Book Title: Mokshmala
Author(s): Paramshrut Prabhavak Mandal
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

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Page 201
________________ तत्त्वाववोध भाग १७. १८३ जैन नास्तिक है, सो चार्वाकमसे उत्पन्न हुआ है एम कहेवा मांडयु. पण ए स्थळे कोइ प्रश्न करे, के महाराज! ए विवेचन तमे पछी करो. एवा शद्वो कहेवामां कंइ वखत विवेक के ज्ञान जोइतुं नथी; पण आनो उत्तर आपो के जैन वेदी कयि वस्तुमा उतरतो छ एनुं ज्ञान, एनो वोध, एर्नु रहस्य, अने एनुं सत्शील के, छे ते एकवार कहो ? आपना वेद विचारो कयी वावतमां जैनथी चढे छ ? आम ज्यारे मर्मस्थानपर आवे सारे मौनता शीवाय तेओ पासे वीजें कई साधन रहे नहीं. जे सत्पुरुपोनां वचनामृत अने योगवळची आ सृष्टिमां सत्यदया, तत्वज्ञान अने महाशील उदय पामेछे, ते पुरुषो करता जे पुरुषो शृंगारमा राच्या पड्या छ, सामान्य तत्वज्ञानने पण नयी जाणता, जेनो आचार पण पूर्ण नथी, तेने चढता कहेवा परमेश्वरने नामे स्थापवा अने सत्यस्वरुपनी अवर्ण भापा वोलवी, परमात्म स्वरुप पामेलाने नास्तिक कहेवा, ए एमनी केटली वधी कर्मनी वहोलतार्नु सूचवन करे छे? परंतु जगत् मोहांध छे मतभेद छे त्यां अंधारुं छे, ममत्व के राग छे त्यां सत्य वत्व नथी. ए वात आपणे शा माटे न विचारवी ? हुँ एक मुख्य वात तमने कहुं छड के जे ममत्वरहितनी अने न्यायनी छे. ते ए छे के गमे ते दर्शनने तमे मानो, गमे तो, पछी तमारी दृष्टिमां आवे तेम जैनने कहो, सर्व दर्शननां शास्त्रतत्त्वने जुओ तेम जैनतत्वने पण जुओखतंत्र आत्मिकशक्तिए जे योग्य लागे ते अंगीकार करो, माई के

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