Book Title: Sankshipta Padma Puran
Author(s): Unknown
Publisher: Unknown

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Page 935
________________ उत्तरखण्ड ] ************** • मत्स्य और कूर्म अवतारोंकी कथा ........................................................................................................................................................................** मत्स्य और कूर्म अवतारोंकी कथा - समुद्र मन्थनसे लक्ष्मीजीका प्रादुर्भाव और एकादशी - द्वादशीका माहात्म्य पार्वतीजीने कहा- महेश्वर ! अब मुझसे भगवान् के वैभव - मत्स्य, कूर्म आदि अवतारोंका विस्तारपूर्वक वर्णन कीजिये । - श्रीमहादेवजी बोले-देवि ! एकाग्रचित्त होकर सुनो। मैं श्रीहरिके वैभव – मत्स्य, कूर्म आदि अवतारोंका वर्णन करता हूँ। जैसे एक दीपकसे दूसरे अनेक दीपक जला लिये जाते हैं, उसी प्रकार एक परमेश्वरके अनेक अवतार होते हैं। उन अवतारोंके परावस्थ, व्यूह और विभव आदि अनेक भेद हैं। भगवान् विष्णुके अनेक शुभ अवतार बताये गये हैं; ब्रह्माजीने भृगु, मरीचि, अत्रि, दक्ष, कर्दम, पुलस्त्य, पुलह, अङ्गिरा तथा क्रतु — इन नौ प्रजापतियोंको उत्पन्न किया। इनमें मरीचिने कश्यपको जन्म दिया। कश्यपके चार स्त्रियाँ थीं— अदिति, दिति, कद्रू और विनता। अदितिसे देवताओंका जन्म हुआ। दितिने तमोगुणी पुत्रोंको उत्पन्न किया, जो महान् असुर हुए। उनके नाम इस प्रकार हैं-मकर, हयग्रीव, महाबली हिरण्याक्ष, हिरण्यकशिपु जम्भ और मय आदि। मकर बड़ा बलवान् था । उसने ब्रह्मलोकमें जाकर ब्रह्माजीको मोहित करके उनसे सम्पूर्ण वेद ले लिये। इस प्रकार श्रुतियोंका अपहरण करके वह महासागरमें घुस गया। फिर तो सारा संसार धर्मसे शून्य हो गया। वर्णसंकर सन्तान उत्पन्न होने लगी। स्वाध्याय वषट्कार और वर्णाश्रम धर्मका लोप हो गया। तब ब्रह्माजीने सम्पूर्ण देवताओंके साथ क्षीरसागरपर भगवान्‌की शरणमें जाकर मकर दैत्यके द्वारा अपहरण किये हुए वेदोंका उद्धार करनेके लिये उनका स्तवन किया। ९३५ श्रीमहादेवजी कहते हैं- पार्वती! ब्रह्माजीके इस प्रकार प्रार्थना करनेपर सम्पूर्ण इन्द्रियोंके स्वामी परमेश्वर श्रीविष्णु मत्स्यरूप धारण करके महासागरमें प्रविष्ट हुए। उन्होंने उस अत्यन्त भयंकर मकर नामक दैत्यको थूथुनके अग्रभागसे विदीर्ण करके मार डाला और अङ्ग- उपाङ्गसहित सम्पूर्ण वेदोंको लाकर ब्रह्माजीको समर्पित कर दिया। इस प्रकार उन्होंने मत्स्यावतारके द्वारा सम्पूर्ण देवताओंकी रक्षा की। वेदोंको लाकर श्रीहरिने तीनों लोकोंका भय दूर किया, धर्मकी प्राप्ति करायी और देवताओं तथा सिद्धों के मुखसे अपनी स्तुति सुनते हुए वे वहाँसे अन्तर्धान हो गये। प्रिये ! अब मैं श्रीविष्णुके कूर्मावतार सम्बन्धी विश्ववन्दित वैभवका वर्णन करूंगा। महर्षि अत्रिके पुत्र दुर्वासा बड़े ही तेजस्वी मुनि हुए। वे महान् तपस्वी, अत्यन्त क्रोधी तथा सम्पूर्ण लोकोंको क्षोभमें डालनेवाले हैं। एक समयकी बात है—वे देवराज इन्द्रसे मिलनेके लिये स्वर्गलोकमें गये। उस समय इन्द्र ऐरावत हाथीपर आरूढ़ हो सम्पूर्ण देवताओंसे पूजित होकर कहीं जानेके लिये उद्यत थे। उन्हें देखकर महातपस्वी दुर्वासाका मन प्रसन्न हो गया। उन्होंने विनीत भावसे देवराजको एक पारिजातकी माला भेंट की। देवराजने उसे लेकर हाथीके मस्तकपर डाल दिया और स्वयं नन्दनवनकी ओर चल दिये हाथी मदसे उन्मत्त हो रहा था। उसने सूँड़से उस मालाको उतार लिया और मसलते हुए तोड़कर जमीनपर फेंक दिया। इससे दुर्वासाजीको क्रोध आ गया और उन्होंने शाप देते हुए कहा- 'देवराज! तुम त्रिभुवनकी राजलक्ष्मीसे सम्पन्न होनेके कारण मेरा अपमान करते हो। इसलिये तीनों लोकोंकी लक्ष्मी नष्ट हो जायगी। इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है।' दुर्वासाके इस प्रकार शाप देनेपर इन्द्र पुनः अपने नगरको लौट गये। तत्पश्चात् जगन्माता लक्ष्मी अन्तर्धान हो गयीं। ब्रह्मा आदि देवता, गन्धर्व, यक्ष, किन्नर, दैत्य, दानव, नाग, मनुष्य, राक्षस, पशु, पक्षी तथा कीट आदि जगत्के समस्त चराचर प्राणी दरिद्रताके मारे दुःख भोगने लगे सब लोगोंने भूख-प्याससे पीड़ित होकर ब्रह्माजीके पास जाकर कहा— 'भगवन् ! तीनों लोक भूख-प्यास से पीड़ित हैं। आप सब लोकोंके स्वामी और रक्षक हैं।

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