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उत्तरखण्ड ]
. श्रीरामावतारकी कथा-जन्मका प्रसङ्ग .
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श्रीरामावतारकी कथा-जन्यका प्रसङ्ग श्रीमहादेवजी कहते हैं-पार्वती ! पूर्वकालकी महामुनि विश्रवाके साथ रमण किया; अतः समयके बात है, स्वायम्भुव मनु शुभ एवं निर्मल तीर्थ नैमिषारण्यमें दोषसे उसके गर्भसे दो तमोगुणी पुत्र उत्पन्न हुए, जो बहुत गोमती नदीके तटपर द्वादशाक्षर महामन्त्रका जप करते ही बलवान् थे। संसारमें वे रावण और कुम्भकर्णके थे। उन्होंने एक हजार वर्षातक लक्ष्मीपति भगवान् नामसे विख्यात हुए। केकशीके गर्भसे एक शूर्पणखा श्रीहरिका पूजन किया। तब भगवान्ने प्रकट होकर नामकी कन्या भी हुई, जिसका मुख बड़ा ही विकराल कहा-'राजन् ! मुझसे वर मांगो।' तव स्वायम्भुव मनुने था। कुछ कालके पश्चात् उससे विभीषणका जन्म हुआ, बड़ी प्रसन्नताके साथ कहा-'अच्युत ! देवेश्वर ! आप जो सुशील, भगवद्भक्त, सत्यवादी, धर्मात्मा और परम तीन जन्मोंतक मेरे पुत्र हों। मैं पुत्रभावसे आप पवित्र थे। पुरुषोत्तमका भजन करना चाहता हूँ।' उनके ऐसा रावण और कुम्भकर्ण हिमालय पर्वतपर अत्यन्त कहनेपर भगवान् लक्ष्मीपति बोले-'नृपश्रेष्ठ ! तुम्हारे कठोर तपस्याके द्वारा मेरी आराधना करने लगे। रावण मनमें जो अभिलाषा है, वह अवश्य पूर्ण होगी। तुम्हारा बड़ा दुष्टात्मा था। उसने बड़ा कठोर कर्म करके अपने पुत्र होने में मुझे भी बड़ी प्रसन्नता है । जगत्के पालन तथा मस्तकरूपी कमलोंसे मेरी पूजा की। तब मैंने प्रसत्रचित्त धर्मकी रक्षाका प्रयोजन उपस्थित होनेपर भित्र-भिन्न होकर उससे कहा-'बेटा ! तुम्हारे मनमें जो कुछ हो, समयमें तुम्हारे जन्म लेनेके पश्चात् मैं भी तुम्हारे यहाँ उसके अनुसार वर माँगो। तब वह दुष्टात्मा बोलाअवतार लूँगा। अनघ ! साधु पुरुषोंकी रक्षा, पापियोंका 'देव ! मैं सम्पूर्ण लोकोंपर विजय पाना चाहता हूँ। अतः विनाश और धर्मकी स्थापना करनेके लिये मैं प्रत्येक आप मुझे देवता, दानव और राक्षसोके द्वारा भी अवध्य युगमें अवतार लेता हूँ।'* ..
कर दीजिये।' पार्वती ! मैंने उसके कथनानुसार वरदान इस प्रकार स्वायम्भुव मनुको वरदान दे श्रीहरि वहीं दे दिया । वरदान पाकर उस महापराक्रमी राक्षसको बड़ा अत्तर्धान हो गये। उन स्वायम्भुव मनुका पहला जन्म गर्व हो गया। वह देवता, दानव और मनुष्य तीनों रघुकुलमें हुआ। वहाँ वे राजा दशरथके नामसे प्रसिद्ध लोकोंके प्राणियोंको पीड़ा देने लगा। उसके सताये हुए हुए। दूसरी बार वे वृष्णिवंशमें वसुदेवरूपसे प्रकट हुए। ब्रह्मा आदि देवता भयसे आतुर हो भगवान् फिर जब कलियुगके एक हजार दिव्य वर्ष व्यतीत हो लक्ष्मीपतिकी शरणमें गये। सनातन प्रभुने देवताओंके जायेंगे तो सम्भल नामक गाँवमें वे हरिगुप्त ब्राह्मणके कष्ट और उसके दूर होनेके उपायको भलीभाँति जानकर रूपमें उत्पत्र होंगे। उनकी पत्नी भी प्रत्येक जन्ममें उनके ब्रह्मा आदि सम्पूर्ण देवताओंसे कहा-'देवगण ! मैं साथ रहीं। अब मैं पहले श्रीरामचन्द्रजीके चरित्रका वर्णन रघुकुलमें राजा दशरथके यहाँ अवतार धारण करूँगा करता हूँ, जिसके स्मरणमात्रसे पापियोंकी भी मुक्ति हो और दुरात्मा रावणको बन्धु-बान्धवोंसहित मार डालूंगा। जाती है। हिरण्यकशिपु और हिरण्याक्ष नामक दैत्य दूसरा मानवशरीर धारण करके मैं देवताओंके इस कण्टकको जन्म धारण करनेपर महाबली कुम्भकर्ण और रावण हुए। उखाड़ फेंकूँगा। ब्रह्माजीके शापसे तुमलोग भी गन्धवों मुनिवर पुलस्त्यके विश्रवा नामक एक धार्मिक पुत्र हुए. और अप्सराओसहित वानर-योनिमें उत्पन्न हो मेरी जिनकी पत्नी राक्षसराज सुमालीकी कन्या थी। उसकी सहायता करो।' माताका नाम सुकेशी था। उसका नाम केकशी था। देवाधिदेव श्रीविष्णुके ऐसा कहनेपर सम्पूर्ण देवता केकशी दृढ़तापूर्वक व्रतका पालन करनेवाली थी; किन्तु इस पृथ्वीपर वानररूपमें प्रकट हुए। उधर सूर्यवंशमें एक दिन कामवेगकी अधिकतासे सन्ध्याके समय उसने वैवस्वत मनुके पुत्र राजा इक्ष्वाकु हुए. जो समस्त
* परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् ।धर्मसंस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे॥
(२६९।७)