________________
सौभाग्य मान, मानव अपना सौभाग्य मान, तुझे तारने, हाथों में यह ठहरी है। यह ज्ञान, ध्यान की गंगा परम सुहानी है, हिमगिरि से ऊँची, सागर से भी गहरी है ॥ ११ ॥
बुद्धिहीन, बलहीन और सामर्थ्यहीन, कृति की करना पहचान मुझे तो दुष्कर है। आचार्यश्री हे विद्यासागर ! स्वीकारो, प्रभो ! आपके श्री चरणों, नत यह सर है ॥ १२॥
'मूकमाटी' मथती है मनसा वाचा कर्मणा, जीने की दिशाएँ नई हमें दिखलाती है। मन के सितार के, ये तार झनझनाती सखे !, पृष्ठ- पृष्ठ पूज्य सन्त विद्यासागर लाती है ॥१३॥
मूकमाटी-मीमांसा :: 463
'मूकमाटी' बैठ जात, माथ में तो सुनो तात ! दर्शन के हाथ, जगन्नाथ ये कराती है। कभी भी नहीं अकेली भावभूमि की सहेली, चावल सुदामा के कन्हैया को खिलाती है ||१४||
सुनो../सुनो मेरे मीत,/ 'मूकमाटी' महान् दार्शनिक सन्त/ आचार्यश्री विद्यासागरजी महाराज का है/ अमर जीवन संगीत ।
'मूकमाटी' को / सिर्फ़ देखो मत
इसे / अन्तर के पट खोलकर / लगन - निष्ठा एवं ईमानदारी से बाँचो / न सही जन-मंगल न सही लोक - मंगल / स्वयं के हित में नाचो ।
जिस दिन / 'मूकमाटी का / सही-सही अर्थ आपकी समझ में आ जाएगा, / उस दिन / आपका तन-मन-जीवन / विद्यासागर हो जाएगा ।
ओ 'मूकमाटी' को/लपक कर खरीदने वालो काँच के शो-केस में/ ड्राइंग रूमों में सजाने वालो ! इससे पहले/कि/तुम्हें बेनकाव किया जाए अपनी कैद से / मुक्त कर दो 'मूकमाटी'' तुम्हारी आलमारियों में / इस अमर कृति को देख फटती है छाती / फटती है छाती ।