________________ भष्टमः सर्गः 323 अनुवाद-"वह प्रभु ( इन्द्र ) कोयलकी बाणी-मात्र से उत्पन्न हुए दुःख के कारण ( आनन्द देने वाले ) नन्दन में भी आनन्द नहीं अनुभव कर रहा है; जटा में ( रखे ) बाल चन्द्र के ( किये ) अपराध के कारण महादेव तक की भी अर्चना-पूजा नहीं करता' / / 64 // टिप्पणी-इन्द्र प्रतिदिन अपने नन्दन वन में आनन्द लेता रहता था, किन्तु तुम्हारे वियोग में अब कोकिल-गुञ्जित वही बन उसे काटने दौड़ रहा है, वह नित्यप्रति शिवार्चन-रत रहा करता था किन्तु अब अर्चन का नाम भी नहीं लेता क्योंकि शिव ने शिर पर उस चन्द्र को रखा हुआ है, जो उस पर तुम्हारे वियोग में मुसीबतें ढा रहा है। शिव यदि उसके अपराधी चन्द्र को शिर पर रखे, आदर-सम्मान दे, तो उन्हें वह क्यों पूजे / भाव यह निकला कि तुम्हारे विरह में इन्द्र को कोयल की कूकें तथा चन्द्रमा असह्य लग रहे हैं। वह शिवपूजन भी छोड़ बैठा है। यहाँ से कवि इन्द्र को लक्ष्य करके उद्दीपन विभाबों का वर्णन कर रहा है। विद्याधर समासोक्ति कह रहे हैं। क्योंकि चन्द्रमा का चेतनीकरण हो रखा है। हमारे विचार से नन्दन होने पर भी आनन्द न देने में विशेषोक्ति है। 'न शीलति' 'न नन्दति' में कारण बताने से काव्यलिङ्ग भी है / 'नन्द' 'नन्द' 'शील' 'शूलि' में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। तमोमयोकृत्य दिशः परागैः स्मरेषवः शक्रदृशां दिशन्ति / कुहूगिरश्चञ्चुपुटं द्विजस्य राकारजन्यामपि सत्यवाचम् // 65 // अन्वयः-स्मरेषवः परागैः दिशः शक्रदृशाम् तमोमयीकृत्य कुहगिरः द्विजस्य चञ्चु-पुटम् राका-रजन्याम् अपि सत्य-वाचम् दिशन्ति / टीका-- स्मरस्य कामस्य इषवः बाणाः ( प० तत्पु० ) परागैः धूलिभिः बाणानां पुष्षरूपत्वात् तत्र परागः स्वाभाविकः एव, दिशः दशापि ककुभः शक्रस्य इन्द्रस्य दृशाम् नयनानाम् कृते तमोमयीकृत्य अन्धकारपूर्णाः कृत्वा 'कुहः' इति शब्दः अथ च अमावास्या ( कुहः स्यात् कोकिलालाप नष्टेन्दुकलयोरपि' इति विश्वः ) गीः वचनम् ( कर्मधा० ) यस्य तथाभूतस्य (ब० वी० ) द्विजस्य पक्षिण: पिकस्येत्यर्थः अथ च विप्रस्य चञ्चपुटम् मुखमित्यर्थः राकायाः पौर्णमास्याः रजन्याम रात्रौ अपि सत्या यथार्था वाक् वचनम् ( कर्मधा० ) यस्य तथाभूतम् (ब० वी० ) दिशन्ति कथयन्ति / कामस्य पुष्पमयाः शराः दश-दिक्षु स्वपराग