Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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व्यक्तित्व और कृतित्व ]
[ ५८३
"देवगवीए देवाणमंतरं केवचिरं कालादो होवि ? ॥११॥ जहण्णेण अंतोमुहुत्तं ॥१२॥
अर्थ-देवगति से देवों का अन्तर कितने काल तक होता है ? कम से कम अन्तर्मुहूर्त काल तक होता है ॥ ११-१२॥
"देवगति से आकर गर्भोपक्रान्तिक पर्याप्त तियंचों व मनुष्यों में उत्पन्न होकर पर्याप्तियां पूर्णकर देवायु का बंधकर पुनः देवों में उत्पन्न हुए जीव के देवगति से अन्तर्मुहूर्त मात्र अन्तर पाया जाता है।" (ध. पु.७ पृ. १९०)
-जै.ग. 27-3-69/1X/क्ष. शीतलसागर
तृतीय नरक से निकलकर तीर्थंकर सत्त्वी किसी भी क्षेत्र में तीर्थंकर हो सकता है शंका-तीसरे नरक से निकलने वाला जीव किस क्षेत्र का तीर्थकर होता है ।
समाधान-तीसरे नरक में असंख्यात जीव तीर्थंकर प्रकृति के बंधक हैं। (महाबंध पुस्तक १, पृ. १७७)। तीसरे नरक से निकलकर ये जीव भरत, ऐरावत और विदेहक्षेत्र के प्रार्यखण्ड में तीर्थंकर होते हैं। कृष्णजी तीसरे नरक से निकलकर भरतक्षेत्र में तीर्थकर होंगे।
- -. सं. 19-3-59/V/ भंवरलाल जैन, कुचामन
नरक से निकला जीव तोर्णकर हो सकता है शंका-क्या सम्यग्दृष्टि नारको नरक से निकलकर तोयंकर हो सकता है ?
समाधान-ऊपर की तीन पृथिवियों से अर्थात् प्रथम, द्वितीय, तृतीय नरकों से निकलकर मनुष्यों में उत्पन्न होकर तीर्थकर हो सकता है । कहा भी है
तिसु उवरिमासु पुढवीसु रइया णिरयादो गेरइया उध्वट्टिदसमाणा कवि गदीओ आगच्छन्ति ॥२१७॥ दवे गदीओ आगच्छन्ति तिरिक्खगदि मणुसवि चेव ॥२१८॥ ...... मणुसेसु उव्वणल्लया मणुस्सा केइमेक्कारस उप्पाएंति केइमामिणिबोहियणाणमुप्पाएंति, केई सुदणाणमुप्पाएंति, के इं मणपज्जवणाणमुप्पाएंति, केई मोहिणाणमुष्पाएंति, केई केवलणाणमप्पाएंति, केई सम्मामिच्छत्तमप्पाएंति, के ई सम्मत्तमुप्पाएंति, केइं संजमासंजममुप्पाएंति, केई संजममुप्पाएति । णो बलदेवत्तं गो वासुदेवत्तमुप्पाएंति, णो चक्कट्टित्तमुप्पाएंति, केई तित्थयरत्तमुप्पाएंति, केइमंतयडा होवूण सिज्झति बुझंति मुच्चंति परिणिव्वाणयंति सव्व दुःखाणमंत परिविजाणंति ॥२२०॥
-धवल पु० ६ पृ० ४९१-९२ अर्थ-ऊपर की तीन पृथिवियों के नारकी जीव नरक से नारकी होते हुए निकलकर कितनी गतियों में भात? ॥२१७॥ ऊपर की तीन पृथिवियों से निकलने वाले नारकी जीव दो गतियों में आते हैं तियंचगति और मनुष्यगति ॥२१८।। ऊपर की तीन पृथिवियों से निकल कर मनुष्यों में उत्पन्न होने वाले मनुष्य कोई ग्यारह उत्पन्न करते हैं-कोईमाभिनिबोधिक ज्ञान उत्पन्न करते हैं, कोई श्रतज्ञान उत्पन्न करते हैं, कोई मनःपर्ययज्ञान उत्पन्न करते हैं, कोई अवधिज्ञान उत्पन्न करते हैं, कोई केवलज्ञान उत्पन्न करते हैं, कोई सम्यग्मिथ्यात्व उत्पन्न करते हैं, कोई सम्यक्त्व उत्पन्न करते हैं, कोई संयमासंयम उत्पन्न करते हैं और कोई संयम उत्पन्न करते हैं, किंतु वे जीव न ब देवत्व उत्पन्न करते हैं, न बासुदेवत्व उत्पन्न करते हैं और न चक्रवर्तित्व उत्पन्न करते हैं। कोई तीर्थकरत्व उत्पन्न
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