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'मूकमाटी' में प्रकृति-चित्रण
सुरेश सरल
प्रकृति का अवलोकन करने के उपरान्त उसका चित्रण करना एक बात है और कल्पना क्षेत्र में रचे गए प्राकृतिक दृश्य का वर्णन करना पृथक् बात है । आचार्य विद्यासागरजी ने 'मूकमाटी' महाकाव्य के अनेक स्थलों पर प्रकृति के काल्पनिक दृश्य निर्मित किए हैं। कई स्थानों पर दृश्य केवल वे ही देख रहे हैं, ऐसा ज्ञात होता है। वे ही उसके रचयिता और वे ही उसके द्रष्टा । मगर दृश्यों का चित्रण करते समय वे द्रष्टा के रूप में पहले, पाठकों की नज़र में आ जाते हैं ।
चूँकि सम्पूर्ण महाकाव्य के पार्श्व में जैन सिद्धान्त हैं और उन्हें कहीं, तनिक भी शिथिल / क्षीण नहीं होने दिया गया है, अत: स्वाभाविक है कि प्रकृति चित्रण करते हुए भी रचनाकार ने यह ध्यान रखा हो कि भले ही चित्रण लघु रहे, पर उसकी उपस्थिति से सिद्धान्तों के साथ खिलवाड़ न हो।
उनका महाकाव्य प्रकृति-चित्रण से प्रारम्भ किया गया है, जहाँ प्रथम खण्ड की पहली पंक्ति ही पाठक को प्रकृति की और ले जाती है :
" सीमातीत शून्य में / नीलिमा बिछाई, और इधर
नीचे / निरी नीरवता छाई ।” (पृ. १)
'नीचे' से अर्थ है धरती पर। वहाँ, ऊपर गगन में चारों ओर नीलिमा है और इधर धरती पर शान्ति । विचित्र चित्रण है - रंग का प्रति - उत्तर रंग से होना चाहिए था, यथा- ऊपर नीलिमा है तो नीचे कोई दूसरा रंग- कालिमा, हरीतिमा आदि । पर वे कथन ऐसा नहीं सँवारते । वे नीलिमा के समक्ष 'शान्ति' की बात कहते हैं जो 'प्रकृति चित्रण में वैचित्र्य' का दुर्लभ उदाहरण है ।
वे बाद की पंक्तियों में, पूरे दृश्य को माता का मार्दव उत्संग (गोद) में बदल देते हैं, जब लिखते हैं:
"भानु की निद्रा टूट तो गई है / परन्तु अभी वह / लेटा है
माँ की मार्दव-गोद में,/मुख पर अंचल ले कर / करवटें ले रहा है ।" (पृ. १)
यह विशाल दृश्य देखने वाला कवि अपने लेखन में अनेक विशालताओं को लेकर काव्य-यात्रा पर पाया गया है । रचनाकार ने पूर्व दिशा में सुबह-सुबह जो लालिमा देखी है, उसका वे वर्णन भर नहीं करते बल्कि कुछ समय लिए वे पूर्व दिशा को ही एक सुन्दरी की तरह पाठकों के परिचय में लाते हैं :
“प्राची के अधरों पर / मन्द मधुरिम मुस्कान है
सर पर पल्ला नहीं है / और / सिन्दूरी धूल उड़ती-सी रंगीन - राग की आभा - / भाई है, भाई !" (पृ. १)
मगर वे पाठक को उस सुन्दरी के दर्शन नहीं होने देते और स्वतः एक वर्णी की तरह दृश्य के आनन्द को भाषा के माध्यम से सामने लाते हैं :
"लज्जा के घूँघट में/ डूबती-सी कुमुदिनी
प्रभाकर के कर- छुवन से / बचना चाहती है वह;
अपनी पराग को - / सराग - मुद्रा को - / पाँखुरियों की ओट देती है।" (पृ. २)