Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan

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Page 887
________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] [ ८४३ जिस प्रकार हाथी स्नान करके अपने गीले शरीर पर बहतेरी धूल डाल लेता है अथवा लकड़ी में छिद्र करनेवाले बर्मे के घूमने से जितनी डोरी खुलती है उससे अधिक बंधती है उसी प्रकार अविरतसम्यग्दृष्टि तप के द्वारा जितने कर्मों को निर्जरा करता है, असंयम के कारण वह उससे अधिक कर्मों को दृढ़ बांध लेता है। इसी बात को श्री वसुनन्दि सिद्धांतचक्रवर्ती आचार्य ने भी इस गाथा की टीका में कहा "दृष्टान्तद्वयोपन्यासः किमर्थ इति चेन्नैष दोषः अपगतात्कर्मणो बहुतरोपादानमसंयमनिमित्तस्येति प्रदर्शनाय हस्तिस्नानोपन्यासः, आईतनुतया हि बहुतरमुपादत्ते रजः। चुदच्छिदः कर्मेव-एकत्र वेष्टयत्यन्यत्रोद्वष्ठयति तपसा निर्जरयति कर्मासंयमभावेन बहतरं ग्रहाति कठिनं च करोतीति ॥ ४९ ॥ श्री कुन्दकुन्द आचार्य ने प्रवचनसार में भी कहा है"सद्दहमाणो अत्थे असंजदो वा ण णिवादि ॥ २३७ ॥" अर्थ-पदार्थों का श्रद्धान करनेवाला अर्थात् सम्यग्दृष्टि भी यदि प्रसंयत है तो निर्वाण को प्राप्त नहीं होता है। इसकी टीका में श्री अमृतचन्द्र आचार्य कहते हैं कि यदि निज शुद्धात्मा का ज्ञान और श्रद्धान भी हो गया (अाजकल के नवीन मत की परिभाषा में जिसको निश्चयसम्यग्दर्शन कहा जाता है, ऐसा सम्यग्दर्शन भी हो गया) किंतु संयम नहीं हुआ तो वह ज्ञान और श्रद्धान निरर्थक है । "सकलपदार्थज्ञेयाकार करन्वितविशदकज्ञानाकारमात्मनं श्रद्धधानोऽप्यनुभवन्नपि यदि स्वस्मिन्नेव संयम्य न वर्तयति तदानादिमोहरागद्वेषवासनोपजनितपरद्रव्यचङक्रमणस्वैरिण्याश्चिदवृत्तः स्वस्मिन्नेव स्थानानिर्वासननि: कम्पकतत्त्वमूच्छितचिवृत्त्यभावात्कथं नाम संयतः स्यात् । असंयतस्य च यथोदितात्मत्त्वप्रतीतिरूपं श्रद्धानं यथोदितास्मतत्त्वानुभूतिरूपं ज्ञानं वा कि कुर्यात् । ततः संयमशून्यात श्रद्धानात् ज्ञानाद्वा नास्ति सिद्धिः। तत्त्वार्थश्रद्धानसंयतत्वानामयोगपद्यस्य मोक्षमार्गत्वं विघटेतैव ।" अर्थ-सकल पदार्थों के ज्ञेयाकारों के साथ मिलित होता हा विशद एक ज्ञान जिसका आकार है, ऐसे प्रात्मा का श्रद्धान करता हुआ भी, अनुभव करता हआ भी यदि जीव अपने में ही संयमित होकर नहीं रहता वह कैसे संयत होगा, क्योंकि अनादि मोह, राग, द्वष की वासना से जनित जो परद्रव्य में भ्रमण के कारण स्वेच्छाचारिणी चिवृत्ति के, स्वमें स्थिति से उत्पन्न निर्वासना निष्कंप, एक तत्त्व में लीनतारूप चिवृत्ति का अभाव है। असंयत को प्रात्मतत्त्व की प्रतीतिरूप श्रद्धान या यथोक्त आत्मतत्त्व की अनुभूतिरूप ज्ञान क्या करेगा? अर्थात कुछ नहीं करेगा। इसलिये संयमशून्य श्रद्धान-ज्ञान से सिद्धि नहीं होती है। इससे प्रागम-ज्ञान तत्त्वार्थश्रद्धान-संयतत्व यदि ये तीनों युगपत् नहीं हैं तो मोक्षमार्ग घटित नहीं होता है। इससे इतना स्पष्ट हो जाता है कि चतुर्थ गुणस्थानवर्ती असंयत सम्यग्दृष्टि मोक्षमार्गी नहीं है, क्योंकि उसके ज्ञान, श्रद्धान और चारित्र की युगपत्ता नहीं है। [ मो० मा० प्र० पृ० ४६३ अ०९ ] जो मोक्षमार्ग में स्थित नहीं है उसको मोक्ष की सिद्धि नहीं हो सकती, इसीलिये संयम रहित सम्यग्ज्ञान व सम्यग्दर्शन को निरर्थक कहा है। इतना ही नहीं उसको अज्ञानी कहा है, क्योंकि मोक्षमार्गी ज्ञानी होता है। ज्ञान होते हुए भी यदि रागद्वेष से निवृत्त नहीं होता अर्थात् रागद्वेष की निवृत्ति के लिए चारित्र धारण नहीं करता तो वह कैसा ज्ञानी ? वह तो अज्ञानी है। इसी बात को श्री अमृतचन्द्र आचार्य समयसार में कहते हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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