________________ नैषधमहाकाव्यम्। ननु सार्वभौमस्य मे तिरश्चा स्वया किमुपकरिष्यते, तबाह-पतगेनेति / पतगेन पक्षिमात्रेण मया जगत्पतेः सार्वभौमस्य तवोपकृत्यै उपकाराय प्रभूयते सम्यते किं न भूयत एवेत्यर्थः, भावे लट, इति वेद्मि अधमरवं जानामि / तदपि तथाप्यतयो यास्त स्वया विनिवर्तिता इति भावः। मां प्रत्युपकतुं न स्यजन्ति प्रत्युपकरणाय प्रेर. यन्तीत्यर्थः / मन्त्र पतगोऽप्य महोपकारिणस्ते महोपकारं करवाणीति भावः // [सम्प्रति हंस अपने अहङ्कार का निराकरण करता है-] पक्षी मैं लोकाधीश ( राजा) भापका क्या उपकार कर सकता हूँ ? अर्थात् अतिशय साधनहीन मैं सर्वसाधन-सम्पन्न आपका कोई मी उपकार करने में समर्थ नहीं हूँ' यह मैं मानता हूं, तथापि ( आपसे दूर की गई मेरी) पीड़ाएँ प्रत्युपकार करने के लिए मुझे नहीं छोड़ती हैं अर्थात पीड़ामुक्त कर मेरा महोपकार करने वाले आपका महाप्रत्युपकार करने के लिये बार-बार प्रेरित करती हैं // 13 // अचिरादुपकर्तुराचरेदथवात्मौपयिकीमुपक्रियाम् / पृथुरित्थमथाणुरस्तु सा न विशेष विदुषामिह ग्रहः / / 14 // अथवा यथाशक्तिपक्षोऽस्वित्याह अचिरादिति / अथवा उपकर्तुरचिरादषि लम्बादुपाय एवोपयिका, विनयादित्वात् स्वार्थे ठक् 'उपधाया हम्बस्वोति हस्वः, तत भागता औपयिकी तामात्मौपायकी स्वोपायसाध्यामित्यर्थः, 'तत आगत' इत्यण प्रत्यये 'टिड्ढाणजि' स्यादिना डीप / उपक्रियामाचरेत् प्रत्युपकारं कुर्यात्, चरधातो. विधिलिङ। इस्थमेवं सति सोपक्रिया पृथुरधिकाऽस्तु अथ अथवा अणुररूपाऽस्तु विदुषां विवेकिनामिहास्मिन् विषये विशेषे ग्रह आग्रहो न / गुणग्राहिणो विवेकिनः कृतज्ञतामेव अस्य पश्यन्ति, न छोषमन्विष्यन्तीत्यर्थः // 14 // (उपकार किया जा सके या नहीं किया बा सके, यह विचार छोड़कर उपकृत व्यक्ति को उपकर्ताका प्रत्युपकार करना ही चाहिये, इस लोकनियमानुसार हंस कहता है-) उपकृत व्यक्तिको अपने उपायसे साध्य अर्थात् यथाशक्ति उपकतोका प्रत्युपकार शीघ्र ही करना चाहिये, 'वह उपकार छोटा हो या बड़ा' इस विषय में विद्वानों को कोई आग्रह (हठ-विशेष विचार ) नहीं करना चाहिये / [ जीवनको क्षणमङ्गुर जानकर उपकृत व्यक्तिको छोटा या बड़ा-जैसा मी शक्ति के अनुसार हो सके, उपकर्ताका प्रत्युपकार तत्काल करना चाहिये / इसमें प्रत्युपकर्ताका भाव देखा जाता है, न कि प्रत्युपकारका छोटापन या बड़ापन, अत एव मैं यथाशक्ति प्रत्युपकार करना चाहता हूं ] // 14 // भविता न विचारचारु चेत्तदपि श्रव्यमिदं मदीरितम् / खगवागियमित्यतोऽपि किं न मुदं दास्यति कीरगीरिव // 15 // अथ स्ववाक्ये आवरं याचते-भवितेति / हे नृप! इदं वषयमाणं मदीरितं मचः मदचनं विचार विमर्श चार युक्तं न भविता न भविष्यति चेत्तदपि अविचारित. रमणीयमपि श्रव्यं श्रोतव्यम् / इयं खगवापिस्यतोऽपि हेतोः कीरगी: शुकवागिव