Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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२३२ ]
[ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार :
पुग्गविवाइदेहोवयेण मणवयणकायजुत्तस्स । जीवस्स जा हु सत्ती कम्मागमकारणं जोगो ॥ २१५॥ गो.जी.
यहाँ योग का कारण पुद्गलविपाकी शरीर नामकर्मोदय कहा गया है और यह योग जीवप्रदेशों के परिष्यन्द का हेतु है । श्री वीरसेनस्वामी ने धवल पु० १२ पृ० ३६५ में कहा भी है
"जीवपदेशपरिफंदहेदू चेव जोगो ति ।"
यह जीव- प्रदेश परिष्पन्द संसारी जीव के ही होता है और वह परिष्पन्द तीन प्रकार का है। कहा भी है
समरूवी दव्वं अवद्विदं अचलिआ पदेसा वि ।
रूवी जीवा चलिया तिवियप्पा होंति हु पदेसा ॥ ५९२ ॥ गो. जी
अर्थ- सम्पूर्ण अरूपी द्रव्य जहाँ स्थित रहते हैं वहीं स्थित रहते हैं तथा उनके प्रदेश भी चलायमान नहीं होते । कर्मबन्ध के कारण संसारी जीव रूपी हैं । उसके प्रदेश चलायमान होने के कारण तीन प्रकार के होते हैं । आठों मध्य प्रदेशों के अतिरिक्त (i) कभी सब ही जीव- प्रदेश चलायमान होते हैं (ii) कभी कुछ प्रदेश चलायमान होते हैं और कुछ अचल रहते हैं तथा (iii) प्रयोगी जीवों के सभी प्रदेश अचल रहते हैं । श्री १०८ अकलंकदेव ने भी राजनातिक ५-८-१६ में कहा है
"सर्वकालं जीवाष्टमध्यप्रदेशा निरपवादाः सर्वजीवानां स्थिता एव, केवलिनाम् अयोगिनां सिद्धानां च सर्वे प्रवेशाः स्थिता एव, व्यायामदुःखपरितापोद् कपरिणतानां जीवानां यथोक्ताष्ट मध्यप्रदेश वर्जितानां इतरे प्रवेशाः अस्थिताः एव, शेषाणां स्थिताश्चास्थिताश्च ।”
अर्थ - निरपवादरूपेण सर्व जीवों के आठ मध्यप्रदेश सर्वकाल अचल ( स्थित ) ही हैं । प्रयोग केवली और सिद्ध जीवों के सर्व प्रदेश अचल ही हैं । व्यायाम, दुःख, परिताप और उद्रेक आदि से परिणत जीवों के अष्ट मध्य प्रदेशों के अतिरिक्त शेष सर्व प्रदेश चल ही हैं। शेष जीवों के कुछ प्रदेश चल हैं और कुछ अचल हैं । इस विषय में धवल पु० १२ पृष्ठ ३६४-३६७ भी द्रष्टव्य है ।
धवल पु० १ पृ० २३२-२३३ पर यह शंका की गई है कि "रसना आदि इंद्रियों का क्षयोशम सर्व आत्मप्रदेशों में नहीं पाया जाता, क्योंकि सर्वांग से रस आदि का ज्ञान नहीं होता है। यदि अन्तरंग निर्वृत्तिरूप आत्मप्रदेशों में क्षयोपशम माना जाय तो उन प्रदेशों का अपने अन्तरंग निर्वृत्तिरूप स्थान से हट जाने पर फिर वर्तमान स्थान पर अन्तरंग निवृत्ति को बाह्य निर्वृत्ति प्रादि पौद्गलिक इंद्रियों का सहयोग न मिलने पर इंद्रियों द्वारा ज्ञान के प्रभाव का प्रसंग आयेगा ।
वेदनाखण्ड में श्रात्मप्रदेशों को चल भी कहा है, अतः अन्तरंगनिवृत्तिरूप आत्मप्रदेशों का अपने स्थान से चलायमान होना अवश्यंभावी है ।" इस शंका का जो समाधान किया गया है वह निम्न प्रकार है
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नैष दोषः सर्वजीवावयवेषु क्षयोपशमस्योत्पत्यभ्युपगमात् । न सर्वावयः रूपाद्य ुपलब्धिरपि तत्सहकारिकारणबाह्य निवृतेरशेषजीवावयवव्यापित्वाभावात् । धवल १-२३३ ।
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