Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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व्यक्तित्व और कृतित्व ]
[ ६२५
सिद्धअवस्था प्राप्त होने पर क्षायिकचारित्र का अभाव हो जाता है ऐसा तो कोई आर्षवाक्य देखने में नहीं आया है, किन्तु इसके विरुद्ध धवलादि महान् ग्रन्थों में सिद्धों में क्षायिकचारित्र का कथन पाया जाता है । श्री विद्यानविआचार्य ने श्लोकवार्तिक में कहा भी है
"नहि सकलमोहक्षयादुद्भवच्चारित्रमंशतोऽपि मलवदिति शाश्वदमलववात्यन्तिकं तदभिष्टूयते ।"
संपूर्ण मोहनीयकर्म के क्षय से उत्पन्न होने वाला क्षायिकचारित्र एक अंश भी मलयुक्त नहीं है । इस कारण वह क्षायिकचारित्र शाश्वत है उसका अन्त नहीं होता प्रर्थात् नाश नहीं होता है सदा अमर रहता है श्री अमृतचन्द्रा चार्य ने भी पंचास्तिकाय गाथा ५८ की टीका में कहा है
"क्षामिकस्तु स्वभाव व्यक्तिरूपत्वादनतोऽपि कर्मणः क्षयेणोत्पद्यमानत्वात् सादिरिति कर्मकृत एवोक्तः ।'
क्षायिकभाव स्वाभाविक होने से अनन्त अन्तरहित अविनाशी है तथापि कर्मक्षय से उत्पन्न होने के कारण सादि है इसलिये कर्मकृत कहा गया है ।
क्षायिकचारित्र जो कि क्षायिकभाव है उसका सिद्धों में अन्त या विनाश नहीं हो सकता, क्योंकि वह स्वाभाविक है और प्रतिपक्षीकर्म के क्षय से उत्पन्न हुआ है ।
अभेदनिश्चयनय की दृष्टि में सम्यक्त्व व चारित्रगुण का अन्तर्भाव ज्ञान में हो जाता है, जैसा कि श्री अमृतचन्द्राचार्य ने कहा है
"सम्यग्दर्शनं तु जीवा विभद्धानस्वभावेन ज्ञानस्य भवनं । जीवाविज्ञानस्वभावेन ज्ञानस्य भवनं ज्ञानं । रागादिपरिहरणस्वभावेन ज्ञानस्य भवनं चारिवं । तदेवं सम्यग्दर्शन ज्ञानवारित्राण्येकमेव ज्ञानस्यभवनमायातं । "
जो जीवादिपदार्थों का यथार्थ श्रद्धान उस स्वभावसे ज्ञान का परिणमना वह तो सम्यग्दर्शन है, उसी तरह जीवादि पदार्थों का ज्ञान उस स्वभावकर ज्ञान का होना वह सम्यग्ज्ञान है तथा जो रागादिका त्यागना उस स्वभावकर ज्ञान का होना वह चारित्र है । इसतरह सम्यग्दर्शन- ज्ञान चारित्र ये तीनों ही ज्ञान के परिणमन में आ जाते हैं ।
इस दृष्टि से केवलज्ञान कहने से क्षायिकसम्यक्त्व व क्षायिकचारित्र का भी ग्रहण हो जाता है उनको पृथक् रूप से कहने की आवश्यकता नहीं है ।
धर्म और धर्मी के प्रभेद को ग्रहण करनेवाली निश्चयनय की दृष्टि में सिद्धों के न दर्शन है न ज्ञान मोर न चारित्र है। श्री कुन्दकुन्द आचार्य ने कहा भी है
बवहारेणुवदिस्सइ णाणिस्स वरित बंसणं णाणं । वि जाणं ण चरितं ण दंसणं जाणगो
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ज्ञानी अर्थात् आत्मा के चारित्र, दर्शन, ज्ञान ये तीनों भाव व्यवहार अर्थात् भेदनय करि कहे गये हैं । निश्चयकर अर्थात् प्रभेदनय की दृष्टि में मात्मा के ज्ञान भी नहीं है, चारित्र भी नहीं है और दर्शन भी नहीं है, आत्मा तो एक शुद्ध ज्ञायक है ।
सुद्धो || ७ | समयसार
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