________________ पातालखण्ड ] * यज्ञ-सम्बन्धी अश्वका छोड़ा जाना, श्रीरामका उसकी रक्षाके लिये उपदेश करना * 429 वसिष्ठने उस यज्ञसम्बन्धी श्रेष्ठ अश्वका विधिवत् पूजन सम्बन्धी अश्व, जो समस्त अश्वोंमें श्रेष्ठ तथा सभी वाहनोंमें प्रधान है, पृथ्वीपर भ्रमण करनेके लिये छोड़ा है। श्रीरामके ही भाई शत्रुघ्न, जिन्होंने लवणासुरका विनाश किया है, इस अश्वके रक्षक हैं। उनके साथ हाथी, घोड़े और पैदलोंकी विशाल सेना भी है। जिन राजाओंको अपने बलके घमंडमें आकर ऐसा अभिमान होता हो कि हमलोग ही सबसे बढ़कर शूर, धनुर्धर तथा प्रचण्ड बलवान् हैं, वे ही रत्नकी मालाओंसे विभूषित इस यज्ञसम्बन्धी अश्वको पकड़नेका साहस करें। वीर शत्रुघ्न उनके हाथसे इस अश्वको हठात् छुड़ा लेंगे।' इस प्रकार श्रीरामचन्द्रजीकी भुजाओंके पराक्रमसे शोभा पानेवाले उनके प्रखर प्रतापका परिचय देते हुए महामुनि वसिष्ठजीने और भी अनेकों बातें लिखीं। इसके बाद अश्वको, जो शोभाका भंडार तथा वायुके समान बल और वेगसे युक्त था, छोड़ दिया। उसकी भू-लोक तथा पातालमें समानरूपसे तीव्र गति थी। तदनन्तर शस्त्रधारियोंमें श्रेष्ठ श्रीरामचन्द्रजीने शत्रुघ्नको आज्ञा आरम्भ किया। फिर सुन्दर वस्त्र और आभूषणोंसे दी-'सुमित्रानन्दन ! यह अश्व अपनी इच्छाके अनुसार सुशोभित सुवासिनी स्त्रियोंने वहाँ आकर हल्दी, अक्षत विचरनेवाला है, तुम इसकी रक्षाके लिये पीछे-पीछे और चन्दन आदिके द्वारा उस पूजित अश्वका पुनः पूजन जाओ। जो योद्धा संग्राममें तुम्हारा सामना करनेके लिये किया तथा अगुरुका धूप देकर उसकी आरती उतारी। आवे, उन्हींको तुम अपने पराक्रमसे रोकना। इस इस तरह पूजा करनेके पश्चात् महर्षि वसिष्ठने अश्वके विशाल भू-मण्डलमें विचरते हुए अश्वकी तुम अपने उज्ज्वल ललाटपर, जो चन्दनसे चर्चित, कुङ्कम आदि वीरोचित गुणोंसे रक्षा करना / जो सोये हों, गिर गये हों, गन्धोंसे युक्त तथा सब प्रकारकी शोभाओंसे सम्पन्न था, जिनके वस्त्र खुल गये हों और जो अत्यन्त भयभीत एक चमचमाता हुआ पत्र बाँध दिया जो तपाये हुए होकर चरणोंमें पड़े हों, उनको न मारना / साथ ही जो सुवर्णका बना था। उस पत्रपर महर्षिने दशरथ-नन्दन अपने पराक्रमकी झूठी प्रशंसा नहीं करते, उन श्रीरघुनाथजीके बढ़े हुए बल और प्रतापका इस प्रकार पुण्यात्माओंपर भी हाथ न उठाना / शत्रुघ्न ! यदि तुम उल्लेख किया-'सूर्य-वंशकी पताका फहरानेवाले रथपर रहो और तुम्हारे विपक्षी रथहीन हो जाये तो उन्हें महाराज दशरथ बहुत बड़े धनुर्धर हो गये हैं। वे न मारना / यदि पुण्य चाहो तो जो शरणागत होकर कहें धनुषकी दीक्षा देनेवाले गुरुओंके भी गुरु थे, उन्हींक पुत्र कि 'हम आपहीके है, उनका भी तुम्हें वध नहीं करना महाभाग श्रीरामचन्द्रजी इस समय रघुवंशके स्वामी हैं। चाहिये। जो योद्धा उन्मत्त, मतवाले, सोये हुए, भागे वे सब सूरमाओंके शिरोमणि तथा बड़े-बड़े वीरोंके हुए, भयसे आतुर हुए तथा 'मैं आपका ही हैं ऐसा बल-सम्बन्धी अभिमानको चूर्ण करनेवाले हैं। महाराज कहनेवाले मनुष्यको मारता है, वह नीच-गतिको प्राप्त श्रीरामचन्द्र ब्राह्मणोंकी बतायी हुई विधिके अनुसार होता है। कभी पराये धन और परायी स्त्रीकी ओर चित्त अश्वमेध यज्ञ प्रारम्भ कर रहे हैं। उन्होंने ही यह यज्ञ- न ले जाना / नीचोंका सङ्ग न करना, सभी अच्छे गुणोंको