________________ 530 नैषधीयचरिते टाप् / अमराः पीछे श्लोक 134 देखें। घर: घरन्तीति /धृ + अच् ( कर्तरि ) / __ अनुवाद-"( हे नल ! ) चन्द्रमा तुमने मुख से जीता है और कामदेव सौन्दर्य से। वे मुझे मारने क्यों प्रतिज्ञा किये बैठे हैं ? यदि 'मैं तुम्हारी हैं यह कारण है, तो मेरी विजय है, क्योंकि देवता सत्य-संकल्प हुआ करते है" // 145 // टिप्पणी-चन्द्र और काम-दोनों विरहियों को बड़े सताते हैं। दमयन्ती को भी सता रहे हैं, मारने तक को ठाने हुए वैठे हैं। दमयन्ती चित्र-गत नल से पूछती हैं कि ये दोनों तुम्हें तंग करें, तो बात कुछ बनती भी है. क्योंकि तुमने इन दोनों को पछाड़ रखा है, लेकिन मैंने इनका क्या बिगाड़ा है ? संभवतः ये यह सोच रहे होंगे कि मैं तुम्हारी प्रिया हूँ, इसलिए तुम न सही, तुम्हारी प्रिया को तंग करके क्यों न दिल की भड़ास निकालें / शत्रु न सही शत्रु की चीज का ही नुकसान हो जाय या उसके सम्बन्धी को तंग किया जाय / पर्वतीय भाषा की कहावत है—'वैरी का बाछरा पिजायाँ को सुख' / ऐसी बात है तो मैं जीत गई है क्योंकि विधु एवं काम-दोनों देवता हैं और देवताओं के मन में जो विचार अथवा बात आती है, वह सच होकर ही रहती है। यहाँ नल न सही यह प्रत्यनीक अलंकार है (काव्यप्र०-'प्रतिपक्षमशक्तेन प्रतिकतुं विरस्क्रिया / या तदीयस्य तत्स्तुत्य प्रत्यनीकं तदुच्यते॥) अन्तिम पाद में कारण बताने से काव्यलिङ्ग है, जिसका उसी पाद से पूर्वोक्त का समर्थन होने से बनने वाले अर्थान्तर के साथ एकवाचकानुप्रवेश संकर है। विद्याधर यहाँ अतिशयोक्ति भी कह रहे हैं। 'धराः' 'मराः' में पदान्तगत अन्त्यानुप्रास अन्यत्र वृत्यनुप्रास है / / 145 // निजांशुनिर्दग्धमदङ्गभस्मभिर्मुधा विधुर्वाञ्छति लाञ्छनोन्मजाम् / त्वदास्यतां यास्यति तावतापि किं वधूवधेनैव पुनः कलङ्कितः // 146 // अन्वयः-विधुः निजांशु "भस्मभिः लाञ्छनोन्मृजाम् मुधा वाञ्छति / तावता अपि त्वदास्यताम् यास्यति किम् ? वधू-वधेन पुनः कलङ्कित एव / टीका-विधुः चन्द्रः निजाः स्वीयाः ये अंशव: किरणाः (कर्मधा० ) तैः निर्दग्धम् भस्मीकृतं ( तृ• तत्पु० ) यत् मदङ्गम् ( कर्मधा० ) मम अङ्गम् शरीरम्