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उत्तरखण्ड ]
• श्रीरामका जातकर्म, नामकरण, भरत आदिका जन्म तथा राम आदिका विवाह •
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समुद्रके तटपर इस प्रकार फेंक दिया, जैसे हवा सूखे सत्कार किया और मधुपर्क आदिकी विधिसे सम्पूर्ण पत्तेको उड़ा ले जाती है। श्रीरामचन्द्रजीके इस महान् महर्षियोंका भी पूजन किया। तत्पश्चात् यज्ञ समाप्त पराक्रमको देखकर राक्षसश्रेष्ठ मारीचने हथियार फेंक होनेपर कमलनयन श्रीरामने शङ्करजीके दिव्य धनुषको दिया और एक महान् आश्रममें वह तपस्या करनेके लिये भङ्ग करके जनककिशोरी सीताको जीत लिया। उस चला गया। महान् यज्ञके समाप्त होनेके बाद महातेजस्वी पराक्रमरूपी महान् शुल्कसे अत्यन्त सन्तुष्ट होकर विश्वामित्रने प्रसन्नचित्तसे श्रीरघुनाथजीका पूजन किया। वे मिथिलानरेशने सीताको श्रीरामचन्द्रजीकी सेवामें देनेका मस्तकपर काकपक्ष धारण किये हुए थे। उनके शरीरका निश्चय कर लिया। वर्ण नील कमलदलके समान श्याम था तथा नेत्र तत्पश्चात् राजा जनकने महाराज दशरथके पास दूत कमलदलके समान विशाल थे। मुनिश्रेष्ठ कौशिकने उन्हें भेजा। धर्मात्मा राजा दशरथ अपने दोनों पुत्र भरत और छातीसे लगाकर उनका मस्तक सूंघा और स्तवन किया। शत्रुघ्रको साथ लेकर वसिष्ठ, वामदेव आदि महर्षियों
इसी बीचमें मिथिलाके सम्राट् राजा जनकने श्रेष्ठ और सेनाके साथ मिथिलामें आये और जनकके सुन्दर ब्राह्मणों के द्वारा वाजपेय यज्ञ आरम्भ किया। विश्वामित्र भवनमें उन्होंने जनवासा किया। फिर शुभ समयमें आदि सब महर्षि उस यज्ञको देखनेके लिये गये। उनके मिथिलानरेशने श्रीरामका सीताके साथ और लक्ष्मणका साथ रघुकुलश्रेष्ठ श्रीराम और लक्ष्मण भी थे। मार्गमें उर्मिलाके साथ विवाह कर दिया। उनके भाई महात्मा श्रीरामचन्द्रजीके चरणकमलोंका स्पर्श हो जानेसे कुशध्वजके दो सुन्दरी कन्याएँ थीं, जो माण्डवी और बहुत बड़ी शिलाके रूपमें पड़ी हुई गौतमपत्नी अहल्या श्रुतकीर्तिके नामसे प्रसिद्ध थीं। वे दोनों सभी शुभ शुद्ध हो गयी। पूर्वकालमें वह अपने स्वामी गौतमके लक्षणोंसे सम्पन्न थी। उनमेंसे माण्डवीके साथ भरतका शापसे पत्थर हो गयो थी; किन्तु श्रीरघुनाथजीके और श्रुतकीर्तिके साथ शत्रुघ्नका विवाह किया। इस चरणोंका स्पर्श होनेसे शुद्ध हो वह शुभ गतिको प्राप्त प्रकार वैवाहिक उत्सव समाप्त होनेपर महाबली राजा हुई। तदनन्तर दोनों रघुकुमारोंके साथ मिथिला नगरीमें दशरथ मिथिलानरेशसे पूजित हो दहेजका सामान ले पहुंचकर सभी मुनिवरोंका मन प्रसन्न हो गया। महाबली पुत्रों, पुत्रवधुओं, सेवकों, अश्व-गज आदि सैनिकों तथा राजा जनकने महान् सौभाग्यशाली महर्षियोंको आया नगर और प्रान्तके लोगोंके साथ अयोध्याको प्रस्थित देख आगे बढ़कर उन्हें प्रणाम और पूजन किया। कमलके हुए। मार्गमे महापराक्रमी तथा परम प्रतापी परशुरामजी समान विशाल नेत्रोंवाले, नील कमलदलके समान मिले, जो हाथमें फरसा लेकर क्रोधमें भरे हुए सिंहकी श्यामवर्ण, पीताम्बरधारी, कोमलाङ्ग, कोटि कन्दपोंक भांति खड़े थे। वे क्षत्रियोंके लिये कालरूप थे और सौन्दर्यको मात करनेवाले, समस्त शुभ लक्षणोंसे सम्पन्न श्रीरामचन्द्रजीके पास युद्धकी इच्छासे आ रहे थे। तथा सब प्रकारके आभूषणोंसे विभूषित रघुवंशनाथ रघुनाथजीको सामने पाकर परशुरामजीने इस प्रकार श्रीरामचन्द्रजीको देखकर मिथिलानरेश जनकके मनमें कहा–'महाबाहु श्रीराम ! मेरी बात सुनो। मैं युद्धमें बड़ा हर्ष हुआ। उन्होंने दशरथनन्दन श्रीरामको परमेश्वरका बहुत-से महापराक्रमी राजाओंका वध करके ब्राह्मणोंको ही स्वरूप समझा और अपनेको धन्य मानते हुए उनका भूमिदान दे तपस्या करनेके लिये चला गया था; किन्तु पूजन किया। राजाके मनमें श्रीरामचन्द्रजीको अपनी कन्या तुम्हारे वीर्य और बलकी ख्याति सुनकर यहाँ तुमसे युद्ध देनेका विचार उत्पन्न हुआ। ये दोनों कुमार रघुकुलमें करनेके लिये आया है। यद्यपि इक्ष्वाकुर्वशके वे क्षत्रिय उत्पत्र हुए हैं। इस प्रकार दोनों भाइयोंका परिचय पाकर जो मेरे नानाके कुलमें उत्पन्न हुए हैं, मेरे वध्य नहीं हैं; राजाने उत्तम वस्त्र और आभूषणोंके द्वारा धर्मपूर्वक उनका तथापि किसी भी क्षत्रियका बल और पराक्रम सुनकर