणपनैकी निवृ. त्ति होतीनही अरु मै ब्रह्म सच्चिदानंदैकरूप हुं यह विशेषवाचकहोनेसे अधिष्ठान नामवाला होनेते ति. सके ज्ञानते कल्पितकी, निवृत्ति होवे है ॥ १५॥ शिष्य उवाच हे भगवन् यह है एसापद सामान्यका वाचक है रज्ज है एसापद विशेषका वाचक है जो सामान्य है सो आधार है जो विशेष है सो अधिष्ठान है तिन आधार अरु अधिष्ठान इन दोनोसे भिन्न जैसे द्रष्टा होता है तैसे दाष्टीतक. मे अस्तिपणा सामान्य होनेते आधार है अरु मै ब्रह्म सच्चिदानंदहं यह विशेषहोनेते जगत्का अधिष्ठान है अरु दोनोसे भिन्न दृष्टा कवन है सो कहो। १६॥ श्रीगुरुरुवाच है शिष्य जहां जडअधि. ष्ठान रज्जुआदिक है तहां द्रष्टादूसरा होता है परंतु जहां चेनत अधिष्ठान होता है स्वप्नवत् वहां आ. धार अधिष्ठानसे भिन्न द्रष्टा नही चाहीये, काहते. तहां जो एकही आधार अरु अधिष्ठान है सोईही द्रष्टा होता है तिसते भिन्न द्रष्टा नहीहोता है. सिद्धांतमे आपकी शंकाही नहीबनती कारणजो रज्जुमें सर्प अथवा स्वप्न सर्व कल्पित होनेते साक्षी आश्रित जाअविद्या है तितका तमोगुण जो है सो विश्याकार धारे दे, सत्वगुण ज्ञानाकार धारे है. For Private and Personal Use Only Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (३६) अतः शंकेव न संभवति सर्वत्र व्यवहार प्राति. भासके वा साक्षीदृष्टा साक्षी चैत्राविष्ठानं तत एव शंका समाधानं च न संभवति ॥ हरि ॐ तत् सत् ॥ ॥ इति पंचदशं कमलं समाप्तम् ॥ *१॥ अथ षोडश कमले स्वप्न संबंधिप्रश्नोत्तराणि प्रतिपाद्यते || संविदो हृदयं स्वप्ने यथा भाति जगनया । यामात्मैव तथैवाऽत्र सर्गादिः प्रतिभासते ॥ ॥ ननु यदुक्तं जाग्रत्स्वप्नयो दो नास्तीति तत्कथं संभवति भिन्नसत्ताकत्वात् ॥ किंच जाग्रदवस्थायां ये ज्ञातपदार्थाः संति तेषामेव स्वप्ने स्मृतिर्भवति. नत्वज्ञातपदार्थानामिति ततश्च सत्यपदार्थानां यास्वप्ने रमृतिर्भवति सापि तादृशी सत्या एव भवति न तु मिथ्या तदृष्टांतेन जाग्रत्पदार्थ नो मिथ्या यथार्थस्मृतिज्ञानविषयत्वादिति चेत्तत्र ॥ For Private and Personal Use Only Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ३७ ) यांत एकही अविद्या दृश्य द्रष्टारूप होनेते आधार अधिष्ठानते भिन्न द्रष्टाचाली शंकाही नही बनती सर्व व्यवहारिक वा प्रतिभासिक इन दोनो का साक्षी दो अधिष्ठान है तथा साक्षीही अविद्याकी सात्विक वृत्तिसें द्रष्टा है. यांत अभिन्न पक्षमे शंका समाधान दोनो नही बनते इसीको दृष्टिसृष्टि वाद कहते है इसी अर्थको स्वप्नविचाररूप आगामी कमलमे कहेंगे । ॥ इतिश्री पंचदशकमलमे अनिर्वचनीय ख्यात्यलं ॥ १४ ॥ अथ षोडश कमलमे स्वप्नविषे प्रश्नोत्तरं ॥ ॥ जैसे स्वप्नमे परमात्माका मनही जगत् रूप होई करके भासता है तैसे चिदाकासही इस जाग्रत अवस्था संसारका कारण है सोई द्रष्टा दर्शन और दृश्वरूप होई करके प्रकाशता है ॥ || शिष्य उवाच - हे भगवन् आपने कहा जाग्रत स्वप्न का भेद नही है सोना नही बनती. काहेते जो जाग्रत व्यवहारिक सजवाला है स्वप्न प्रातिभासिक सत्ता वाला है यांते दोनो एक नही और जो जाग्रतमे ज्ञात पदार्थ होते है तिनका स्वप्नमे स्मृतिज्ञान होता है अज्ञात पदार्थों का स्मरण होतानही यांते सत्य पदार्थोंकी जा स्वप्नमे स्मृति है सा मिथ्या न होनेसे तिस दृष्टांत करके जाग्रत पदार्थभी सत्यही दे मिया नही, क्यों जो यथार्थ स्मृति ज्ञानके विषय है । For Private and Personal Use Only Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (३८) ॥ श्रीगुरुत्वाच-यदुक्तं जाग्रत्व्यवहारकसत्ताक स्प्ले प्रातिमासकसत्ताकं तयोरैक्यताऽभावाद्भवति युगस्य मित्रत्वमिति तन संभवति स्वप्नस्यापि खकाले व्यवहारसाधकत्वात् व्यवहारकसत्ताकत्वं तदुक्तं स्वकाले सद्वद्भाति प्रबोधेऽसद्वद्भवेदिति ॥ २ ॥ किंच यच्चोक्तं स्वप्ने व्यवहारकपदार्थानां सत्यानामेव स्मृतिज्ञानमपि सत्यमेव भवति तत्दृष्टांतेन जाग्रत्सत्यमस्तीति तन्न समीचीनं “ अन्योन्याश्रयत्वात् ” स्मृतेः सत्यत्वे जाग्रत्सत्यत्वस्यापेक्षा जाग्रत्सत्यत्वे तु स्मृतिसत्यत्वस्याऽपेक्षति ततश्च पुगुलमेव मिथ्या भवति. यदुक्तं जाग्रति ये ज्ञातपदार्थाः संति तेषामेव स्वप्ने स्मृतिर्भवतीति तत्तु ॥ ॥ स्वमपि खादति खंडिति मीक्ष्यते निजशिरोनयनेन करार्पितम् ॥ किमपि दुर्घटमस्य न विद्यते यदि विमूढमतिर्भवतिस्वयमित्यत्र निरस्तत्वादेव न संभवति ॥ For Private and Personal Use Only Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (३९) श्रीगुरुरुवाच दे मुने जो आपने कहा जाग्रत व्यवहारिक और स्वप्न प्रातिभासिक होनेते एकरूप नही सो कहना अनुचित है. काहेते स्वप्न पदार्थ अग्निजलादि स्वप्नकालमे शीतोष्णका कर्ता होनेसे स्वकालमे व्यवहार साधक होनेते भिन्न सत्तावाले नही तहां प्रमाण ( स्वकाले सद्भाति ) स्वकालमे जाग्रत्समान स्वप्नपदार्थ भी सत्य भासते है. यांतें दोनो एक सत्तावाले है यही दृष्टि सृष्टि वाद जानो २||और जो आपने कहा स्वप्रमे जाग्रत् के सत्य पदा का स्मृतिज्ञानभी सत्य है तिस दृष्टांत से जाग्रत् पदार्थ सत्य होने चाहीये सो यह आपका कहना अयोग्य है एसे मानोगे तो अन्योन्याश्रय दूषण होता है. काते जो सत्यस्मृति ज्ञानको सत्यजाग्रत् पदार्थों की अपेक्षा होवे है अरु जाग्रत्के पदार्थों के सत्यत्ववास्ते स्मृतिके सत्यताकी अपेक्षा होवे है यांत दोनो मिथ्या है ॥ और जो आपने कहा है जाग्रतमे ज्ञातपदार्थ होवे तो तिनकी स्मृति होवे हे अज्ञातकी नही सो एसे नही है जो मूढमति है तो अवियासे क्या नहीं देख सकता स्वप्न में आकाशकोभी खाता है काटा हुआ अपना शिरो अपने हाथमे देखे है एसे अज्ञात पदार्थमो देखता है ज्ञात पदार्थो हो का देखना नही होता ॥ For Private and Personal Use Only Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (४०) ३ ॥ अन्यत्तु यदुक्तं स्वप्ने जाग्रत्वदायीनां स्मृतिर्भवति तदपि तत्र कथनं न संभवति स्वप्नपदार्थानां प्रत्यक्षज्ञानविषयत्वात् ॥ न तत्र रथा न रथयोगाः पंथानो भवत्यथ रथानूरथयोगान्यथः सृजते ॥ इत्यनया श्रुत्या नवीनानां पदार्थानामुत्पत्तिः कथनाच्च तेषामेव प्रत्यक्षज्ञानं भवति न स्मृतिः स्मृतेश्च परोक्षार्थविषयत्वादियं मे माताऽयं मे भ्राताऽयं पितेति प्रत्यक्षदर्शनाच्च स्वप्नपदार्था मिथ्या एव तद्दृष्टांतेन जाग्रदपि मिथ्या न सत्यं ॥ ४ ॥ ननु स्वप्नकाले लिंगशरीरं देहादबहिर्विनिर्गत्य जाग्रति पदार्थानेव पश्यति ततोऽपि जायमिथ्या नास्ति स्वप्नपदार्थानां सत्यत्वात् ॥ इति चेतत्राह — ॥ समाधानं - स्वप्नकाले लिंगदहस्य बहिर्निर्गमनमेव न संभवति मरणप्रसंगात् सर्वैरपि सप्राणो देहोयं स्वप्नवतः पुरुषस्य दृश्यते प्राणं विना लिंगदेदस्य निर्गमनासंभवाच्च इतोऽपि स्वप्ने पदार्थानां मिथ्याज्ञानं तत्दृष्टांतेन जाग्रति सर्वेपदार्था अनिर्वचनिया एव ॥ ५ ॥ यदि बहिर्निर्गत्य जाग्रति दर्शनं स्यात्तर्हि सर्वे सर्वैरपि प्रतिदिनं प्रष्टव्या भवेयुः तव मम च रात्रौ स्वप्ने समागमोऽभूदिति ॥ For Private and Personal Use Only Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३ ।। और जो आपने कहा स्वप्नमे स्मृति होती है सो कहना मिथ्या है काइते जो यह रथ है, यह घोडा है, यह मार्ग है. एसा प्रत्यक्ष ज्ञान होता है श्रुतिमेभी कहा है रथ, घोडा मार्ग जाग्र. तवाले तहां नही किंतु नवीन रथादिकोंकों उत्पन्न करके स्वयंही देखे है कादेते स्मृतिके विषय परोक्ष पदार्थही होते है. अपरोक्ष विषे स्मृतिज्ञान होताही नहीं, ये मेरी माता, यह मेरा भ्राता पिता इत्यादि सर्व प्रत्यक्ष ज्ञानहोता है यांते मिथ्या प्रत्यक्षज्ञान है तिस दृष्टांतसे जाग्रतपदार्थ मिथ्या जानने ॥ ४॥शिष्य उवाच हे देव स्वप्नकालमे इस देहसे लिंगशरीर निकलकरसत्यजाग्रत्पदार्थोको देखनेजाता है यांते ते पदार्थ जाग्रतके होनेते सत्य होनेचाहीये॥ ॥श्री गुरुरुवाच हे शिष्य जो लिंगदेह निकले तोस्थूलका मरण होय जावे यातेस्थूलसे लिंगका बाहर जाता नहीं बनता. क्यों जो सर्व पुरुष स्वप्नवालेका स्थूलदेह प्राणवाला देखते है विनाप्राण लिंगदेहका गमनही नही बनता यांतभी स्वप्न मिथ्या होनेते तिस दृष्टांतसें भी जाग्रत पदार्थ मिथ्या है सत्यनही ॥ ५॥ लिंगदेह बाहरदेखने जाताहोवे तो सर्वलोक प्रतिदिन स्वप्नसमागमकी वार्ता क्यों नहीं करते. जो तेरा मेरा एसे एसे स्वप्नमे व्यवहार होता भया । For Private and Personal Use Only Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥ यतः कोऽपि कस्मान्न पृच्छति सतोऽपि न बहिनिर्गमनं सिद्ध्यति किंतु तत्रैव मिथ्यादर्शनमस्ति. किं च स्वप्नकाले रात्री काश्यां सुप्तः सन् स्वस्य च मध्यान्हे हरिद्वारे पद्भ्यां गमनं हस्तेभोजनं वाचा मित्रेण सह संभा. षणं चानुभवति ततोऽपि नो सत्यमिति यथा स्वप्ने मुहुर्ताते संवत्सरशतभ्रमः इति वचनाचाऽपिसर्वेस्वप्नपदार्था मिथ्याः ॥ ६॥ ननु यथा स्वप्नपदार्था उत्पत्तिमत्वात् ज्ञानविषयत्वाच्चापि मिथ्या भवंति तथा जाप्रत्पदार्था अपि मिथ्याः संतीति चेतहि जाग्रत्पदा Cःस्वस्वकारणेभ्योऽप्युत्पत्तिमत्वात्सत्या एध तद्दप्टांतेन स्वप्नपदार्था अपि उत्पत्तिमत्वादेव न मिथ्या भवंति तत्र किं बाधकमस्ति । समाधानं-ये पदार्थाः कारणमंतरेणोत्पद्यते ते खपुष्पवन्मिथ्या भवंति तथा सति स्वप्ने समुद्रनदी पर्वतादिग्रामा ये प्रतीयते तेषां योग्यदेशकालयोरभा वत्वादेव मिथ्यावे कस्यापि विवेकिनः संदेहो नास्ति त्वमप्येवं निश्चयं कुरु ॥ For Private and Personal Use Only Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जब एसे कोइभी किसीसे स्वप्नवार्ता जाप्र. त्में पूछता नहीं यांते स्वप्न मिथ्या है और स्वप्न काल रात्रिवि काशीमे शयन करे है अपनेको हरिद्वारमे मध्यान्दविषे पादोसें गमन हाथमे मिष्टान्न मुखसे मित्रसाथ संभाषण करता अपने को स्वप्नमे देखे है यांतभी मिथ्या है वसिष्ठजी कहते है स्वप्नमे मुहूर्तमात्रविषे शतसंवत्सर अनु. भव करते है यांते स्वप्न सत्यनही ॥ ६॥ शिष्य उवाच-हे प्रभो जैसे स्वप्नपदार्थ उत्पतिवाले तथा नेत्रोंके विषय है तो भी मिथ्या है तैसे जाग्रत् पदार्थ भी मिथ्या है जो एमे मानो नो जाग्रत् पदार्थ भी उत्पत्तीवाला होनेते जैसे सत्य हे तिस दृष्टांतसे स्वप्नपदार्थभी उत्पतिवालाहोने से सत्यक्योंनहोवे तिनोंको क्योंमिथ्या कहते हो । ॥ श्रीगुरुरुवाच हे सुबुद्धे जे पदार्थ कारणसे विना उत्पन्न होते है ते ख पुष्प समान असतही जानना यांते स्वप्नमे जे नदी, समुद्र, पर्वताविक देखनेमे आवते है तिनोके कारण योग्य देशकालके अभाव होनेते ते मिथ्या है इस अर्थमे किसी विचा. रशीलको कोई संशय होई सकता है इसका तुमही उसर कहो॥ For Private and Personal Use Only Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (४४) ७ ॥ ननु स्वप्ने महत्कालो महद्दशश्चापि दृश्यते ताभ्यां निमित्तकारण देशकालाभ्यामुत्पत्तिमत्वात्स्व नपदार्था न मिथ्यास्तथा जाग्रादपि न मिथ्याभवति तस्मात्तवाऽद्वैतमतं कथं संभवति ॥ ॥ उत्तरं - ये पदार्थाः सहोत्पन्ना भवंति तेषां मिथः कारणकार्यभावसंबंधो नैव संभवति यथा सोत्पन्नौ भ्रातरौ परस्परं जन्यजनको नैव भवतः तथा स्वप्नेपि देशकालपदार्थानां सहोत्पन्नानां कथं कार्यकारणभावो भवति किंतु न संभवति तदेव का रणं यत्पूर्वं स्यात्तदेव च कार्यं यत्तु पश्चाद्दश्यतेऽत्रस्वप्ने सदैव सर्वे दृष्टिगोचरत्वान्न परस्परं कार्यकारणभावं प्राप्नुवंति तस्मादकारणोत्पन्नत्वादेव स्वप्नपदार्थ मिथ्या एव भवतीति सिद्धं ॥ ८ ॥ किंच यथा स्वप्ने पितामातापुत्रपौत्रादयो नरैः सदैवोत्पन्ना दृश्यंते सदैव तत्क्षणे चोत्पद्यंते ते पूर्वकालिन एव संती ति प्रत्यभिज्ञाज्ञान विषयाश्चापिभवति For Private and Personal Use Only Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (84) ७ ॥ शिष्य उवाच - हे गुरो स्वप्नावस्थाविषेभी पुष्कल देशकाल देख परता है. तिसदेशकाल निमितते स्वप्नसृष्टि उत्पन्न होवे है यांते यथार्थ है इसभी विवेकीकों कोई संदेह होता है ? इसकाभी उत्तर आपको यांते जाग्रत्भी स्वप्नसमान सत्य है मिथ्या नही है यांते वेदांतसे अद्वैतकी सिधि कैसे बन सकती है सो तो कहो । ॥ श्रीगुरुरुवाच - जे पदार्थ साथही उत्पन्न होते है ते परस्पर कार्यकारण नही होते जैसे साथमे उत्पन्न भये जे दोभ्राता ते क्या परस्पर पितापुत्र हो सकते है ? तैसेही स्वप्नमेभी देशकाल और पदार्थ जे नदी, पर्वत, समुद्रादिक देखने मे आवते है ते इकठे उत्पन्न होनेते परस्पर कार्यकारण नही दोसकने || कारण तिसको कहते है जो प्रथम होवे. और कार्य तिसको कहते है जो पश्चात् होवे. और स्वप्नविषे साथ मे सर्व देशकाल पदार्थ उत्पन्न दोनेसें Face देशका कारणनही. यांते स्वप्न पदार्थ विनाकारण उत्पन्न होनेते मिथ्या है तैसे जाग्रत्भी मिथ्या है एसे आपको निश्चय करना चाहीये ॥ ८ और देखो जो स्वप्नविषे पिता माता पुत्र पौत्रादिक तत्क्षण उत्पन्न होइ करकेभी बहुतकालके ये पितादिक है एसे तिनोंमे प्रत्यभिज्ञा ज्ञान होता है. For Private and Personal Use Only Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (98) यदिप्रत्यभिज्ञाज्ञानविषया न भवेयुः तर्हि प्रत्येक स्वप्ने सर्वैः सर्वे प्रष्टव्या भवेयुः को भवान् कोऽहंवा कस्पद ग्रहं यथाऽनिरुद्धेनोषां प्रति अर्जुनेन चोलोपीं प्रति पृष्टं यतश्चनैव कोऽपि कस्मादपि पृच्छति तस्मात्स्वप्ने सर्वेऽविद्यया प्रत्यभिज्ञाज्ञानविषया भवंति पुत्रपौत्रयोर्मध्ये कार्यता पितापितामहादयश्च ये संति तेषु कारणता स्वास्मंश्च कार्यता कारणता चेत्याद्या अविद्याबलेन प्रथक्प्रथक्तया प्रतीयते तद्वज्जाप्रत्यपि तत्क्षणोत्पन्ने जगतिस्वप्नवद्भेदाः प्रतीते ततः सर्वेपि भेदा मिथ्या एवेति निश्चयं कृत्वात्मनि तिष्ठ यथाssदर्श प्रतिबिंबिता: पदार्थ मिपा एत्र भवन्ति तथैव स्वाऽऽत्मनिमिय्याः पदार्थाः प्रतिबिंबंति प्रतीयते च तस्मात् सर्वेमिथ्या एव भवतीति विजानीहि ॥ ९ ॥ ननु ये ये व्यवहार योग्यपदार्था नरैर्दृश्यते तेषां प्रतिबिंबानि दर्पणे संति For Private and Personal Use Only Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जो प्रत्यभिज्ञा ज्ञानके विषय नहीं होते तो सर्व स्वप्नविषे सर्वजनोने सर्वजनोंसे प्रश्न करना चाहीये जो तुम कवन है हूं कौन हूं यह गृह किसका है जैसे अनिरुद्धने उषासे, तथा अर्जुनने उलोपीसें पूछा है तुम कौनहो यह किसका गृह है मैं यहां कैसे आया यांते जब कोईभी किसीसे स्वप्नमे नही प्रश्न करता तांते स्वप्नपदार्थ संपूर्ण प्रत्यभिज्ञा ज्ञानका विषय हुए अविद्याके रचेला प्रतीत दोवे है, तिनोविषेभी जेस्वप्नमे पुत्र पौत्रादिक है तिनोंमे कार्यता देखता है, पिता, पितामहविषे कारणता और अपनेमे कार्यता कारणता दोनोंकों अविद्याके महात्म्यसे देखे हे तैसेही जब प्रबुद्ध भया तबभी तरक्षण उत्पन्न हुए जाग्रत प्रपंचमे नाना पिता पुत्रादिकोकुं अनुभव करेहै अरु प्राचीन जाने है और पूछता नही तुम कौन हो मैं कैसे आया यह ग्रह किसका है ते सर्व स्वप्नसमान मिथ्या है एसे निश्चय करके सत्यजो दोनोका ज्ञाता है सो मेहूं एसे जानो जैसे दर्पणमे मिथ्याही प्रतिबिंब प्रतीति होते है तैसे जाग्रत्केभी पदार्थ हैनही तौभी चिदानंदा. स्मामे प्रतिबिंबित हूए भासते है ॥ ९॥ शिष्य उवाच-हे नाथ, जे पदार्थ व्यवहारके योग्य होते है. ते ही दर्पणमे प्रतिबिंबित होतेहै For Private and Personal Use Only Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (४४) न तु खपुष्पाणां वंध्यापुत्राणां वा प्रति बिंबानि भवंति तस्माद्यथाते मिथ्या नो भवंति तथा परमात्मन्यापि ये प्रतिबिंबाः संति तेषां येबिंबरूपा भवंति ते कथं मिथ्या भवेयुः ।। ॥ समाधानं-पत्र जडात्मानो दर्पणोदकादयः संति तेषां प्रतिबिंबग्रहणे भवति बिंवानामपेक्षा यत्र तु चेतने पदार्थाः प्रतिबिंबंति तत्र बिंबानामपेक्षामंत. रेण मनोराजस्वप्नप्रपंचवत्प्रतिबिंबति तदुक्तं वासि ष्ठे--तस्मिंश्चिद्दर्पणे स्फारे समस्ता वस्तु दृष्टयः। इमास्ताः प्रतिबिंबंति सरसीव तटद्रुमाः ॥ १० ॥ ये स्वप्ने देशकालादयो दृश्यते ते बिंबंविनैव दृश्यते यथा सरसि प्रतिबिंवानां कारणं बिंबा एव तथाऽत्र चिदात्मनि प्रतिबिंबानां कारणमंतःकरणं For Private and Personal Use Only Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कोई आकाशक फूल वा वंध्यापुत्रादिकोंका प्रतिबिंब दर्पणमे परता नहीं यांते जैसे प्रतिबिंबोंके बिंबरूप पदार्थ मिथ्या नदी तैसे जिन पदार्थोका प्रतिबिंब परमात्मा विषे परता है तिनोके बिंबरूप जगत्कों कैसे असत् जानना चाहीये सो उत्तर कहो। ॥श्रीगुरुरुवाच॥ हे शिष्य जहां दर्पण का उदका. दिक जड स्वच्छपदार्थ है तहां प्रतिबिंब ग्रहणकरने वास्ते बिंबोकी आकांक्षा होती है अरु जहां स्वप्न विषे साक्षीकी न्याई स्वयं चेतनही वस्तुके प्रति विंब ग्रहण करनेवाला होता है तहां चेतनको आपने विषे प्रतिबिंब ग्रहण वास्ते बिंबकी आकांक्षा होती दी नही, जैसे मनोराज अरु स्वप्नावस्थामे बिनारी बिंबके प्रतिबिंबरूप जगत् अनुभवमे आता है एसे श्रीवसिष्ठनेभी कहा है। ॥ तिस चेतनरूप महान् दर्पणमे संपूर्ण द्रष्टा दर्शन अरु दृश्यरूप जगत् एसे प्रतिबिंबित होता है जैसे नदीविषे तटके वृक्षोंका प्रतिबिंबपरता है॥ १०॥ यांते जे स्वप्न देशकालादि पदार्थ अनुभवमे आवे है ते प्रतिबिंबाके विनाहीदेखनेविषे आवते हे अरु जैसे दृष्टांतमे नदीविषे प्रतिबिंबोका कारण तटके वृक्ष है तैसे जाग्रत स्वप्न पदायाँके प्रतिबिंबोंका कारण अंतःकरण जानना ॥ For Private and Personal Use Only Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (५०) अथवाऽविद्या भवति आये साक्षीवेतनमधिष्ठानं भवति द्वितीये तु ब्रह्मचेतनमेवाधिष्ठानं भवति तथा सति स्वप्नस्यांतःकरणमविद्या वोपादानं भवति चेतनस्तु विवर्तोपादान कारणमस्ति ॥ ११ ॥ ननु द्वितीयपक्षे स्वप्नाधिष्ठानं ब्रह्मचेतनमस्ति कल्पितस्य च निवृत्तिरधिष्ठानज्ञानाद्भबति तथा सति निद्रां गतस्य ब्रह्मज्ञानरहितस्य विना ब्रह्मज्ञानेन जाग्रत्काले कथं स्वप्नस्य निवृत्तिस्स्यात् महाज्ञानमंतरेणोपादानाऽज्ञानस्य विद्यमानत्वात्. किं च जाग्रत्स्वप्नयोरेकचैतन्यस्याधिष्ठानत्वाद्विवतोपादानकारणस्वमेवमविद्यायाश्च द्वयोरपि परिणाम्युपादानकारणत्वमस्ति तथा सत्येकः स्वप्नः प्रातिभासक अन्यस्तु जाग्रत्प्रपंचो व्यवहारिक इति करं तयोर्भेदः ॥ १२ ॥ समाधानं-आये यद्यपि ब्रह्मज्ञानं विना ऽविद्यानिवृत्तिमंतरेण स्वप्नस्यात्यंतनिवृत्तिनभवति तथापि कारणेऽविद्यायां लयरूपा निवृत्तिर्भवत्येव निमित्तकारणनिद्रादोषनाशाद्विरोधिजाग्रत्कर्मोद्भवाच्च ॥ द्वितीयांकाया उत्तरं--तु For Private and Personal Use Only Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अथवा अविद्या जाननी अरु चेतन विवतोपादान का. रण है एसा जानना। विश्वामित्र कर्दमादि सिद्धोंकी सृष्टिबिंबो ते विनाही प्रतिबिंबरूप दर्शाई है ॥ ११॥ शिष्य उवाच- हे भगवन् दूसरे अविद्या पक्षविषे स्वप्न का अधिष्ठान ब्रह्म चेतन सिद्ध होता रै कल्पितकी निवृत्ति अधिष्ठानके ज्ञानते दोनी चाहीये यांते निद्रावाले ब्रह्मज्ञानसे रहित पुरुषको जाग्रतकालविषे स्वप्नकी निवृत्ति नहींहोनीचाहीये. विना ब्रह्मज्ञानसे स्वप्नके उपादानकारण जा अविद्या है तिसके विद्यमान होनेते और एक चतनको जाग्रत् स्वप्न दोनोका अधिष्ठान होनेते विवर्तउपादानकारणता है तथा अविद्याको दोनो जाग्रत् स्वप्नके प्रति परिणामी उपादानकारणपणा है जब. एसे भया तो इस जाग्रत्को व्यवहारिकसत्तावाला स्वप्नको प्रातिभासिकसत्तावाला होनेमे कौन हेतु है। १२ । श्रीगुरुरुवाच-हे ऋषे प्रथम शंकाका उत्तर तो यह है. यद्यपि ब्रह्मज्ञानविना अविद्याके सद्भावसे स्वप्नकी अत्यंत निवृत्ति नहींहोती तथापि निद्रादोषका अभाव तथा जाग्रत् कर्मोके उद्भव इन दोनो निमित्तकारणते अविद्योपादानकारणमे स्वप्न की लयरूप निवृत्ति होवे है सो जानना. और हे शिष्य द्वितीय शंकाका यह समाधान है, For Private and Personal Use Only Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir केवलाऽविद्याजन्यत्वादेव जाग्रतो व्यवहारकत्वं निद्रादोषसहरुद्वा प्रमाणदोषसहकृद्वाऽविद्याजन्यत्वास्वप्नस्य रज्जुसदेश्च प्रातिभासकसत्ताकत्वं भवति तस्मात्सदोषनिर्दोषाविद्याजन्यत्वादेव तयोर्भेद एव भवति नत्वभेद इति. सिद्धांते तु जाग्रत्पदार्थाः स्वप्ने न प्रतीयंते स्वप्नपदार्थाअपि जाग्रति नैव प्रतीयंते तत एव द्वौ पदार्थों समौ द्वेऽवस्थे च समाने भवतः तयोस्तु न किंचिद्भेदः ॥ १३ ॥ ननु जाग्रति पदार्था ये संति ते प्रतिदिनमनुभूयंते स्वप्नपदार्थास्तु न तथाप्रतिस्वप्नेऽनुभूयंते तस्मात्तयोर्जाग्रत्स्वप्नयोः कथं समानताऽस्तीतिचेत्तत्र. ॥समाधानं-जाग्रत्पदार्थाः प्रतिदिवसे दश्यते तदनुचितं यथा सद्योजातस्वप्नपदार्थेषु स्वप्नकाले प्रत्यभिज्ञाज्ञानविषयताऽविद्यया भवति तथा जाग्रत्यप्यविद्याबलादेव प्रत्यभिज्ञाज्ञानविषयता भवत्यत एव जना जानंति ये बाल्ये पितादयो दृष्टाअभवन्तेऽद्यावधि दृश्यते न चैवमस्ति यथा या गंगा बाल्ये दृष्टा सैवेयमधुनापि मया दृश्यते येयं दीपशिखा सायं. काले दृष्टा सैवेयं राज्यंते मया दृश्यते तत्तु माया माहात्म्यमेव ॥ For Private and Personal Use Only Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (क) केवल अविद्याजन्य होनेते जाग्रतको व्यवहारिक सत्तावाली कही है निद्रादोष प्रमाणदोष सह कृत अविद्याजन्य स्वप्न रज्जुसादिक जे है ते प्रातिभासिक सत्तावाले कहे गये है यह। दोनोके भेदमे सदोषत्व निर्दोषत्वपणा कारण है. सिद्धांतमे तो जाग्रत पदार्थ स्वप्नेमे नही स्वप्न जाग्रतमें नही यांते दोनो सम है १३ ॥ शिष्य उवाच जे जाग्रत पदार्थ है ते प्रतिदिवसमे देख परते है तैसेप्रतिदिन स्वप्नपदार्थ जाग्रतमे देखनेविषे आवतेनही यांते दोनोके भेदहोने परभी तिन दोनोको समान कैसे कहते हो। ॥श्रीगुरुरुवाच।। हे शिष्य यह जो आपने कह्या जाग्रत् पदार्थ प्रतिदिवस देखनेमे आवते है सो यह कहना अज्ञानतासे है जैसे तत्काल उत्पन्न स्वप्न पदाथाँकुं प्रत्यभिज्ञा ज्ञानकी विषयता अविद्याके बलते होती है तैसे केवल जाग्रत् कालमेही नवीन उत्पन्न होये पदार्थोमेभी अज्ञान वशतेप्रत्यभिज्ञा ज्ञानकी विषयता प्रतीतहोती है इसमे मनुष्योंकू भ्रांति होती है जो. जे पिता मातादिक बाल्यावस्थामे देखेथे सोई ही अबभी दीखपरते है सो एसे है नही जैसे जा गंगा बाल्यावस्थामे देखीथी सोइ मै वृद्धावस्थामेभी दे. खता हूं तथा जा दीपशिखा सायंकालमे देखीथीसो. रात्रिके अंतमे देखो दूं सो यह मायाका माहात्म्य है, For Private and Personal Use Only Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (६४) ॥ यत्पूर्व दृष्टं तनु तत्कालं दूरगतमधुनाऽन्येदव ।। १४ ॥ तदुक्तं वासिष्ठेहे देवि किमिदं नाम, दिनभेकं मृतस्यमे । गतमद्य व्यतीतानि, वयोवर्षाणि सप्ततिः ।। स्मराम्यनेककार्याणि, स्मरामि च पितामहम् । स्मरामि बाल्ययौवनं, भित्रं बंधुं परिच्छदम् ।। देव्युवाच-वस्तुतस्तु न जातोसि, न मृतोति कदाचन। यथा स्वप्ने मुहुर्तीते, संवत्सरशतभ्रमः ॥ १५॥ ननु स्वप्नपदार्थानां सद्योजातानां मायाकार्यत्वाद्भवतु मिथ्यात्वं तथापि जाग्रत्पदार्थानांतु स्वस्वकारणेभ्यो जातानां सत्यत्वमेव न तु मिथ्यात्वं सिध्यतिश्रुतिरपि॥ तस्माद्वा एतस्मादात्मन आकाशः संभूत आकाशाद्वायुः॥इत्यादिना स्वकारणात्कार्यस्यो. पनि दर्शयति न तु पदार्थानामविद्याजन्यत्वमब्रवीत, For Private and Personal Use Only Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir काहेते जो गंगाका प्रवाह तथा दीपकी ज्वाला तो तिसी क्षणहीमे गयी जो देखी वो कहां है ॥ . १४॥ सोश वशिष्ठने कहा है लीलाके प्रसंगमें हे देवि यह क्या आश्चर्य है यहां मृत्यु भये एकदिन स्मरणकरता हो तहां सत्तरवर्ष स्मरणमे आवते है ॥१॥ सत्तरवर्षको बाल्यावस्था यौवनावस्था अरु सर्व पिता पितामहादिक कुटुंब तथा नानायुद्धादिक कार्य स्मरण करता हो तो यह क्या है ॥ २ ॥ देवी कहती भई हे राजन वस्तुतः तुम न जन्म पाया है न मृत्युको प्राप्तभये हो केवल तुमको संपूर्ण अज्ञानके बलसे एसे देख परा है जैसे एक मुहूर्तमें स्वप्नविर्षे शतवर्ष देखनेमे आते है तैसे तुमकू एकदिनमात्रमे सत्तरवर्षका स्मरण भया है इस दृष्टांतसे सर्वजाग्रत्मे वस्तु नवीन होती है ॥३ १५ ॥ शिष्य उवाच हे गुरो स्वप्नपदार्थमायाजन्य है यांते मिथ्याहोवे तथापि जाग्रत् पदार्थतो स्वस्वकारणोंते उत्पन्नहोनेते सत्यहोने चाहीये. एसे श्रुतिभी कहती है “तिस आत्मासे आकाश उत्पन्नभया आकाशते वायुः” इत्यादि वाक्यों से स्वका. रणोंते कार्यकी उत्पत्तिकही है अविद्यासे उत्पत्ति कही नदी यांते स्वप्नसम मिथ्यानही है ॥ किंतु स्वकारणजन्य होनेते जागत्पदार्थ सत्यही है. For Private and Personal Use Only Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १६॥समाधानं यथा स्वप्ने केनचित्पुरुषेणस्वस्थ्याः सकाशात्पुत्रोजात इति दृश्यते कुलाल व्यापारान्मृदो घट उत्पन्नो दृष्टः तदा स्याः कारणात्वं पुत्रे कार्यता मृदि कारणता घटे च कार्यताऽविद्याबलात्दृश्यते तद्वदत्रापि जायदवस्थायां कस्य कारणतां कस्यचित्तु कार्यतामविद्याबलात्सर्वेऽपि जनाः पश्यंति तत्तु नैव वास्तवमस्ति ॥ १७ ॥ तस्माद्वा एतस्मादात्मन इति श्रुतिर्या त्वयोक्ता तस्या मंदबुद्धीनां ध्यानार्थे तात्पर्यमस्ति न तु कारणकार्यभावे तात्पर्यमस्ति यदि त्वं दुराग्रहेण कार्यकारणभावे तात्पर्यमस्तीति वदसि तर्हि “तहह्माऽपूर्वमनपरमिति" श्रुतेविरोधः स्यात्तस्मात्कार्यस्य जगतो ब्रह्मणा कारणेनाभेदोस्ति तद्ब्रह्माहमस्मीति मंदबुद्धिरपि ध्यात्वा मुक्तिमवाप्नोतीत्यस्मिनर्थेऽभिप्रायमस्ति वेदांते कार्यकारणभावस्यानंगीकारात् "ननिरोधो न चोत्पत्ति' रिति प्रमाणाच॥ इति षोडश कमलं समाप्तम् हरिः ॐ तत्सत् ॥ For Private and Personal Use Only Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १६ ॥ श्रीगुरुरुवाच हे शुभमते जैसे स्वप्नमें किसी पुरुषने निजनारासेसुत उत्पन्नदेखा कुलालसे कुंभ उत्पन्नदेखा तहां स्वस्त्रीको कारणता. पुत्रमे का. र्यता तैसे कुलालको कारणता, कुभको कार्यता निश्चय करता है तैसे जाग्रत्मेभी सर्वजन किसीको कारणता किसीको कार्यता अद्यिाके बलते निश्चय करते है सो यथार्थ नही है स्वप्नसमान मिथ्याही है । १७ ॥ और जा श्रुति तुमने कही आत्माते आकाश उत्पन्नभया आकाशते वायुः सा यह श्रुति मंदबुद्धि पुरुषके मोक्षवास्ते ध्यानार्थ आत्माते जगत्की उत्पत्ति कहती है कोइ उत्पत्ति कहने में श्रुतिका तात्पर्य नहीं है जो दुराग्रहसे श्रुतिके तात्पर्यको उत्पत्तिमे स्वीकार करोगे तो. ब्रह्म. कारणकार्य भावसे रहित है एसे कहनेवाली श्रुतिका वि. रोध होवेगा यांते कार्यजगत्का कारणब्रह्मसे भेद नही है सोब्रह्म मै हूं एसे मंदबुद्धिपुरुषभी ध्यानकरके मुक्तिको प्राप्तहोवे है. इस अर्थमे श्रुतिका तात्पर्य है " तद्ब्रह्मापूर्वमनपरं ” इत्यादि श्रुतिवाक्योंसें वेदांत सिद्धांत विषे कार्यकारणभावका अंगीकारनही. फिरभी इसी अर्थको आगामी कमलमे स्पष्ट करेंगे ॥ हरिः ॐ तत्सत् ॥ ॥इति श्रीषोडश कमलमे स्वप्नसंबंद्धि प्रश्नोत्तर समाप्तः।। For Private and Personal Use Only Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥अथ सप्तदशकमलेऽनिर्वचनीयस्वप्नयोवर्णन।* अद्वैते स्थिरमायाते द्वैते च प्रशमं गते । पश्यन्ति स्वप्नवल्लोकं चतुर्थी भूमिकामिताः ।। ननु साक्षिणः स्वप्नाधिष्ठानत्वाभावात्कथमा. त्मनि स्वप्नं कल्पितं पश्यंति तमंतरेण कथं जाग्रतं कल्पितं पश्यति ॥ तथाहि ॥ यत्कल्पितस्याधिष्ठानं भवति तदधिष्ठानं कल्पितेन सह संबद्धं भवति यत्रा शुक्तौ कल्पितं रजतं तद्रजतमधिष्ठानस्येदमंशेन सं. बद्धं सत्प्रतीयते (इदंरजतमिति ) यथा वाऽऽत्मनि कल्पितं कर्तृत्वादिकं तदप्यऽधिष्ठानेनात्मना संबद्धं सत्प्रतीयते ( अहंकर्ता ) इति तथैव यदि साक्ष्याऽऽत्मनि स्वप्नगतगजाश्वादयोऽपि कल्पिता भवेयु. स्तर्हि (मयिगजः) (अइंगजः) For Private and Personal Use Only Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (५९) * १ ॥ अथ सप्तदशकमलमे स्वप्न तथा अनिवचनीय मे विचार होवेगा ॥ * जब अद्वैत का अपरोक्षहोवे है तब द्वैतका - भान रहितानही एसे अनुभववाले पुरुष चतुर्थी भूमिकाको प्राप्तदूवा जानना || तिनोंकों जगत् स्वप्न सदृश अनुभवमे आवे है || ज्ञानकाल उत्पन्न होवे है ज्ञानते पूर्व पश्चात् नही है यह तिनोकों अनुभव होता है यांदीको दृष्टिसृष्टिवाट् कहा है. || शिष्य उवाच दे भगवन यह जो साक्षी आत्मा है सो स्वप्नका अधिष्टान नहींहोनेते जब स्वप्नको अनुभव नही करता तो स्वप्नसमान जाग्रत्को कैसे जानेगा सो जिसप्रकार है सो मै विस्तारसें कहता हूं आपसुनीये जो साक्षीको कल्पितस्वप्नका अधि ष्ठानमानो तो जो अधिष्ठान होता है सो कल्पितवस्तु के साथ मिल्यारदिता है जैसे शुक्तिमे कल्पितजो रजत सो रजत अधिष्ठनके इदं अंश से संबद्धभयाही प्रतीत होवे है, जैसे यह रजत है एसे अनुभवहोवे है और जैसे आत्मामे कल्पितजे कर्तृत्वादिक है. ते आत्मासाथ संबद्धहुए प्रतीतिहोवे है जैसे मैं कर्ता हूं एसे अनुभव दोवे है तैसे जो साक्षीमे स्वप्न के पदार्थ जे गज अश्वादिक है ते कल्पित होतेतो "अहं गजः " मै इस्तिदू वा मेरेमे दस्ति है, For Private and Personal Use Only Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ६० ) इत्यनुभवो भवेत् गजोऽयमश्वोऽयमिति कथं ज्ञानं भवति ततोऽनुभवानुसारेण स्वप्नावस्थाऽऽत्मनि कल्पितं नास्ति कथं तदृदृष्टांतेन सुमुक्षवो ब्रह्मात्म नि दृश्यं कल्पितं पश्यंतीति चेत् । २ ।। समाधानं शृणु - लोकदृष्ट्या सर्वकार्यमात्रस्य द्वे कारणे भवत उपादानं निमित्तं च तथा सति स्वप्नस्याप्युपादानमज्ञानं निमित्तं च प्रथग्विधंविज्ञातव्यं तन्निमित्तभेदादनुभवस्यापि भेदो भवति तथाहि स्वप्नं यद्वस्तुमात्रं प्रतीयते तस्य निमित्तकारणं पूर्वानुभवजन्य संस्कारोऽस्ति तदनुसारेणाविद्या परिणमते तथा सति यस्य पदार्थस्याहमाकारानुभवजन्यसंस्कारोऽस्ति तादृशे पदार्थेऽहमाकारानुभवो भ वति यथा स्वदेदेब्राह्मणो मित्याद्यनुभवो यस्य तु ममाकारांनुभवजन्य संस्कारो भवति तादृशे पितरिमातरि ममाकारानुभवो भवति यस्यचेदमाकारानुभवजन्य संस्कारोऽस्ति तादृशे गजादौ पदार्थेत्विदमाकारानुभवो भवति प्रसंगेप्येवं ज्ञातव्यं स्वप्नावस्थायां स्वदेहेत्राह्मणोऽहं पुत्रादिदेहेषु ममैते संति परत्र तु अयं गजः अयमश्वः For Private and Personal Use Only Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (६१) एसे अनुभव होता. यह गज है, यह अश्व है एसे अनुभव नही होना चाहीये यांते स्वप्न आ. रमा कल्पित नही अनुभव होता तो तिस दृष्ठांत से जाग्रतको आत्मामें कैसे कल्पित कहतेहो मुमुक्षु भी आत्मा मे कैसे जगतको कल्पित अनुभव करेगा. २ || श्रीगुरुरुवाच सौम्य लौकिक दृष्टिसें सर्वकार्य मात्र के उपादान अरु निमित्त यह दोनो कारणहोते है यांते स्वप्नकेभी उपादानकारण अविद्या वा अंतःकरणजानना अरु निमित्तकारण जो है सो भिन्नभिन्न जानना तिस निमित्तकारणके भेदते अनुभवकाभी भेद होवे है यह नियम जैसे है तैसेही श्रवणकरो || स्वप्नविषे जिस जिस वस्तुका अनुभवहोता है तिसका निमित्तकारण जागतअनुभवजन्य जैसा संस्कारहोते है तैसेही अविद्यारूप धारणकरती है यांते जिसपदार्थका मैहूं एसे संस्कार है तैसे देहादिकोंविषे मैब्राह्मण हुं एसा अनुभव होवे है जिस पदार्थका मेरे है एसाजो पितापुत्रादिकोंका संस्कार है तादृशों पितामातादिकोविषे मेरे है एसा अविद्याबलसे अनुभवहोवे है और जिसपदार्थका यह है एसे तटस्थवस्तुकेविषे जो यदपके ज्ञानजन्य संस्कार है तादृश गजअश्वादिको विषे यदअश्व है यद्ददस्ति है एसादी अनुभवहोवे है | For Private and Personal Use Only Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir न तु गजादौ मयि गजो वाऽहंगजश्चेत्यायनुभवो जायते तादृक्निमित्तकारणानुभवजन्यसंस्कारस्याभावात् ॥ ३ ॥ न च पूर्वानुभवस्य का गतिः संसारस्यो. त्पत्तिमत्वादितिवाच्यं प्रवाहरूपेणानादिस्वीकारात् अनादिपक्षे तु सर्वे पदार्थाः पूर्वस्मादुत्तराएव भवंतिते सर्वेऽनिर्वचनीयाः सदसद्विलक्षणा भवंति ताहगनुभवात्यथा शुक्तौ रजतमिति ॥ ४ ॥ ननु यदुक्तं रजतं सदसद्विलक्षणमनिर्व चनीयमिति तन्नसंभवति किंतु निर्वचनीयमेव भ. वति सद्विलक्षणमसत् तथाऽसद्विलक्षणं तु सदिति वक्तुं शक्यतेऽनिर्वचनीयं नामवक्तुमशक्यमितिकथं भवेदनुभवविरोधादितिचेत्तत्र ॥ ५ ॥ समाधान-यत्पूर्वोक्तं वाक्यं तछाक्यं सदसदज्ञानिन एव न तु विवेकिनइदं वाक्यं भवति ॥तथादि॥ शुक्तौ यद्रजतं तदसतः खपुष्पाधिलक्षणं नेत्रजन्यज्ञानविषयत्यातू खपुष्पस्प नेत्राविषयत्वात For Private and Personal Use Only Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मैदस्तिहूं मेरेमे दस्ति दै एसा अनुभव की भी होवेनही कारणयह है जो मै हस्तिहूं एसे पूर्वज्ञानजन्य संस्कार नही याते एसाअनुभवभी होतानही॥ ३॥ और पूर्वअनुभव किससंस्कारोंते भया सो कहनाचाहीये संसारको उत्पत्तिवालाहोनेते सो कौन प्रथम संस्कारते भया सो एसी तुमने शंकाही नही करनी काहेते जो यह संसार प्रवाहरूपसें अनादिमान्या है अनादिपक्षविषे पूर्वपूर्वते उत्तर अंगीकार कीया है ते संपूर्णसदसत्से विलक्षण अनिर्वचनीय है जैसेशुक्तिमे रजतका अनिर्वचनीय अर्थात् सत्असतरूपसे जो न कह्या जावे एसा अनुभवहोवे है ॥ ४॥ शिष्य उवाच-हे नाथ जो आपने कहा है रजत अनिर्वचनीय है सो बनतानही काहेते जो रजतसत्असत्से विलक्षणकहनेमे आवे है जैसे सत्विलक्षण असत्कह्याजाता है अरुअसविलक्षण सत कह्याजावे है सो अनिर्वचनीय कैसे कहते हो किंतु यह तो निर्वचनीयही है॥ ५॥ श्रीगुरुरुवाच-हे मुने यहकहना सत्असत्के ज्ञानदीन पुरुषका हे को विवेकी पुरुषका कहनानही काहेते. जो शुक्तिमे जो रजत है तो असत् जे खपुष्प है तिनते विलक्षण है नेत्र जन्यज्ञानका विषयहोनेते खपुष्पनेत्रज्ञान के विषय नहींहोते For Private and Personal Use Only Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (६४) ततो विलक्षणं रजतं सिद्धं यदि चासतो विलक्षणं सदितिचेत्तर्हि सतोऽविनाशीत्वादात्मवद्रजतस्य शुक्तिज्ञानेन विनाशो न स्याद्भवत्येव यतःशुक्तिज्ञानेन रजतस्य बाधस्ततः सतोपि रजतं विलक्षणं सिद्धं यदेव सदसद्विलक्षणं तदेवानिर्वचनीयं ज्ञातव्यं न तु सछिलक्षणमसदसद्विलक्षणं च सदिति परस्पर विरो. धीत्वादेव एकस्मिन् रजते स्थानमेव न लभते तस्मा च्छतो रजतमअनिर्वचनीयमेवेत्पद्यते शुक्तिज्ञानेन विनश्यति च एवं रज्वांसर्प आत्मनि स्वप्नं ॥ सहश्यमेवचिंतनीयमिति ६ ॥ ननु यदुक्तं शुक्तो रजतं जायते ज्ञानेन च विनश्यतीति तत्त्वसंभवादनंगीकार्य यथा घटस्यो त्पत्तिविनाशश्व सर्वे रप्यनुभूयते न तथा रजतस्योत्पतिविनाशश्चकेनापिपुरुषेण दृश्यतेऽतोऽनंगीकार्य रजतस्योत्पत्तिविनाशश्चेति अनुभवानारूढत्वात् तत श्चन्यायमत श्वान्यथाख्यातिरत्र स्वीकार्यान त्वनिर्वचनीयख्यातिरिति चेत् ॥ ७ ॥ समाधानं-शुक्तौ तादात्म्यसंबंधन रजतमध्यस्तं भवति शुक्तेश्च याइदंता तस्याः संबंधो र. जतेऽध्यस्तोऽस्ति तत एवेदं रजतमिति प्रतीतिर्भ वति, यथा शुक्तेरिदंता, रजते प्रतीयते For Private and Personal Use Only Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (६५) तां रजत विलक्षण सिद्धभया जो रजतको असत्विलक्षण सत् एसेमानो तो आत्मा के समान सत्य दोनाचाहीये अरु रजतका शुक्तिज्ञानसे नाशहोनेते सत्आत्मासेंभी विलक्षणजानना यांते सत्असत्से विलक्षण होनेते अनिर्वचनीय सिद्धभया सत्से विलक्षणअसत् असत् से विलक्षणसत् एसे नहीजानना जो एसेजानोगे तो सत् असत् परस्पर विरोधी होनेते एक रजतमे रहनाही नहीपावेगे तमप्रकाश के सदृश विरोधी होते. यांते शुक्तिमे रजत अनिर्वचनीय उत्पन्न होवे है शुक्तिज्ञानसे नाश पावे है. ॥ ६ ॥ शिष्य उवाच - हे देव जो आपने कदा शुक्तिमे रजत उपजे है अरु ज्ञानसे नाशहोवें है सो अनुभव से विरोधी दोनेते मानने योग्यनदी का देते जैसे घटकी उत्पत्ति मृत्कुलाल से अनुभवसिद्ध अरु घटकानाशभी दंडादिकोंसे अनुभव मे आवे रजतकी उत्पत्ति नाश अनुभवविषे नही आवनेसे मानने योग्यनदी प्रत्यक्ष नहींहोनेसे कैसे मानीये यांते रजतमे अन्यथाख्यातिठीक है अनिर्वचनीयनही ॥ ७ ॥ श्री गुरुरुवाच - हे शिष्य शुक्तिमे रजत कल्पित है अरु शुक्तिमे जाइदंता है सा रजतमे कल्पित है यांते यहरजत है ऐसा अनुभव होवे है जैसे शुक्तिकी इदंता रजतमे भानहोवे है For Private and Personal Use Only Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तथा शुक्त प्रासिद्धत्वधर्मस्यापि संबंधो रजतेऽध्यास रूपेण जायते तस्मादेवानुभवो भवति प्राक्जातं रजतं पश्यामीति न चेदानीं जातं रजतं पश्यामीदृशं ज्ञानं भवति. ततएवरजतग्रहणाय प्रवर्तते तस्मा. द्रजते प्राक सिद्धत्वप्रतीतिरवे रजतोत्पत्तिप्रतीतेः प्रतिबंधकाऽस्तितत एव रजतोत्पत्तेः प्रतीतिर्न भवति प्राक्रसिद्धत्व वर्तमानोत्पत्तिमत्वयोरुषासायंकालयोरिव परस्पर विरोधात् ॥ ....८॥ यच्चोक्तं रजतनाशोपि न ज्ञायते तस्यापि समाधानमिदं शृणु विनाशो विविधो भवति ध्वंसरूपो बाधरूपश्च तत्राद्यो दंडेन घटस्य प्रसिद्धोस्ति द्वितीयस्तुअधिष्ठानज्ञानात् कार्यस्याज्ञानेन सह विनाशरूप एवोक्त अत्र प्रसंगेपि शुक्तिज्ञानाद्रजतस्याज्ञानेन सह बाधरूपो द्वितीयोऽत्र त्रिकालाभावज्ञानरूपो विनाशो भवति नतुदंडप्रहारेण घटध्वंसश्वात्र विनाशो भवति ध्वंसबाधयोः परस्परविरोधात् ध्वसंज्ञानं प्रतियोगिज्ञानसापक्षं बाधज्ञानं तु प्रतियोगिनस्त्रिकालाभावनिश्चयरूपः तयोरेकत्रानवस्थानरूपविरोधाद्रजतेध्वंसरूपनाशो घटनाश इथ न प्रतीयते ॥ ॥ ति सप्तदशकमलं समाप्तं हरिः ॐ तत् सत् ।। For Private and Personal Use Only Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (4) तैसे शुक्तिका प्रसिद्धत्वधर्मभी रजतमे भानहोनेते मनुष्यको एसेज्ञानहोवे है जोपूर्वकालकीबनी रजतको देखता हं यह ग्रहणकरनीयोग्य है जो जानता भ्रमः सिध्ध अबी उत्पन्नभयी है तो ग्रहणमें प्रवृत्त नहीं होता यांते शुक्तिका प्रागसिध्धत्वधर्मसो उत्पत्तिकी प्रतीति मे विघ्नरूपदै तांते रजतके उत्पत्तिकी प्रतीति नहींहोती ८॥ और जो आपने कहा रजतका नाशभी नही अनुभवमे आवता सोभी ठीक है तदांभी कारणसुनो नाश दो प्रकारका होता है एक सरूप दूसरा बाधरूप नाशहोता है तहां ध्वंसरूपनाश तो दंडने घटका प्रसिद्धही है दसरा बाधरूपजो नाश है सो अधिष्ठान जानसे अजानकारणके सहित कल्पित कार्यका नाशरूप जानना सो यहां प्रसंगमेंभी शु. क्तिज्ञानसे रजतका अज्ञानरूहित नाशको बाध कहा है दंडसे घटके नाशसहश नही जानना ध्वंस अरु बाधका परस्पर विरोधहोवे है घटध्वंसका जो ज्ञान है सो घटप्रतियोगीके ज्ञानपूर्वक होता है अरु रज. तके वाधका जो ज्ञान है सोशुक्तिमे तीनकाल रजत नही एसे निश्चयरूय है. घटज्ञान अरु रजतके तीनकाल अभावकाज्ञान परस्पर विलक्षण होनेते घटके नाश समान रजतका बाधरूपनाश प्रतीति होवनहीं. इति श्री सप्तदशकमलमे स्वनअनिर्वचनीय वर्णनं ॥ For Private and Personal Use Only Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir *अथाष्टादशकमले सामवेदीयवज्रसूच्युपनिषद् । वज्रमूचि प्रवक्ष्यामि शास्त्रस्याज्ञानभेदनम् ॥ दूषणं ज्ञानहीनानां भूषणं ज्ञानचक्षुषाम् ॥ १ । ॥ ब्रह्मक्षत्रियवैश्यशूद्रा इति चत्वारोवर्णास्तेयां वर्णानां ब्राह्मणएव प्रधानइतिवेदवचनानुरूपंस्मृतिभि रप्युक्तं तत्रनोद्यमस्ति कोवा ब्राह्मणोनाम किंजीवः किं देहः किंजातिः किंज्ञानं किंकर्मः किंधार्मिकः तत्र प्रथमो जीवो ब्राह्मण इति चेतन्न ॥ अतीतानागतानक दे हानगंजीवस्यैकरूपत्वात् ॥ एकस्यापि कर्मवशादनेकदेहसंभवात्सर्वशरीराणां जीवस्थकरूपत्वाच्च तस्मान्न जीवोब्राह्मण इति। तर्हिदेहोब्राह्मण इति चेतन आचांडालादिपर्यंतानां मनुष्याणां पांचभौतकत्वेन देहस्यैक रूपत्वात्॥जरामरण धर्माधर्मादि साम्यदर्शनात् ब्राह्मणः श्वेतवर्णःक्षत्रियोरक्तवर्णावैश्यः पीत्तवर्णः शूद्रकपणवर्ण इति नियमाभावात् पित्रादि शरीरदहने पुत्रा दीनां ब्रह्महत्यादिदोषसंभवाच्च तस्मान्नदेहो ब्राह्मण इति तर्हि जातिर्ब्राह्मण इति चेतन्न तत्र जात्यंतरजंतु वनेक जातिसंभवा महर्षयो बहवः संति ऋष्यशृङ्गो मृग्यः कौशीकः कुशात् जांबुको जंबुकात् बाल्मीकिः वाल्मीकातु व्यासः कैवर्तककन्यकायांशशष्टातगौत. मः वशिष्ठः उर्वश्यांअगस्त्य कलशेजात इतिश्रुतत्वात्. For Private and Personal Use Only Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir * ॥ अथाष्टादशकमलमे सामवेदकी वनसूचि उपनिषद ॥ अबसर्व शास्त्रमे अज्ञातता नाश कर्ता तथा ज्ञानीयोंको भूषण अज्ञानीकों दूषणरूप वज सूचि उपनिषत्सुनो ॥ ब्राह्मणक्षत्रिय वैश्य शूद्र ये चतुर्वर्ण है तिनो मे ब्राह्मण प्रधान है एसे वेदोमे स्मृतियोमे कहा है तिसमे प्रश्न ब्राह्मण नाम जीवका है वा देहका है वा जातिका है वा ज्ञानका है वा कर्मका है वा धर्मका है तिसमे जीवतो ब्राह्मण नदी. नूत भविष्यतमे कर्म वशसे अनेक देहोंमे भी जीवको एक निराकाररूप होने ते ॥ लीवतो ब्राह्मण नहीं ॥ जो देह ब्राह्मण कहो तो नही बनता सर्व नीच ऊच देह पंचभूतात्मकरूपसे तो एकरूप होने ते तथा जरा मरण धर्माधर्म भी सर्व देहमे तुल्य देखने ते तथा ब्राह्मण श्वेतवर्ण क्षत्रिय रक्तवर्ण वैश्य पीतवर्ण शूद्र कृष्णवर्णका भी नियम नही तथा पिता देहके जलावनेसे पुत्रको ब्रह्महत्यासे दषित होनेते देह ब्राह्मण नहीं ॥ जाति ब्राह्मण कहो तो भी नहीं बनता कारण जो दूसरी जातिमे उत्पन्न हुवे भी ब्रह्म ऋषि बहुत है जैसे ऋष्पशृंग मृगीसे कौशिक कुशाते जांबुक जंबुकीसे वाल्मीकि वल्मीकसे व्यासः कैव. तकीसे गौतम शशलीसे वशिष्ट उर्वशीसे अगस्त्य कुंभसे जन्मे है ये वार्ता पुराणमे प्रसिद्ध है, For Private and Personal Use Only Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तेषां जात्या विनाप्यग्रे ज्ञान प्रतिपादिता ऋषयो बह वस्संति तस्मान्न जातिाह्मणइति तर्हि ज्ञानं ब्राह्मण इति चेत्तन्न क्षत्रियादयोऽपि परमार्थदर्शिनोऽभिज्ञावहवः संति तस्मान्न ज्ञानं ब्राह्मण इति तर्हि कर्म ब्रा. ह्मण इति चेत्तन्न सर्वेषाप्राणीनां प्रारब्ध संचितागामी कर्मसाधर्म्यदर्शनात्कर्माभिप्रेरिता संतोजनाः क्रियाः कुर्वति तस्मान्न कर्म ब्राह्मण इति तर्हि धार्मिको ब्राह्मण इति चेत्तन्न क्षत्रियादयोहिरण्यदातारो बहवस्संति तस्मान्न धार्मिको ब्राह्मण इति तर्हि कोवा ब्राह्मणो नाम इति प्रश्नः यः कश्चिदात्मानम द्वितीयं जाति गुणक्रियाहीनं षडूमि षड्भावेत्यादि सर्वदोषरहितं सत्यज्ञानानंतस्वरूपं निर्विकल्पमशेषकल्पनाधारम शेषनूतांतर्यामित्वेन वर्तमानं ॥ अंतर्बहिश्चाकाशवदनुस्यूतमखंडानंदस्वभावमप्रमेयमनुभवैकवेद्यमपरोक्षतयाभासमानं ॥ करतलामलकवत्साक्षादपरो. क्षीकृत्य कृतार्थतया॥ काम रागादि दोष रहितः शमदमादिसंपन्नो भयमात्सर्यतृष्णाऽऽशामोहादि रहितो दंभाऽहंकारादिभिरसंस्पृष्टचता वर्तते "एव मुक्तलक्षणो यः स एव ब्राह्मण इति श्रुति रभिप्रायः अन्यथादि ब्राह्मणत्व सिद्धिर्नास्ति तस्मात्सच्चिदानंदाऽऽ. स्मानं भावयेत् ॥हरिःमिति वज्रसूच्युपनिषत्संपूर्णम् For Private and Personal Use Only Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ये सर्व ब्राह्मऋषि जाति बिना ब्राह्मज्ञान के बलसे प्रसिद्ध है यांते जाति अधीन ब्राह्मण नही तब ज्ञानसे ब्राह्मण कहो तो भी नही कारण जो क्षत्रिय ब्रह्मज्ञानी अजातशत्रु आदि वेदोक्त घणे है यांते ज्ञान ब्राह्मण नही तब कर्म ब्राह्मण कहो तो नही। का रण जो कर्म संचितागामी प्रारब्ध सर्वके साधारण है तथा कर्म वशसे स्वस्व क्रिया कर्ते है यांते कर्म ब्राह्मण नही तब धर्मको ब्राह्मण कहो तो भी नहीं कारण जो क्षत्रियादि भी स्वर्ण दाता बहुत होनेते धर्म ब्राह्मण नही तब ब्राह्मण कौन है एसे पूछो तो सुनो जो शुद्धबुद्धिमान अद्वितीयात्माको जाने सों ब्राह्मण है कैसा आत्मा है जो जाति गुणक्रिया हीन षड् उर्मिते रहित षड्भावसे रहित है तथा सत्यज्ञान अनंत स्वरूप निर्विकल्प सर्व संसारका अधिष्ठान स. र्वका प्रेरक आकाशसम सर्व व्यापी अखंडानंद स्वरूप अप्रमेय अनुभव वेद्य अपरोक्षता करके प्रसिद्ध ऐसे आत्माकों जो करामलकवत् प्रत्यक्ष करके काम कोधादिकोसे रहित होता है तथा शमदम संपन्न भयमात्सर्य आशा तृष्णा दंभाहंकारसे बिना वर्तता है तिसको ब्राह्मण कहते है अन्यथा ब्राह्मणत्व सिद्धि नहीं होती यांते सच्चिदानंद निराकार मै हूं एसीभावना करो इतिवज्रसूचि.अष्टादशोकमल.अनिर्वचनीयकांड पूर्ण। For Private and Personal Use Only Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (७२) अत्र विज्ञानकमलाकरस्यानिर्वचनीयकांडसमाप्तौ मंगलस्थानीयस्तु ॥ अथर्ववेदगतानां प्रश्नमुडमांइक्योपनिषदां शांतिपाठ एवचिंतनीयः॥ भद्रं कर्णेभिः शृणुयामदेवा भद्रं पश्येमाक्षिाभयेजत्राः। स्थिरै रंगैस्तुष्टुवांसस्तनुभिर्व्यशेमदेवहितं यदायुः ॥ॐस्वस्ति न इंद्रो वृहच्छ्वा स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदा स्वतिनस्ता रक्षोऽरिष्टनेमिः स्वस्तिनो बृहस्पतिर्दधातु हरि ॐ शांतिः शांतिः शांतिः ॥अस्यायमर्थः॥ हे देवतावो ब्राह्मस्मरणरूप यज्ञक" जे हम मुमुक्षु जन है ते हम अनंत कोंसे आपमंगलमूर्तिकोंही श्रवणकरें अनंतचक्षुसे आपमंगल मूर्तिका सर्वत्र दर्शन करें सूक्ष्ममहावाक्यवाली श्रु तियोंसे तथा विषयवासना रहित द्रढेंद्रियोंसे आप मंगलमूर्तिकी स्तुति करते रहे और ब्रह्मदेवके प्राप्तिके योग्य आयुषको प्राप्त होवों बड़े यशस्वी इंद्र. सर्वज्ञाता सूर्य भगवान्. सर्व प्रकाशक पापोको चक्र नेमिसम चूर्णकर्ता गरुड. अरु बृहस्पति ये सर्व मुजको मोक्ष सुख देवें अध्यात्म अधिभूत अधिदेव जे तीन ताप है तिनोके शांत्यर्थ तीन शांति पाठ है ॥ हरिः ॐ ॥इतिश्री अष्टादशकमलं समाप्तम् ।। ॥इतिश्रीअनिर्वचनियकांडं समाप्तम् ।। For Private and Personal Use Only Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (१) ॥ॐ॥ श्रीगणेशायनमः ॐ नमोभगवतेवासुदेवाय॥ अथ श्रीविज्ञानकमलाकरे शुद्धविज्ञानकांडं प्रारभ्यते॥ ॥मंगलाचरणं|| ऋग्वेदस्यतरेयोपनिषदि शांतिपाठः।। वाले मनसि प्रतिष्टिता मनोमे वाचि प्रतिष्ठित मावि रावि मए धि० वेदस्य म आणीस्थः श्रुतं मे मा प्रहासी रनेनाहो रात्रीन्संदधाम्य॒तं वदिष्यामि. सत्यं वदिष्यामि. तन्मामवतु. तक्तारमवत्ववतुमामवतु वक्तारमिति.हरिःडोम्. शांतिः शांतिःशांतिः अस्थार्थः॥ हे प्रकाशरूप आप अपरोक्ष होवो और मै जैसी वाणी कहूं तैसाही मनमे संकल्पहोवे जैसे मनमे संकल्प होवे तैसे वाणीसे कहूं और मेरे ताई वेदकी प्राप्ति करो। मेरा पठन कीयादवा विस्मरण न होवे तथा रात्रीदिवस वेद उच्चारणसे व्यतीत होवे मै वाणीसे सत्य संभाषण करों तथा सत्यब्रह्मका ही कथन करता रहूं सो ब्रह्म हमारीजन्ममरणसे रक्षा करे तथा श्रीगुरुजीकी रक्षाकरे पुनरुक्ति आदरार्थ कहीहै तीन ताप अध्यात्म अधिभूत अधिदेव तिनोंको शांत्यर्थ तीनशांति पाठका उच्चारण कीया है हरिः डोम्. For Private and Personal Use Only Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ( २ ) Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १ अथ एकोनविंशकमले तापस्यष्टावक्रयोः संवादः कदाचि जनकसभायाम ष्टावक्रो वरुणपुत्रं शास्त्रार्थे विजित्य सर्वे ब्राह्मणैः सह पितरं मोचयित्वा गर्व प्राप्तोऽभूत् तस्यगर्वनिवृत्यर्थं तत्रैव काचिदीश्वरप्रेरिता तापस्यागता अष्टावक्रं प्रत्युवाच ॥ भोऽष्टावक्र मुमुक्षवो यं ज्ञात्वा जीवन्मुक्ताः संतो विददमोक्षं प्राप्य तद्रूपा भवति न पुनरावर्तन्ते यं च ज्ञात्वा संसारे पुनर्ज्ञातव्यं न भवति न च प्राप्तव्यमव शिष्यते यच्चावेद्यमप्यस्ति यदि त्वं तत्पदं विजानासि तर्हि तस्य स्वरूपं मह्यं वक्तव्यं ॥ २ ॥ अष्टावक्र मुनिरुवाच भो देवि जानाम्यदं तत्पदं तुभ्यं च कथयिष्यामि लोके वेदे च ममाऽज्ञातं किंचिदपि नास्त्येव ॥ For Private and Personal Use Only Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (३) १॥अथ एकोनविंशकमलमे तापसी अष्टावक्र संवाद॥ किसी कालमे जनक राजाकी सुशोभित राजधानीमे अष्टावक्र ऋषी शास्त्रार्थमे वरुणदेवके महापंडितपुत्रकों विजय करके अपने पिताजीके साथ सर्व ब्राह्मणोंको पंडित वरुणदेवके पुत्रसे छुडाया पाछे ब्राह्मणों विषे अभिमान साथ व्यवहार करने लागा तिसलिये सर्वद्विजवर मनमे घणा दुःखी भये तिनके संकट शमनार्थ अरु अष्टावक्रके अभिमान मर्दनार्थ ईश्वरप्रेरिता तिसीही सभामे एक तापसी जटाधारी स्त्रीशरीरी प्रगटभई अरु अष्टावक्र साथ अमृत जैसा संभाषण करती भई॥ हे मुनिवर मुमुक्षुजन जिसको जानकर जीवन्मुक्त होते है पुनः विदेहमुक्तभये जिसमे नदीसमुद्रसमान सोई स्वरूप होजाते है फिर जन्म नही पावते. और जिसको जानकरके फिर जानने योग्य नही रहता न कछु पावने योग्य रहता है. और सो पद अज्ञातभी है जो तुम एसे परमपावनपदको जानतेहो तो इस सभामे मेरेताई कह सुनावो॥ २॥ श्रीअष्टावक्रमुनिरुवाच-हे भगवती तिस पदकों मैं जानताई अरु शांतिसें तुमकों कहोंगाभी. इस संसारमे अथवा वेदोमेंभी मेरसे कछु अज्ञात होवे इस रीतिका तुम मेरे विषे निश्चय कबीभी नही करना. For Private and Personal Use Only Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (४) अधुना प्रत्युत्तरं शृणु तत्पदमस्य, जगतः कारणमस्ति तस्याद्यं मध्वमवसानं च नास्त्येव देश काल वस्तु परिच्छेदशून्यं सत्यज्ञानानंतस्वरूपं च तदस्ति तदेवास्य जगतोऽधिष्ठानं भवति यत्रा दर्पणे नगरं प्रतिबिति तथैव तत्र विश्वं प्रतिर्विवति तदेव ज्ञात्वा मुमुक्षवो जीवन्मुक्ता भवति यथा दर्पणे दृष्टे तद्गत प्रतिबिंबेषु संदेहो न भवति न च तेषां ग्रहणे संकल्पो भवति तथैव तत्पदं ज्ञात्वा न तद्गतजगति ज्ञातव्यमवशिष्यते सर्वसंदेहाद्विमुक्तो भवति न च तस्य प्राप्तव्यमवशिष्यते ॥ ३॥ तत्पदं च अज्ञातमप्यस्ति यदि तस्य ज्ञाता तदन्यो जडो भवेत्तन्न संभवति जडत्वात् घटवत् ज्ञातृत्वं तत्र दुर्घटमस्ति तदन्यश्चेतनो ज्ञाताचेत्तर्हि तस्यापि ज्ञातेत्यनवस्था स्यात्स्वयमेव ज्ञाता चेत्तर्हि स्वयमेव ज्ञानक्रियायाः कर्ता स्वयं कर्म तयुगलमेकस्मिन् विरोधात्सहवासमेव न लभते ततश्च तत्पदमवेद्यमस्ति तस्मादहमपि शास्त्रादेव विजानामि न तु तत्पदं मया प्रत्यक्षेणानुभूतमस्तीति प्रतिपाद्य सो मुनिः पुनर्वचनादुपरराम ॥ For Private and Personal Use Only Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ५ ) अब योग्य प्रत्युत्तर सुनलीजीये सो पद इस जगत्का कर्ता है तथा आदि, मध्य, अरु अंत इन तीनोसे रहित है और देशकालवस्तुके परिच्छेदतें रहित 'है सच्चिदानंदस्वरूप है इसजगत्का अधिष्ठानभी सोई है जैसे दर्पणमे दृश्यवस्तु प्रतिबिंबित होती है तैसे यह विश्व विश्वभरमे प्रतिबिंबित होती है मुमुक्षुजन जिसको जानकरके जीवन्मुक्त होते है जैसे दर्पण के देखनेसें दर्पण मे दृश्यवस्तुविषे संदेह रहिता नही तथा प्रतिबिंबों के ग्रहणकी इच्छाभी बुद्धिमानको होतीनही तथा तिस पदको जानकरके जगतमे जाननेकी इच्छाभी रहतीनही सर्वसंदेहोंते मुक्त होइ जाता है तिसको किसीके प्राप्ति की भी इच्छा रहती नही ३ | और हे देवि सो पद अज्ञातभी है काहेते घट समान जडवस्तुतो तिसके जानने में सामर्थ ही नही जो चेतन ज्ञाता कहो तो वह किस ज्ञाता करके सिद्ध है फिर तितकाभी कोई ज्ञाता ऐसे अनवस्था होती है स्वयं ज्ञाता माननेमे एकही कर्म एकदी कर्ता यह आत्माश्रय दोष होवेगा यांते सो पद अज्ञात है मै भी शास्त्रोंसें तिस पदको जान्या है मनवाणीका अविषय होनेते घटवत् वा सुखादिवत् प्रत्यक्ष देख्या नही एसे वोलकर तूष्णीभया ॥ For Private and Personal Use Only Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (६) ४॥तापस्युवाच ॥ कहोलपुत्रमष्टावक्र प्रति राज्ञां मुनीनां च सभायां भो मुने यत्त्वयोक्तं तत्तथैव योग्य. मेवोक्तं. तथापि तत्पदमज्ञातमस्ति तस्य ज्ञातुरभावात् ॥ एवमुकापुनश्चतत्पदं ज्ञात्वा मुमुक्षवो जीवन्मुक्ता भवंतीत्युक्तमित्येतद्वाक्यं युगलंपरस्यरंविरूद्धंभवतीति न पश्यसि किम् ।। ५ यदि च तत्पदं सर्वशः न वेयं भवेत्तर्हि ख. पुष्पवन्नास्तीति वक्तव्यं न चाहमपि तद्वस्तुविजानामीति च वक्तुं योग्यं भवति यदितत्पदं जगतः कारणमस्ति मया ज्ञायते च तदंतःसंसारं प्रतिबिंबति तान् प्रतिबिंबान्दष्ट्वापि तत्पदमवेयं भवतीति कथं वदसि दर्पणमदृष्ट्वा तद्गतप्रतिबिंवानां दृष्टु कोऽपि शनोतीति त्वयैव वक्तव्यं तदैवं तापसीवाक्यं श्रुत्वाऽष्टावक्र उवाच-भो देवि तव वाक्यानां प्रत्युत्तरं दातुं न शक्नोमि ततस्त्वमेव मांशाधि तवाहं शिष्योऽस्मि योग्यं मह्यंशिष्यायोपदेशं देहि ॥ For Private and Personal Use Only Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४॥एसे वचनामृतको श्रवण करके सा तापसी बोलती भई अहो मुने जो आपने कहा सो योग्य कहा है एसेही कहनाथा. तौभी विचारो जब आपने कहा ज्ञाताके अभावते सो पद अज्ञातही है. पुनः कहा तिस पदको मुमुक्षुजन जानकरके जीवन्मुक्त होते है इन दोनो वचनोके विरोधको तुम नहीं जान सकतेक्या!॥ ५॥ यांते जो सर्वथा अवेद्य होवे है तिसकों खपुष्पवत् नहो है एसे कहनाचाहीये मैतिस वस्तुको जानताहूं एसे नही कहना चाहीये जब एसे कहतेहो जो वह पद जगतका कारणहै मैं जानता तिसमे संसारका प्रतिबिंब परता है तिन प्रतिबिंबोंकों मैं देखता हूं तिन प्रतिबिंबोंमे संदेह तथा अवेद्यता तथा तिनोंमे गृहणकी इन्छा नही होतीहै एसे कहिकर वह अवेद्य है सो कहना कैसे बनसकताहै दर्पणके देखने विना तद्गत कोई प्रतिबिंबोंके देखनेको सामर्थ होता है यह आपही कह सुनावो एसे तापसीके वचनामृतको पानकरके प्रसन्न भया अष्टावक्र अभिमानते रहित होकरके प्रणाम करके बोल्या हे भगवती तुमारे ताई प्रत्युत्तर देनेमे असमर्थ हवा तेरे शरणागत हूं आप हमको योग्य उपदेश करो मै आपका शिष्य हुं ॥ For Private and Personal Use Only Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (८) ६॥तदा सा तापस्युवाच-भोः पुत्र तत्पदं गुरोरर्चनांविना ईश्वराऽनुग्रह मंतरेण च ज्ञातुं न शक्यते सहस्त्रवार स्वयंशास्त्राणामवलोचनं कृत्वापि मोहमेव प्राप्नोति ततस्त्वया सावधानमनसा मे वाक्यानि श्रोतव्यानि यावत्कालं तत्पदमहमस्मीति नैव विजानाति तावत्कालं सहस्रवारं श्रुत्वाापे परोक्षज्ञानीभूत्वा विमुक्तो न भवति यथा परोक्षनिधिर्दुःखं दारिद्रतां च हतुं न शक्नोति यथा कश्चिन्मूढो स्वकंठे हारं श्रुत्वापि विनादर्शनक्रियां हार न लभते न च सुखीभवति तथा तत्त्वमसीति श्रुत्वापि यावश्यं त्यक्ता निर्विकल्पात्मनि तत्परो न भवति तावत्कालमपरोक्ष स्वमात्मानमननुभूय मोक्षं नैवाप्नोति न च सुखं वा लभते ॥ ७॥अधुना प्रसंगप्राप्तमात्मस्वरूपं त्वं शृणु हे ऋषे यथा स्वयंप्रकाशमानाः सूर्यचंद्राग्नितारा नक्षत्र. दीपादयोऽन्यान्प्रकाशयंतः संतस्तैश्च सर्वैः स्वयमप्रकाशमानाः-संतोऽपि ते किंन संति नवा प्रकाशमाना भवंतीति विनामूढं कोऽपि वक्तुं शक्नोति तथा सजातीय विजातीय स्वगतभेद शून्यं देशकाल वस्तु भेदशून्यं For Private and Personal Use Only Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (९) ६ ॥ तापसी बोली हे पुत्र सो परमात्म पद सद्गुरुको सेवा विना तथा ईश्वराराधनसे विना सहस्त्रवार स्वयं शास्त्रोका अवलोकन करकेभी मोहही. को प्राप्त होता है अब तुम सावधान मनसे श्रवण करो जबतक यह परोक्षज्ञानी होता है तबतक मुक्तिको नही प्राप्तहोता जैसे परोक्ष निधि अपने ग्रहमे होवे तोपर सुखको प्राप्त करती नही न दारिद्रको हरती है जैसे आलसी मूढ अपनी ग्रीवामे हार है यह श्रवण करकेभी जबतक देखे नही तबतक सुखी नही होता तैसे सद्गुरुमुखसे तत्वमसि श्रवणकरकेभी जबतक त्रय शरीर त्यागकरके निर्विकल्पपदमे स्थिरताको नही पावता तबतक स्वात्माको अपरोक्ष नही जानता तथा मुक्तभी नही होता सुखपातिकीतो आशाही कहां ॥ ७॥ अब प्रसंगप्राप्त जो स्वात्मस्वरूप है तिसकोभी सुनो हे ऋषे जैसे स्वयंप्रकाशमान जे सूर्याग्निचंद्रतारादिक है ते संपूर्ण जगत्को प्रकाश करतेहूएभी तिस जडदृश्यकरके स्वयं न प्रकाशको प्रातहएभी क्या ते सूर्यादिकनही, वा स्वयंप्रकाशमान नही है एसे विनामूढसे दूसरा विवेकी कोई कह सकता है. तैसेही स्वगत सजातीय विजातीय भेद शून्य तथा देशकाल वस्तुके परिच्छेदसें शून्य और For Private and Personal Use Only Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (१०) पूर्वोक्तानां परिच्छिन्नप्रकाशमानानां सूर्यचंद्रादीनामपि प्रकाशकं तैरन्यैरप्रकाशमानं सत्तत्स्वयंप्रकाशमानं किं न भवति न वास्तीति मृदं विना कोऽपि वदति तदेव स्वरूपत्वादेव तदेव ब्रह्माहमस्मीति वक्तुं ते किं बाधकमस्तीति त्वमेव ब्रूहि ॥ ८॥भो मुने यावनिर्विकल्पवृत्तिनभवति तावद्वहिर्मुखपुरुषेण तत्पदंब्रह्मानंदं सच्चिद्धनं कदाचित दपि ज्ञातुं न शक्यते तत एव निर्विकल्पात्मानं निर्विकल्पमनसा बुध्वा तद्रूपेण स्थित्वा जीवन्मुक्तो भव यथा घटोऽयं स्वत एवाकाशेन-पूर्णो भूत्वा पुनश्च तंडुलैः पूर्णो भवति तथैवांतःकरणमपि स्वत एव चिदाकाशेन पूर्णभूत्वा पुनश्च संकल्पः पूर्ण भवति यथा घटात्तंडुलान्बदिः कृत्वा यत्नं विनैव शुद्धाकाशं जनो लभते तथैवांतःकरणं संकल्पविकरूपाभ्यां मलाभ्यां विहीनं कृत्वा पश्चात्तत्कालं यत्न विनैव तत्पदं वेदैवेद्यं बह्मादिभिध्येयं विंदते ॥ ९॥ भो मुनेऽष्टावक्र क्वचित्कालं निर्विकल्पो भूत्वा पश्चात् व्युस्थानं कृत्वा विचारयाऽयं निर्विकल्पकालः केनानुभूतः स्वयं प्रकाशेनात्मना वान्येन ततः स्वयमेवात्मानमन्यैरवेद्यं सत्स्वयंप्रकाशमानं ज्ञास्यसि For Private and Personal Use Only Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पूर्वोक्त सूर्यादिकोंकाभी प्रकाशक सोऔरोंसे न प्रकाश पावता हूवा सो क्या नही, तथा स्वयंप्रकाशमान नही एसे अज्ञानीते विना कोई ज्ञानी कहिसकता है ? किंतु नही कही सकता. एसा स्वयंप्रकाशमान ब्रह्म मै हूँ एसे तुमकों कहनेमे क्या संदेह है. ॥ ८॥हे मुने जबतक निर्विकल्पवृत्ति नहीं होती तबतक बहिर्मुख सो सच्चिदानंद जाननेको अयोग्य है यांते तुम मनको निर्विकल्प करके निर्विकल्प आत्माको निश्चयकरके तिसीरूपमे स्थिरता पाइकरके जीवन्मुक्त होई विचरो. जैसे घट स्वतः आकाशसे पूर्ण है फिर तंडलोंसें पूर्णकीया जाता है तैसे यह अंतःकरण स्वतः चिदाकाशसें पूर्णहवा संकल्पविकल्पोंसे पूर्ण होता है जैसे घटते तंडुल निकालनेसे आकाश शेष रहता है तैले मनसे संकल्प निवृतकर, सचिदानंद निर्यन स्वतः शेष रहताहवा भाम होता है जो वह ब्रह्ममैही हूं। ९॥ भो अष्टावक्र थोरा समय तुम निर्विकल्प होवो पाछे विचार करो यह निर्विकल्पकालको किसने अनुभव कीया स्वयंप्रकाश अपने आत्मदेवने अनुभव कोया वा औरने इस विचारसे आपकारूप जो परमात्मा अरु अन्यकरके अप्रकाशमान है एसे आत्मदेवको निर्यन अनुभवकरके सुखी होवोंगे For Private and Personal Use Only Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( १२ ) भो सुने यदि भवान् शुद्धबुद्धिमानस्ति तर्ह्यलं विज्ञानायैतावताऽन्यथातु बहुभिरुपदेशैश्च किं भवत्यधुना तुभ्यं नमोऽस्तु गच्छाम्यहं यथाऽऽगता इत्युक्ता जनकेन संपूजिता दृष्टथगोचराऽभवदिति ॥ इति एकोनविंश कमलं समाप्तम् हरिः ॐ तत् सत् ॥ १ ॥ ॐ अथ विंशतिकमले यक्ष राजपुत्रयोः संवादः ॥ कदाचित्कस्मिंश्चिद्वने यक्षेण निगृहीतो भ्रात्रा सह राजपुत्रो यक्षाय वाक्यमब्रवीत् भो यक्ष मे भ्रातरं त्यज मामपि त्यज तदर्थे यदिच्छसि तद्ददाम्यहमिति श्रुत्वा यक्ष उवाच - यदि मे प्रभानामुत्तरं ददासि तदा सभ्रातरं त्वामुत्सृजाम्यहं राजपुत्रउवाच - भो यक्ष यत्पृच्छसि तदुत्तरं ददामीति राजपुत्रेणोक्तः सन् यक्ष उवाच - भो राजकुमार ॥ २ || आकाशादपि विस्तीर्ण किं भवति परमाणोरपि सूक्ष्मं च किमस्ति कीदृक् तस्य रूपं तत्कुत्र तिष्ठति ॥ उत्तरं ॥ ब्रह्मैवाऽऽकाशाद्विस्तीर्णमस्ति तदेव परमाणोरपि सूक्ष्ममस्ति For Private and Personal Use Only Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( १३ ) हे मुने जो तुम निर्मलबुध्धिवाले हो तो अपरोक्षज्ञान वास्ते इतना उपदेश बहुत है नहीतो बहुत उपदेशसेभी कछु फल नही है हे सौम्य अब तुमको नमस्कार हो हूं जातीहों एसे कहिकरके राजा जनकसे पूजा पाई अदृश भई ॥ इति एकोनविंश कमलं पूर्ण ॥ १ ॥ अथ विंशति कमलमे यक्ष राजपुत्र संवाद ॥ किसी कालविषे एक वन में भ्रातासहित भक्षणार्थ यक्ष करके ग्रहणकीया कोई राजपुत्र यक्षको कहता भया ॥ हे यक्षराज जो किसीभी पदार्थको हमसे लेकर छोडदेवो तो मै तिसी पदार्थकों तुमारेतांई देकर हम भ्रातासहित स्वराजधानीको चले जावों तब यक्ष बोल्या हे राजपुत्र तुम हमारे प्रभोका उत्तर देवो तो तुमको भ्रातासमेत त्यागकरोंगा तब राजपुत्रने कहा जो पूछोगे हम तिसका प्रत्युत्तर देवेशे तब यक्षराज ब्रह्मज्ञान विषयक बहुतप्रश्न करता है राजपुत्रभी उतर देता है तिसको कहते है ॥ २ || हे राजकुमार आकाशसे भी विस्तारवाला कौन है तथा परमाणुसेभी सूक्ष्म कौन है तिलका स्वरूप कैसा है तथा सो रहिता कहां है सो समाधान करो ॥ राजपुत्र उवाच - हे यक्षराज परमात्मा आकाशते विस्तारवाला है सोई परमाणुसें सूक्ष्म है For Private and Personal Use Only Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (१४) हृदयं तस्य स्थानमस्ति सच्चिदानंदात्मा तस्य स्वरूपमस्ति "|अणोरणीयान्महतो महीयानात्माऽअस्प जंतो निहितो गुहायामिति ॥” श्रुतेश्च ॥ ३॥ प्रश्न-यदतिविस्तीर्णं तदेवातिसूक्ष्मं च कथं भवति सच्चिदानंदस्य कोऽर्थः कीहक हृदयं भवति ॥ समाधानं आखिलब्रह्मांडस्याधिष्ठानत्वादतिवि स्तीर्णमस्ति मनोवागादींद्रियाणामगोचरत्वादतिसूक्ष्मं च भवति नाशरहितत्वादजडत्वात्सुखरूपत्वासच्चिदानंदस्वरूपं बह्मैवात्मा भवति सर्वेन्द्रियबुझ्यादेरंतरत्वान्मनो बुद्धींद्रियाणां साक्षीत्वानद्ब्रह्मैवात्मास्ति. “ तत्त्वमसीति " श्रुतेश्च तस्योपाधिरेव हृदयं भवति ॥ ४ प्रश्नः ब्रह्मप्राप्तेः स्थानं किमस्ति कथं मया प्राप्यते तल्लाभाकिं फलं भवति ॥ समाधानं ॥ हृदयं तत्प्राप्तेः स्थानं भवति चित्तैकाग्रता तत्माते मुख्यसाधनं तल्लामासंसारस्यात्यंताभावो भवति ततः पुनगेभेवासं भलभते-" न स पुनरावतेते न स पुनरावर्तते” इति प्रमाणात् ॥ . ५॥प्रश्नः-का बुद्धिः एकाग्रता च कीदृशी जन्म चकीहरभवति-समाधानं आवरणविशिष्टा चिति. रेव बुधिरस्ति For Private and Personal Use Only Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( १५ ) अंतःकरणमे रहिता है तथा सत्यं ज्ञान मनंतं ब्रह्म एसा तिसका रूप है ।। ३॥ यक्ष प्रभः-जो विस्तारवाला है सोई अ-' तिसूक्ष्म कैसे होई सकता है “ सत्यं ज्ञान मनंतं ब्रह्म तिसका क्या अर्थ है तथा अंतःकरणकाभी क्या स्वरूपहै सो कहो ॥ उत्तरं ॥ निखिल ब्रह्मांडका अधिष्ठान होनेते विस्तारवाला है मनवाणीनेत्रादिकोंका अविषय होनेते वही सूक्ष्मभी हो सकता है और अविनाशी चेतन तथा परिच्छेद रहित तथा सर्वत्र पूर्ण होनेते सत्यं ज्ञानमनंतं ब्रह्मरूपभी सोई परमात्मा है और अंतःकरण जो है सो तिसकी उपाधिहै। ४॥ यक्षराज बोल्या-हे ज्ञाननिष्ठ राजकुमार तिस ब्रह्मके प्राप्तिका स्थान कौन है हमको कैसे प्राप्त होवेगा तथा मिलनेसे क्या फल होवेगा सो कहो।। राजपुत्र उवाच-अंतःकरण जो है सोई तिसके प्राप्तिका स्थान है चित्तको एकाग्रतासें तुमकों प्राप्त होवेगा जन्ममरणको निवृत्ति होनी यही फल तिसके दर्शनसे जीवोंको अवश्य ही मिलता है। ५ यक्ष प्रश्नः-हे कुमार अंतःकरण किसको कहते हो तथा एकाग्रता कैसी होती है और जन्मनाम किसका है तिसका उत्तर कहो॥राजपुत्र उवाचआवरणविशिष्ट चिति ही बुध्धि कही है For Private and Personal Use Only Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (१६ ) "बुद्धिर्बुद्धिमतामस्मीति " स्मृतेः निर्विकल्पता या सैवैकाग्रता देहाभिमानमेव जन्म भवति॥ ६ ॥ प्रश्नः- स्वात्मज्ञानाऽलाभे को हेतुरस्ति तल्लाभस्यापि किं कारणं-कस्माच जन्म भवति ॥ उत्तरं विवेकाऽभाव एवात्मज्ञानस्याप्राप्तौ कारणम् आत्मज्ञानप्राप्तौ च कारणं तत्प्राप्तेः दृढतराकांक्षा "ज्ञानकारणसामग्रयां भक्तिरेव गरीयसी॥ भक्तिः परमानुरक्तिः स्वस्वरूपानुसंधायनीति" श्रीशंकर भगवडाक्यं । कर्तृत्वाभिमानार जन्मनः प्राप्तिर्भवति ॥ ७॥ ननु को विलेकाभावः कश्चात्मा कर्तृत्वाभिमानं च किं. उत्तरं-देहीदेहयोःप्रथक्जानाभावोऽ विवेको भवति अंतःकरणादीनां जाग्रत्स्वप्नयोर्भावं सुषुप्तावभावं च जीवो येन बिजानाति सैवात्मा भवति ॥ “येन शब्द, रसं, रूपं, गंध, जानासि राघव, ॥ तमात्मानं परं ब्रह्म जानीहि परमेश्वरं ॥” इति वचनाच. ॥ कर्तृत्वाभिमानं तदेव भवति यत्कर्तृत्वाविज्ञानजन्यदृढवासनाऽस्ति ॥ ___८॥ प्रश्नः-अविवेकनाशहेतुश्च कोऽस्ति कथं च विवेको जायते अविवेक नाशहेतोरपि हेतुश्च को वास्ति तस्य स्वरूपं ब्रूहि For Private and Personal Use Only Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( १७ "वधिबंध्धिमतामस्मि" इस गीता वाक्यसें सो जानना निर्विकल्प होना तिसका नाम एकाग्रता है देहाभिमानका नाम जन्मजानना और ज्ञानसे मरण जानना। ६॥ यक्ष पूछता भया-ब्रह्मज्ञान नहीं होता तिसका क्या कारण है तथा ज्ञानका कौन कारणहै जन्मकी प्राप्तिभी किस कारणसें होतीहै तिलको सुनावो ॥ राजकुमार उत्तर कहताहै हे यक्षराज विवेकके अभावसे ज्ञानको प्राप्ति नहीं होती और मुमु. क्षुता आत्मज्ञान प्राप्तिमे कारण जाननी में कर्ता हूं एसे अभिमानसें जन्मकी प्राप्ति होताहै ॥ ७॥ पुनः यक्षका प्रश्नः-विवेकाभाव सो क्या है तथा में कर्ता हूं तिसका अर्थ क्या है अरु आत्माका अर्थ कहो ॥ राजपुत्रका प्रत्युत्तर-हे यक्षराज ॥ देही देहको भिन्नभिन्न करके न जानना तिसका नाम विवेकाभाव है कर्तृत्वज्ञानजन्य जे दृढवासना तिसका नाम मै कापणेका अर्थ स्पष्ट जानना और “तत्वमसि" श्रुतिसें आत्माका ब्रह्मसच्चिदानंदही-स्वरूप जानना ॥ यही आत्माका अर्थ है ॥ ८॥ यक्षका प्रश्रः-विवेक कैसे उत्पन्न होता है और अविवेकके नाशका कौन कारण है तित कारणकाभीकवन कारण है तिन सर्वका उत्तर कहो। ३ For Private and Personal Use Only Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( १८ ) ॥ समाधानं सदसद्विवेका विनश्यत्यविवेकः वैराग्येण विवेको भवति विषयेषु या दोषदृष्टिः सैव वैराग्यस्य मुख्यकारणं भवति ॥ ९ || प्रश्नः - कः सदसद्विवेकः की वैराग्यं का च दोषदृष्टिः ॥ उत्तरं यो देहे सर्ववृत्तीनां ज्ञाता स सदस्ति देहश्वासदिति ज्ञानमेव सदसद्विवेको भवति विषयेषु रागाभावो वैराग्यं विषयेषु दुःखबुद्धिर्नाशबुद्धिश्च सा दोषदृष्टिज्ञेया ॥ १० ॥ प्रश्नः - विवेकवैराग्यदोषदृष्टीनां प्राप्तिः कथं भवति तेषां प्राप्तौ किंनिमित्तं निमित्तस्यापि किं निमित्तं भवति ॥ समाधानं विवेकवैराग्यदोषदृष्टीनां प्राप्तिरीश्वरानुग्रहादेव भवति ईश्वरानुग्रहकारणं च मनसा कायेन वाचा श्रद्धापूर्वक वेदोक्त तदाज्ञा परिपालनमिति तत्कारणं च सद्भिरेव निरंतरं सहवास एव ॥ ११ ॥ प्रश्नः - कीदृगीश्वरस्य स्वरूपमस्ति कीदृशी तस्य भक्तिर्भवति भक्तेश्च कारणीभूताः संतः कीदृशाः For Private and Personal Use Only Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( १९) ॥ राजकुमारका उत्तर-सत्असत् दोनोके विचारसें-अविवेक नाश होता है वैराग्यहेतुसे विवेक उत्पन्न होता है और वैराग्यका कारण ये है जो विषयोंमे नाशरूपता राग द्वेषता पराधीनतादि दोष. दृष्टि करनी ॥ तिससे वैराग्य उत्पन्न होता है ॥ ९॥ प्रश्नः-सत्असत्का विवेक कैसे होता है वैराग्यका क्या स्वरूप है तथा दोषदृष्टिकाभी कैसा रूप है ।। उत्तरं-जो देहादिकोंका तथा सर्व वृत्तियोंका ज्ञाता है. सो सत् है तैसे देहादिक सर्व वृत्तियों-असत् है एसे जाननेका नाम सदसद्विवेक है विषयोमे रागके अभावका नाम वैराग्य है विषयोमे दुःखदेनेकी सामर्थता नाशहोनाये दोषदृष्टि कही है। १०॥ प्रभः-विवेक, वैराग्य दोषदृष्टि इन तीनोकी प्राप्तिका कारण कवन है और तिस कारणकाभी कवन कारण है तथा किस रीतिले प्राप्ति होवे है लो कहो ॥ उत्तरं-विवेक वैराग्य दोषदृष्टिइन तीनोके प्राप्तिका कारण केवल ईश्वरकी कृपा ही है तिस कृपाका कारण तन मन वाणीस तिसकी वेदोक्त आज्ञाका परिपालन करना तिसकीभी रीती सर्वदा सत्संग करते रहना सत्संग त्यागना नही । ११॥प्रश्नः-ईश्वरका क्या स्वरूप है कैसे भक्ति होती है तथा-भक्तिके कारणीभूत महात्मा कैसे है। For Private and Personal Use Only Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( २० ) ॥ समाधानं सर्वजगतः कर्ता भर्ता संहर्ता स एव ईश्वरः तद्भक्तिश्च सर्वदा सर्वत्र तदर्शनं ततो भीतिस्तत्रातिशयप्रीतिश्च ॥ के संति संतोऽखिलवीतरागा अपास्तमोहाः शिवतत्वनिष्ठाः ॥ १२ ॥ प्रश्नः-अस्मिन्ससारे के भयातुराः संति तथा के च सर्वदा दुःखिनो भवंति एवमस्मिन्संसारे दीनतराश्च के संति तत्सर्वं मे ब्रूहि ॥ समाधानं येऽ स्मिन्संसारे धनिनः संति ते भयातुरा एव भवंति चौराद्राज्ञो बलिनश्च ।। स्वल्पधनी बहुकुटुंबी यः सैव दुःखी भवति महदाशावान्दीन एव बोद्धव्यः॥ १३॥ प्रश्नः-सर्वदा निभाः के संति के च सुखिनो भवत्येवं निर्दीना आप मया के ज्ञातव्या एवेति ॥ उत्तरं-ये धनजनसंबंधवर्जिता विलसंति ते निर्भया ज्ञातव्या वा ये मनसा वाचा शरीरेण पापं न कुर्वन्ति ते निर्भयाः संति ये सर्वदा परोपकारिणस्त एव निर्भया वा दृढापरोक्षज्ञानिनः ते निर्भया वा ये दृढपरोक्षज्ञानिनस्ते निर्भया अस्मिल्लोके रमंति ये निरंतरज्ञाने वा ध्याने वा निरता भवंति ते च सु. खिनः संति येऽपरोक्षज्ञानिनः संति ते निर्दीनाः संति॥ For Private and Personal Use Only Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (२१) ॥ उत्तरं-जो सर्व जगत्का कर्ता, भर्ता हर्ता है सोई ईश्वर है तिसको भक्ति. सर्वत्र तिसको देखना तिसकी सर्वदा भय करनी तथा सर्वदा अखंड तिसमे-स्नेह करना और महात्मा वही है जो रागद्वेषसे रहित है तथा जे ज्ञानदाता है ॥ १२॥ प्रश्नः-इस संसारमे भयातुर कौन है और दुखी तथा दीन कौन है इन तीन प्रभोंका उत्तर देवो-|उत्तरं-इस संसारमें धनवान् भयातुर रहते है तिनोकों राजा चोर अग्नि आदिकोसें तथा कुटुंबसेभी भय रहता है बड़ा कुटुंबवाला स्वल्पधनी सर्वदा दुखी ही रहता है और सर्वदा आशावान् सर्वदा दीन रहता है। कोवा दरिद्रोहि विशालतृष्णः १३॥ प्रश्नः-सर्वदा निर्भय तथा सुखी और निर्दीन कौन है ।। उत्तरं-जे धन जन कुटुंबसे रहित विरागी है ते निर्भय रहते है जे सर्वदा पापरहित है ते निर्भय रहते है और जो परोपकारी है ते निर्भय रहिते है तथा जे दृढ अपरोक्षज्ञानी है तथा जे दृढ परोक्षज्ञानी है ते सर्वदा निर्भय रहते है और जे सर्वदा ज्ञानमे वा ध्यानमें मग्न है ते सर्वदा सुखी रहिते है जे अपरोक्षज्ञानी जीवन्मुक्त हे ते सर्वदा निर्दीन रहते है । जैसे जडभरथ दतात्रयादिक है। For Private and Personal Use Only Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( २२ ) १४ ॥ प्रश्नः - योऽज्ञानिभिर्न ज्ञायते यश्वादेहोपि सदेहः स कः यस्य क्रियाविफला सती जन्मने न भवति सः कीदृशः ॥ उत्तरं जीवन्मुक्तोऽज्ञैर्ज्ञातुं न शक्यते स एव निर्वाणः सन्सशरीरी भूत्वा दृष्टिवियो भवति तस्य कर्म फलायन भवत्यत एव जन्म दानेऽसमर्थ सदग्धबीजवत्पुनर्भवफलायन भवति ॥ १५ ॥ प्रश्नः - किमस्ति किं च नास्ति त्रिका - लेऽनुत्पन्नं सत्किं दृष्टिगोचरं भवति ॥ उत्तरं चिदस्ति जगन्नास्ति व्यवहारविषयं शब्दमात्रं त्रिष्वपि काले. ष्वनुत्पन्नं सत्दृष्टिगोचरं भवति तत्र श्लोक:॥ अहोतुचित्रं यत्सत्यं ब्रह्मतद्विस्मृतं नृणाम् । यदसत्यमविद्याख्यं तत्पुरः परिवल्गति ॥ १६ ॥ यक्ष उवाच - भो विद्वान् त्वत्तः सर्वे संशया विनष्टाः हे वदतांवर राजकुमार अस्मिन्संसाasस्य जीवस्य मोक्षे ये विघ्नरूपा विषयाः संति ते कियत्कालपर्यंता नो निवर्तन्ते अस्योत्तरं मह्यं ब्रूहि ॥ राजपुत्र उवाच - " विषयास्तावदेवैते प्रगल्भंत बलादयः । प्रत्यगात्मरतिर्यावद्दृढा नोदेति देहिनः " ॥१॥ आत्मप्रेमिण समुत्पन्ने विषयप्रेम नश्यति । योषित्प्रेणि समुत्पन्ने मातृप्रेमेव कामिनाम् ॥२॥ For Private and Personal Use Only Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( २३ ) १४॥प्रश्नः-जिसको आत्मज्ञानहीन नही जान सकते है ते कौन है जो देहवालाभी देहातीत है सो संसारमें कवन है जिसको स्वकर्म फलदेनेमे असमर्थ है सोभी कवन है ॥ उत्तरं-जो जीवन्मुक्त पुरुष है सो अज्ञानीयोंसे जाननेमे आवता नही सोई शरीरवाला हुवा शरीर रहित है तिसके ही कर्म तिसको जन्म देने विषे असमर्थ है। १५ ॥ प्रभः--क्या सर्वदा रहता है क्या सर्वदा नही रहिता तीनकालमे उत्पन्न नही हुवा नेत्रसे कोन देखपरता है। उत्तरं-चिदात्मासर्वदा रहिता है. जगत् सर्वदा नहीं है व्यवहार तीनकालमे न उत्पन्नहुवाभी दृष्टिगोचर होता है. सोई श्री वशिष्ठजी कहते है हे राम. बडा आश्चर्य है जो सत्य हे तिसको नही देखते जो असत् घटादिक वंध्यापुत्र समान अविद्यारूय जगत् है सो सन्मुख गर्जना करता है ॥ १६॥ प्रश्नःहे कुमार ये विषय जे मोक्षके विघ्नरूप है ते कबतक जीवोंको विघ्नकरते है। उत्तरं॥ स्त्रीआदि विषय तबतक विघ्नकरते है जबतक निर्विकल्पात्मामे प्रीति नही उदय होती. जब उदय भई तब विषयोंमे प्रेम एसे नष्ट होता है जैसे कामीयोंका प्रेम कामिनीमे लगाहूवा मातामे प्रेम नष्ट होजाता है तहत् फिर विषय ध्यानमे विघ्न नही करसकते ॥ For Private and Personal Use Only Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( २४ ) १७॥ यक्ष उवाच-हे सौम्य प्रमाणेन प्रमेयस्य सिद्धिर्भवति प्रमेयेन प्रमाणस्य सिर्वाि स्यादित्यत्र तव कीदृक् निश्चयमस्तीति तनिश्चित्य वक्तव्यं ॥ कुमार उवाच ॥ हे महात्मन् ॥मानेन मेयावगतिश्च युक्ता धर्मस्य जाड्याद्विधिनिष्ठकांडे ॥मेयेन मानावगतिस्तु युक्ता वेदांतवाक्येष्वजडं हि मेयमिति ॥ मे निश्चयं विद्धि ॥ १८॥ यक्ष उवाच भो विशालबुद्धे कुमार समीपाऽपरोक्षघटस्थलेबुद्धिमता पुरुषेण घटोऽयमित्युपदेशं विनापि ज्ञातुं शक्यते ब्रह्म तु घटादपि सा. क्षादपरोक्षं भवति स्वस्वरूपत्वात् “ यत्साक्षादपरोक्षाद्ब्रह्मेति" श्रुतेश्च घटादपि सुखेन ज्ञातंभवितव्यं न चैवमस्ति प्रत्युत “ बहूनां जन्मनामंते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते" गीतायामित्युक्तं तत्र किं कारणमस्ति॥ कुमार उवाच-भो महात्मन् सम्यक्वया पृष्टमुत्तरं शृणु, श्लोकः-॥ अहमालंबनसिद्धं, कस्य परोक्षं भवेदिद ब्रह्म । तदपि विचारविहीनैरपरोक्षयितुं न शक्यतेमुग्धैः ।। तत्र दृष्टांतः भास्वंतं भानुमंधवदितिज्ञेयः॥ इतिविंशतिकमलं-समाप्तम् हरिः ॐ तत् सत् ॥ १॥ अथ एकविंश कमले श्रीकृष्णचंद्रकृत्कर्मसु प्रश्नोत्तराणां कथनं ॥ For Private and Personal Use Only Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( २५ ) १७॥ प्रश्नः-प्रमाणसे प्रमेयकी सिद्धि होती है वा प्रमेयसे प्रमाणकी सिद्धि होती है सो अनुभवपूर्वक प्रत्युत्तर कहो ॥ उत्तरं-कर्मकांडमे प्रमेय जो कर्म सो जड होनेते प्रमाणसे सिद्ध होता है अरु वेदांतोंमे प्रमेयको स्वप्रकाशरूप होनेते प्रमाणको स्वयं प्रकाश कर्ता है नाम. सिद्धकर्ता है ॥ १८॥प्रश्रः-जहां सन्मुख अपरोक्ष घट स्थित है तहां कहे विना बुद्धिमान यह घट है एसे जान सकता है ये वार्ता प्रसिद्ध है अरु जो ब्रह्मात्मा है सो स्वस्वरूप होनेते घटतेभी अपरोक्ष है " यत्साक्षादपरोक्षाद्ब्रह्म” एसे श्रुतिभी कहती है तो घटतेभी शीघ्र ब्रह्मज्ञान होना चाहीये परंतु होता नही उलटा गीतामे कृष्णदेव कहे है वहुतजन्मांतमे ज्ञानी हो. यकर मुजको प्राप्तहोता है तिसमे क्या कारण है। ॥उत्तरं-ज्ञानीजनामै घटकू जानताहूं इस घटज्ञानते प्रथम मै हूं एसे स्फुरणरूपको प्रत्यक्षात्मज्ञान मान है परंतु अज्ञानीजनको एसा अनुभवमे नही आवता जैसे अंध तथा उलूलको सूर्यभगवान् अनुभवमे नही आवता प्रत्यक्षहै तौभी ॥इति विंशतिकमलंसमाप्त । १॥ अथ एकविंशति कमलमे कृष्णाचंद्रमे शंका छ For Private and Personal Use Only Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org 66 ( २६ ) ॥ भो राजसूनो हे सुजन. गीताया ध्याने ॥ "कृष्णं वंदे जगद्गुरुं ॥ " अत्र कृष्णस्य भगवतो जगद्गुरुरित्युक्तं अन्यत्र तु ॥ स्नान व्याकुलयोषद्वस्त्रमुपादायागमुपारूढं ॥ इत्युक्तं एवं सति उभयोविरुद्धवाक्ययोस्तु का गतिर्भवति तत्प्रमाणपूर्वकं विरोधप्रहारं कुरु ॥ राजकुमार उवाच - भो यक्ष महात्मन्तस्यामेव गीतायां भगवता वासुदेवेन ॥ प्रतिपादितं " अहमात्मा गुडाकेश सर्वभूताशयस्थितः । अहमादिश्च मध्यं च भूतानामंत एव च " ॥ इत्यत्र यदेव स्वयं प्रतिपादितं तदेव श्रद्धयाऽऽश्रयणीयं ॥ दिवि सूर्यसहस्रस्य भवेद्युगपदुत्थिता यदि भाः सदृशी सा स्याद्भासस्तस्य महात्मनः ॥ इत्येवं संजयेनोक्तं मया श्रीकृष्णस्य स्वरूपं दृष्टं ईदृग्स्वरूपं कामातुरस्य कदापि न भवति तस्माद्ब्रह्मात्मस्वरूपे देवैरपि ध्यातुं योग्ये श्रीकृष्णे मनसा वाचा भक्तिं कृत्वा मुक्तोभव. श्रीकृष्णस्य ब्रह्मत्वमुक्तम् i शिवाचकः शब्दो णश्च निर्वृतिः कीर्तिता । तयोरैक्यं परंब्रह्म कृष्ण इत्यभिधीयते ॥ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private and Personal Use Only Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir . ( २७ ) ॥ यक्षप्रश्नः-कृष्णं वंदे जगद्गुरुं ॥ मैं जगतके गुरु श्रीकृष्णचंद्रको वंदना करता हूं अन्यत्र लिखा है गोपीयोंके वस्त्रोंको लेगया एसे दोनो विरोधी वाक्योंका क्या समाधान है । उत्तरं-श्रीकृष्णगीतामें कहिता है सर्वकामै आत्मा हूं सर्वमे स्थित हूं सर्वकी आदि मध्य अंत मैही हूं यह जो स्वयं श्रीकृष्णचंद्रने कथनकीया है सो कहनाही यथार्थ है अरु मान्य है यामे संशय नहीं एवं संजयभी कहते है जोमै भगवानकों एप्तादेखा है जो सहस्रसूर्य कदाचित् आकाशमे उदय होवे तौभी श्रीकृष्णचंद्रके तेज समान कदाचित्सदृश होवे अर्थात् भगवानका प्रकाश तिससेंभी अधिक होवे तो एसे कहि सकता हूं एसा मैने विश्वरूपदर्शनकालमे भगवानकादर्शन कीया है सो हे यक्ष एसा कामातुरोका कहूं तेज होसकता है अरु कृष्णपदका अर्थ ब्रह्म है एसे पं. डित कहते है॥ कृषिभूवाचकः शब्दो णश्च निवृत्तिः कीर्तिता । तयोरेक्यं परं ब्रह्म कृष्ण इत्यभिधीयते ॥ अर्थ-कृशि नाम सत्यका है | यह आनंदका नाम है सोई “सत्यं ज्ञानमनंतं ब्रह्म' इस श्रुतिसे कृष्ण नाम ब्रह्मका जानना एसेश्रवण करके तब॥यक्षसो. राज कुमारकाश्रीकृष्णमेपूर्णप्रेमदेखकरकेफिरभी॥ For Private and Personal Use Only Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( २८ ) ___ २॥ यक्ष उवाच-भो कुमार तर्हि भगवति श्रीकृष्णे कामकथायाः कथनस्य कोऽभिप्रायः तन्निश्चित्य ब्रूहि ॥ राजपुत्र उवाच भो गुणज्ञ योग्यो योग्येन संबध्यते इति न्यायात्कामातुराणां विमोक्षाय श्रीकृष्णेऽपि कामानुरागित्वमुक्ता तादृशीकथायामनुरागिणां मनांसि समाकर्षयितुं कामलोभादीनां निवृत्तये च कामे लोभे सविस्तारं दोषाणां दर्शयित्वा पुनश्च सुभकर्मणि प्रवृत्तये सुकर्मणामुत्तमफलमपि प्रतिपाद्य पश्चात्सकामे कर्मणि “ क्षीणे पुण्ये मर्त्यलोकं विशति ॥” एवं दर्शयित्वा सकाम कर्मभ्यो निवृत्तिं संपादयित्वा निष्कामे कर्मणि प्रवृत्तिद्वारांऽतःकरणस्य शुद्धिं प्राप्य ज्ञानेन मोक्षं कामातुरा अपि प्राप्नुवंति. अस्मिनर्थे श्रीकृष्ण विश्वामित्र श्रीशंकर कमलासन बृहस्पति चंद्रसूर्येन्द्रादीनां कामातुरताकथनस्याभिप्रायं बोध्यं ॥ For Private and Personal Use Only Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( २९ ) २॥ यक्ष प्रश्न करता भया-हे बुद्धिमान् रा. जपुत्र तब कृष्णचंद्रमे कामकीवार्ता क्यों कही है ॥ कुमारबोले. हे यक्ष जैसे स्वभाववाला मनुष्यहोता है तैसी कथावोंके श्रवणमे प्रेम रखता है यांते पामर कामातुर पुरुषोंके विमोक्षार्थ श्रीव्यासादि महर्षियोंने कृष्ण, शंकर, सूर्य, इंद्र, चंद्रादिकोमे कामकथाके कथनरूपी लोभ दिखाय करके पामरोंकी तिन कथा श्रवणमे प्रवृत्ति कराई है-पश्चात् काम क्रोध लोभादिवाले मनुष्योंकों एसा एसा इसलोकमे ताडनअपमानरूप संकट परलोकमे नरकोंमे निवासरूप कामादिकोका फल नानाकथावों द्वारा दिखाय तिन कामलोभदोषोंसे निवृत्ति करवायकर शुभकर्मका फल नानाविभूतियों दिखाय तिनोमे लगाया पश्चात् “॥क्षीणे-पुण्ये मर्त्यलोकं विशांति ॥" एसे श्रवण करवाय ॥ निष्काम कर्मोंमे प्रवृत्ति करवाई।तिससे जब तिन पामरोंकाभी चित्त शुद्ध भया । तब जा. नद्वारा नीचभी जीवन्मुक्त सुखका अनुभव करके विदेहमुक्तिको प्राप्तभये फिर जन्म मरणमे नहीं आवते “॥ यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्वाम परमं ममा" इस अर्थमे श्रीकृष्णचंद्रविषे कामादिकोंके वर्णनका प्रयोजन है यांते मुनियोंमे तथा ब्रह्मा शिव चंद्र इंद्रादिकोंमे कामादि कथनकाभी यही प्रयोजन है. For Private and Personal Use Only Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ३० ) नतु वस्तुतः - शुद्धसात्विकानां ज्ञानध्याननि रतानां कामातुरता मनसापि संभावयितुं योग्यमस्ति तत्र भागवतस्य वाक्यं प्रमाणरूपं शृणु ॥ ३ ॥ मुनिर्विवक्षुर्भगवद्गुणानां सखापिते भारतमाह कृष्णः ॥ यस्मिन्नृणां ग्राम्यकथानुवादैर्मतिर्गहीतानुहरेः कथायां ॥ १ ॥ कामिनो वर्णयन्कामं लोभं लुब्धस्य वर्णयन् ॥ नरः किं फलमाप्नोति कूपें धमिव पातयन् ॥ २ ॥ लोकचित्ताऽवताराय वर्णयि स्वाऽथ तेन तौ । इतिहासैः पवित्रार्थैः पुनः तावेव निंदितौ ॥ ३ ॥ For Private and Personal Use Only Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तिन बह्मा-शंकर, विश्वामित्र ऋषिमुनि महापूजा नेयोग्योंमे तथा जिनोंके नामोच्चारणसे कृतार्थकरनेवालोंमें तथा ज्ञान ध्यानमें सर्वदास्थिति करनेवाले तथा करावनेवालेयामे कामातुरता मनसेभी चिंतननही होसकती तो ये ऋषि, मुनि, देव, सर्वकामी है एसें वाणीसकहनेमे आस्तिक पुरुषप्रवृत्त कैसे होवेगा यह जो वार्ता हमने कही है तिसमे प्रमाणभी सुनो। ___३॥ व्यासमुनिःजो तुमारा सखा है सो श्रीकृष्ण भगवानके गुणोंके वर्णन करणेकी अभिलाषा वाला हूवा भारतको रचिता भया है ॥ तिस हरिकथामे मनुष्यों के विषयसंबंब्धि कथावोंके कथनद्वारा पामरपुरुषों के बुध्धिकों परमेश्वर श्रीकृष्णचंद्रके कथावोंमे आकर्षन कीया है । एसे विदुरजीने गंगाजीके कांठापर मैत्रेयी ऋषिसे कथन कियाहै भागवतमे ॥१॥ तिसके टीकामेभी यही कहा है ॥कामीयोंके कामको लोभीयोंके लोभको कथनसे उलटा अज्ञान ज्ञाननेत्रहीन अंधजनोंको संसारकूपमे गिरावनाही समुझना जो व्यासजीका कामलोभादिकोके प्रवृत्तिमे तात्पर्य होवे सो नही है किंतु ॥२॥ पामर पुरुषोके चित्तको कथावोंमे आकर्षन करके फिर सुंदरकथाद्वारा कामलोभादिकोकी निंदा कहिकर कामादिकोंसे छुडाया है ॥ ३ ॥ For Private and Personal Use Only Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ३२ ) अन्यथा घोरसंसारदुःखहेतू जनस्य तौ वर्णयेत्ल कथं विद्वान्महाकारुणिको मुनिः ॥४॥ ४॥ भो यक्ष यदि कृष्णस्य कामाधीनत्वं वदसि तर्हि कालोहि कृष्णस्य पुत्रोऽस्तीति श्रुत्वापि कृष्णः कामाधीन इति कथं जल्पसि विलज्जसे कथं न भो यदि दुराग्रहेण कथानां तात्पर्य कामादौ विजानासि मूढानांमोक्षार्थे न मन्यसे तदा विचार कुरु ये लोकेऽल्पमानिनः संति यदि तेऽपि स्वकीयमानरक्षार्थ निषिद्धाचरणं न कुर्वन्ति तदा ईश्वरमानिनां कथं कामे प्रवृत्तिस्स्यात्तथा वाल्मीकव्यासा. दिमुनीनां चांडालत्वादे निंदा कर्मणि ग्रंथमध्ये ध्यानाबस्थानां श्रीविश्वस्वामिनामपि स्पष्टदराचार कथनरूपे कथं प्रवृत्तिश्च स्यात्तदुक्तं ॥ कृतना निंदकाचेव पिशनाः क्रोधिनश्च ये। चत्वारः कर्म चां. डालाः पंचमो जातितः स्मृतः ॥ तस्माद्भो यक्ष ब्रह्मरूपे भवनाशके श्रीकृष्णे भक्तिं कृत्वामुक्तो भवेति मे निश्चलामतिः श्रीकृष्णेऽस्ति त्वमपि तादृशो भव॥ ५॥ भो राजपुत्र ॥ अस्मिन्संसारे ज्ञानिनां कानि मित्राणि सन्ति पामराणां च-कानि संति, कानि न संति, तब्रूहि ॥ राजकुमार उवाच “ अयं निजः परो वेति गणना लघुचेतसां उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुंबकमित्यलं प्रश्नोत्तराणि. For Private and Personal Use Only Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ३३ ) अन्यथा दुराग्रहसे मुनीका कामादिकोके प्रवृ. त्तिहीमे तात्पर्यमानो तो यह विचारो महाकृपालु मुनि नरकके देनेहारे जीवोंके घोरसंसारहेतुमे रतिकरो एसे क्यों कहेगा ॥ ४॥ ४॥ हे यक्ष कामदेव जिसका पुत्र सो कृष्णचंद्र कामाधीन है एसे-कहनेहार निर्लज्ज तथा बालबुद्धि समुझना चाहीये वह धर्मात्मा न जानना जो दुराग्रहसे कृष्णचंद्रको कामी कहोतोभी विचारकरो इस संसारमे जे मनुष्य अल्पमानी है तेभी स्वमान रक्षार्थ निषिद्धाचरण नहीं करते तो ईश्वरमानी जे ब्रह्मा शंकर कृष्णचंद्र सूर्येदु इंद्रादिक है ते कैसे निंदिताचार करेगे तथा कृपासिंध व्यास वाल्मीक नारदादिभी पुराणोंमेचांडालके कर्म जो सदाध्यानी शंकरादिकोकी निंदा रूपसो कैसे करेगे यांत कृष्णादि कामी तथा व्यासादिकोंकर तिन कामी देवतावोंकी निंदा केवल पामर कामीयोंके मुक्तिवास्ते है ___ ५॥ प्रश्नः-मंदबुड़ियोंके तथा ज्ञानीयोंके कौन कौन मित्र है ॥ उत्तरं ॥ मंदबुद्धियोंके पुत्रादि मित्र है ज्ञानीयोंका सर्वजगत् मित्र है... For Private and Personal Use Only Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ३४ ) इति समाधानं श्रुत्वा द्वाभ्यां राजपुत्राभ्यां प्रणाम कृत्वा देवरूपेण चात्मानं दर्शयित्वा दृष्टयगोचरोऽभवदिति ॥ हरिः ॐ तत्सद्ब्रह्मणे नमः ॥ इति एक विंशतिकमले यक्ष राजपुत्रसंवादं समाप्तम् ॥ १॥ अथ द्वाविंशति कमले जीवन्मुक्त विदेह मुक्तयोर्वर्णनम् ७ ॥ श्लोकः-देहेंद्रियेष्वहंभाव इदं भावस्तदन्यके। यस्य नो भवतः क्वापि सजीवन्मुक्त उच्यते ॥ “तमेतमात्मानं विदित्वा ब्राह्मणाः पुत्रैषणाया वित्तैषणाया लोकेषणायाश्च विहायाथ भिक्षाचर्य चरंति"॥ इति श्रुतेश्च-यस्य पुरुषस्यैषणा त्रयं विनष्टं भवति स एव पुरुषोऽस्मिनेव शरीरे ब्रह्मानंदमनुभूय लोके जीवन्मुक्तो भूत्वा प्रारब्धं भुक्त्वा विदेह मोक्षं प्राप्य च " न स पुनरावर्तते" तस्माद्यद्देहे पुत्रादौ स्वात्मभावं ममत्वं च भवति तदेव सर्ववासनानां कारणंसत् जन्मनो हेतुरेव भवति ॥ For Private and Personal Use Only Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (३५) एसे प्रश्नोंका उत्तर श्रवणकरके दोनो राजपुत्रोकों नमस्कार करके प्रसन्न भयासो यक्षराज देवस्वरूपसे दशेन दिखायकर अंतरध्यानभया तब ते दोनोभ्राता स्वकीय राजधानीमे जाइ सुखीहोतेभये तिनोको देखकर माता पिताभी सुखी होते भये ॥ ॥ इति एक विंशतिकमलं समाप्तम् हरिः ॐ १७ ॥ अथ द्वाविंशति कमलमे जीवन्मुक्त विदेहमुक्त वर्णनं ॥ ® श्लोकः-"देहेंद्रियेष्वहं भाव इदंभावस्तदन्यके। यस्य नो भवतः कापि स जीवन्मुक्त उच्यते " ॥१॥ अर्थ-सो जीवन्मुक्त कहा है जिसको सर्वत्र ब्रह्मदृष्टि से देहादिक इंद्रियोंमे अहंभाव औरमे अन्यभाव यह दोनो प्रकारकी भेदभावना कबीभी उदय नहीं होती. सो ब्रह्मज्ञानी जीवन्मुक्त अपरोक्षात्माकों जानकरके पुत्रैषणा वित्तैषणा लोकैषणाको त्यागकरके केवल भिक्षाले देहयात्रा करते है. इसश्रुतिको आज्ञासे सीनईच्छाका त्यागकरके इसीदेहमे ब्रह्मानंदका अनुभवकरके जीवन्मुक्त हूवा प्रारब्धके क्षयभये विदेहमुक्तभया फिरजन्मनदी पावता. यांते देहमे अहं. भाव पुत्रादिमे ममत्वभाव जो है सो वासनाका कारण हूवा जन्म मरणका कारण होता है ॥ . For Private and Personal Use Only Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ३६ ) २ ॥ यद्यपि सर्वैरज्ञानिभिर्मरणकालेऽहंता ममता च विमुच्यते तथापि येन जीवितावस्थाया महंता ममता च त्यक्ताऽस्ति तेन जीवन्मुक्तिरवाप्यते विदेहमोक्षचापि तेनैव लभ्यतेऽतो हृदये वासनानां यत्रिवासः स एव बंध उच्यते वासनानामभावः स एव मोक्षः ॥ इति । बंध मोक्षयोर्भेदोज्ञानिभिरुक्तः ॥ ३ ॥ तत्र प्रमाणं ॥ " न मोक्षो नभसः पृष्टे न पाताले न भूतले । सकलाऽऽशापरित्यागो मोक्षः प्रोक्तो मनीषिभिः ॥ १॥ न तथैदुःसुखयति कंठलग्नोऽपि राघव । नैराश्यं सुखयत्यंतर्यथा सकल शीतलम् " ॥ २॥ सैव सर्ववासनानां त्यागो ब्रह्मज्ञानादेव भवति ततो जीवन्मुक्तः सन्विदेहमुक्तोऽपि भवति "ज्ञानादेव तु कैवल्यमिति” श्रुतिरपि तत्र प्रमाणमस्ति ४ ॥ ननु जीवन्मुक्तौ विदेदमुक्तौ च को विशेषोऽस्ति ॥ समाधानं - आत्माऽऽश्रिता याऽविद्या तस्याः शक्तो द्वे भवतः तयोरेकाऽऽवरणरूपा-विक्षेपरूपाऽपरा. सा विक्षेपरूपापि द्विविधास्ति देह पुत्रादिषु रागद्वेषरूपा संसारप्रतीतिहेतुभूता च एवमज्ञानावरणे. . For Private and Personal Use Only Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ३७ ) २॥ यद्यपि संपूर्ण अज्ञानी मरणकालविषे देहपुत्रादिकोमे अहंता ममता छोडदेते है तथापि जे पुरुष ब्रह्माहमस्मि इस ज्ञानकरके जीवतकालमे अ. हंता ममताका त्याग करते है ते सत्पुरुषही जीवन्मुक्तभये विदेहमुक्तिकोंभी प्राप्तहोते है. यांते अंत:करणमे जो वासनावोंका निवास है वही बंध कहा है अरु वासनावोंकाजो विनाश है वही मोक्ष कहा है। ३॥ तहां वसिष्ठजी कहे हैं मोक्ष स्वर्गमे नही तथा पृथ्वीमेभी मोक्ष नही सर्व वासनका जो विनाश सो बुद्धिमान् मोक्ष मानते है. हे रामजी चंद्रमा कंठलग्न होवे तोभी अंतःकरणको एसी शीतलता नही देता. जैसी शीतलता सर्व वासनाका त्याग हृदयमे देता है. जब सो वासनाका त्याग ब्रह्मज्ञानसे होता है तब यह जीवन्मुक्त हुवा विदेहमोक्षकोभी प्राप्त होता है ॥ “ज्ञानादेवतु कैवल्यम्” इति ॥इस श्रुतिनेभी एसेही कहा है ॥ ४॥ शिष्य उवाच-जीवन्मुक्ति अरु विदेहमुक्तिका क्याभेद है श्रीगुरुरुवाच-आत्माके आश्रित जा अविद्या है तिसकी आवरणरूप अरु विक्षेपरूप दो शक्ति है जो विक्षेपशक्ति है सो दो प्रकारकी है एक देहपुत्रादिकोंमे रागद्देषरूप है अपर संसारकी प्रतीतिका हेतुरूप है इसरीतिसे अज्ञान आवरण For Private and Personal Use Only Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ३८ ) तथा द्विविधविक्षेपश्च तत्सर्व बंध इत्युच्यते यदा ज्ञानेनाज्ञानावरणे देहपुत्रादौ रागद्वेषोत्पादिका विक्षेपशक्तिश्चेति सर्व विनश्यति तदा जीवन्मुक्तिर्भवति यदा तु प्रारब्धकर्मभोगेन नश्यति तदा-संसारप्रतीतिहेतुभूता विक्षेपशक्तिरपि प्रतिबंधकाऽभावाद्विनश्यति ततश्च विदेदमुक्तिर्भवति इति जीवन्मुक्तेर्विदेदमुक्तेश्व भेदो ज्ञानिभिरुक्तः ॥ ५ ॥ ननु. ब्रह्मज्ञानं अज्ञानावरणे रागदेष देतु विक्षेपशक्तिं च दत्वापि संसारप्रतीतिहेतुभूतां विक्षेपशक्तिं दनने कथं विमुह्यति संसारप्रतीतिकारणे विक्षेपेऽप्यज्ञान कार्यत्वस्य तुल्यत्वात् ॥ समाधानं ॥ येन प्रारब्धकर्मणा देदोऽयं विनिर्मितोऽभूत् तदेव कर्म ज्ञानिने भोग्यप्रदातुं संसारप्रतीतिहेतुभूतविक्षेपशक्तिनाशे प्रतिबंधकं भवति यदा ज्ञानिने भोग्यं दत्वा प्रारब्धकर्म विनश्यति तदा प्रतिबंधनाशे संसारप्रतिभास कारणीभूता विक्षेपशक्तिरपि कतकरेणुवत्स्वयं विनश्यति - तदा सो जीवन्मुक्त एवं विदेहमोक्षं तुखेन प्राप्नोति ॥ For Private and Personal Use Only Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ३९ ) तथा द्विविध विक्षेपशक्ति ये संपूर्णका नाम बंध कहा है जब ज्ञानसें अज्ञान आवरण तथा देहादिकोंमे रागद्वेष के प्रतीतिका कारण विक्षेपशक्ति नष्ट हो जावे है तब जीवन्मुक्ति सिद्ध होवे है जब प्रारब्धकर्मभी भोगद्वारा नष्ट होवे है तब संसारकी प्रतीतिका हेतुभूत विक्षेप शक्तिभी प्रतिबंधक के अभाव हुए नाशहोती है तिसते अनंतर विदेहमुक्ति सिद्धहोवे है यही जीवन्मुक्ति विदेदमुक्तिका भेद जानना ॥ ५ ॥ शिष्य उवाच - ब्रह्मज्ञान जो है सो अज्ञान आवरण रागद्वेषकी हेतुभूत विक्षेपशक्ति इन सर्वका हनन करके संसारके प्रतीतिका हेतुभूत विक्षेपशक्तिको हनन करने मे क्यों समर्थ नही होता तिसमेभी अज्ञानार्यता तुल्यही है तो क्यों नही हनन करता || श्रीगुरुरुवाच - हे शिष्य जिस प्रारब्धकर्मने यह देह उत्पन्न कीया है ते कर्म ज्ञानीको भोग देने वास्ते संसारके प्रतीतिका देतुभूत विक्षेपशक्तिके नाश करनेमे प्रतिबंधक है जब ज्ञानीको भोग देकरके प्रार कर्म नाशहोवे है तब प्रतिबंधक के नाशभये संसारके प्रतीति कारणीभूत विक्षेपशक्तिभी स्वयं नाश होजावे है जैसे कतकरेणु मैलके नाश दोयां स्वयं नाशपावे है तैसे जब नाश होवे है तब यह जीवन्मुक्त भी विदेहमुक्तिको सुखसेंही प्राप्त होवे है ॥ For Private and Personal Use Only Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ४०) ६ ॥ ननु तथापि संसारप्रतीतिहेतुभूता विक्षेपशक्तिरपि अज्ञान कार्यत्वादेवाज्ञानरूपा ज्ञानेन कथं न विहन्यते ॥ उत्तरं - ज्ञानं प्रकाशात्मकं भवति तस्याऽज्ञानकाररूपेण सह दुःखप्रदया रागद्वेषहेतुभूतविक्षेपशक्त्या च सह विरोधोऽस्ति प्रकाशतमसोरिव विरोधान्न तु स्वोत्पादकया संसारप्रतीतिहेतुभूतविक्षेपशक्त्या सह विरोधोऽस्ति जीवन्मुक्तिसुखप्रदस्वात्गुरुवेदांतेश्वरभक्तिरूपज्ञानसाधनप्रदत्वाच्चयथा मार्जारो दंतैर्मूषकान् हंति तैश्व दंतैः पुत्रान् गृहीत्वा रक्षति तद्वत् जगत्प्रतीतिहेतुं विक्षेपं रक्षति | ७ ॥ ननु अयं जीवन्मुक्तोऽज्ञानीव किं बंधनं नाप्नोति ॥ उत्तरं - अयं जीवन्मुक्तो ब्रह्मज्ञान प्रभावेन त्रिशरीरेषु स्वात्मभावमकृत्वा बंधनं न प्राप्नोति अज्ञानी तु तेषु त्रिशरीरेषु स्वात्मबुद्धिं कुटुंबे ममतां तद्भिन्ने For Private and Personal Use Only Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६॥ शिष्य उवाच-तौभी संसारके प्रतीतिका कारणीभूत विक्षेपशक्तिभी अज्ञानका कार्य होनेते ज्ञानने तिसका नाश क्यों नहीकीया यह संदेह मिटावो ॥ श्रीगुरुरुवाच-ज्ञान प्रकाशात्मक होवे है तिसका अंधकाररूप अज्ञानके साथ विरोध है और दुःखप्रद जो रागद्वेषरूप विक्षेपशक्ति है तिसके साथभी विरोध है प्रकाश तमकी न्याई और अपने उत्पत्ति करनेवाली जो संसारके प्रतीतिका हेतुभूत जो विक्षेपशक्ति है तिसके साथ विरोध नही. काहेते. जो जीवन्मुक्तिके सुखकों देवे है ज्ञानके साधन जे गुरु वेदांत ईश्वरभक्ति दैवी संपद्रूप जे ज्ञानोत्पादक सामग्री तिसके देनेहारी है यांते तिसके साथ कृतज्ञ होनेते विरोध करता नही तथा नाशभी करता नहीं जैसे मार्जार दांतोंसे मूषकों का नाश करता हूवाभी पुत्रोंकी तिन दांतोंकरके रक्षाही करे है तैसे ज्ञानभी जानना जो एकका नाश करे है अन्यकी रक्षा करे है। ७॥ शिष्य उवाच-यह जीवन्मुक्त पुरुष अज्ञा• नीके समान बंधनको क्यों नहीं प्राप्त होता है। ॥ श्रीगुरुस्वाच-यह जीवन्मुक्त पुरुष ब्रह्मज्ञानके प्रभावसे तीनदेहोंमे अहंभाव त्याग करके बंधनको नहीं प्राप्त होता औरजो अज्ञानी है सो त्रिशरीरने अहंता तथा कुटुंबमे ममता करके दोनोसे भिन्नोंमे. For Private and Personal Use Only Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (४२) द्वेषं कृत्वा पापपुण्येन बंधनं प्राप्नोति तस्मादेवाज्ञानिनो ज्ञानिनश्च भेदः ॥ ८॥शंका-त्रिशरीरेभ्यो भिन्नमात्मानं ज्ञात्वा त्रिशरीरेषुरागाभावादेव ज्ञानी तेषां रक्षार्थमनपानादौ कथं प्रवर्तते यैः सह संबंधो नास्ति तेषां रक्षणार्थे प्रवत्यदर्शनादिति लोके प्रसिद्ध एव ॥ समाधानं ॥ यथा रागाभावे सति लघुबालस्योन्मत्तस्य निद्रा गतस्य मनोराज्ये प्रवृत्तस्य बलाद्राज्ञा निगृहीतस्य च यथाऽनपानादौ प्रवृत्तिलोकप्रसिद्धा सर्वैर्दश्यते तद्वदेव प्रारब्धकर्मणा राज्ञा निगृहीतो ब्रह्मानंदेनोन्मत्तोऽपिसनन्नपानादौ सुखेन प्रवर्तते बाधकाभावात्तत एव जीवन्मुक्तो भवति ॥ ___९ ॥ शंका-यो ज्ञानी भवति सुखादिसाधनेषु प्रवृतिं कृत्वापि तेषु रागादिकं न करोति तत्र किं कारणं भवति ॥ समाधानं-" पदार्थेषु विशेषज्ञानमेव रागादीनां कारणं भवति ज्ञानिनश्च सर्वं खल्विदं ब्रह्मेति " श्रुत्या सर्वत्र समबुद्धया " ब्रह्मार्पणं ब्रह्महविरिति” स्मृत्या चेति दृढज्ञानाद्विशेषज्ञानाभावाच विषयेषुरागादिर्न भवति यथा ब्रह्मात्मनि रागो न भवति निर्गुणत्वात्स्वस्वरूपत्वाञ्चद्वेषोऽपि न भवति तथा सर्वत्र तस्य ज्ञानिनो रागद्वेषौ न भवतः तदेवं ॥ For Private and Personal Use Only Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ४३ ) द्वेषबुद्धि करके तिसते उत्पन्न भया जे पापपुण्य तिनोकरके बंधनको प्राप्त होता है यही अज्ञानी.ज्ञानीका भेद जानना ॥ ८॥ शिष्य उवाच-ज्ञानवान् स्वात्माको तीनो शरीरोंसे भिन्न जान करके फिर तिनोकी रक्षा वास्ते अन्नपानादिकोंमें कैसे प्रवृत्ति करता है यह लोकमे प्रसिद्ध है जिनोसे संबंध नही तिनोंकी रक्षा वास्ते प्रवृत्त नही होता ॥ श्रीगुरुरुवाच-जैसे राग विना बालककी. उन्मत्त पुरुषकी, निद्रावालेकी मनोराजकरनेवालेकी, राजाधीनकी ॥अन्नपानादिकोंमे लोकप्रसिद्ध प्रवृत्ति होती है तैसे प्रारब्धकर्मरूपी राजाऽ. धीन ब्रह्मानंदसे उन्मत्त ब्रह्मात्माके ज्ञानसे पूर्णपुरुषोत्तमकी भी सुखपूर्वक अन्नपानादिकोमे प्रवृत्ति होवे है। ९॥ शिष्य उवाच-ज्ञानी प्रारब्धवशते प्राप्तविषयोमे प्रवृत्ति करकेभी तिनोमे आसक्ति क्यों नही करताहै ॥ श्रीगुरुरुवाच-पदार्थोंमे विशेष जो ज्ञान है सो रागद्वेषका कारण होता है ज्ञानी तो ( सर्व खल्विदं ब्रह्म ) इस श्रुतिवाक्योंसे स्वानुभव करके सर्वत्र समबुद्धिसें विशेष ज्ञानके अभाव हुवे प्राप्तविषयोंमे रागद्वेष नही करता. जैसे स्वात्मामे लोकोंका रागद्वेष नही होता तैसे सर्वत्रात्मा निर्गुणको जान करके रागद्वेष दोनो नही करता यह वार्ता For Private and Personal Use Only Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (४४ भगवताप्युक्तम् ॥ “आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योऽर्जुन । सुखं वा यदि वा दुःखं स योगी परमो मतः ॥” इत्यत्र यथा स्वात्मा सुखदुःखरागद्वेषादिभिर्न लिप्यते तथा सर्वेपि जीवा नो लिप्यते एवं विशेषाभावो दर्शितः शंकरानंदीगीतायामिति ॥ १०॥ ननु-विशेषज्ञानाभावात्सर्वत्र ब्रह्मदर्शनाञ्च ज्ञानिनः प्रवृत्तिः शुभकर्मणि सर्वदा दृश्यते शुभे कथं न दृश्यते तस्य तत्रापि विशेषाभावदर्शनतुल्यतास्ति ॥ उत्तरं ॥ यथा पंडितो येन केनापराधेनोन्मत्तःसनपि शुद्धमशुद्धं वा शास्त्रोच्चारणमेव करोति न तु निषिद्धे कर्मणि प्रवर्तते तथाऽस्य ज्ञानिनः प्रवृत्तिरपिप्रथमतः शुभकर्मण्येवाभूदधुना पवित्रब्रह्मज्ञानं प्राप्य कथमशुभे प्रवृत्तिर्भवेत् झानस्य पवित्रता " न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यत" इत्यत्र भगवता प्रतिपादनात् ।। For Private and Personal Use Only Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (४५) श्रीभगवाननेभी गीतामे कही है ॥ आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योऽर्जुन । सुखं वा यदि वा दुःखं स योगी परमोमतः ॥ अर्थ-जैसे स्वात्मामे सुखदुःखादि विशेष नही रहते निर्गुण होनेते यांते. तिसमे रागद्वेष नहीं रहता तिस दृष्टांतसे जो सर्वत्र आत्माको देखता है जो सर्व शरीरों में शरीरी लेपायमान नहीं होता सो परम योगी मान्या है यह शंकरानंदी टीकामे अर्थ कीया है ॥ ___ १०॥ शिष्य उवाच-जो सर्वत्र समदृष्टि करके ब्रह्मज्ञान होनेसें जो ज्ञानी विशेष ज्ञान रहित है सो केवल शुभकर्मोहीमे क्यों प्रवृत्त होता है अशु. भमे प्रवृत्ति क्यों नहीं करता ॥ श्रीगुरुरुवाच-जैसे कोई पंडित किसी दोषसे उन्मत्त होने परभी शास्त्रका ही उच्चारण करता है निषिद्धाचार करता नही जैसे शुकपक्षी सात्विक तामसप्रकृतिवालेपासि शुभाशुभ अर्थका ही कथन करता है तैसे ज्ञानवानभी वाल्यावस्थासे शुभ कर्मही करता रहा है फिर पवित्र ज्ञान की प्राप्ति करके कैसे अशुभ कर्मोंमे तिसकी प्रवृत्ति बने. किंतु नही बनेगी ज्ञानकी पवित्रता (नाह ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते) श्रीभगवानने इस श्लोकमे स्पष्ट कही है ॥ For Private and Personal Use Only Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ४६ ) ११ ॥ ननु-ज्ञानवान् भेदमाश्रित्य कथमधिकारिणे ब्रह्मविद्यां दत्वाऽनधिकारिणे न ददाति तत्र भेदे किं कारणं ॥ समाधानं ॥ ईश्वरेच्छैव तत्र कारणं ॥ ईश्वरः सर्वभूतानां हृदेशेऽर्जुन तिष्ठति । भ्रामयन्सर्वभूतानि यंत्रारूढानि मायया ॥तेन ज्ञानी निष्ठातो न प्रचलति अधिकारिणेऽनधिकारिणे ब्रह्मविद्यां दत्वाऽदत्वापि ॥ १२॥ ननु ॥ द्वितीयाटै भयं भवति ॥ इति श्रुत्या भयकारणीभूते भेदेऽपि ज्ञानी कथं प्रवर्तते ।। For Private and Personal Use Only Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ( ४७ ) ११ ॥ शिष्य उवाच - ज्ञानवान्भी कहूं भेददृष्टि क्यों करता है तिसमे क्या कारण है जैसे अधिकारीकों उपदेश करना अनधिकारीकों नही करना यह भेददृष्टि ज्ञानी भी प्रत्यक्ष दीखपरती है सो क्यों ॥ ॥ श्रीगुरुरुवाच - ईश्वर इच्छा ही तिसमे कारण जाननी ॥ ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति । भ्रामयसर्वभूतानि यंत्रारूढानि मायया ॥ इस लोकमे स्वयं भगवानने अपनेकों ही भेदप्रवृत्ति कारण कहा है. ܕܖ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥ ननु ईश्वरको भेददृष्टि नहीकही जाती ॥ ॥ उत्तरं - ॥ " परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृ ताम ॥ इसमे क्या अभेद दृष्टि कदी है. यांते ज्ञानीयोंका इष्टदेव ईश्वरमेभी जो व्यवहार काल भेददृष्टसा ज्ञान भई तो तिससे वास्तव ब्रह्मदृष्टि ज्ञानयोंकी क्या नाश हो जावेगी. एकादशी - काव्रत नही जो अन्नभक्षणकरनेसे व्रत टूट जावेगा तैसे ज्ञान टूटता नही || जैसे स्वर्णकेज्ञानी की भूषणोंमे जैसे स्वर्ण दृष्टि नही मिटती ॥ १२ || शिष्य उवाच - भेददृष्टिले जन्ममरण के प्राप्तिरूप भय होवे है ( द्वितीयाद्वै भयं भवति ) इस श्रुति वचनसे भयके कारण भेददृष्टिमेभीज्ञानवान् क्यों प्रवृत्त होता है. For Private and Personal Use Only Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org वर्तते ( ४८ ) || समाधानं = " वर्णाश्रमाभिमानेन श्रुतेर्दासो भवेन्नरः वर्णाश्रमविहीनश्च वर्तते श्रुतिमूर्धनि ॥ शब्दब्रह्माति "" ॥ इति प्रमाणात्कल्पितभेददृष्टेर्ज्ञानिनो Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir वास्तवी ब्रह्मनिष्ठा न निवर्तते स्वप्रकृद्भेदबुद्धिर्यथा जाग्रति फलाय न भवति तथैव ज्ञानी पुण्यपापाभ्यां न लिप्यतेऽन्यत्राप्येवमेवोक्तं ॥ " समाहितैः कः करणैर्गुणात्मभिर्गुणो भवेन्मे सुविविक्तधाम्नः । विक्षिप्यमाणैरुत किं नु दूषणं घनैरुपेतैर्विगतैरवेः किम् ॥ इत्यत्रापि ज्ञानिनि विध्यभावोक्तः ॥ १३ ॥ ननु ज्ञानिनो ज्ञानात्पूर्वं पश्चाच्च सशरीरी दर्शनात् ज्ञानाऽज्ञानावस्थयोर्मध्ये को विशेषोऽस्ति ॥ ॥ समाधानं यथा सर्पः त्वचं न जहाति तावत्तच्छेदनेन दुःखी भवति यदा पक्के सति परिविमुंचति तदा For Private and Personal Use Only Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ४९ ) ॥ श्रीगुरुरुवाच- ॥ वर्णाऽऽश्रमाभिमानेन श्रुतेर्दासो भवेन्नरः । वर्णाश्रम विहीनश्च वर्तते श्रुति मूर्धनि ॥ हे. शिष्य इस प्रमाणसे जो वर्णाश्रमी है तिस पर श्रुति आज्ञा करे है जो तिससे रहित है सो तिसके आज्ञाऽधीन नही “ जो ज्ञानका जिज्ञासुभी है सोभी वेदकी आशाका अधिकारो नहो” यह भगवानने गीतामे कहा है यांते कल्पित भेद दृष्टिसें ज्ञानवानकी वास्तव ब्रह्मनिष्ठा निवृत्त नही होती जैसे स्वप्नगतभेददृष्टिकरे तोभी जाग्रतमे फलभोक्ता नही होता तैसे ज्ञानी पापपुण्यसे लिपायमान नही होता एसे अन्यत्रभो कहा है. दृष्टांत-जैसे मेघकेआगमनसे वा निवृत्ति होनेसे सूर्यकी हानि वृद्धि नही होती तैसे गुणात्मक इंद्रियोंकी विषयों विषे प्रवृत्ति निवृत्ति होनेसे गुणातीत असंग स्वरूप हमारी हानी वृद्धि नहीं होती इस प्रमाणसेभी ज्ञानीपर विधि नही यह कथन कीया है। १३॥ शिष्य उवाच-ज्ञानवानको ज्ञानकालमे वा अज्ञानकालमे शरीरवाला होनेते आत्मज्ञान समय ज्ञानीविषे कौन विशेषता भई ॥ श्रीगुरुरुवाच-जैसे जबतक सर्प अपनी त्वचाको त्यागता नही तबतक तिसके छेदन भेदनसे दुःखी होता है जब त्वचा पक जावे तथा त्याग देवे तव For Private and Personal Use Only Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (५०) तच्छेदनात् नखिद्यति एवं ज्ञानात्पूर्वं देहोऽहमिति ज्ञात्वा देहदुःखे दुःखी भवति ज्ञानादूर्ध्वं तु स्वा. स्मानं देहात्पृथक्ज्ञात्वा शरीरं च स्वप्ने सुषुप्तौ समाधौ चादृष्ट्वा पश्चात्देहदुःखेनाहं दुःखवानस्मीति ज्ञानी न मन्यते एवं ज्ञानाज्ञानावस्थयोनिनि निश्चयाद्भवति ज्ञाननेदः तत्तु ज्ञानी जानाति यथा गृही दारापुश्योर्मध्येरगं कृत्वा तदुःखेन दुखी भवति संन्यासकाले द्वेषकाले वा दारापुत्रदुखेन दुखी न भवति तद्वदज्ञानकाले जीवो दुःखी भूत्वा ब्रह्मात्मज्ञानकाले तु तदुखे दुखी न भवति ततोपि ज्ञानाज्ञानावस्थयोर्भवति भेद इति ॥ १४ ॥ ननु, ज्ञानिनामपि कर्माणि संति यः कर्मभिस्तेषां स्वल्पयोगेन महगोगेन वा देहयात्रा भवति एवं तेन देहेन कृतं शुभाशुभं तदपि भावीजन्मने अवति " नाभुक्तं क्षीयते कर्म कपकोटिशतैरपि ” इति स्मरणाद्भवति जीवन्मुक्तौ विदेहमोक्षे च संदेहः तन्निवृत्तये॥ For Private and Personal Use Only Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तिसके छेदनभेदनसे दुःखी नही होता तैसे जबतक विना ज्ञानसें देहोऽहं एसी बुद्धि नही त्यागी तबतक देहकुटुंबके दुःखी होनसे अपनेको दुःखी माने है जब ज्ञान भया अ. पनेको देहते प्रथक् निश्चय कीया तथा समाधिमे स्वनमे सुषुप्तिमे स्थूलदेहका ज्वरादिधर्मसहित अभाव अनुभव करके फिर देहकुटुंबादि दुःखी होने पर स्वयं सच्चिदानंदवननिश्चयवाला दुःखी नही होता, कहता है देहादे दुःखी है हम दुःखो नही एसेज्ञानााज्ञनावस्थाविषे ज्ञानीका भेद जानना जैसे अज्ञजन स्नेहकालने मुटुंबके दुःखसे दुःखी होता है तैले संन्यासकाल वा द्वेषकालमें तिनोके दुःखसे दुःखी नही होता तैसे ज्ञानी आनेको ज्ञानाज्ञानअवस्थामे सुखदुःख जानता है तो तुमने जानना ॥ १४॥ शिष्य उवाच-ज्ञानवान्के प्रारब्धकर्म है जिनके वशवति भया स्वल्पभोगी वा महान्भागी देखनेमे आवता है और इस जन्ममे शुभाशुभ कर्मभी करता है यहभी भावीजन्मका कारण होते है. लिखाहै “कोटि कल्प पर्यंतभी भोगे विना कर्मनाश नहींहोते " ॥ इस प्रमाणसे भावीजन्मभी होनाचाहीये यांते ज्ञानीके जीवन्मुक्तिमे वा विदेहमोक्षविषे संदेह होता है तिसके निवृत्ति वास्ते For Private and Personal Use Only Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (५२) ॥ किमुत्तरं ॥ श्रीगुरुरुवाच “ कर्मणा निर्मितो देहः प्रारब्धं तस्य कल्प्यतां नानादेरास्मनो युक्तं नैवात्मा कर्म निर्मितः ॥ १ ॥ प्रारब्धं सिध्यति तदा यदा देहात्मना स्थितिः। देहात्मभावो नैवेष्टः प्रारब्धं त्यजतामतः ॥ २॥ शरीरस्यापि प्रारब्धकल्पना भ्रांतिरेव हि ॥ अध्यस्तस्य कुतः सत्वमसत्यस्य कुतो जनिः ॥ ३ ॥ १५ ॥ अजातस्य कुतो नाशः प्रारब्धमसतः कुतः । ज्ञानेनाज्ञानकार्यस्य समूलस्य लयो यदि ॥४॥ तिष्ठत्ययं कथं देहो जडानशंका भवेद्यदि । समाधातुं बाह्यदृष्ट्या प्रारब्धाद्वदति श्रुतिः । ५। उत्पन्नेऽप्यात्म विज्ञाने प्रारब्धं नैव मुंचति । For Private and Personal Use Only Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ५३ ) उत्तर हमको कहना चाहीये एसे शिष्यके वचन श्रवण कर ॥ श्रीगुरुरुवाच-हें विदन् कर्मविरचित तो यह स्थूल शरीर है तिसकी प्रारब्ध कहनी चा. हाये जो जन्मरहित आत्मा है तिसकी प्रारब्ध केसे बने जिसको एसा ज्ञान है आत्मा कर्मसे उत्पन्न हवा नहि तिस ज्ञानीके जीवन्मुक्तिमे ब्रह्मवेत्ताको संदेह नहीं है.। १ । जिसकी देहोऽहं इस प्रकारकी निष्ठा है तब तिसकी प्रारब्ध कही जाती है ज्ञानी ब्रह्मरूप है देहरूप नही होनेते ज्ञानीकी प्रारब्ध है यह बुद्धि त्यागने योग्य है. । २ । जो शरीरकी प्रारब्ध कहो तो यहभी मूढता है काहेते रज्जुमे सर्प समान अध्यस्तदेहको सत्ता ही नही तो उत्प. त्ति वा प्रारब्ध कैसे मानीये ॥३॥ १५॥ रज्जुमे सर्पका जन्म नही तो नाश कैसे मानीये जब ज्ञानसे अज्ञानसहित कार्यदेहकों असत्य जान लीया तो असत्देहकी प्रारब्ध कैसे होय सकती है.। ४ । जव मूरोंकों संदेह होवे जो ज्ञानके पीछे ज्ञानीका देह कैसे रहेगा तो प्रारब्धसें रहि सकता है एसे मूढोके शांति वास्ते श्रु. तिने प्रारब्धसे एसे मुखौके मनके संशय शमनार्थ कहा है.। ५। ज्ञानके होने परभी प्रारब्ध नाश नही होती अब इसका खंडन करते ह. For Private and Personal Use Only Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ५४ ) इति यच्छूपते शास्त्रे तन्निराक्रियतेऽधुता । ६ । क्षीयते चा स्य कर्माणि तस्मिन् दृष्टे परावरे । बहुत्वं तन्निषेधार्थी श्रुत्या गीतं यतः स्फुटम् ॥ ७ ॥ १६ ॥ अत्राद्वैते सनकादीनां स्वयंभवो हंसस्य च संवादं श्रीउद्धवं प्रति श्रीभगवानुवाच - सनकादय ऊचुः - || " गुणेष्वाविशते चेतो गुणाश्चेतसि च प्रभो कथमन्योन्यसंत्यागो मुमुक्षोरति तितिर्षोः ८ " इति सनकादीनां प्रभोऽयं ॥ “ एवं पृष्टो महादेवः स्वयंभूर्भूतभावनः । ध्यायमानः प्रश्नबजिं नाभ्यपश्चत कर्मधीः ९ तदवसरे भगवंतं इंसमागतं दृष्ट्वा तं चाज्ञात्वा सनकादय ऊचुः को भवानिति इस उवाच ॥ " वस्तुतो यद्यनानात्वमात्मनः प्रश्न ईदृशः । कथं घटते वो विप्रा वक्तुर्वा मेक आश्रयः १० ॥ पचात्मकेषु भूतेषु समानेषु च वस्तुतः | को भवानिति वः प्रश्नो वाचारं भोह्यनर्थकः ॥ ११ ॥ For Private and Personal Use Only Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ५५ ) ये शास्त्रमे कहा है तोभी मिथ्या है.।६काहेते.जो कहा है सर्व कर्म ज्ञानीके नाश होते है जब परावरको जानता है यहां सर्वपदसे प्रारब्धकर्मकाभी वेद भगवान् निषेध करे है एसे निश्चय करना. ॥ भिद्यते हृहयप्रथिः छिचंते सर्वसंशयाः क्षीयंते चास्य कर्माणि तस्मिदृष्टे परावरे ॥ ७॥ १६ ॥ यहां प्रसंगमे जो अद्वैत है अर्थात् प्रार. धादिकर्म वर्जित है तिस विषे भागवत उक्त सनकादिक हंस अरु ब्रह्माका संवाद है. सनकादिक कहते है हे ब्रह्मदेव मेरा मन विषयोमे लंपट भया है तथा विषय मेरे मन विषे निवास कर रहे है जन्ममरणसे मुक्तिकी इच्छावाले के ये विषय कैसे छूटेगे । ८ । ब्रह्मदेवका मन मायामे रमताथा उत्तर देनमे असमर्थ हवा ।१। नारायणका स्मरण कीया तब हरिः हसरूपलें तहां प्रगट भये सनकादिक तिसको न जानकर पूछते भये हे तेजमूर्ते आप कवन हो हलहरिः बोले ॥ दैतमे तुम कवन हो एसा प्रय बनता है द्वैतके न होनेसे मैभी किसाको उत्तर देवो यह तुम बुद्धिमान हो तो वतावो देह दृष्टि से प्रश्न कहो तौभी सर्वमे पंचभूतोंके समान हूवे तुम कवन हो ऐसा तुमारा प्रभ निरर्थक है ॥ ११॥ For Private and Personal Use Only Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ५६ ) १७ ॥ ननु. यद्येवं तर्हि गुरोरुपदेशमप्यनर्थक ॥ उत्तरं-भवतु ज्ञानकाले नेति को वदेत् तदुक्तम् ॥ एवमेतत्महाबाहो न शास्त्रं ज्ञान कारणम। नानाशब्दमयं शास्त्रमनाम च परंपदम् १२ निर. शेऽप्यंशमारोप्य कृत्स्नेऽशेवेति पृच्छतः । तद्भाषयोत्तरं ते तिः श्रोतर्हितैषिणी ॥ १३ ॥ १८॥ ननु. कायकं वाचकं मानसं च कर्म भवति कर्मानुसारिणी बुद्धि श्च भवति शरीरं वाक्चापि कर्मणो जायते तत एवान्योऽन्याश्यात्कः कस्माज्जायते तन ज्ञायते ॥ उतरं-॥"बीजाटवृक्षस्तरोनीजं पारंपर्येण जायते । इति शंका निवृत्त्यर्थयोगिदृष्टांतकीर्तनम् ।१४। विश्वामित्रादयः पूर्वे परिपक्कसमाधयः । उपादानोपकरणप्रयोजनविवर्जिताः ॥ स्वेच्छया ससृजुः स्वर्ग सर्वभोगोपबंहितम् ॥१५॥रामचंद्रप्रति वशिष्ट उवाच॥चूडालाचिंतयामास देवपुत्रकरूपिणी सुरूपभोगभारेण परीक्षेऽहंशिखिध्वजम् आगतंदर्शयामास ससुराप्सरसं हरिम् इंद्र उवाच ॥ आगत्यविविधाभोगास्त्वयाविबुध सद्मनि ॥ जीवन्मुक्तेन भोक्तव्यास्तेनत्वामहमागतः शिखिध्वज उवाच । अवांछनत्वान्मनसः सर्वत्रानंद वानहम् ॥ किंतुसर्वत्रमेस्वर्गोऽनियतोन कुत्रचित् ॥ For Private and Personal Use Only Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (५७) १७॥ शिष्य उवाच-जब अद्वैत ही सिद्धभया तब गुरुका उपदेशभी निरर्थक भया इसका क्या उत्तर है सो कहो ॥ श्रीगुरुरुवाचजब अपरोक्षज्ञान भया तो निरर्थक है एसे वशिष्ठजीभी कहते है “ महाबाहो श्रीरामचंद्रजी शास्त्र ज्ञानके कारण नही है शास्त्रोंको शब्दात्मक होनेसे अरु परम पद तो नाम रहित है तिलकों शास्त्र क्या उपदेश करनेमे समर्थ होई सकता है। १२ ।” जब जिज्ञासूको जानने की ईच्छा भई यह जगत् ब्रह्मके सर्व स्वरूपमे है अथवा एक अंशमे है तब वेदने निरंशब्रह्ममेभी अंशकी मिथ्या कल्पना करके कहा एक अंशमे है एसे तिसशिष्यके प्रश्नानुमार कहा है. काहेते. श्रुति श्रोताके हितकी इच्छा करे है॥१३॥ १८॥ शिष्य उवाच-हे गुरो जो कर्म है ते देहवाणीमन इनोंसें उत्पन्न होवे हे अरु देहवाणीबुद्धि ये तीनो काँसे उत्पन्न होवे है यांते अन्योन्याश्रयसें कौन किससे उत्पन्न होवे है उत्तर ॥ जै. से बीजते तरु तरुसें बीज परस्पर उत्पन्न होते है यांते प्रथम कौन किसत्ते भया इसमे योगीजनके दृालसे दोनो समही मायासे उत्पन्न होते है। १४ । जैसे पूर्णयोगी विश्वामित्रादि उपादानसामग्रीसें विनाही स्वर्ग सर्वविभूतिसंपन्नको योगमायासे रचा है ॥१५॥ For Private and Personal Use Only Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ५८ ) १९ ॥ ईश्वरोऽनंतशक्तित्वात्स्वतंत्रोऽन्यानपेक्षितः | स्वेच्छामात्रेण सकलं सृजत्यवति इंति च १६ उपास्योपासकत्वेन गुरु शिष्य क्रमेण च स्वामिभृत्यादि रूपेण क्रीडति स्वेच्छयेश्वरः ॥ १७ ॥ राहोः शिरः सुषिः खस्य ममात्मा प्रतिमावपुः । इत्यादिकल्पना तुल्या न पृथग्वस्तुगोचरा १८ पितरं प्रति पुत्रो यः पुत्रं प्रति पितैव सः । एक एव हि नानेव कल्पते शब्दमात्रतः १९ परस्यांशो विकारो वा जीवो वाक्येन नोच्यते जीवात्मना प्रविष्टत्वात्स्वमायया सृष्टमूर्तिषु ॥ २० ॥ यथा संधिरूपे स्व विनैव संस्कारं तत्र सह चरैः सह क्रीडति तथाऽत्रापि ॥ ननु ॥ कथं स्वप्नस्य संधिर्नाम तत्राह ॥ यथा शशि सूर्यवर्जितनियतकालस्य संध्येति नामास्तितद्वज्जाग्रत्परलोकाभ्यां वर्जितस्य स्वप्नस्य संधीति नाम || संध्ये सृष्टिराहेत्यनेन सूत्रेण व्यासेनोच्यते तथाहि जाग्रति स्वप्नस्यांतर्भा वोनास्ति स्वप्नगतजीवस्य ज्वरादिपीडितजाग्रत्देहेन सह संबंधाभावादत्र सुप्तेसति स्वप्ने पद्धयां गमनदर्शनाच्च तथा परलोके प्यंतर्भावो नास्ति जाग्रति देहदाहेन परलोकगतजीवस्य दुःखानुभावाभावेसत्यपि स्वप्नगतजीवस्य जाग्रतिदेददाहेन दुःखीभूत्वाप्रबोधदर्शनात् स्वप्नस्य संघितास्ति न तत्ररथानस्थयोगा इति श्रुतिरपि व्यासूत्रेप्रमाणभूताऽस्ति ॥ For Private and Personal Use Only 10 Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ५९ ) १९ ॥ तैसे अनंतशक्तिवाला इश्वर उपादानकारणोंसे विना ही केवल मायासे उत्पत्तिस्थितिनाश करे है | १६ | स्वयं महेश्वर मायासें उपास्य उपासक, गुरु शिष्य, स्वामि दासरूप क्रमसे रचकर क्रीडा करे है | १७ | तिस अभिन्न ईश्वरमे भिन्न भावना से करते है जैसे यह राहुका शिर है यह आकाशका छिद्र है यह मेरा आत्मा है यह प्रतिमा का स्वरूप है इस कल्पनाके समान भेद कल्पना जाननी । १८ । जैसे एक ही मनुष्य पिताका पुत्र बनता हूवा पुत्रका स्वयं पिता कहावता है जैसे एकही नर विषे पुत्र पिता नाना नामकी रचना है तैसे एक ही महेश्वर नानास्वरूप नाना नामवाला है ॥ १९ ॥ ॥ यह जीव जो है सो ईश्वरका टुकडा नही न कार्य ही है किंतु " तत्सृष्ट्वा तदेवानुप्राविशत् " इस श्रुतिवाक्य से स्वमाया करके स्वयं सर्व मूर्तियों विषे विराजमान भया है सोई माताके स्तनोमे दुग्ध रच कर बालक रूप से पान करे है ||२०|| बिना ही संस्कारोंसें जो दुराग्रहसें संस्कार मानोगे तो एकस्थानमें शयन करता हूवा दूसरे नगरमे अपनेको स्वभावस्थामे चलता देखता है तबमै पूर्वस्थानमे सोया हूं एसे संस्कार क्यों नहीं स्फुरण होते जब प्रतिदिन के संस्कार प्रतिदिन नाश पावते है : For Private and Personal Use Only Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ६० ) एवं सति यदि प्रतिदिनस्य जाग्रत्सत्कारः स्वनेऽपि न वर्तते तर्हि जन्मांतरकत्दुग्धपानस्य संस्कारस्तु तिष्टतीतिवदतां प्रशंसा तु ब्रह्मणापि कर्तुं दुष्करैवा. स्ति किं च तिष्ठतु प्रतिदिनस्य वर्ता परंतु यस्मिन्काले भक्षति तदैव कश्चत्पृत्छति भोः कीदृक् भोजने लवणमिति श्रुत्वा वदति नैव जानामि कोहगधुनैव वदामि तदा तु मनोऽन्यत्र गतं विचारणीयं यदिक्षणमात्रस्य संस्कारोपि न तिष्ठति तदा जन्मांतरस्य सं. स्कारोहि बालस्यात्र तिष्ठतीति गदतामहोप्रज्ञा तस्मात् दृष्टिसृष्टिबादेऽविद्याबलादेव संस्कारमंतरेणे व द्रष्टा दर्शनदृश्यरूपं जगत्प्रतिक्षणादुत्पद्यतेक्षणेचविलीयते ॥ इति द्वाविंशतिकमलं समाप्तम् ॥ हरिः ॐ १॥ अथ त्रयोविंशति कमले एकजीवादनकजीवा . अनेकादेक जीवश्चेति वर्णनम् ॥ ॐ शिष्य उवाच-भो भगवन एकजीवादनेकजोवाः कंथ भवंति एवं अनेकजीवेभ्यश्चैकजीवोऽपि कथं भवति यथाऽहं जाग्रदवस्थायां एकोऽपिसन्स्वनावस्थायां नानारूपो भवामि एवं तत्रैव नानास्वरूपः सन्पुनश्च जाग्रदवस्थायामेकरूपो भवामि साकर्मविना कंथ सृष्टिर्भवति विनैव चोपादानं कथमुप्तन्ना For Private and Personal Use Only Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ६१ ) तो जन्मांतर के दूग्धपानके संस्कार रहि जाते है एसे माननेवालेकी बुद्धिका महात्म तो ब्रह्माहीसे प्रशंसा के योग्य है जैसे भोजन खाताभी कहता है मै ra स्वाद खाय बतावो हूं तो यहां प्रथम भक्षणके संस्कार कहांगये जो जन्मांतरके संस्कार मानते हो || ॥ इति द्वाविंशति कमल समाप्तम् हरिः ॐ तत् सत् ॥ १ ॥ अथ त्रयोविंशति कमलमे एक जीवसे अनेक अनेकसे एकका वर्णन शिष्य उवाच - हे सद्गुरो एकजीवसे अनेक अनेकसें एकजीव कैसे होता है जैसे हम जाग्रतमे एकला दी शयन करता हूं स्वप्नमे बहुत रूप होता. हूं तहां बहुत हूवाभी फिर यहां जाग्रतमे एकरूप होता हूं यामे यह शंका है. विना कर्म विना उपादान कारणों से सृष्टि कैसे उत्पन्न होवे है तथा कैसे नाश होवे है ॥ For Private and Personal Use Only Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ३२ ) २|| श्रीगुरुरुवाच- हे विद्वनत्रप्रसंगे त्वमितिदासं श्रृणु पुरा मायाविरचितेऽस्मिन्संसारे कश्चिन्नगराधिपतिर्विपश्चिद्राजाऽभूत्तस्मिन्नगरे वदवः शत्रवोह्यागतास्तान्दृष्ट्वा राज्ञा विपश्चितास्त्रकीये वह्निदेवे नित्योपास्यस्वरूपे स्वकीयं शरीरं बलिरूपेण समर्पितं समर्पणकाले प्रार्थना कृता शत्रूणां विनाशाय मह्यं चत्वारो देहा दातव्यास्तदनंतरं शीघ्रमेव तस्मादश्रत्वारि शरीराणि विनिर्गतानि तैश्चदेहैः शत्रूणां विनाशं कृत्वा चतुर्दिशां विजयार्थं यत्र कुत्र विनिताः तेषां मध्ये कश्चिद्विष्णुप्रसादान्मुक्ति प्राप्तः कश्चिचंद्रलोकं गतः कश्चिद्रामचंद्रेण सह मृगदेहं त्यक्त्वा दशरथस्यासने स्थित्वा वसिष्ठस्योपदेशं श्रुत्वा विमुक्तोऽभूत् कश्चित्तु अद्यावधि परिभ्रमत्येव भोः शिष्य अत्र प्रश्नोत्तराणि शृणु. For Private and Personal Use Only Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (६३ ) २॥ श्रीगुरुरुवाच-हे सुजन इस प्रदानुसार एक कथा श्रवण करो इस मायिक प्रपंच विषे एक नगरमे विपश्चित् राजा, अग्निदेवका उपासक होता भया जब तिसके सुंदर प्रिय नगर ऊपर अन्य राजा चडि आये तब तिनोंकों प्रबल देखकर अपने ईष्टदेवता जो सर्वदा रक्षक तिस अग्निदेव विषे निज शरीर ही हवन कर दीया साथमे प्रार्थना करी मै चतुर्देहवाला आपकी कृपासें होवों तब तत्काल अग्निसे चतुर्देह तेजस्वी प्रगट भये सर्व शत्रुवोंका नाश करके फिर तृष्णादेवीके प्रभावसे आगेआगे चारो दिशावोंके विजयार्थ गमन करने लागे तिन चारोंविषे एक विष्णुजीके कृपाकटाक्षसे मुक्तिको प्राप्त होता भया एक चंद्रलोकमें चंद्रमा देवके कृपापात्र होइ तहांही रहता भया तथा एक रामचंद्रके समीप मृगदेहदारी विपश्चित् राजा श्रीवशिष्ठमुनीजीकी कृपा करके अग्निमे प्रवेश कर फिर तित अग्निसे राजवेषधारी महातेजस्वी विपश्चित् निकल कर राजा दशरथके साथ एकासनपर बेठ श्रीरामचंद्रके साथ ही उपदेश श्रवण कर कृतार्थ होता भया शेष एक रहा सो अद्यावधि वासनानुसार जन्ममरणमे रमण करता फिरता है हे शिष्य तुमारे प्रश्रानुसार इसमे प्रश्रोतर है सो श्रवण कर ।। For Private and Personal Use Only Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (६४ ३॥ ननु इदमयुक्तं चतुर्बपि शरीरेष्वेको हि विपश्चिज्जीवो योगिकायव्यूदेष्विव विभक्तं स्थितः तस्य पश्चिमशरीरे विष्णुप्रसादात् ज्ञानेन निर्वाणप्राप्तो कोऽन्यः पुनः पूर्व विपश्चित् शरीरे चंद्रोपासनया चंद्रलोकं यायात् न ।कस्यैव जीवस्य क्वचि. न्मुक्तिः क्वचिदंधश्च युगपत्समंजसौ मुक्तिफलस्य पाक्षिकत्वपरिच्छिन्नत्वयोरापत्तेः न चैकस्य देहचतुट्यधारणेन जीवचतुष्टयभावो जीवांतरोत्पत्तिा युक्ताः। आये, चतुर्धाविभागे पूर्वजीवस्य नाशापत्तेद्वितीयेऽपि. अभिनवोत्पन्नानां जीवानां कामकर्मवासनादिबोजाभावेन संसारानापत्तेः । न च भोगवैचित्र्यमिव बंधमोक्षवैचित्र्यं कर्मभिर्मायया बा दिरोधेन निर्वोढुं शक्यं For Private and Personal Use Only Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (६५) ३॥ शंका-उपरोक्त यह वारता बन सकती नही है जो चार शरीरोंमे एकही विपश्चित् जीव सिद्धयोगी समान बहुत शरीरोंमे प्रवेश करके प्रथक स्थिति करे पश्चिम शरीरमें विष्णु भगवानकी कृपासे ज्ञानोपदेशद्वारा विदेहमोक्षभया तो फिर दुसरा कौन विपश्चित् जीव रह गया जो चंद्रमाकी उपासनाद्वारा चंद्रलोकमे निवास करेगा. एसा नही होता जो एक कालमे एकजीवकी कहूं मुक्ति होवे कहूं बंधनता होवे जो एसे होवे तो मोक्षफल दोकटकावाला होवेगा तथा परिच्छिन्नता धर्मवाला होवेगा और जो एसे मानो जब चारदेह भये तो एकजीवसे चार विभाग होगये अथवा चारजीव उत्पन्न भये सोभी अयोग्य है. काहेते. चार भाग होनेते तो पूर्व एकजीवका ही नाश होवगा यदि चारजीवोंकी उत्पत्ति मानोगे तो तिन जीवोंके उत्पत्तियोग्य काम कर्मवासनादि कारण सामग्रीके अभाव होनेते तिनो चारोंको जन्मादि संसारकी प्राप्तिका ही असंभव होवेगा और जो कहो जैसे भोग नानाप्रकारके होते है तैसे बंधमोक्षभी नानाप्रकारका मानना होवेगा. काहेते. जो जहां विरोध देख परे तहां कमसे वा मायासे मोक्षकी विचित्रता रूप, विरोध मान कर निरवाद करीये तो बाधा नही. For Private and Personal Use Only Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ६६ ) मोक्षस्याकर्मतंत्रत्वाद्विश्वमायानिवृत्तिःश्रुतिविरोधाच।। ४॥इति चेदितिसत्यं अयमत्राशयो भगवतो वशिष्टस्य लक्ष्यते न जीवो नाम ब्रह्माकाशादतिरिक्तः कश्चिदस्ति ब्रह्मैवांतःकरणोपाधिषु मायया विभक्तं तद्गतकामकर्मवासनानुसारेण संसरदिव विभाव्यमानं जीव इत्युच्यते तत्रांतःकरणानां दीपवबहूनां मेलने एकत्वमुपचयश्च भवति एकस्य च योगदेवताप्रसादादिनिमित्तवशायुगपद्विरुद्धानेकदेशभोग्य कमोंद्भवाचानेकजीवभावोऽपि भवति तत्र यदा बहूनां जीवानां तुल्य देश काल भोग्य समान काम कर्म वासनोद्भवस्तदा तद्दोगाय मेलने For Private and Personal Use Only Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ६७ ) सो यह कहनाभी बनता नही. काहेते.जो मोक्ष कर्माधीन नही तथा मोक्षकालमे विश्वमाया निवृत्त हो जावे है एसे कहनेवाली श्रुतिका विरोधरूप बाधा होनेसेभी आपका कहना ठीक नहीं ॥ ॥ समाधानं-यह जितनी वार्ता आपने कही सो योग्य कही है परंतु यहां वसिष्ठभगवान्का तो यह अभिप्राय है सो तुम श्रवण करो. जो जीव है सो ब्रह्माकाशते भिन्न नहीं है किंतु ब्रह्म ही मायासें नाना अंतःकरणोपाधियोंमे नाना रूप होइ भासता है तिस मायामे जो कामकर्मवासना है तिसके अनुसार संसारीकी न्याई प्रकाशता दुवा जीव हूं एसे कहनेमे आवे है यहां जब बहुत अंतःकरण मिल करके एक मोटा जीवकी उपाधि बने है तबबडा तेजस्वी अर्जुन जैसा जीव बने है जैसे अनेक दीपक मिलनसे मशाल बने है तद्वत्. जब कोई एकजीव कृष्णादि देवोंकी अपासनासे वा योगसे तथा विरोधी अनेक देशोंमे भोग देनेहारे कर्म उदय होवे तिससे नानारूप धारे है तब एक से नानाभी होवे है यहां जब बहुत जीवोंका समान देशकाल भोग्य समान कामकर्मवासनावोंका उद्भव होवे है तब तिन नाना जीवोंके भोग वास्ते नानाजीवोके उपाधियोंको मिलाय एक उपाधि बननेसे For Private and Personal Use Only Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (६८ ) एकजीवत्वमेव भवति यावविरुद्ध देश भोग हेतु कर्मोद्भवं लाघवादेकमेव भोगायतनं शरीरं संपद्यते ॥ ५॥ यथा युधिष्ठिर जीवो धर्मस्येन्द्रस्य च मेलनेनैकजीवः यथा वा भीमजीवो वायोरिंद्रस्य च मेलनेनैकजीवः, यथा वाऽर्जुनजीवोद्वयोरिंद्रयोर्नरस्यचमेलनेनैकजीवः यथा वा नकुलसहदेवयोर्जीवाविंद्रस्याश्विनोश्च मेलनेनैवैकजीवो नकुलस्यैकसहदेवस्य च प्रथप्रथक् भवति. यथा वा द्रौपद्याश्च जीवो नारायणी लक्ष्मी गोर्यंश मेलनेनैको जीवो विज्ञेय इति पंचेंद्रोपारव्यानादि पर्यालोचने प्रसिद्ध एव ॥ - ६॥ एकस्य जीवस्यानेकोपाधिविभागे अनेक जीवताऽपि ॥ यथा इंद्रहंतारं पुत्रं कश्यपाद्गर्भ प्राप्यऽशुचित्वेन सुप्तायादितेरकजीवैक शरीरकस्य गर्भस्य इंद्रेण प्रथम सप्तधाछेदने सप्तजीवास्तत श्चैकैकस्य ‘सप्तधाछेदने जातानामेकोनपंचाशन्मरुतामेकोनपंचा For Private and Personal Use Only Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ( ६९ ) एक जीव बन जाता है सो तबतक कि जबतक विरोधी देश भोग देने हारे कर्मोंका उत्पत्ति होवे तबतक लाघवते एक शरीर उत्पन्न होवे है. ५ ॥ जैसे युधिष्ठिरका जीव जो है सो धर्म इंद्र दोनोके मिलने से एक जीव भया है अरु भीमका जीव वायु इंद्रके मिलनेसें एकजीव भया है तैसे अर्जुनका जीव दो इंद्र तथा नरसे भया है एवं नकुलसददेवका जीव इंद्र अश्वनीकुमारसे भया है तथा द्रुपदीका जीव नारायणीलक्ष्मीगौरीके अंशोसे बना यह वार्ता केंद्रोपाख्यानादिको के अवलोकन करनेसे जानने आवे है ॥ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६ ॥ जैसे एकजीवको अनेकोपाधिसें अनेकजीवभाव होता है सो श्रवण करो. दितिने कश्यपसें इंद्रनाशक पुत्र एकदेह तथा एकजीववाला जब गंर्भ धारण कीया तब इंद्र अपने शत्रुके नाश वास्ते छिद्र देखता हूवा दिती माताकी कपटसे सेवा करता भया जब दिति अपवित्र होय नींद करती भइ तब इंद्रने गर्भमे शत्रुके सप्त कटका कीया तब सप्तजीव भया फिर एकैकके सप्तसप्त टुकडे कीये तो एककम पचास पवन भये जब इंद्रसे सर्वोने कहा मै सर्व तेरे दास है तब छोड दीया एसे एकसे उपाधियों कर नाना होते है. और जैसे. बट- इक्षु. दुर्वा एक ד For Private and Personal Use Only Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (७०) शजीवाः संपन्नाः । एवं बटेक्षुदुर्वादीनां च काडशाखारुहां प्रतिशाखं प्रतिकांड च प्ररोहेण जीवनदर्शनात्. एकस्य नानाजीवात्मता औपाधिको विभागश्च प्रसिद्धतर एव ।। ७॥ इत्थं च प्रकृतेऽपि चतुर्णा जीवानां यावसमानकामकर्मोद्भवे एकदेहतया राजपरिपालनं विरुद्धभिन्नदेशभोग्यकर्माद्युद्भवे च देहादिविभागेन दिगं. तरप्रसर्पणमिति कल्पने वा एकस्यैव विपश्चिजीवस्योपाधिविभागेन मरुत्वञ्चतुर्जीवभावोऽभूदिति कल्पने वा एकमुक्तौ न सर्वमुक्तिप्रसंगः इति प्रश्नोत्त. राभ्यां मायागतकामकर्मवासनाभिः सर्वे प्रतिदिनं निद्रागतकामकर्मवासनाभिरेवैकादनेकधाअनेकाच्चैको भवतीति सिहांतः॥ श्री बाल्मीकि रुवाच ॥ इत्युक्तवत्यथ मुनौ दिवसोजगाम स्नातुं सभा कृतनमस्करणा जगाम ॥सायंतनाय विधयेऽस्तमिनो जगाम श्यामाक्षये रविकरैश्च सहाजगाम ॥ इति त्रयोविंशति कमलं समाप्तम् हरिः ॐ १॥ अथ चतुर्विशतिकमले ज्ञानी, न विधिकिंकरः यस्यात्मरतिरेवस्यादात्मतप्तश्च मानवः आत्मन्येव च संतुष्टस्तस्य कार्य न विद्यते ॥ १ ॥अर्थः-यस्तुमानवः बहिरंतश्च सर्वत्र ब्रह्मैव मापयति For Private and Personal Use Only Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ७१ ) जीवरूप हूएभी प्रतिकांड प्रतिशाखासे फूट फूट नाना अंकुर हूवे नानारूप अपने कारणोंके समानरूप धारण कर नानाजीव होते है एसे एकजीवको नाना उपाधियोंसे नानाजीवरूपता प्रसिद्ध ही है ॥ ७॥ तैसे इप्त विपश्चित् राजाके प्रसंगमेभी चतुर्देहोंवाले चतुर्जीवोंका जबतक समान कामकर्मकी उत्पत्ति भई तबतक एकदेह एकजीव होयकर राजपालन करताथा जब विरुद्ध भिन्न देशो मे भोग्यकर्मादिकोकी उत्पत्ति भई तब चार शरीर धारण कर चारो दिशावोंमे विजयार्थ गमन करता भया एसी कल्पना करनी अथवा एकही विपश्चित् जीवको उपाधि भिन्न होनेसे मरुत् समान चतुर्जीवभाव होता भया एसी कल्पना करनी यांते एक विपश्चित्के मुक्ति भये सर्व मुक्त नहीं हो सकते ॥ यांते हे शिष्य मायामे वाअंतःकरणमे स्थितजे कामकर्म वासना है तिनोंद्वारा एकसे नाना तथा भोगते कर्मनाश होने पर नानासे फिर एक होता है। इति श्री त्रयोविंशति कमल समाप्तं ॥ १॥ अथ चतुर्विशतिकमलमे ज्ञानीपर विधि नहीं श्रीभगवद्गीतामे श्लोकःयस्यात्मरतिरेव स्यादात्मतृप्तश्च मानवः । आत्मन्येव च संतुष्टस्तस्य कार्यं न विद्यते ॥ अर्थ-मानवो नाम For Private and Personal Use Only Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ७२ ) ग्राहयति इति मानं प्रत्यग्दर्शनं तदेव वाति भजतीति मानवो ब्रह्मविद्यतिरात्मरतिर्नाम ब्रह्मण्याशक्तिमानिति तथात्मन्युन्मत्तस्तथात्मन्यत्यानंदी यस्तस्य कार्य न विद्यते । ॥ ननु अधिकृतत्वाविशेषाद्विदुषोऽपि कर्तव्यमेव वैदिकं कर्म ॥ कर्मविधेः सर्वत्र सामान्यात्कर्मशास्त्र तदर्थ तन्नियम परिज्ञातृत्वात् विदुषः। “विद्वान् यजत इति ” विशेष विधानाच्च विधिबलाद्विदुषाप्यवश्यं कर्म कर्तव्यमेवेतिचेत् भवानत्र प्रष्टव्यः ॥ २ ॥ परावरैकत्वविज्ञानवह्निना निर्मूलितद्वैतभ्रमस्य सर्व ब्रह्मैव पश्यतो. जीवन्मुक्तस्य ब्रह्मविदः कर्म करणं स्वार्थ किं परार्थ वा-। आये तत्कमहिकार्थे वा किमामुष्मिकार्थं वा आये शरीररक्षार्थ किंवा For Private and Personal Use Only Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ७३ ) सर्वत्र आत्माको माने गृहण करे तिसीको मान कहते है नान ब्रह्मदर्शन कहते है तिसको वाति नाम जो भजे सो मानव कहा है एसा जो ब्रह्मवेत्ता संन्यासी जो आत्मामे आसक्ति राखे है तथा स्वात्मामे निमग्न है तथा स्वात्मसुखसे पूर्ण है तिस मानवको लौकिक वैदिक कोईभी कर्तव्य नहीं है ॥ प्रश्नः-संन्यासीभी आश्रमी होनेते कर्मका अधिकारी होता है शास्त्रकी आज्ञा सर्वपर समान है और विद्वान् ही धर्मशास्त्रोक्त अर्थको तैसे नियमाको जाननेवाला होता है जब सो विद्वान् न करेगा न करावेगा तो पाषाणसदृश मूढ कर्मोंर्कों करेंगे वा करावेंगे सो तो कहो “ विद्वान् यजते" एसे वेदविषे विशेष करके विद्वान् का ही नाम कहा है यांते वेदाज्ञाको बलवान होनेते ज्ञानी वेदका ज्ञाता है यांते कर्मका अधिकारी है ॥ २॥ उत्तरं-हे सौम्य विद्वान् जो ब्रह्मज्ञानाग्निसे सर्व दैतभ्रमको जिसने भस्म कीया है तथा सर्वत्र ब्रह्म देखनेवाला है एले जीवन्मुक्तको कर्म करना तुम कहते हो सो कर्म अपने वास्ते करे अ. थवा दूसरे वास्ते यह कहो जो स्वार्थ कहो तो इस लोकवास्ते वा परलोकके वास्ते कर्म करे. इस लोक वास्ते कहो तो स्वशरीर यात्रार्थ वा कुटुंवरक्षार्थ For Private and Personal Use Only Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ७४ ) परिग्रहरक्षाथै किमुत विलासार्थ तत्र. नाद्यः-"सिद्धेऽन्यथार्थे न यतेत तत्र परिश्रमं तत्र समीक्षमाण” इति वचनाच्छरीरस्थितेः प्रारब्धाधीनत्वात् तदुद्दिश्य विदुषः कर्मानुपपत्तेः । न द्वितीयः, एतं वै तमात्मानं विदित्वेति श्रुतेः निशेष निवृत्तमिथ्याज्ञानानां ब्रह्मविदां पुत्र वित्तलोकैषणाभ्यो व्युत्थान श्रवणात्ताभ्य उत्थितवतो विदुषः परिग्रहाभावात्तद्रक्षानिमित्तकं कर्मानुपपत्तेः । न तृतीयः-सर्वमात्मानमेव पश्यत आत्मरतेर्विदुषोऽन्यत्ररत्यप्रसक्तो विलासासंभवात् ॥ ३॥ तामुष्मिकार्थमस्त्विति चेत्तत्रापि किं स्वर्गार्थं वाऽपवर्गार्थं किमात्मशुद्ध्यर्थं वा तत्र । नाद्यः-“ पर्याप्तकामस्य कृतात्मनस्तु इहैव सर्वे प्रविलीयंति कामा” इति सर्वकामप्रविलयश्रवणाद्विदुषः स्वर्गकामासंभवात्तदर्थकं कर्मानुष्ठानानुप्रपत्तेः । For Private and Personal Use Only Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ७६ ) वा विलासार्थ कर्म करे सो कहो. जो शरीररक्षार्थ कहो तो ज्ञानी जानता है यत्न विना शरीरकी रक्षा कर्म करेंगे स्वयं अजगरको बालककी, उन्मत्तकी पशुपक्षीयोंके पुत्रोंकी रक्षासमान स्वशरीरकी रक्षार्थ व्यर्थ चेष्टा नही करता है ॥ “ योमे गर्भगतस्यादौ वृत्ति कल्पित वान्पयः । शेषवृत्तिविधानेषु सोऽयं सुप्तोस्ति मृतोस्ति किं ॥” अर्थ-जिसने जन्मसे प्रथम दुग्ध उत्पन्न कर राखा वह अब न सोया है न मर गया है. जो कुटुंबरक्षार्थ कहो तो बनता नही. काहेते. जे ज्ञानो जन है ते तिस ब्रह्मको जान करके निवृत कीया है संपूर्ण देतदृष्टि तथा पुत्रेच्छा लोकेच्छा, धनेच्छा ते रहितं भिक्षाहार करते है तिनोंको कुटुंब ही नही है तो तिसकी रक्षार्थभी ब्रह्मवेत्ता प्रवृत्त नही होते एसे श्रुतिमे कहा है जो विलासार्थ. कहो तो आत्मध्यानसे विना अन्यत्र विलासका विषय नही देखता हूवा विद्वान् लिस लीयेभी कौमे प्रवृत्त नही होता ॥ . ३॥ परलोकार्थ ज्ञानीकी कर्मोंमे प्रवृत्ति होवे जो एसे कहो तो भी स्वर्गार्थ मोक्षार्थ आत्मशुद्धयर्थ वा ॥ नाद्यः, पूर्णकाम, कृतार्थ महात्माकी इसी ज्ञानी अंतःकरणमे सर्वकामनाका अभाव वेदमे श्रवणते तिसकी स्वर्ग प्राप्ति वास्ते कर्मोंमे प्रवृत्ति For Private and Personal Use Only Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ७६ ) न द्वितीयोपि " न कर्मणा न प्रजयेति " श्रुत्या कर्मणां मोक्षसाधनत्वनिषेधाजीवन्मुक्तत्वाञ्च विदुषस्तदर्थक कर्मासिद्धेः॥ ४॥तृतीये किं शरीरशुद्ध्यर्थं वा चित्तशुद्ध्यर्थ वा किं आत्मशुद्धयर्थं वा कर्म कर्तव्यम् । नाद्यः"कलेवरं मूत्रपुरीषभाजनमिति वचनात् प्रत्यक्षत्वाञ्च मलमांसास्थिमतो वपुषः कर्मणा शुद्धयसंभवात् । न द्वितीयापि “ यतयः शुद्धसत्वा” इति स्मरणात्। न तृतीयः “ अस्नाविर५ शुद्धमपापविद्धमिति "श्रवणात् निरवयवत्वेनाऽविषयत्वाच्च कर्मणात्मनः शुद्धिकल्पनाऽयागात् यत्ज्ञानबलेन विष्णुरुद्रादयोऽकार्यशतकोटिमपि कृत्वा स्वयं शुद्धयंत्यन्यानपि च शोधयंति तमात्मानं कः केन शोधयेत् ॥ For Private and Personal Use Only Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ७७ ) वनती नही, न द्वितीयः श्रुतिमे कहा है कर्मों से पुत्रोंसे धनसे मुक्ति नहीं होती अरु जीवन्मुक्त स्वयं मुक्तरूप ही है सो मोक्षार्थ कर्ममे प्रवृत्त होय ही नहीं सकता ॥ ४ ॥ तृतीयमेभी जो आत्मशुद्ध्यर्थ आपने कहा सो शरीरशुद्ध्यर्थ चित्तशुद्ध्यर्थ अथवा आत्मशुद्धयर्थ आपकर्मोंमे प्रवृत्ति कहते हो. नाद्यः यह शरीर मलमत्रका पात्र है तथा हाडमांसादि अपवित्रतासें पूर्ण. कर्मले कत्रीमो शुद्ध नही होता एसे जाननेवाला विद्वान् कैसे कर्ममे प्रवृत्त होवेगा. न द्वितीयः. ज्ञानी यति शुद्धांतःकरणवाले प्रथमहीसे चित्तशुद्धिवाले श्रुतिमे कहा है सो तदर्थ कर्म कैसे करेंगे, न तृतीयः, आत्मा श्रुति मे नाडी आदि सप्तधातुवोसें रहित लिंगदह राहत अज्ञानरूप कारणदेह रहित कहा है तथा निर्विषय होनेते कर्मोंसें शुद्धात्माकी शुद्धि कहनाभी असंभव होनेते ज्ञानी तिसके शुद्ध्यर्थ कौमे कैसे प्रवृत्त होवेगा जिस आत्माके ज्ञान प्रभावतें ब्रह्मा, विष्णु, महेश सहस्त्र निषिद्धकर्म करते हूएभी स्वयं निर्लेपस्वरूप बोधवाले औरोंको स्वनाममात्रके जापसे शुद्धि करनेहारे मुक्तिदाता होते है तिस आत्मदेवकी कौन कौसें कौन नर शुकि करनेमे सामर्थ होइ सकता है। For Private and Personal Use Only Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ७८ ) ५॥ ननु तर्हि विदुषः कर्माचरणं परार्थमेव इति चेत् भवानत्र प्रष्टव्यः लोकार्थ यः कर्म करोति स किमपरोक्षज्ञानी उतपरोक्षज्ञानी वा तत्र आये स यतिर्वा गृहस्थो वा। नाद्यः-तस्य निरभिमानीत्वात्संन्यस्त सर्व कर्मतत्साधनस्त्वाच्च कर्मशब्दाऽप्रसक्तः देहवर्णाश्र. मादिष्वहंममेत्यभिमानः प्रपंचसत्यत्वबुद्धिरर्थित्वं क. र्तव्यताबुद्धिरकरणे प्रत्यवायभयं शास्त्रभयं च खलु प्रवृत्तेजिं तदेतत्सर्वमपि समूलं परावरैकत्वविज्ञान महाग्निना निर्दह्य स्वयं निष्क्रियब्रह्मात्मना तिष्ठतो निर्दग्धाऽनात्मतादात्म्यग्रंथेः सर्वात्मभावापन्नस्य स्वात्मारामस्य यतेरतिवदनमेव न संभवति किमुत कर्मणि प्रवृत्तिरिति तथा च श्रुतिः ॥ प्राणो ह्येष सर्वभूतै विभाति विजानन्विछान् भवते नातिवादीति ॥ ततो ब्रह्मनिष्ठयतेः स्वार्थं वा परार्थं वा कर्मणि प्रवृत्तिन संभवति ॥ For Private and Personal Use Only Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ७९ ) ५ ॥ प्रश्नः - विद्वान् पुरुषोंकों कर्म परोपकारार्थ तो करना चाहीये जब एसे मानीये तो क्या हानी होती है ॥ उत्तरं - लोकोपकारार्थ कर्म करनेवाला जो ज्ञानी कहते हो सो अपरोक्षज्ञानी वा परोक्षज्ञानी सो को अपरोक्षज्ञानी कहो तो संन्यासी है वा गृहस्थ है. नाद्यः - तिस अपरोक्षज्ञानवान् संन्यासी को निरभिमानी होनेते तथा साधन सहित सर्व कर्मोंका परित्यागी होनेते कर्मों के करने का अधिकार ही नही है कर्मकरनेके अधिकारी विषे इतनी सामग्री चाहीये देदमे वर्णाश्रममे मातापितादिकुटुंब विषे अहंता ममता भावना संसार विषे सत्यत्वभावना धनाकांक्षा कर्तव्यताबुद्धि न करनेते पापकी भय होनी ये संपूर्णकर्मविषे प्रवृत्तिके साधन है इन सर्वकों ज्ञानाग्नि करके निर्मूल कर स्वयं परिपूर्ण परमात्मास्वरूपसे स्थित दूवा तथा देहात्मभावनाको ज्ञानानिसें समूल मर्दन कके ब्रह्मस्वरूपको प्राप्त भया जो स्वात्माराम संन्यासी है तिसपर वेदकी आज्ञाही नहीं वनती तो कर्मी प्रवृत्ति कैसे बने यह श्रुतिविषेभी कहा है वह विद्वान् सर्वका प्राण है पंचभूतात्मक शरीर करके प्रतीत होता है एसी ज्ञानी हूं कर्ता एसा अभिमान ही नहीं करता इतनी श्रुति है For Private and Personal Use Only Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (८०) ६ ॥ न द्वितीयोपि जन्मानेकसहस्रकृत पुण्यकर्मपुंज परिपाकेनेश्वरप्रसादेन च सर्वदृश्यसिथ्यात्व निश्चयपूर्वकं ब्रह्मैवाहमिति ब्रह्मा कवविज्ञानमप्रतिबद्धं यदा समुत्पन्नं स्याचदा गृहस्थोऽपि याज्ञवल्क्यादिवदेषणाभ्यो व्युत्थास्यति न त्वहममेति संसतुमर्हति तत्कारणासंभवात् संसारकारणं खल्वनास्मनि देहादावहंभावस्तदन्यत्र ममभावश्च तदेतदूयं यस्य ब्रह्मात्मैकत्वविज्ञानेन विध्वस्ते न स पुनः संसाराय कल्पते न हि ॥ ब्रह्मैवाहमिति विज्ञानं ब्राह्मणोऽहं ममेदमिति बुद्धिश्च तेजस्तिमिरवत् परस्परविरुद्धमेकत्र वस्तुं शक्नोति ततो ब्रह्मतत्त्वविज्ञानखड्गनिर्भिन्नहृदयग्रंथेः पुनः संसरणं न संभवत्यतः संसारात् व्युतिष्ठत्येव For Private and Personal Use Only Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ८१ ) यांते संन्यासी अपरोक्षज्ञानीकी स्वार्थ वा अन्यार्थ कर्मों विषे प्रवृत्ति बनती नही है ॥ ६॥ और गृहस्थ अपरोक्षज्ञानी जो है सो कमविषे प्रवृत्ति करेगा यह दूसरा पक्षभी नहीं बनता. काहेते, जो अनेक जन्मोंविषे कृतपुण्योंके प्रभावसे तथा ईश्वरानुग्रहसें जान लीयाहै. यह संसार स्वप्नसमान है हम सच्चिदानंद ब्रह्म हों जब एसे निर्विघ्न ब्रह्मात्मैक्य ज्ञानको उत्पत्ति होवे है तब गृहस्थभी याज्ञवल्क्य सदृश एषणा त्रयसे विमुक्त हवा ब्रह्मानंदमे मग्न रहताहै कबीभी मै ब्राह्मण हुँ मेरे यह मातापुत्रादिक है इस रीतिसे संसारबंधनमें आतक्ति कर दुःखी नही होता ॥ तिसमे आसक्तिका कारण समल नाश होय गया है यांते आसक्ति नही करता किंतु ब्रह्मानंदमें मग्न रहिताहै, संसारासक्तिका का. रण अहं ममाभिमान होता है सो यह दोनोही ज्ञानाग्निसे दग्धकरके फिर तिसमे लंपट नहीं होता. कादेते. मै ब्रह्मसच्चिदानंद स्वरूपहुं तथा मै ब्राह्मणक्षत्रिय हूं एसे आत्म अनात्म ज्ञान दोनो तेज ति. मिरतुल्य, एकबुद्धिमे निवास करनेको समर्थही नही होइ सकते यांते ज्ञानरूपखङ्गसे देहाभिमानग्रंथीका छेदन करनेवाले गृहस्थज्ञानीको संसारासक्ति बनती ही नही किंतु संसारका त्यागही करता है For Private and Personal Use Only Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ८२ ) ॥ गृह्यपि विद्वान् यदि न व्युत्तिष्टेतदव्युत्थानमेव विज्ञापयत्यज्ञानतत्कार्यनिगृहीतत्वं विदुषः॥ ब्रह्मविदां देहादौतादात्म्यमतीवदुःखं तत्तादात्म्येनाहंममेतिप्रवृत्तिस्ततोऽतिदुःखं तत्रापि कर्मकरणमत्यंतदुःखमेवेति विज्ञाय गृहस्थोऽपि विद्वान् सर्वं संन्यस्यत्येव न स्वार्थं न परार्थं वा कर्म कर्तुं शक्नोति ॥ ७॥ ननु ॥ सर्वभूतात्मभूतात्मा कुर्वन्नपि न लिप्यते ॥ अनेनाऽपरोक्षज्ञानिनोपि लोकसंग्रहार्थ कर्म कर्तव्यमेवेति चेत् भवानत्र पृष्टव्यः अपरोक्षज्ञानी द्विविधः सिद्धः साधकश्चेति तयोः किं सिद्धस्योच्यते साधकस्य वा । नाद्यः ॥ मुक्तत्वात् तस्य लोकसंग्रहानुपपत्तेः सर्वमिदमहं च ब्रह्मैवेति नित्यनिरंतरब्रह्मनिष्ठया निशितीकृतपरावरैकत्वविज्ञानखड्रेन द्वैतविभ्रमबंध विच्छिद्य ब्रह्मादिस्तंबपर्यंतैः सर्व For Private and Personal Use Only Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ८३ ) जो न करे तो तिस गृहस्थी अपनेको ज्ञानी मानने वाले की जा अहंममतारूप आसक्ति है सा अज्ञानीपणे को सूचना करावै है. काहेते जो ब्रह्मवेत्ता है तिनको देहाभिमान महान् दुःखदाताहै तिसमे जो अहंता ममता मे प्रवृत्ति है सा तिससेंभीदुःख प्रदाता है तिसते फिर कर्मोंमे जा प्रवृत्ति है सो तिसते अयंत संकट रूप है एसे जानकरके गृहस्थाश्रमी अपरोक्षज्ञानी संन्यालको ही ग्रहण करता है स्वार्थ अथवा परार्थ कोकुं ग्रहण करता नही। ७॥ शिष्य उवाच-हे भगवन् ॥ " सर्वभूतात्मभूतात्मा कुर्वन्नपि न लिप्यते” इस वाक्य भगवानने कहा है अपरोक्षज्ञानी परार्थ कर्म करे है परंतु निलेंप ही रहिता है यांते परोपकार कर्म करनेमे कोई दोष नहीं है श्रीगुरुरुवाच-हे शिष्य अपरोक्षज्ञानी दो प्रकारके होते है एक सिद्ध होता है एक साधक होता है तिन दोनोमे आपकर्माधिकारी सिद्धको कहते हो अथवा साधकको कहते हो. नाद्यः सिद्धको विमुक्त होनेके कारणसें लोकोंपर अनुग्रह ही नही बनता॥ मै ब्रह्मानंद स्वरूप हूं यह जगत्भी ब्रह्मानंद स्वरूप है एसे निरंतर ब्रह्मनिष्ठारूप पाषाणपर तीक्षण करी जो जीवब्रह्मकी एकतारूपी खड्ड तिससे द्वैतका छेदन कर निरंतर ब्रह्मरूपसें स्थिति करनेहारे For Private and Personal Use Only Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (८४) प्राणिभिः सह खंमुक्तं पश्यतो ब्रह्मविद्यतेस्तदृष्टया बधलोकाभावात्तत्संग्रहाऽसंभवात् तदुक्तं मुक्तिमिच्छाम्यहं कस्माद्धोऽहं केन वा पुरा अबद्धो मुक्तिमिच्छामि केयं बालविडंबना ॥ आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योऽर्जुन । सुखं वा यदि वा दुःखं स. योगी परमो मतः । इत्यनेनखवत्सर्वेमुक्तास्संति ॥ ८॥ यथा देवदत्तः सर्वेभ्यः पूर्व स्वयं भुक्त्वा स्वमेव भुक्तवतं पश्यति नान्यान् यथा वा यज्ञदत्तः स्वयं पूर्व प्रतिबुध्य स्वमेव प्रतिबुद्धं पश्यति न तथा विद्वान् आत्मानमेव मुक्तं पश्यति किंतु स्वविज्ञानेन स्वं प्राणिजातं च मुक्तमेव पश्यति यथा बुद्धिमान् स्वस्य चेतनत्वधर्मवैशिष्ट्यविज्ञानेन ब्रह्मांडस्थं प्राणि For Private and Personal Use Only Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ८५ ) स्वसहित सर्व संसारको विमुक्तब्रह्मरूप देखने वाले ब्रह्मवेत्ता संन्यासीको स्वदृष्टिसे बंध प्राणीकोई नही देखता हूवा तिनोपर अनुग्रहदृष्टि करनेका निमित्त दी नही तो अनुग्रह कैसा करेगा तहां प्रमाण है. मै किससे मुक्तिकी यांचना करों पहिले दमकों बांधा किसने है बडा आश्चर्य है. हुं बंधनरहित हूवाभी मुक्तिकी इच्छा करता हूं यांते बालचेष्टा समान ह मारी सार्थकता वाली एसी इच्छा बनती ही नही तैसे गीता में कहा है जैसे मे अपनेको सुखदुःखसे रहित आत्मा अनुभव कीया है तैसे मेरे उपमाहष्टांत सर्व सुखदुःख रहित विमुक्तिको प्राप्त हूवे है तिनोपर मेरा उपदेशरूप अनुग्रह नही बनता एसे जाननेवालेको भगवान् परमयोगी नाम सिद्धज्ञानी एसी संज्ञाराखी है तिसको भेददृष्टि होती ही नही ॥ ८ || जैसे देवदत्त सर्वसे प्रथम भोजन करके अपनेको तृप्त मानता है दूसरे को क्षुधातुर देखता है जैसे यज्ञदत्त निद्राते ऊठकर अपने को ही जागता मानता है दूसरे सुप्तोको सोया ही मानता है तैसे सिद्धज्ञानी नही किंतु ज्ञानी जब ब्रह्माहमस्मि इस ज्ञानसे अपनेको विमुक्त अनुभव करता है तब सकूं अपने साथ विमुक्त हुए ही देखता है जैसे बुडिमान् अपनेको चेतन जानकरके ब्रह्मांडमे जीवित For Private and Personal Use Only Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (८६ ) सर्वं चेतनत्वधर्मविशिष्टं विजानाति यथा वा पाचकः स्थालीपुलाकस्यैकस्य पक्कता ज्ञानेन सर्वस्याप्यन्यस्य पक्वतां विजानाति तथा ब्रह्मविद्यतिः स्वमुक्तया स न्मुिक्तानेव विजानाति न तु स्वमात्रं यस्तु स्वमा त्रमेव विमुक्तं पश्यति नत्वन्यं न स ब्रह्मविदेवभवति नापि च मुक्तः किंतु स वाचामुक्तो नत्वविद्याबंधात् यथा विवेकी तरंगान् मुकुटादीन् जलमचं हेममयं च पश्यति रज्जुसर्प रज्जुमात्रमेव विजानाति तथा यस्तु प्रत्यक् दृष्टया स्वं च सर्वं च ब्रह्ममात्रं पश्यति सैव बलविदद्वैतदयविद्याबंधविमुक्तश्च तस्यैवाद्वैतदर्शिनो महात्मनः सिद्धस्य मुप्तोत्थितवत्स्वातिरिक्तमपश्यतः पूर्णवृत्तेब्रह्मविद्वरिष्ठस्य लोकविधिविधानविधेयादेरभावात्तदुद्देशेन कर्मणि प्रवृत्तिर्न संभवति ॥ ९॥ ननु कुर्वन्नपि न लिप्यते इति प्रवृत्तिद्योतकवाक्यस्य का गतिरिति चेत् तच्छरीरयात्रापरत्वान्न तस्य लोकसंग्रहाय प्रवृत्तिपरं वाक्यं सर्वकर्मसंन्या सात् ध्यानपरायणत्वाच For Private and Personal Use Only Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ८७ ) - देहधारी सर्वको चेतनाधर्मवाला निश्चय करता जैसे पाचकपुरुष स्थालीपुलाक के एक तंडुलके पक्कतासे सर्व पक्कताको निश्चय करे है तैसे सिद्ध . वेताभी अपनी मुक्तिते सर्वको विमुक्तदेखता है केवल अपने को ही मुक्त नही देखता किंतु सर्वको मुक्त देखता है जो अपने को मुक्त जाने है और कोमुक्त नही जानता सो ब्रह्मवेनाभी नही न मुक्त है सो कहनेमात्र मुक्त है कोई अविद्याबंध मुक्त नदी जैसे विवेकी तरंगोंको जलरूप जानता है मुकुटको कनकमात्र जानता है तैसे जो आत्मज्ञानसे अपनेको सर्व ब्रह्ममात्र जानता है सो ब्रह्मवेत्ता अतदर्शी है अविद्याधसे विमुक्तभी है अद्वैतदर्शी सिद्धकी निद्राते उठे हुवे समान स्वप्नसृष्टिसम संसारको न देखता हूवा पूर्ण ब्रह्मविद्वरिष्ठकी लोकविधिकी रीति अनुसार कर्तव्य कर्म इत्यादिकों के अभाव होने से परार्थकमोंमे प्रवृत्ति बनती ही नही ॥ ९ ॥ शिष्य उवाच - कुर्वन्नपि न लिप्यते इस प्रवृत्तियोतक वाक्यकी क्या गति क्या व्यवस्था करोंगे ॥ श्रीगुरुरुवाच - स्वशरीरयात्रा मात्र परत्वविषे यह वाक्य है परार्ध वास्ते नदी || काहेते जो सर्वकर्मका संन्यासी है तथा सर्वदा ध्यान परायण होनेते तिसको परार्थ कर्म करनेका अवकाश कहां है || For Private and Personal Use Only Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (.८८ ) ॥ विद्वान् यजते ॥ इत्यत्र विदितवेदार्थो न तु ब्रह्मविद्यतिः तस्य सर्वकर्मसंन्यासित्वाधेिरपि लोकवमिथ्यात्वकोटयंतःपातित्वाञ्च कर्मविध्यनुपपतेः॥ १०॥ न द्वितीयः साधकस्य मुमुक्षोर्यतेः कर्मविध्यदर्शनात् न हि मुमुक्षोर्यतेनिदिध्यासोर्लोकसंग्रहार्थं कर्म कर्तव्यमिति विधिरस्ति विना समाधि "तमेवधीरो विज्ञाय प्रज्ञामिति” “परं ब्रह्मानुसंदध्यादिति” “यच्छेद्वाङ्मनसी प्राज्ञ इति” "ब्राह्मणः पांडित्यं निर्विद्य बाल्येन तिष्ठासेदिति," ज्ञाननिष्ठेव कर्तव्यत्वेन श्रूयते, स्मर्यते च "मनः संयम्य मच्चित्तो, ध्यानयोगपरो नित्यं,” वाचं यच्छ मनो यच्छेति चातः साधकस्यात्मवेदिनो यतेः कर्तव्यः समाधिरेव, न श्रोतं न स्मार्तं न स्वार्थ परार्थं वा कर्म कर्तव्यमस्ति। प्रशांतसर्वसंकल्पा या शिलावदवस्थितिः। जाग्रनिद्राविनिर्मुक्ता सा स्वरूपाऽऽस्थितिः परा॥१॥ यदा पंचावतिष्टंते ज्ञानानि मनसा सह । बुद्धिश्च न विचेष्टते तामहुः परमां गतिम् ॥२॥ देहादिभ्याः परे भूग्नि स्वराज्येऽवस्थितो यदि । कं प्रणमेत्तदात्मज्ञो न कार्य कर्मणा खलु ॥३॥ अंतः प्रसन्नमतिरस्तसमस्तशोकः शोभों गतो. हममलाशय एव शांत्या ॥ आनंदमात्मनि गतःस्वयमात्मनैव निमल्यमभ्युपगतोऽस्मि नमोऽस्तुमचं ॥ श्रीरामोक्तिः For Private and Personal Use Only Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (८९) पूर्वजोकहा “ विद्वान् यजते” इत्यत्र विदित वेदार्थवाला जानना ब्रह्मवेत्ता न जानना तिसको सर्वकर्मका संन्यासी होनेते शास्त्रविधिकोभी मिथ्याकोटिमे अंतरभाव होनेते कर्मविधिका सिद्धपुरुष अधिकारी नही. ॥ १०॥ न द्वितीयः अर्थात् साधक कर्मका अधि. कारी है यह दूसरा पक्षभी नही बनता साधक मुमुक्षुपर वेदाज्ञा कहूं श्रवण करी नही " जिज्ञासुरपि योगस्य शब्दब्रह्माति वर्तते ” एसे गीतामे निषेध कीया है कहूंभी समाधि विना मुमुक्षुसंन्यासीपर परार्थकर्मविधि देखी नही उलटा धीरपुरुष तिसको जानकर तिसीरूपाकार वृत्तिकरे तथा परब्रह्मका ध्यान करे वाणीको मनमे जोरे मनको बुद्धिमे बुद्धिको शांतात्मामे स्थित करे एसे निवृत्तिपूर्वक ध्यानविधायक वाक्य श्रुतिमे कहे है । ब्राह्मणः पांडित्यं निर्विद्य बाल्येन तिष्टासेत् ॥ एसे ज्ञाननिष्ठा ही मुमुक्षुके वास्ते श्रवणमे आवती है गीतामे कहा है. मनः संयम्यमञ्चित्तो ॥ ध्यान योग परो नित्यं ॥ वाचंयच्छ मनोयच्छ ॥ एसे वाक्योसे साधक यतिको समाधि ही कर्तव्य है न वैदिक न लौकिक न स्वार्थ नपरार्थ कर्म कहे है । For Private and Personal Use Only Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ९० ) ११ ॥ शौचमाचमनं स्नानं न तु चोदनया चरेदिति ज्ञाननिष्ठस्य विध्यभाव स्मरणात् " एतमेव प्रत्राजिनो लोकमिच्छतः प्रव्रजति इति " श्रुत्या जिज्ञासया संन्यस्तसर्वकर्मणो यतेर्विविदिषोरे व " जिज्ञासायां प्रवृत्तोदिनाद्रियेत्कर्मचोदनामिति " श्रवणादिज्ञानसाधनं विना नान्यत्कर्तव्यमिति कर्मविधेरुपेक्षत्व स्मरणात्किमुत सिद्धस्य विज्ञातात्मतत्वस्य साधकस्य कर्मतंत्रानवकाशइति ॥ १२ || अतः परोक्ष ज्ञान्येव बहुधा कृतश्रवण आभासात्मज्ञानअिहं भमादि वासना बद्धो लोकसंग्रद् वचनस्य विषयः अथवा लोकानुग्रहार्थं ब्रह्मणा सृष्टा मदांतो व्यासागस्त्य पराशरवसिष्ठादयस्तत्सदृशा वाऽन्येधिकारिका निग्रहानुग्रदक्षमास्ते वा भवेयुर्लोक संग्रदवचनस्य विषयाः न तु सिद्धो नापि च साधको मुमुक्षुर्यतिस्तत एवोच्यते भगवता सर्वज्ञेन ॥ तस्यकार्यं न विद्यते ॥ गी - ३-३७ इतिश्री चतुर्विंशति कमलं समाप्तम् ॥ * इतिश्री ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्रीस्वामी विज्ञानानन्दाख्येन विरचितं विज्ञानकमलाकरं समासं. For Private and Personal Use Only Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ९१ ) ११॥ शौचाचमन स्नानादि कर्मभी आज्ञासे न करे अपनी इच्छासे करे ब्रह्मज्ञानीपर विधीका अभाव ही कहा है संन्यासी आत्मारूपी लोककी इच्छा करते हुए. गृहसें त्यागी होवे एसे श्रुतिवाक्यसे ब्रह्मज्ञानकी इच्छावाले यति विद्वानको लिखा है ॥ " जिज्ञासायां प्रवृत्तो हि नाद्रियेत्कर्मनोदनामिति" इस श्रवणसे ज्ञानके साधनसे बिना और कर्तव्य नही कर्मविधिकी उपेक्षा सुननेसें ॥ सिद्ध जो आस्माविज्ञानी तथा साधक इन पर विधी कैसेबने १२॥ यांते परोक्षज्ञानी ही बहुत श्रवणकरता होवाभी जिसको स्वल्पज्ञान भया है मै मेरा, एसी वासनामे बंध जो है सोई परार्थकर्म करनेका अधिकारी है अथवा ब्रह्माने लोकहितार्थ प्रेरणा किये जे महान् मुनिव्यास वसिष्ठागस्त्यादि वा तैसे और भी अधिकारी, वर, शाप देनेमे, समर्थ है. वही जन लोकसंग्रहवचनके आधकारी है न सिद्ध न साधक न ममक्षन यति लोकसंग्रहके विषय है इसी हेतुसे भगवान् सर्वज्ञने कहा है "तस्यकार्यन विद्यते" ॥ इति चतुर्विशति कमलं समाप्तं हरि ॐ तत्सत् ॥ ॐ इति श्री ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामि विज्ञानानंदेन कृता भाषा समाप्ता. PHOT O GYEE For Private and Personal Use Only Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ९२ ) अथ मदालसाया लोकप्रसिद्ध लावनी देवभाषायां जीवन्मुक्त मदालसामाता, सर्वसुतानां मुक्ति करी ॥ विरतिविज्ञानं प्रदाय सुतेभ्यो, वनवासाय विधानकरी १ स्थापयित्वाऽलकसुतं प्रति, राज्ये नृपतिस्स्वधामगतः ॥ तस्मै सुताय मदालसा स्तोत्रं, ज्ञाप्य मुक्तये ब्रह्म गता २ त्वमसि तात शुद्ध बुद्ध निरंजन, भवमाया वर्जित ज्ञाता ।। भव स्वप्नं च मोहनिद्रां त्यज, मदालसाह सुतं माता ३ नाम विमुक्त शुद्धोसि रे मुत, मया कल्पितं तव नाम ॥ न ते शरीरं नचास्य त्वमसि, किं रोदिषि त्वं सुखधाम ४ शब्दो वाऽयं त्वं न रोदिषि, खं तु चराचर भवस्वामी । मुक्ति भुक्ति व्यवहार सिद्धये, विविध कल्पितो दृशगामी ॥५॥ भोगवश च विपुलतादेहे, भवति सुकुशता तदभावे ॥ .. नैव विपुलता नास्ति सुकृशता, त्वयि परात्मनि सद्भावे ॥६॥ वस्त्रविनाशे यथा शरीरे कस्यापि नास्ति विनाशमतिः ॥ कर्मविरचित त्रिदेह विनाशे, नास्ति तवात्मनि का च क्षतिः॥७॥ माता पिता सखा मे संति, भिन्नश्च नास्ति मम बंधुः ॥ त्यक्त्वा छिन्नमति भावय त्व, महं सर्वदा सुख सिंधुः॥ ८॥ भवति दुःखाय वैराग्यमबुद्धेः, मुखाय संति वरवामाः ॥ सतां सर्वदा मुक्ति प्रदाता, प्राह वैराग्यं घनश्यामः ॥९॥ दशनदर्शनं हास्यं प्राहु, वसा कलुपता नयनप्रभा ॥ मांसघनं सुपयोधरमाहु, निरयसमा वनिता प्रभुता ॥ १० ॥ भुवि यानं यानेऽस्ति शरीरं, तत्र त्वं तिष्ठसि भवस्वामी ॥ मेऽस्ति शरीरं न मेऽस्ति भूमि स्त्वं कुमतिं कथमनुगामी ॥११॥ विमल विज्ञान विश्वेश्वरव्यापक सत्यब्रह्म त्वमसि ज्ञाता ॥ माह मदालसाऽलकसुतं प्रति शास्त्रमसिद्धा वरमाता ॥ इति १२ For Private and Personal Use Only Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ९३ ) अथ ग्रंथसमाप्तौ गोपीगीताऽष्टकमिदं मंगलस्थानीयं न खलु गोपिका नंदनो भवान्निखिलदेहीना मंतरात्मदृक् ॥ विखनसार्थितो विश्वगुप्तये सख उदेयिवान् सात्वतांकुले ॥ १ ॥ अर्थः- गोपीगण स्तुति कर्ते है । हे सखे जब असुरराजा वोंसे विश्वदुःखी भयी तबतिस विश्वकी रक्षावास्ते ब्रह्माकी प्रार्थनाकों अंगीकार करके यदुकुलमे आपने अवतार लिया है यांत आप स देहधारीयोंके अंतःकरणोंका साक्षी हो आप यशोधाका पुत्र नही हो १ चलसि यद्वजाच्चारयन्यशून्नलिनसुंदरं नाथते पदम् । शिलतृणांकुरैः सीदतीति नः कलिलतां मनः कांत गच्छति ॥ २ ॥ अर्थ :- हे प्रियतम गायोंके चरावने वास्तेआप जवीजवी व्रजसे चले जाते हो तवीतवी आपके चरणकमल कमलवत्कोमल तृण कंकरादिसे संकट पावते होवेंगेएसी चिंतामे मेरा चित सर्वदा चूर्णरहिता वा कालक्षेप कर्ता है ।। २ ।। अटति यद्भवानह्नि काननं त्रुटिर्युगायते त्वामपश्यताम् कुटिलकुंतलं श्रीमुखं चते जड उदीक्षतां पक्ष्मकृदृशाम् ॥ ३ ॥ अर्थ :- हे कांत आप जब दिनमें वनविषे चले जाते हो तबी आपसे बिना क्षिणमात्र भी युगसमान असा दुःखले व्यतीत करना परता है तिस आपके कुटिल काले केश वाले मुखारविंद के दर्शनमे निमन नयनपर ब्रह्माने प्रेमवृद्धिवास्ते पक्ष्मकी स्थिति करी है. For Private and Personal Use Only Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (९४) यांते ब्रह्मा क्याजड है किंतु जडनही बडा वतुर है अन्यथा जडमानो तो तद्विरचित गोपीयों तो महां जडहोनी चाहीये. ॥३॥ तव कथामृतं तप्तजीवनं कविभिरीडितं कल्मषापहं। श्रवणमंगलं श्रीमदाततं भुवि गृणंति ते भूरिदाजनाः ___अर्थः-हे प्रभो आपकी कथारूप अमृतजो है सो संसारी जीव जे तीन तापोंसे तप्ते है तिनोके तो जीवनका कारण है तथा कलिके पापनाशक है तथा श्रवणको महदानंदका कारण है परम पवित्र मदके करता है जिससे संसार भूलजाता है एसे रसिककवि जनोंने वर्णन कीया है ॥ ४ ॥ ॥विरचिताभयं वृष्णिधूर्य ते चरणमीयुषां संसृतेर्भयात् करसरोरुहं कांतकामदं शिरास देहिनः श्रीकरग्रहं ॥ ___ अर्थः--हे यदुकुलसेतो जे आपके हस्तकमल श्रीलक्ष्मीके कर कमलको ग्रहणकरणे हारे है तथा सर्वकामनावोंकों पूर्ण कर्ता है, तथा संसारसे भयातुर होय करके आपकी शरणागतोंको अभय प्रदाता है हे कृपालो सो करकमल अभयकर्ता हमारे मस्तकपर धारो. ॥ ५॥ ॥विषजलाप्यायायालराक्षसा द्वर्षमारुता द्वैद्युतानलात्। वृषमयात्मजाद्वि श्वतोभया दृषभते वयं रक्षिता मुहुः॥ ___ अर्थ:-हे दयालो हम ब्रजवासीयोंकों जो विषमिश्रित जमुनाजलके पानसे मृतकभये तिस संकटसे तथा अजगरके मुखसें तथा राक्षसोंसे वर्षासें प्रबल पवनसें विजलीपातसें अनिसें वृषभासुरसें जबीजबी संकट भया तवीतवी संपूर्ण संकटोंसे आपने हमारी रक्षा ही करी है ॥ ६ ॥ For Private and Personal Use Only Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ९५ ) ॥ भवभयापहं मुक्तिदायकं सदसदात्मकं सच्चिदद्वयम् । परमपावनं द्वैतवर्जितं तददमस्मि यत्सत्यमव्ययम् ॥ अर्थ :- हे सर्वव्यापिन् जो आप भवभय हारी मोक्ष कारी स्थूलसूक्ष्मरूप धारी सच्चिदानंद अद्वय परमपावत द्वैत वर्जित अविनाशी ब्रह्म हो तमसीति वेदप्रमाणसे सो मै है ॥ ७ ॥ असुरनाशकं सौख्यदं सुराशिखिलकारणं सर्वशासनम् कमलनेत्रकं पद्महस्तगं चरणपंकजं सर्वदा भजे ॥ अर्थ:- जो आप असुरनाशक हो तथा देवतावोंकों परमसुख प्रदाता हो सर्वका कारण तथा सर्वको स्वाधीन रखने वाला तथा करमे मर्ता कमलनयन कमलवत्कोमल चरणवाले जो आप तिसकं हूं सर्वदा तन मन वाणी से सेवन कर्ता हूं ॥ ८ ॥ ॐ ॥ इति मदालसा स्तोत्रं सटीक गोपीगीताष्टकं च समाप्तं 'श्लोकौ. माद्रीगुरू नृनाथस्य वाहना भववाहनाः पांडवही रत्नानि ब्रह्मां समलंकृतम् तद्भरि श्वेत कृष्णानां विजयाह्नौ खेदिने || पुस्तकं पद्मराशीदं श्रीकृष्णायसमर्पितम् दोहा ७० २ नातसखा माताविपन भ्रातरामकेकाल वंदनसह पदमे धरूं कमलाकर कीमाल For Private and Personal Use Only Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (९६) सूचिपत्र. मूचीपत्र. कमलांक १ २ पृष्टांक ३ ५ २२ २३ * * * * * * * * * * ६० ६१ ६२ ६३ ७० ७१ ८२ ८३ ९२ ९३ मंगल तथा ग्रंथ भूमिका सांख्यमत मंडन खंडन न्यायमत मंडन खंडन मीमांसक मत मंडन खंडन षड् पदार्थ अनादि वर्णन अष्टांग योग वर्णन श्री शंकराचार्योक्त राजयोगः वशिष्टोक्त ज्ञान सप्तभूमिका राजा सुरघ परिघोक्त राजयोगः ग्रंथानुबंध विषय संबंध वर्णन ग्रंथानुबंध प्रयोजन वर्णन ग्रंथानुबंध अधिकारी वर्णन रांतिदेव महाराज ऋषीकी गाथा ख्याति चतुष्टय वर्णन ख्याति अनिर्वचनीय वर्णन स्वप्न संबंधि बहुत प्रश्नोत्तर अनिर्वचनीय संबंधि प्रश्नोत्तर वज्रमूचि उपनिषद सटीक अष्टावक्र तापसी संवादः राजपुत्र यक्ष संवादः श्रीकृष्णसंबंधि प्रश्नोत्तर जीवन्मुक्ति विदेहमुक्ति वर्णन एकजीवसे अनेकजीव अनेकसे एक वर्णन ज्ञानीपर विधी नही ।। अंतमे मदालसा गोपीगीत गोपीगीता मदालसा लावनी संस्कृतिः १५ १६ १७ १६ ३६ ३७ ५८ ५९ १८ ६८ ६९ २० १२ १३ २१ २४ २५ २२ ३४ ३५ २३ ६० ६१ २४ ७० ७१ २५ समाप्तौ For Private and Personal Use Only Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Serving JinShasan @ 026689 gyanmandir@kobatirth.org For Private and Personal Use Only