________________ चतुर्थः सर्गः 207 लगी। ठीक है-आश्रयको पीडा होनेपर कौन नहीं डर जाता अर्थात् सभी डर जाते हैं / [विरहावस्थासे उत्पन्न निःश्वासाधिक्य के कारण हृदयस्थित वन अधिक कम्पित होने लगा, हृदय के कम्पित होने पर उसपर स्थित वस्त्र मी कम्पित होने लगा। एवं जो कोई व्यक्ति किसीकी अवस्थाको कहने लगता है, तब उसके ओष्ठ आदि अङ्ग कम्पित होने ही लगते हैं। दमयन्तीका निःश्वास तथा हृदय कम्पन विरहके कारण बहुत बढ़ गया ] // 16 // करपदाननलोचननामभिः शतदलैः सुतनोविरहन्वरे / रविमहो बहुपीतचरं चिरादनिशतापमिषादुदसृज्यत / / 17 / / करेति / करौ पदे आननं लोचने इति नामानि येषां तैः, तदाकारपरिणामात. नामधारिभिः शतदलैः कुशेशयैः (कर्तृभिः) चिरात् चिरात्प्रभृति, पोतचरं रसव. शात् पूर्वपीतं, भूतपूर्वे चरटप्रत्यथः / बहु भूरि, रविमहः सूर्यतेजः, सुतनोः, दमयस्याः, विरहज्वरे वरावस्थायां, अनिशतापमिषानिरन्तरोष्मण्याजात् , उदपुज्यत उत्सृष्टम् / नूनमिति शेषः / अत्र पद्मानां भैमीकरचरणादिभ्यो नाममात्रभेदः। न रूपभेद इत्यभेदोक्तेरतिशयोक्तिः / तन्मला चेयं पूर्वपीततेजोवमनोरप्रेक्षा। सा च तापण्याजादित्यपह्नवानुप्राणितेति सङ्करः॥ 17 // सुन्दर अङ्गोवाली दमयन्तीके ( नल- ) विरहजन्य ज्वर ( सन्ताप) में हाथ, पैर, मुख तथा नेत्ररूप कमल मानो पहले अधिक मात्रामें पीये हुए सय-सन्तापको बहुत समयके बाद निरन्तर सन्ताप (विरहजन्य सतत ज्वर ) के बहानेसे छोड़ने (वमन करने) लगे / [ सर्वा सुन्दरी दमयन्तीके हाथ, पैर, मुख तथा नेत्र कमलके समान या कमलरूप ही हैं, कमलों का निरन्तर सूर्य-सन्तापसे विकसित होना स्वभाव-सिद्ध है, अतः सूर्यतापको दमयन्तीके हाथ-पैर आदि कमलों के द्वारा पहले पीनेकी तथा अधिकताके कारण बादमें बिरहजन्य ज्वर के न्याजसे वमन ( उल्टी) करने की कल्पना की गयी है। अन्य भी कोई व्यक्ति यदि किसी वस्तुको अधिक प्रमाणमें पीता है, तो उसे बाद वमन कर देता है। विरहज्वरसे दमयन्ती के कमलतुल्य हाथ पैर आदि अङ्ग अधिक सन्तप्त होने लगे ] // 17 // उदयति स्म तदद्भुतमालिभिर्धरणिभृद्भुवि तत्र विमृश्य यत् | अनुमितोऽपि च बाष्पनिरीक्षणाद्वयभिचचार न तापकरो नलः / / उदयतीति / आलिभिः सखीभिः, तत्र तस्यां, धरणिभृतो भीमभूपाद्भवतीति तद्भः भैमी तस्यां पर्वतभूमौ च विमृश्य ग्याप्तिमनुसन्धाय, बाष्पनिरीक्षणादश्र. लिङ्गदर्शनात् / अन्यत्र, धूभदर्शनात् / 'बाष्पोऽण्यम्बुधूमे च' इति वैजयन्ती / अनुमितः अभ्यूहितः, अन्यत्र लिङ्गभाप्तावधारितोऽपि तापकरः सन्तापजनका, नलो नैषधः, अन्यत्र अनलोऽग्निः, न व्यभिचचार नान्यया बभूवेति यत् , तदभुः तमुदयति स्म उत्पसमित्यर्थः। 'अय गतौ' इति धातोर्भूते लट् / नलचिन्ताजन्यो. ऽयं सन्ताप इत्यथ दर्शनारसखीभिरूहितमहो इति परमार्थः। अग्रवाष्पलिङ्गदर्श