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70 :: मूकमाटी-मीमांसा
सप्रयोजन होने की, उपयोगी होने की और उसकी यह अन्तर्भूत इच्छा उसे जिज्ञासु बनाती है, जिज्ञासु से शिष्य, शिष्य से साधक, व्रती तपस्वी, समर्पित साधक और फिर परीक्षार्थी । घोर से घोर परीक्षाओं में लिप्त परीक्षार्थी । वह अग्नि में पकी, तपी कुम्भ की माटी इस इच्छा तत्त्व की जागृति के पश्चात् जड़, अज्ञानी, मूर्ख, पददलित न रहकर, मनस्वी, विवेकी, कर्मठ, उत्तरदायी, सजग, जागरूक एवं पथप्रदर्शक बन जाती है। परिपक्व इतनी कि मुनिवर स्वर्ण कलश और स्फटिक झारी को छोड़ कर उसमें रखे रस से ही आहार ग्रहण करते हैं; सचेत व ज्ञानी इतनी कि बड़े-बड़े वैद्याचार्यों के असफल होने पर अपने सहज ज्ञान के बल पर रुग्ण सेठ का रोग निवारण कर देती है; सजग इतनी कि महल में चुपचाप चलने वाली दुरभिसन्धि का पता लगा कर सेठ व उसके समस्त परिवार को विपत्ति के मुख में से निकाल ले जाती है और सेवक धर्म पालन में तत्पर ऐसी कि अपने स्वामी सेठ के परिवार की रक्षा के लिए नगर, वन, नदी सब जगह आगे-आगे कूद पड़ती है। यह पददलित, भूपतिता जड़ माटी का ही कायाकल्प है जो उसमें घनी साधना के कारण उपस्थित हुआ है। घनी साधना में प्रवृत्त होने के लिए इच्छा तत्त्व, सफल व सार्थक होने के लिए इच्छा तत्त्व के उदय की आवश्यकता है। भाव यह है कि जिस में सार्थकता की इच्छा का उदय नहीं है, वह जड़ता का त्याग नहीं कर सकता । विकास व उन्नयनीकरण का मूलाधार है इच्छा – उन्नयन की इच्छा । इच्छा तत्त्व सर्वोपरि है - सब से महत्त्वपूर्ण है, अनिवार्य है। इच्छा जब पुष्ट होकर व्याकुलता में बदल जाती है और फिर व्यग्रता में, विह्वलता में, तब साधना का समय आता है। साधना क्लिष्ट होती है, कष्टप्रद होती है, दाहक होती है । साधना साधक को रौंदती है, पीसती है, पीटती है, कूटती है, गलाती है, सुखाती है, मनमाने आकार में ढालती है और फिर अवा में पकाती है, साधक अपनी मूलभूत इच्छा सार्थक, उपयोगी होने की इच्छा के कारण इस समस्त कष्ट में से गज़रता है और अन्तिम रूप से सफल हो कर निकलता है । साधना की अग्नि में न केवल अपरिपक्वता नष्ट होती है अपितु दूषितता, वर्णसंकरता, अपावनता, कषाय आदि सब नष्ट हो जाते हैं तथा सुभगता, सौन्दर्य, तेज, उपयोगिता का आगम हो जाता है और उत्पन्न हो जाती है क्षमता, धारण करने की क्षमता, जल जैसे तरल पदार्थ को धारण करने की क्षमता । इस क्षमता से युक्त, परिपक्व, विवेकशील, स्वस्थ जीवन-दर्शन का स्वामी ऐसा साधक समाज के लिए एक वरदान बन जाता है।
समाज उसे मुक्त मन से स्वीकार ही कर लेता हो, ऐसा नहीं है । समाज की संरचना में कुछ मूलभूत खोट है । समूह का जीवन मान-अपमान, ईर्ष्या, द्वेष, हिंसा, स्वार्थ के भावों से अभिशप्त है । श्रेष्ठतर, महत्तर सिद्ध होने की कामना, दूसरे को अपने से हीनतर सिद्ध करने की व्याकुलता तथा अपनी दुर्बलताओं को स्वीकार न करके उनके लिए दूसरों को अपराधी सिद्ध कर देने की कामना, समाज की संरचना में निहित है और यही मानसिकता समाज के सारे विकारों के लिए उत्तरदायी है । आचरण की शुद्धता असम्भवप्राय हो जाती है क्योंकि तत्सम्बन्धी मानसिकता का अभाव है। समाज की इस मूलभूत दुर्बलता व विकृति का निराकरण असम्भव तो नहीं, परन्तु कठिन अवश्य है। कृच्छ साधना, अहं का विसर्जन, मान-अपमान का त्याग, मन-वचन-काया से शुद्धता की साधना और इन सबके साथ-साथ हृदय में करुणा, दया व क्षमा का विकास- बस यही मन्त्र है और यही तन्त्र । साधना का मार्ग अत्यन्त कठिन है, परन्तु मंज़िल की प्राप्ति उतनी ही सुन्दर, काम्य व मूल्यवान् है । संसार भर की पूजा, अर्चा, श्रद्धा, समादर का सहज अधिकार प्राप्त हो उठता है । सार्थक मानवोचित अहं, स्वार्थ, मान खो कर परा मानवीय शान्ति, स्थिरता, दु:खाभाव, निर्वेद प्राप्त कर लेता है और मानव के स्थान पर मुनि हो जाता है।
'मूकमाटी' महाकाव्य में नायक-नायिका तथा प्रधान-गौण पात्रों का निर्धारण नहीं किया जा सकता । इस की पात्र-योजना अद्भुत है । इसके पात्र प्रतीक पात्र नहीं हैं। वे सब अपने-अपने व्यक्तित्वों के स्वामी हैं, किसी इतर व्यक्तित्व के स्थानापन्न अथवा संकेतक अथवा चिह्न नहीं हैं। जीवन तत्त्व से भरपूर सभी पात्र जगत् के विभिन्न लोकों, वर्गों, जातियों से लिए गए हैं और सभी में अपनी-अपनी जीवन्तता है, अपना-अपना भावलोक है, अपना-अपना