Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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कररणानुयोग
: गुरणस्थान चर्चा
गुणस्थानों में श्रारोहण - श्रवरोहण सम्बन्धी नियम
शंका- मिथ्यात्व गुणस्थान से जीव सीधा किस-किस गुणस्थान तक जा सकता है ?
समाधान - मोहनीय कर्म की २८ प्रकृतियों की सत्त्ववाला सादि मिथ्यादृष्टि जीव प्रथम गुणस्थान से तीसरे, चौथे, पांचवें व सातवें गुणस्थान को जा सकता है किन्तु अनादि मिथ्यादृष्टि जीव या मोहनीय की २६ या २७ प्रकृतियों की सत्त्ववाला सादि मिथ्यादृष्टि जीव प्रथम गुणस्थान से तीसरे गुणस्थान को नहीं जा सकता । 'चर्चाशतक' में कहा भी है- "मिय्या मारग च्यारि, तीनि चउ पाँच सात भनि ।"
—जै. स. 10-1-57 / VI / दि. जे. स. एत्मादपुर
शंका- चढ़ते हुए प्रथम गुणस्थान से, चौथे गुणस्थान से या पाँचवें गुणस्थान से सातवाँ ही गुणस्थान होता है, या छठा गुणस्थान होकर सातवाँ भी हो सकता है ?
समाधान -- प्रथम गुणस्थान से, चतुर्थ गुरणस्थान से या पंचम गुणस्थान से चढ़ते हुए छठा गुणस्थान नहीं होता, किन्तु सातवाँ श्रप्रमत्त गुणस्थान होता है । प्राकृत के पंचसंग्रह पृ० १९४ गाथा २५५ की टीका में कहा है
"अनादिः सादिर्वा मिथ्यादृष्टिः करणत्रयं कुर्वन्ननिवृत्तिकरण लब्धि करण चरमसमये द्वाविशतिकं बध्नन् अनन्तर समये प्रथमोपशमसम्यग्दृष्टिर्भूत्वा वा सादिमिथ्यादृष्टिरेव सम्यक्त्वप्रकृत्युदये सति वेदकसम्यग्दृष्टि भूत्वा भूयोऽव्य प्रत्याख्यानोदयेऽसंयतो भूत्वा सप्तदशकं १७ बध्नाति वा प्रत्याख्यानोदये देशसंयतो भूत्वा त्रयोदशकं १३ वध्नाति, वा संज्वलनोदयेऽप्रमत्तो भूत्वा नवकं ९ बध्नातीति द्वाविंशतिके त्रयोऽल्पतर बन्धाः । "
अनादि मिथ्यादृष्टि या सादि मिध्यादृष्टि श्रधःकरण, अपूर्वकरण व अनिवृत्तिकरण करके अनिवृत्तिकरण के अन्तिम समय में २२ प्रकृति का बंध करने वाला अनन्तर समय में प्रथमोपशम सम्यग्दृष्टि होकर अथवा सादि मिथ्यादृष्टि सम्यक्त्व प्रकृति के उदय से वेदक सम्यग्दृष्टि होकर, प्रप्रत्याख्यानावरण- कषायोदय से असंयत सम्यग्दष्टि होता हुआ १७ प्रकृति का बंध करता है या प्रत्याख्यानावरणकषायोदय से देशसंयत होता हुआ १३ प्रकृतियों का बंध करता है या संज्वलनकषायोदय से अप्रमत्त होता हुआ ९ प्रकृतियों का बंध करता है ।
यहाँ पर यह बतलाया गया है कि मिध्यादृष्टि गुणस्थान वाला सम्यग्दृष्टि होकर या तो चौथे गुणस्थान जाता है या पाँचवें गुणस्थान में जाता है या सातवें गुरणस्थान में जाता है ।
इसी बात को भी पं० द्यानतराय ने चर्चाशतक में इसप्रकार कहा है
मिथ्या मारग च्यारि, तीनि चउ पाँच सात भनि । दुतिय एक मिथ्यात, तृतिय चौथा पहला गनि ॥ पाँच, तीनि दो एक सात पन । पंचम पंच सुसात, चार तिय दोय एक भन ॥
अव्रत मारग
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