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भूमिखण्ड ]
. वेनकी तपस्या और भगवान् श्रीविष्णुके द्वारा उसे दान-तीर्थ आदिका उपदेश.
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यह उत्तम वर दीजिये। मैं पिता और माताके साथ इसी भक्तिके साथ स्नान करता तथा पितरों और देवताओंका शरीरसे आपके परमपदको प्राप्त करना चाहता हूँ । देव ! पूजन करके दान देता है, जो अपनी शक्ति और प्रभावके आपके ही तेजसे आपके परमधाममें जाना चाहता हूँ। अनुसार दयाई-चित्तसे अत्र-जल, फल-फूल, वस्त्र,
भगवान् श्रीविष्णुबोले-महाभाग ! पूर्वकालमें पान, आभूषण, सुवर्ण आदि वस्तुएँ दान करता है, तुम्हारे महात्मा पिता अङ्गने भी मेरी आराधना की थी। उसका पुण्य अनन्त होता है। राजन् ! मध्याह्न और उसी समय मैंने उन्हें वरदान दिया था कि तुम अपने तीसरे पहरमें भी जो मेरे उद्देश्यसे खान-पान आदि वस्तुएँ पुण्यकर्मसे मेरे परम उत्तम धामको प्राप्त होगे। वेन ! मैं दान करता है, उसके पुण्यका भी अन्त नहीं है। अतः तुम्हें पहलेका वृत्तान्त बतला रहा हूँ। तुम्हारी माता जो अपना कल्याण चाहता है, उस पुरुषको तीनों समय सुनीथाको बाल्यकालमें सुशङ्खने कुपित होकर शाप निश्चय ही दान करना चाहिये। अपना कोई भी दिन दिया था। तदनन्तर तुम्हारा उद्धार करनेकी इच्छासे मैंने दानसे खाली नहीं जाने देना चाहिये। राजन् ! दानके ही राजा अङ्गको वरदान दिया कि 'तुम्हें सुयोग्य पुत्रकी प्रभावसे मनुष्य बहुत बड़ा बुद्धिमान, अधिक प्राप्ति होगी।' गुणवत्सल ! तुम्हारे पितासे तो मैं ऐसा कह सामर्थ्यशाली, धनाढ्य और गुणवान् होता है। यदि एक ही चुका था, इस समय तुम्हारे शरीरसे भी मै हो [पृथुके पक्ष या एक मासतक मनुष्य अत्रका दान नहीं करता तो रूपमें) प्रकट होकर लोकका पालन कर रहा हूँ। पुत्र मैं उसे भी उतने ही समयतक भूखा रखता हूँ। उत्तम दान अपना ही रूप होता है-यह श्रुति सत्य है। अतः न देनेवाला मनुष्य अपने मलका भक्षण करता है। मैं राजन् ! मेरे वरदानसे तुम्हें उत्तम गति मिलेगी। अब तुम उसके शरीरमें ऐसा रोग उत्पन्न कर देता है, जिससे उसके एकमात्र दान-धर्मका अनुष्ठान करो। दान ही सबसे श्रेष्ठ सब भोगोंका निवारण हो जाता है। जो तीनों कालोंमें धर्म है; इसलिये तुम दान दिया करो। दानसे पुण्य होता ब्राह्मणों और देवताओंको दान नहीं देता तथा स्वयं ही है, दानसे पाप नष्ट हो जाता है, उत्तम दानसे कीर्ति होती मिष्टान्न खाता है, उसने महान् पाप किया है। महाराज ! है और सुख मिलता है। जो श्रद्धायुक्त चित्तसे सुपात्र शरीरको सुखा देनेवाले उपवास आदि भयंकर प्रायश्चित्तोंके ब्राह्मणको गौ, भूमि, सोने और अन्न आदिका महादान द्वारा उसको अपने देहका शोषण करना चाहिये। देता है, वह अपने मनसे जिस-जिस वस्तुकी इच्छा नरश्रेष्ठ ! अब मैं तुम्हारे सामने नैमित्तिक करता है, वह सब मैं उसे देता हूँ।
पुण्यकालका वर्णन करता हूँ, मन लगाकर सुनो। वेनने कहा-जगन्नाथ ! मुझे दानोपयोगी महाराज ! अमावास्या, पूर्णिमा, एकादशी, संक्रान्ति, कालका लक्षण बतलाइये, साथ ही तीर्थका स्वरूप और व्यतीपात और वैधृति नामक योग तथा माघ, आषाढ़, पात्रके उत्तम लक्षणका भी वर्णन कीजिये। दानकी वैशाख और कार्तिककी पूर्णिमा, सोमवती अमावास्या, विधिको विस्तारके साथ बतलानेकी कृपा कीजिये। मेरे मन्वादि एवं युगादि तिथियाँ, गजच्छाया (आश्विन कृष्णा मनमें यह सब सुननेकी बड़ी श्रद्धा है।
त्रयोदशी) तथा पिताकी क्षयाह तिथि दानके नैमित्तिक भगवान् श्रीविष्णु बोले-राजन् ! मैं दानका काल बताये गये हैं। नृपश्रेष्ठ ! जो मेरे उद्देश्यसे समय बताता है। महाराज ! नित्य, नैमित्तिक और भक्तिपूर्वक ब्राह्मणको दान देता है, उसे मैं निश्चयपूर्वक काम्य-ये दानकालके तीन भेद हैं। चौथा भेद प्रायिक महान् सुख और स्वर्ग, मोक्ष आदि बहुत कुछ प्रदान (मृत्यु) सम्बन्धी कहलाता है। भूपाल ! मेरे अंशभूत करता हूँ। सूर्यको उदय होते देख जो जलमात्र भी अर्पण करता है, अब दानका फल देनेवाले काम्य-कालका वर्णन उसके पुण्यवर्द्धक नित्यकर्मकी कहाँतक प्रशंसा की करता हूँ। समस्त व्रतों और देवता आदिके निमित्त जब जाय। उस उत्तम बेलाके प्राप्त होनेपर जो श्रद्धा और सकामभावसे दान दिया जाता है, उसे श्रेष्ठ ब्राह्मणोंने