Book Title: Naishadh Mahakavyam Uttararddham
Author(s): Hargovinddas Shastri
Publisher: Chaukhambha Sanskrit Series Office

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Page 16
________________ द्वादशः सर्गः। 713 हुतभुगग्निश्च, जम्भारिदम्भोलिः कुलिशञ्च ते, अस्मात् तिन्दुकवनदाहकतदीयप्रता. पानलात् , उत्पतिता उस्थिताः, स्फुलिङ्गाः अग्निकणाः, जगदुरसङ्ग जगतां पृथिव्याः दीनाम, उत्सङ्ग कोडे अभ्यन्तरे इति यावत् , स्फुरन्ति प्रकाशन्ते स्फुटम् असंशय. मित्युत्प्रेक्षा रूपकसङ्कीर्णा / तिन्दुककाष्ठेभ्यो दह्यमानेभ्यो महान्तः स्फुलिङ्गा उत्तिष्ठः न्तीति प्रसिद्धिः॥ 19 // इस ( पाण्डय राजा ) की प्रतापरूपी अग्नि पराजयसे उत्पन्न अकीर्तिरूपिणी स्याहीसे अत्यन्त मलिन शत्रु-सैनिक-वीर-समूहरूपी तिन्दुक ( तेंदुआ नामक वृक्ष ) के वनों में दिल. सित हो रहा है, जिससे निकले हुए शिवजीके ललाटसे उत्पन्न उनका ( तृतीय ) नेत्र, सूर्य, अग्नि और इन्द्र-वज्ररूपी स्फुलिङ्ग (चिनगारियां ) संसारके बीचमें स्फुरित हो रहे हैं। [तिन्दुककी लकड़ी में अग्नि लगने पर चटचट शब्द करती हुई उससे बहुत-सी चिनगारियां निकलती हैं। शिव के मालस्थ नेत्र, सूर्य आदि को इस राजाके विशालतम प्रतापानल की चिनगारी बतलाकर प्रतापानलका बहुत ही विशाल होना बतलाया गया है ] // 19 // एतद्दन्तिबलैविलोक्य निखिलामालिङ्गिताङ्गी भुवं समामाङ्गणसीम्नि जङ्गमगिरिस्तोमभ्रमाधायिभिः / पृथ्वीन्द्रः पृथुरेतदुग्रसमरप्रेक्षोपनम्रामर श्रेणीमध्यचरः पुनः क्षितिधरक्षेपाय धत्ते धियम् // 20 / / एतदिति / एतस्य पाण्ड्यस्य, उग्रस्य भयङ्करस्य, समरस्य प्रेक्षायै प्रेक्षणाय, 'गुरोश्च हलः' इति स्त्रियाम् अ प्रत्यये टाप, उपनम्राणाम् उपगतानाम, अमराणां याः श्रेण्यः समूहाः, तन्मध्ये चरतीति तथोक्तः, स्वयमपि तद्दष्टमागत इत्यर्थः, पृथुर्वैग्यो नाम, पृथ्वीन्द्रः संग्रामाङ्गणसीम्नि रणाजिरभूमी, जङ्गमाः सञ्चारिणः, गिरीणां स्तोमाः समूहाः, इति भ्रममादधतः इति तथोक्तः, तथाविधभ्रान्तिजनकरित्यर्थः, अत एव भ्रान्तिमदलङ्कारः, एतस्य पाण्ड्यस्य, दन्तिबलैगजघटाभिः, निखिला भुवम् आलि. गिन्ताङ्गीम् भाक्रान्तस्वरूपां, विलोक्य पुनः क्षितिधराणां क्षेपाय धनुषा प्रोत्सारणाय, धियं धत्ते, नूनमिति शेषः, अतो गम्योस्प्रेक्षा पूर्वोक्तभ्रान्तिमदलङ्कारोस्थितेति सङ्करः। तेनैतत्सेनागजाः गिरिप्रमाणा असङ्ख्येयाश्च इति गम्यते / अत्र पराशरः, 'तत उत्सा. रयामास शैलाः शतसहस्रशः / धनुष्कोट्या तथा वैण्यस्तेन शैलविवर्जिता।' इति // इस ( पृथुराजा ) के भयङ्कर युद्धको देखने के लिये आये हुए देवों के बीचमें चलनेवाले 'पृथु' अर्थात् 'वेण्य' नामक राजा चलनेवाले पर्वत-समूहकी भ्रान्ति उत्पन्न करनेवाले, इस राजाके सेनाके हथियोंसे आक्रान्त ( गा व्याप्त ) सम्पूर्ण पृथ्वीको देखकर फिर पर्वतोंको ( धनुषकी कोटिसे ) फेंकने के लिये विचार कर रहे हैं। [ पूर्वकाल में सभी पर्वतोंके घूमनेसे अनेक ग्राम देश उनके नीचे दबकर नष्ट हो जाते थे, अत एव राजा 'वैण्य' ने उन पर्वतोंको अपने धनुष को कोटिसे फेंककर पृथ्वीका विभाग कर दिया। फिर इस समय मृत्युके बाद

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