Book Title: Sankshipta Padma Puran
Author(s): Unknown
Publisher: Unknown

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Page 952
________________ ९५२ . अर्थयस्व हवीकेशं यदीच्छसि परं पदम् . . [ संक्षिप्त पद्यपुराण संस्कार किया। तदनन्तर सबने वेद-शास्त्रोंका अध्ययन मेरे यज्ञमें पूर्ण सफलता मिलेगी।' मुनिवर विश्वामित्रकी किया। सम्पूर्ण शास्त्रोंके तत्वज्ञ होकर वे धनुर्वेदके भी यह बात सुनकर सर्वज्ञोंमें श्रेष्ठ राजा दशरथने प्रतिष्ठित विद्वान् हुए। श्रीराम आदि चारों भाई बड़े ही लक्ष्मणसहित श्रीरामको मुनिको सेवामें समर्पित कर उदार और लोगोका हर्ष बढ़ानेवाले थे। उनमें श्रीराम दिया। महातपस्वी विश्वामित्र उन दोनों रघुवंशी कुमारोंको और लक्ष्मणको जोड़ी एक साथ रहती थी और भरत साथ ले बड़ी प्रसन्नताके साथ अपने आश्रमपर गये। तथा शत्रुनकी जोड़ी एक साथ। श्रीरामचन्द्रजीके जानेसे देवताओंको बड़ा हर्ष हुआ। भगवान्के अवतार लेनेके पश्चात् जगदीश्वरी उन्होंने भगवानके ऊपर फूल बरसाये और उनकी स्तुति भगवती लक्ष्मी राजा जनकके भवनमें अवतीर्ण हुई। की। उसी समय महाबली गरुड़ सब प्राणियोंसे अदृश्य जिस समय राजा जनक किसी शुभक्षेत्रमें यज्ञके लिये होकर वहाँ आये और उन दोनों भाइयोंको दो दिव्य धनुष हलसे भूमि जोत रहे थे, उसी समय सीता (हलके तथा अक्षय बाणोंवाले दो तूणीर आदि दिव्य अस्त्र-शस्त्र अग्रभाग) से एक सुन्दरी कन्या प्रकट हुई, जो साक्षात् देकर चले गये। श्रीराम और लक्ष्मण दोनों भाई लक्ष्मी ही थी। उस वेदमयी कन्याको देख मिथिलापति महापराक्रमी वीर थे। तपोवनमें पहुँचनेपर महात्मा राजा जनकने गोदमें उठा लिया और अपनी पुत्री मानकर कौशिकने विशाल वनके भीतर उन्हें एक भयङ्कर उसका पालन-पोषण किया। इस प्रकार जगदीश्वरको राक्षसीको दिखलाया, जिसका नाम ताड़का था। वह वल्लभा देवेश्वरी लक्ष्मी सम्पूर्ण लोकोंकी रक्षाके लिये सुन्द नामक राक्षसकी स्त्री थी। मुनिकी प्रेरणासे उन राजा जनकके मनोहर भवनमें पल रही थीं। दोनोंने दिव्य धनुषसे छूटे हुए बाणोंद्वारा ताड़काको मार इसी समय विश्वविख्यात महामुनि विश्वामित्रने डाला। श्रीरामचन्द्रजीके द्वारा मारी जानेपर वह भयङ्कर गङ्गाजीके सुन्दर तटपर परम पुण्यमय सिद्धाश्रममें एक राक्षसी अपने भयानक रूपको छोड़कर दिव्यरूपमें प्रकट उत्तम यज्ञ आरम्भ किया। जब यज्ञ होने लगा तो हुई। उसका शरीर तेजसे उद्दीप्त हो रहा था तथा वह सब रावणके अधीन रहनेवाले कितने ही निशाचर उसमें विघ्न आभरणोंसे विभूषित दिखायी देती थी। राक्षस-योनिसे डालने लगे। इससे विश्वामित्र मुनिको बड़ी चिन्ता हुई। छूटकर श्रीरामचन्द्रजीको प्रणाम करनेके पश्चात् वह तब उन धर्मात्मा मुनिने लोकहितके लिये रघुकुलमें श्रीविष्णुलोकको चली गयी। प्रकट हुए श्रीहरिको वहाँ ले आनेका विचार किया। फिर ताड़काको मारकर महातेजस्वी श्रीरामचन्द्रजीने तो वे रघुवंशी क्षत्रियोंद्वारा सुरक्षित रमणीय नगरी महात्मा लक्ष्मणके साथ विश्वामित्रके शुभ आश्रममें अयोध्यामें गये और वहाँ राजा दशरथसे मिले। कौशिक प्रवेश किया। उस समय समस्त मुनि बड़े प्रसन्न हुए। मुनिको उपस्थित देख राजा दशरथ हाथ जोड़कर खड़े हो वे आगे बढ़कर श्रीरामचन्द्रजीको ले गये और उत्तम गये तथा उन्होंने अपने पुत्रोंके साथ मुनिवर विश्वामित्रके आसनपर बिठाकर सबने अर्घ्य आदिके द्वारा उनका चरणोंमें मस्तक झुकाया और बड़े हर्षके साथ कहा- पूजन किया। द्विजश्रेष्ठ विश्वामित्रने विधिपूर्वक यज्ञकी 'मुने ! आज आपका दर्शन पाकर मैं धन्य हो गया। दीक्षा ले मुनियोंके साथ उत्तम यज्ञ आरम्भ किया। उस तत्पश्चात् उन्हें उत्तम आसनपर बिठाकर राजाने महायज्ञका प्रारम्भ होते ही मारीच नामक राक्षस अपने विधिपूर्वक सत्कार किया और पुनः प्रणाम करके भाई सुबाहुके साथ उसमें विघ्र डालनेके लिये उपस्थित पूछा-'महर्षे ! मेरे लिये क्या आज्ञा है?' हुआ। उन भयङ्कर राक्षसोंको देखकर विपक्षी वीरोंका तब महातपस्वी विश्वामित्र अत्यन्त प्रसन्न होकर संहार करनेवाले श्रीरामचन्द्रजीने राक्षसराज सुबाहुको बोले-'राजन् ! आप मेरे यज्ञकी रक्षाके लिये एक ही बाणसे मौतके घाट उतार दिया और महान् श्रीरामचन्द्रजीको मुझे दे दीजिये। इनके समीप रहनेसे पवनास्त्रका प्रयोग करके मारीच नामक निशाचरको

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