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श्री उपदेशप्रासाद भाषान्तर :
करने के लिये उस रस की एक कुंपी भर अपने शिष्य के साथ गुरु को भेट करने को भेजा । गुरुने उसको देख कर उत्तर दिया कि हमारे लिये तृण और स्वर्ण एक समान है अतः हमें इस अनर्थकारक रस की आवश्यकता नहीं हैं। ऐसा कह कर गुरुने भस्म मंगा उस रस को उस में डाल दिया और उस कुंपी से अपना मूत्र भर वापस कर दिया जिस को शिष्योंने वापस नागार्जुन के पास ले जाकर सर्व वृत्तान्त कहा। जिसे सुन कर क्रोध से आग बबूला हो योगीने विचार किया कि-अहो ! वह साधु कैसा अविवेकी है ? ऐसा विचार कर उसने उस कुंपी को पत्थर पर फैंक दिया परन्तु ज्योंहि वह कुंपी पत्थर से टकराई की वह शिला क्षण भर में स्वर्णमय हो गई । उसको देख आश्चर्यचकित हो योगीने विचार किया कि अहो ! मया क्लेशसहस्रेण, रससिद्धि विधीयते । अमीषां तु स्वभावेन, स्ववपुस्थैव विद्यते ॥१॥
भावार्थ:--" मैंने जिस सिद्धि को हजारों क्लेश सहन कर उत्पन्न की है वह सिद्धि गुरु के शरीर में तो स्वभाव से ही विद्यमान है।" अतः नागार्जुन कल्पवृक्ष तुल्य गुरु की वन्दना और स्तुतिद्वारा चिरकाल पर्यन्त सेवा करने लगा।
इस समय चार ऋषियोंने लाख लाख श्लोकों के ग्रन्थ बना कर राजा शालिवाहन की सभा में आकर कहा कि