Book Title: Naishadh Mahakavyam Purvarddham
Author(s): Hargovinddas Shastri
Publisher: Chaukhambha Sanskrit Series Office

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Page 710
________________ एकादशः सर्गः। सावधान हो जाव, (तथा ) हे राजालोग ! भीमकुमारी ( दमयन्ती) का देखना छोड़ो (पाठा०-देखो / क्यों कि ) देखी गयी भी दमयन्तीको फिर देखते हुए तुम लोगोंकी इच्छा करोड़ों वर्षों तक भी पूरी नहीं होगी। [ 'त्यजत' पाठमें-परम सुन्दरी दमयन्नीको बारबार करोड़ों वर्षों तक देखते रहनेपर देखनेकी इच्छा बनी ही रहेगी। अतएव यदि इसे. बराबर तुगलोग देखते ही रहोगे तो सम्भव है कि लज्जाशीला दमयन्ती तुम लोगों को अच्छी तरह नहीं देख सकनेके कारण वरण भी न करे, तथा पहले इसे देख ही लिया है अतः अब इसे देखने का अवसर दो, जिससे यह तुम लोगोंको देखकर वरण कर सके। 'भजत' पाठमें-परमसुन्दरी....."बनी ही रहेगी, इसलिये इच्छानुसार देखो देखते रहनेपर भी बिरसता नहीं आनेवाली है ] // 24 // लोकेशकेशवशिवानपि यश्चकार शृङ्गारसान्तरभृशान्तरशान्तभावान् / पञ्चेन्द्रियाणि जगतामिषुपञ्चकेन सशोभयन् वितनुतां वितनुर्मुदं वः / / ___ लोकेशेति।योऽनङ्गः, लोकेशकेशवशिवान् ब्रह्मविष्णुमहेशानपि, शृङ्गारेण शृङ्गार. रसेन, सान्तरः सावकाशः, विरल इत्यर्थः, भृशो गाढः, आन्तरः आभ्यन्तरः, शान्तभावः शान्तरसो येषां तान् रागजर्जरितवैराग्यान्, चकार; पञ्चानां सङ्घः पञ्चकं, 'सङ्ख्यायाः संज्ञासङ्घसूत्राध्ययनेषु' इति कन्प्रत्ययः, इषूणां पञ्चकेन जगतां पञ्चेन्द्रियाणि चक्षुरादीनि, सङ्कोभयन् व्याकुलयन् , स वितनुः अनङ्गः, वो युष्माकं, मुदं वितनुतां विस्तारयतु; विश्वविजयिनो भगवतः कामदेवस्य प्रसादः कस्य न श्लाध्यः ? इति भावः // 25 // संसार ( संसारियों ) के पञ्चेन्द्रियोंको पाँच बाणोंसे अत्यन्त क्षभित करते हुऐ जिसने ब्रह्मा, विष्णु तथा महेशके भी अत्यन्त दृढ़ आन्तरिक विरक्तिको शृङ्गार रससे शिथिल कर दिया, वह कामदेव आपलोगों के हर्षको बढ़ावे / ( अथवा-जिसने ब्रह्मा, शिथिल कर दिया, संसार करता हुआ वह कामदेव आपलोगों के हर्षको बढ़ावे ) / [ सृष्टि, स्थिति तथा प्रलय करनेवाले ब्रह्मा-विष्णु तथा महेश भी जिसके वशवी हो गये, उसके लिये आप लोगोंको वशीभूत करने में कोई विशेष प्रयत्न नहीं करना पड़ेगा, अतएव आप लोग दमयन्तीको देखना छोड़ दीजिये जिससे यह निःसङ्कोच आपलोगोंको देखकर वरण कर सके, पूर्व श्लोकके 'भजत' पाठमें-अत एव आपलोग इस दमयन्तीको इच्छापूर्वक देखते रहिये // 25 // पुष्पेषुणा ध्रुवममूनिषुवर्षजप्तहुङ्कारमन्त्रबलभम्मितशान्तिशक्तीन् / शृङ्गारसर्गरसिकद्वयणुकोदरि ! त्वं द्वीपाधिपान् नयनयोनय गोचरत्वम् / / पुष्पेषुणेति / रसोऽस्यास्तीति रसिकम् , 'अत इनिठनौ' इति ठन्प्रत्ययः, द्वावण कारणत्वेनास्यास्तीति घणुकम् अणुद्वयारब्धद्रव्यं, शैषिकः क-प्रत्ययः, द्वयणुकादिः प्रक्रमेण कार्यद्रव्यारम्भ इति तार्किकाः; शृङ्गारस्य सर्गे निर्माणे, रसिकं प्रवृत्तं, यत्

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