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श्री उपदेशप्रासाद भाषान्तर : घर जाकर राजा से कहा कि-हे स्वामी । आप की आज्ञा से मैं दीक्षा लेना चाहता हूँ इस लिये आप कृपा कर मुझे चारित्र दिलाइये । क्यों कि हे पूज्य पिता! बड़े भारी पुन्य के उदय से आप जैसे जैनधर्मावलम्बी हितकारक पिता मिले हैं और साक्षात जिनेश्वर श्रीमहावीरस्वामी गुरु मिले हैं अतः ऐसे संयोग में भी मैं यदि दुष्कर्म के मर्म का नाश न कर सकूँ तो फिर मेरे समान दूसरा मूर्ख कौन होगा ? पुत्र के ऐसे युक्तियुक्त वचन सुन कर राजाने उसको आलिंगन कर कहा कि-हे वत्स! जिस समय में क्रोध में भर कर तुजको एसा कहूँ कि-अरे पापी ! मेरे पास से हठ जा, मुझ को मुख न दिखला, उस समय तू व्रत ग्रहण कर लेना । इस प्रकार के वचन सुन कर विनयवान अभयकुमारने उनको अंगीकार किया और भक्तिपूर्वक उनकी सेवा करने लगा।
एक वार शीतऋतु में श्रीमहावीरस्वामीने राजगृहनगरी के गुणशील मन्दिर में समवसरण किया। उस समय श्रेणिक राजा चेलना राणी सहित प्रभुको वन्दना करने निमित्त गये । प्रभु को वन्दना कर देशना सुन कर राणी सहित पिछले पहर में पीछे लौटते समय मार्ग में नदी किनारे एक साधु को कायोत्सर्ग करते देखा । उस शान्त दान्त मुनि को वंदना कर राजा अपने घर गया। रात्रि को शयनगृहमें श्रेणिक राजा चेलणा राणी के साथ कामक्रीडा कर. आलिंगन देकर सो रहा । निद्रा में राणी