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व्याख्यान ३९ :
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रूवविणिज्जिय सुरवर तरुणिं, रइरससायरतारणतरणिं । तणु पहदासीकयनवतरणिं, तं तं सामिय हरइ स रमणिं ॥ २ ॥
भावार्थ:- भ्रमर के सदृश श्याम केशपासवाली, अष्टमी के चन्द्र सदृश शोभित कपालवाली, कामदेव के आंदोलन (झूले) सदृश कर्णवाली, स्वस्वरूप से देवांगनाओं को लज्जित करनेवाली, क्रीड़ारस के सागर को पार करने में प्रवहण सदृश, स्वशरीर की कान्ति से नये उगनेवाले सूर्य को भी मलिन करनेवाली, आदि जिन जिन स्त्रियों को वह देखता
था उन उनका वह अवश्य अपहरण करता था ।
उसके दुःख से व्याकुल होकर पुरवासियोंने जब राजा के पास जाकर पुकार की तो राजा स्वयं उस चोर की खोज करने को निकला | पांचवें दिन राजाने किसी पुरुष को ग्राम से सुगन्धित वस्तुए तैल, ताम्बूल आदि खरीद करते हुए 'देखा । उसीको चोर जान कर राजा उसके पीछे पीछे ही चला । अरण्य में पहुंचने पर वह पुरुष एक बड़ी शिला से ढके हुए अपने गुप्त गृह में जाने के लिये शिला को हटाने लगा कि - राजाने अपने खड्ग से उसका सिर धड़ से अलग कर दिया और पुरवासियों को बुला कर उस गुप्त गृह में से