________________ नवमः सर्गः। 461 अनुमहादेव दिवौकसां नरो निरस्य मानुष्यकमेति दिव्यताम् / भयोऽधिकारे स्वरितत्वमिष्यते कुतोऽयसां सिद्धरसस्पृशामपि // अथ मानुषीं देवा न ग्रहीष्यन्तीति यदि तदपि नेत्याह-अनुग्रहादिति / दिव. मोको येषां चौरोको येषामिति वा पृषोदरादित्वात्साधुः / तेषां दिवौकसां देवाना. मनुग्रहादेव नरो मानुष्यकं मनुष्यभावं निरस्य “योपधाद्गुरूपोत्तमाबु" इति बुनि “यस्ये"ति लोपे "प्रकृत्याऽके राजन्यमनुष्ययुवान" इति प्रकृतिभावा"दपत्यस्य च तद्धितेऽनाती"ति यलोपाभावः। दिव्यतामेति तत्परिग्रहादेवभूयमपि ते भवितेति भावः / तथा हि-रसः पारदः / 'देहधात्वम्बुपारद' इति रसशब्दार्थेषु विश्वः / स हि संस्कारबलालोहान्तरसुवर्णीकरणे समर्थः सिद्धरस उच्यते। तत्स्पृशामयसामपि तत्स्पर्शात्स्वर्गीभूतायसामपीत्यर्थः / अयोऽधिकारे अयःप्रस्तावे स्वरितत्वमधिकृतत्वं तेषु परिगणनेति यावत् / "स्वरितेनाधिकार" इति वैयाकरणपरिभाषाश्रयणादेवं व्यपदेशः / स्वृ शब्दोपतापयोरिति धातोदेवादिकात् सः। कुत इण्यते नेण्यत एवेत्यर्थः। रसस्पृष्टायसः स्वर्णीभाव इव तवापि तत्स्पृष्टाया देवत्वमेव न मानुष. स्वमित्यर्थः / अत्र दृष्टान्तालङ्कारः स्पष्टः // 42 // मनुष्य देवोंके अनुग्रहसे ही मनुष्यभाव को छोड़कर दिव्यभाव ( देवत्व ) को पाता है अर्थात् मनुष्यसे देव वन जाता है / औषवादि से सिद्ध पारद ( पारा) का स्पर्श करने वाले लोहोंका लोहेके अधिकार ( प्रस्ताव ) में (पाठा०—विकारमें अर्थात् लोहेके बने पदार्थोमें ) गणना कहां से होती है अर्थात् नहीं होती। [ जिस प्रकार औषधसे तैयार किये गये पारद के स्पर्शसे जब लोहा सोना बन जाता है, तब उसे लोह नहीं कहा जाता, किन्तु सोना कहा जाता है; उसी प्रकार जब इन्द्रादि देवोंमें से किसीको वरण कर लेगी, तब तुम मानुपी न रह कर देवी बन जाओगी, क्योंकि देवोंके अनुग्रहसे जब सामान्य मनुष्य भी देव बन जाता है तब जिस तुमको देव बड़े अनुरागसे चाहते हैं, उस तुमको मानुषी नहीं रहने देंगे, किन्तु देवी बना लेगें, अत एव देवोंके स्वीकार करने पर तुम मानुषी से देवी ‘बन जावोगी तब मानुषी देवों को नहीं चाहती यह तुम्हारा कहना भी असङ्गत है तथा"स्वरितेनाधिकारः ( पा० स० 1 / 311)" इस पाणिनिके सूत्र द्वारा अधिकारका अभाव करने पर फिर कहांसे अधिकार हो सकता है ? / देवोंके अनुग्रहसे तुम देवी बन जावोगी, अतः देवोंको वरण करो] // 42 // हरि परित्यज्य नलाभिलाषुका न लजसे वा विदुषिनवा कथम् / उपेक्षितेक्षोः करमाच्छमीरतादुरं वदे त्वां करभोरु ! भो इति / / 43 // हरिमिति / हरिमिन्द्रं देवं परित्यज्य नलं नरमभिलाषुका ताच्छील्येनाभिलपन्ती "लषपत" इत्यदिना उकञ्। “न लोक" इत्यादिना षष्ठीप्रतिषेधात्कर्मणि द्विती. यायां गम्यादिपाठात्समासः। अत एव विदुषी ज्ञात्री "विदेः शतुर्वसुः" "उगित