________________ 306 नैषधमहाकाव्यम् / लक्ष्मी ( पक्षान्तरमें-सम्पत्ति ) के रहनेका घर बनावे / [ 'लक्ष्मीका वासस्थान कमल है। यह शास्त्रवचन जलाशयसे उत्पन्न कीचड़युक्त मलिन कमलको लक्ष्मीका वासस्थान नहीं बतलाया, किन्तु सत्पात्र होनेसे अनिन्दित याचकके करकमलको लक्ष्मीका वासस्थान बतलाता है अतः विद्वान्को अपना धन मी सत्पात्रके करकमलमें देना चाहिये / कोई सामान्य भी व्यक्ति कीचड़से युक्त स्थानको अपना वासस्थान बनाना पसन्द नहीं करता, तो लक्ष्मी को कीचड़युक्त कमल क्यों पसन्द होगा 1 अर्थात् कदापि नहीं होगा ] // 87 / / याचमानजनमानसवृत्तेः पूरणाय बत जन्म न यस्य | तेन भूमिरतिभारवतीयं न द्रुमैर्न गिरिभिर्न समुद्रैः // 8 // याचमानेति / यस्य धनिनो जन्म याचमानजनमानसवृत्तेरर्थिजनमनोरयस्य पूरणाय न भवति / बतेति खेदे। तेनैकेनैव पापीयसा / इयं भूमिरतिभारवती। न द्रमादिमिबहुभिरपीत्यर्थः / तेभ्यः प्रजानां बहुपकारलामादिति भावः // 88 // जिसका जन्म याचना करते हुए मनुष्यके मनोरथको पूर्ण करने के लिये नहीं है, खेद है कि एक उसीसे यह पृथ्वी मारवाली है; वृक्षोंसे नहीं, पहाड़ोंसे नहीं और समुद्रोंसे नहीं। [ क्योंकि जड़ होते हुए भी वे वृक्षादि फल-फूल, धातु-औषध तथा रत्न आदि के द्वारा दान देते ही हैं। मनुष्यको अपना जन्म दान देकर सफल बनाना चाहिये ] // 88 // मा धनानि कृपणः खलु जीवन तृष्णयार्पयतु जातु परस्मै / तत्र नैष कुरुते मम चित्रं यत्त नार्पयति तानि मृतोऽपि / / 86 // मेति / कृपणः कष्टलुब्धो, जीवन प्राणन् , तृष्णया अतिगर्धनेन, जातु कदापि, परस्मै याचमानाय धनानि, ना (मा) पयतु न प्रयच्छत / एष कृपणस्तत्र जीवनपणानपंणे, मम चित्रं विस्मयं न कुरुते / किंतु, मृतोऽपि तानि धनानि, नार्पयति प्रयच्छतीति यसत्र चित्रं कुरुते विरोधात् / नापाणि नृपसम्बन्धीनि कुरुत इति तदा भासीकरणाविरोधाभासोऽलकारः // 89 // कृपण भीते-जी लोमसे धनको कमी किसीके लिये भले नहीं दे, उसमें मुझे आश्चर्य नहीं होता, किन्तु मरकर भी उस धनको जो नहीं देता है (पक्षान्तरमें-राजाके अधीन करता है ) यह आश्चर्य है। [यहाँपर 'नहीं देता है। इस पक्षमें मरने के बाद नहीं देनेसे आश्चर्य होना विरोध है, क्योंकि मरनेपर कुछ भी वस्तु किसीको दे सकना अशक्य हैं, 'राजाके अधीन कर देता है (मरनेपर शास्त्रीय वचनानुसार राजा उसकी सम्पत्तिको अपने अधीन कर लेता है ) यह विरोधका परिहार है / अथवा-जो जीता हुआ किसी को नहीं देता, वह मरनेपर राजाके लिये दे देता है, यह आश्चर्य है / जब मरनेपर लोमसे संचित धनको राजा ले ही लेता है और उससे कोई पुण्य या मात्मस्वार्थकी सिद्धि भी नहीं होती, तब जीते ही लोम छोड़कर मनुष्यको दान करना चाहिये ] // 89 //