Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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व्यक्तित्व और कृतित्व ]
[ १६६
एक शरीर के योग्य वर्गणाओं को तथा वचन और मन के योग्य वर्गरणाओं को यथायोग्य जीवसमास तथा काल में जीव आहारण- ग्रहरण करता है इसलिये इसको आहारक कहते हैं । विग्रह गति को प्राप्त होने वाले चारों गति संबंधी जीव प्रतर और लोक पूर्ण समुद्घात करने वाले सयोग केवली, प्रयोग केवली, समस्त सिद्ध इतने जीव तो अनाहारक हैं और इनको छोड़कर शेष जीव श्राहारक होते हैं । इससे सिद्ध है कि सयोग केवली आहार-वर्गणा ग्रहण करते हैं ।
" आहारा एइंबिय - पहुड जाव सजोगिकेवलिति ॥ १७६ ॥ धवल पु० १ पृ० ४०९ ।
आहारक जीव एकेन्द्रिय से लेकर सयोग केवली गुणस्थान तक होते हैं ।
"अत्र केवल लेपोष्ममनाकर्माहारान् परित्यज्य नोकर्माहारो ग्राह्यः ।" धवल पु० १ पृ० ४०९ ।
यहाँ पर प्रहार शब्द से कवलाहार, लेपाहार, उष्माहार मानसिक हर और कर्माहार को छोड़ कर नोकर्माहार का ही ग्रहण करना चाहिये ।
केवली के बद्ध साता का द्रव्य तदनन्तर समय में प्रकर्म भाव को प्राप्त हो जाता है
शंका- गो० क० गा० २७४ में लिखा है कि 'समयद्विदिगो बंधो, सादस्सुवयप्पिगो जदो तस्स । तेण असावस्सुबओ सावसरूवेण परिणमदि ।' इस गाथा के पूर्वार्ध का संस्कृत अनुवाद यह होता है "समयस्थितिको बन्धः सातस्योदयात्मको यतः तस्य ।" अब यहाँ यह देखना है कि यहाँ बन्ध का "उदयात्मक" विशेषण दिया है, अतः विशेष्य बन्ध शब्द उदयात्मक विशेषण से विशिष्ट होने से जहाँ-जहाँ विशेष्य होगा वहीं विशेषण की प्रवृत्ति होगी, इस नियम के अनुसार केवली के समय-स्थितिक साता के बन्धकाल में उसी बद्ध द्रव्य का उदय भी आ जाता है, न कि तदनन्तर ( द्वितीय ) समय में । यदि द्वितीय समय में उदय माना जायगा तो कर्मरूप द्रव्य की स्थिति दो समय होने का अपरिहार्य प्रसंग आवेगा; अतः केवली के साता के बन्ध के समय में ही उसका उदय भी आ जाता है, ऐसा मानना चाहिए ? यही गाथा लब्धिसार क्षपणासार में भी है, तथा सर्वत्र केवली के बन्ध को उदयस्वरूप ही कहा है । अतः क्या उपर्युक्त मेरो विचारणा ठीक है ?
- जै. ग. 27-7-69 / VI / सु. प्र.
समाधान -- आपने गाथा का अर्थ ठीक समझा है। जिस समय में उनके पुद्गलद्रव्य कर्म भाव को प्राप्त हुआ उससे अगले समय में अकर्म भाव को प्राप्त होगया । यदि अगले समय में उदय माना जावे तो कर्मरूप पर्याय की दो समय प्रमाण स्थिति का प्रसंग आयगा । और तीसरे समय में अकर्म भाव को प्राप्त होने का प्रसंग आयगा । विपाकोनुभवः । तत्श्च निर्जरा । त० सू० ८ / २१, २३ तथा धवल पु० १३ में भी यही बात कही है । वहाँ भी "उदयस्वरूप सातावेदनीय का बन्ध" कहा है। धवल १३ / ५३ ।
- पत्र 29-10-79/ I / ज. ला. जैन, भीण्डर
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सयोगकेवली
शंका----१३ वे गुणस्थान में असातावेदनीय कर्म किस रूप में रहता है। उदय रूप में रहता है या नहीं ?
समाधान - १३ वें गुणस्थान में असाता का उदय है किन्तु वह अपना कार्य करने में समर्थ नहीं है, क्योंकि सहकारी कारणरूप घाति कर्मों का अभाव है । अतः उदय होते हुए भी अनुदय के समान है । अथवा उदय
'साता का उदय कार्य करने में अक्षम
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