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श्रीमद् राजचंद्र प्रणीत मोक्षमाळा.
अंतर्गत, सिंधु विंदुरूप वालाववोध शिक्षापाठ.
" जेणे आत्माने जाण्यो तेणे सर्व जाण्युं"
निर्ग्रथ मवचन.
प्रकटकर्त्ता, परमश्रुत प्रभावक मंडल - मुंबई.
संवत् १९६२. त्रीजी आवृत्ति
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सर्व हक स्वाधीन.
धी राइझींग स्टार प्रीन्टींग प्रेसमा, व्यास कालीदास पीतांबरे छाप्यु-राजकोट
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अनुक्रमणिका.
पाट,
Sanvr
..
...
वांचनाग्नं भलामण. गरमागधर्म नमेना नमन्कार. मानवदेह. भनाभी गनि भाग ? लो. अनायी मुनि भाग - जो.
नाथी मुनि भाग ३ नो. मन्दंव न. माय नम मग नच भाग ग. मगमगार भाग २ जी. उगम गृम. निनवग्नी भनि भाग ? लो. निने परनी भक्ति भाग २ जो. भनिना उपग. गरी महना.
......
.
चार गान. गंगारने गार उपमा भाग ? लो. ३४
गग्न चार उमा भाग २ जो. ३६
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वार भावना.
कामदेव श्रावक •
सत्य.
सत्संग.
परिग्रहने संकोचवो.
तत्त्व समजवुं.
यतना.
रात्रि भोजन.
सर्व जीवनी रक्षा भाग १ लो. सर्व जीवनी रक्षा भाग २ जो.
प्रत्याख्यान.
विनयवडे तत्वनी सिद्धिछे.
सुदर्शन शेठ.
ब्रह्मचर्य विषे सुभाषित.
नमस्कार मंत्र.
अनुपूर्वी.
सामायिक विचार भाग १ लो.
भाग २ जो.
भाग ३ जो.
"
"
प्रतिक्रमण विचार.
भिखारीनो खेद भाग १ लो.
भाग २ जो.
"
अनुपम क्षमा.
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राग. सामान्य मनोर्थ. कपिल मुनि भाग १ लो.
" भाग २ जो.
" भाग ३ जो. तृष्णानी विचित्रता. प्रमाद. विवेक एटले शुं? शानीओए वैराग्य शा माटे वोध्यो. महावीर शासन. अशुचि कोने कहेवी. सामान्य नित्य नियम. क्षमापना. वैराग्य ए धर्मर्नु स्वरुप छे. धर्मना मत भेद भाग १ लो. " भाग २ जो.
भाग ३ जो. सुखविप विचार भाग १ लो.
भाग २ जो. भाग ३ जो. भाग ४ थो. भाग ५ मो. भाग ६ हो.
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अमूल्य तत्त्व विचार. जितेंद्रियता. ब्रह्मचर्यनी नव वाड. सनतकुमार भाग १ लो.
" भाग २ जो. वत्रिश योग. मोक्ष सुख. धर्म ध्यान भाग १ लो.
" भाग २ जो.
" भाग ३ जो. ज्ञान संबंधी वे वोल भाग १ लो.
भाग २ जो. भाग ३ जो.
भाग ४ थो. पंचमकाळ. तत्त्वांववोध भाग १ लो.
भाग २ जो. भाग ३ भाग ४ थो. भाग ५ मो. भाग ६ भाग ७ मो. भाग ८ मो.
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भाग ९ मो. १७० भाग १० मो. भाग ११ मो. १७४ भाग १२ मो. भाग १३ मो. १७७ भाग १४ मो. १७८ भाग १५
१७९ भाग १६ मो. १८१ " भाग १७ मो. १८२ समाजनी अगत्य.
१८४ मनोनिग्रहनां विघ्न. स्मृतिमा राखवा योग्य महावाक्यो. १८६ विविध प्रश्नो भाग १ लो. १८७
भाग २ जो. १८९
भाग ३ जो. " भाग ४ थो.
" भाग ५ मो. जिनेश्वरनी वाणी.
१९४ पूर्ण मालिका मंगल.
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पहेली आवृत्तिनी प्रस्तावना.
शिक्षण पद्धति अने मुख मुद्रा. आ एक स्यादवाद तत्वाव बोध वृक्षतुं बीज छे. आ ग्रंथ तत्व पामवानी जीज्ञासा उत्पन्न करी शके एबुं एमां कंइ अंशे पण दैवत रहुं छे ए सम्भावथी कहुं छउं.
पाठक अने वांचक वर्गने मुख्य भलामण ए छे के शिक्षापाठ पाठे करवा करतां जेम बने तेम मनन करवा, तेनां तात्पर्य अनुभववा, जेमनी समजणमां न आवता होय तेमणे ज्ञाता शिक्षक के मुनियोथी समजवा, अने ए योगवाइ न होय तो पांच सात वखत ते पागे वांची जवा एक पाठ वांची गया पछी अर्ध घडी ते पर विचार करी अंत:करणने पूछq के शुं तात्पर्य मळ्युं ? ते तात्पर्यमांथी हेय क्षेय अने उपादेय शुं छे ? एम करवाथी आखो ग्रंथ समनी शकाशे, हृदय कोमळ थशे विचार शक्ति खीलशे; अने जैन तत्वपर रुडी श्रद्धा थशे. आग्रंथ कंइ पठन करवा रुप नथी पण मनन करवा रुप छे. अर्थरुप केळवणी एमां योजी छे ते योजना वालाववोध रुप छे. विवेचन अने प्रज्ञानवोध भाग भिन्न छे आ एमांनो एक ककडो छे, छतां सामान्य सत्वरुप छे.
स्वभाषा संबंधीजेने सारुं ज्ञान छे, अने नवतत्व तेमज सामान्य प्रकरण ग्रंथो जे समजी शकेछ तेवाओने आ ग्रंथ विशेष वोध दायक थशे. आटली तो अवश्य भलामण छे के
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नाना वाळकने आ शिक्षापाठोनु तात्पर्य समजण रुपे सविधि आप
ज्ञानशालाना विद्यार्थिओने शिक्षापाठ मुखपाटे कराववाने वारंवार समजाववा, जे जे ग्रंथोनी ए माटे सहाय लेवी घटे ते लेची एक वे वार पुस्तक पूर्ण शीखी रह्या पछी अवळेथी चलावg. ____ आ पुस्तक भणी हुं धारु छउँके मूज्ञ वर्ग कटाक्ष दृष्टिथी नहीं जोशे वहु उंडा उतरतां आ मोक्षमाला मोक्षना कारणरुप थइ पडशे! मध्यस्थताथी एमां तत्वज्ञान अने शील बोधवानो उद्देश छे. ___ आ पुस्तक प्रसिद्ध करवानो मुख्य हेतु उछरता वाल युवानो अविवेकी विद्या पामी आत्मसिद्धिथी भृष्ठ थायछे ते भृष्ठता अटकाववानो पण छे ' मनमानतुं उत्तेजन नहीं होवाथी लोकोनी मान्यता केवी थशे ए विचार्या वगर आ साहस कर्यु छे, पण हुँ धारु छउँ 'के ते फळदायक थशे. शाळामां पाठकोने भेट दाखल आपवा उमंगी थवा अने जैनशानामां उपयोग करवा मारी भलामण छे, तोज पारमार्थिक हेतु पार पडशे.
बीजी आत्तिनी प्रस्तावना. . . '१ आ ग्रंथ एक स्याद्वाद तत्वाववोध वृक्षतुं वीज छे. तत्व जीज्ञासा उत्पन्न करी शके एवं एमां कंइ अंशे दैवत रघुछे, ए संभावथी कहेवा योग्य छे.
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मुझ जीवोमव्यस्थताथी पठन-मनन करशे, तो तेओने आ ग्रंथ बहु लाभकारी थशे. बहु उंडा उतरतां आ मोक्षमाळा मोसनां कारण रुप थइ पडशे. मध्यस्थताथी एमां तत्वज्ञान अने शिल बोधवानो उद्देश छे.
वांचनारने अने भणनारने मुख्य भलामण ए छे के आशिक्षापाठ एकला पाठे करवा करतां जेम वने तेम मनन करवा अने तेना तात्पर्य अनुभवत्रांजे न समजे तेणे जाणनार पासेथी विनय पूर्वक समजवानो उद्यम करवो. एवी योगवाइ न मळे तो ए पाठो पांच सातवार शांति पूर्वक वांची जवा. एक पाठ वांची गया पछी अर्ध घडी ए उपर विचार करी मनने पूछg के शुं समजायुं ? जे स. मजायु तेमां हेय (छांडवा योग्य,) ज्ञेय (जाणवा योग्य) अने उपादेय (आदरवा योग्य) छे ? आम करवायी आखो ग्रंथ समनी शकाशे; हृदय कोमळ थशे, विचार शक्ति खील अने विनराग मार्ग उपर रुडी श्रद्धा थशे.
आ ग्रंथ एकलो वांची जवानो नथी. एमां मनन करवानी जरुर छ, अर्थरुपी केळवणी एमां योजीछे, ए योजना वालाववोध छ; जे तत्व जीशामु वाल विवेकियोने बहु उपयोगी छे, विवेचन अने प्रज्ञाववोध भाग भिन्नछे, आ पुस्तक एमांनो एक खंडछे छतां सामान्य तत्वरुप छे. गुजराती भापानुं जेने सारं ज्ञानछे अने नवतत्वादि सामान्य प्रकरणो जे समनी गकेछे एओने आ ग्रंथ विशेष वोध दायक थशे. आ ग्रंथनी योजनानो एक हेतु उछरता युवा.
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नोने आत्म-हित भणी लक्ष कराववानो छे. तेमज आत्मार्थी पुरुषो आवी वीजी खपर हितकारी माळा गुंथी प्रसिद्धिमा लावे एवो पण एक हेतुछे, आ मोक्षमालानां चार पुस्तको थवानी योजना हती एमांनुं आ वीजुं पुस्तक छे.
अगाउ कां तेम आ पुस्तक वालाववोध छे. विवेचन अने प्रज्ञानवोध त्रीजा अने चोथा पुस्तकमां आववानी योजना हती. पहेलां पुस्तकनो उद्देश पांचमा पारिग्राफथी सूचित थायछे. आ ग्रंथना कर्ता पुरुष ए वाकीनां पुस्तको गुंथे ए पहेला तेओ श्रीनो देहोत्सर्ग थयोछे जेना करतां वीजें कंड संताप जनक होइ शके नहीं. त्रीजा अने चोथा पुस्तकनी संकलना दरेक मालाना १०८ शिक्षापाठ रुप मणकावडे संक्षेपमा अल्प वखतमां एओए प्रकाशी छे. कोइ विवेकी, मध्यस्थभावी जीव ज्ञानी पुरुषतुं आलंबन लइ ए संकलना प्रमाणे माळा गुंथवा पुरुषार्थ करे तो ते महा भागने स्वपरहित सुलभ छे. तथास्तु!
२ आ ग्रंथनी आ वीजी आवृत्ति प्रगट थायछे. "वितराग मार्ग प्रवेशिका" एवं उपनाम आ ग्रंथने योग्य छे. वितराग कथित मार्गनुं स्वरुप आ ग्रंथमां दर्शाव्यु छे ज्ञानादि विकसाववानी, विशुद्ध करवानी आमां कुंची रहेली छे. कत्ती पुरुषे प्रकाश्यु छ के-बहु उंडा उतरतां
आ मोक्षमाळा मोक्षनां कारणरुप थइ पडशे. (कारणके) मध्यस्थताथी एमां तत्वज्ञान अने शिल वोधवानो उद्देश छे...
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१३
आ मोक्षमाळा मोक्षवधु माटेनी वरमाळा थाय ए सहज सिद्ध धायछे. तत्वज्ञान अने सत्शील, अथवा ज्ञान अने क्रिया, अथवा श्रुत अने चारित्र धर्मनी आराधना, अथवा सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन करीने सम्यक्चारित्र सरळभापामां सत्य जाणपणुं अने ते प्रमाणे सत्य वर्तन आ मोक्ष प्राप्तिनां साधन छे; अने ए साधनोनो आ ग्रंथमां वोधछे.
तो ते यथार्थ वांची- विचारी ते प्रमाणे प्रवर्तनारने मोक्ष केम सुलभ न होय ? अर्थात् तत्व समजवानो प्रयास करी, ते समजी सीधी रीते वर्त्ते तो तेने मोक्ष दूर नथी: आम तत्वज्ञान पामवानो, सत्शील सेववानो, अने परिणामे मोक्ष मेळववानो आखा ग्रंथमां बोधछे. तत्व जीज्ञासा जागृत करे, अने सद्वर्तनमां मेरे एवो स्थळे स्थळे उपदेश छे. अज्ञान अने मतमतांतर टाळवानो, मध्यस्थताथी तत्व उपर आववानो, एवी रुची उपजाववानो प्रयास स्थळे स्थळे छें, जे मोक्षनां कारणरूप छे. शिक्षापाठ मात्र मनन करवा योग्य छे. एटले प्रत्येकनुं प्रथक् अवलोकन न करता ए वांचनारने शीर राखवं योग्य छे. वांचनारने भलामणना पाठमां दर्शाच्या प्रमाणे विवेक पूर्वक, मनन पूर्वक, आ माळा कंठे धरवाथी प्रांत बहु हित थशे माटे सर्व सुज्ञ भाइओ, व्हेनोए विवेक पूर्वक, मध्यस्थताथी, ममत्व दूर करी बहुमान अने विनय पूर्वक आ ग्रंथ पठन-मनन कर, जेथी मोक्षनां कारणरूप थइ पडवानो आमाळानो हेतु सहज सिद्ध थाय. तथास्तु !
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त्रीजी आवृत्तिनी प्रस्तावना.
श्री मोक्षमाळानी आ त्रीजी आवृत्ति लोक सेवामां रजु करतां अमने घणो आनंद थायछे. तत्त्वजीज्ञासुओने सामान्यपणे तत्वावबोधनां निमित्तरूप आ माळा केवळ जैनियो माटे अथवा एक अमुक संप्रदाय माटे रचवामां नयी आवी. - ए एनी अंदरना शिक्षापाठोथी खात्री थाय एमछे.
मकरण ग्रंथोना ज्ञानकांड अने क्रियाकांड एवा वे विभाग पाडिये तो आ ग्रंथ प्रथम भागमां आवे छे. जेम संप्रदाय जुदो, तेम क्रिया पण जुदी, अर्थात् संप्रदाय भेदे क्रियाभेद पण होय आ वात स्वाभाविक छे; अने एकांत क्रियाने उद्देशी आ मोक्षमाळा लखवामां आवी हत तो एने अमुक एक संप्रदायनो पक्ष लेवो पडत; अने एम थतां सामान्य वांचनाराओमां, जैनना जुदा जुदा संप्रदायमां एणे जे जिज्ञासावोध जागृति आणीछे, एजे आदर सत्कार पामीछे, तेमां मोटी खामी आवत. जेम जेम क्रियाओ जुदी तेम तेम संप्रदाय पण जुदा ; अने जेम जेम संप्रदाय जुदा तेम तेम क्रियाओ पण जुदी, आा एक वीजाने आधारे रहेलां लांबा काळी चाली आवेलां सत्यछे, देश-काळादि भेदे क्रियादि भेद पढेछे; क्रियादि भेदे संप्रदाय पंथभेद पडेछे; पण ते सर्वमां ज्ञानभाग तो सामान्यज रहेछे; तत्त्वज्ञानमां फेर पडतो नथी.
"
लिंग अने भेदो जे वृत्तनां रे, " द्रव्य देश काळादि भेद - मूळ मारग सांभळो जीननो रे,
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"पण ज्ञानादिनी जे न्यूनता रे, . "तेतो त्रण्ये काळेज अभेद-मूळ०
कती पुरुप श्रीमद् राजचंद्र. रुपियो राखवानी कोथली काळक्रमे घसाइ जीर्ण थइ नाश पामे, तेने साटे नवी कोथळी आवे, पण एनी अंदर रहेल रुपियो तो तेनो तेज, तेम कालक्रमे नवा नवा संप्रदाय थाय, एक संप्रदाय लोप थइ तेनी जगोए बीजो उत्पन्न थाय, क्रियामां फेरफार-रुपांतर थाय, पण ते वधानो आधार, सामान्य अवलंबन तो परापूर्वी चाल्यो आवतो ज्ञानमार्ग, अनादि काळधी सत्पुरुपोथी, महात्माओथी उत्तरोत्तर उतरी आवतुं तत्त्वज्ञान, तेनुं गर्मित गूढ रहस्य जे ज्ञान ते तो एकज.
आ ग्रंथ तत्व पण रुपियो छे, अर्थात ए ज्ञान मुख्य छे, एनो गर्भ ज्ञानछे; अने तेथी ते गमे ते देशकाळमाँ ते ते देशकाळनी भापामां तत्त्वनिज्ञासुओने तत्त्वाववोधनां कारणरुप थशे. श्रीमन् कता पुरुपे प्रथमावृत्तिनी प्रस्तावनामां, तेनी मुखमुद्राना मथाळेज पूर्ण विचार करी आभविष्य-भाखेलं छे. जैनोमां जुदा जुदा संप्रदाय, गच्छ भेद छतां आ मोक्षमाला सामान्य बोधनुं कारण थयेल छ, ए ए संभावनाने विचारपूर्वक भविष्य घाणीने सत्य ठरावे छे.
पहेली आरति संवत् १९४३-४४मां वहरि पडी हती. वीजी आवृत्ति संवत् १९५७मां प्रगट थइ अने त्यार पछी आत्रीजी आत्ति लोक सेवामांरजु थायछे, ए आग्रंथनी
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लोकमां वधेली जीज्ञासा सूचवे छे, घणी सारी पाठशाला. ओमां आ ग्रंथ धर्म-नीति-तत्त्वज्ञानना शिक्षण अर्थे मुकरर करवामां आव्यो छे तेथी पण एनी मागणी विशेष जोवामां आवेछे. आथी आनी चोथी आत्तिनो खप पण टुंक मुदतमां जागशे, एम अमने लागेछ. हिंदी भाषामां आनु भाषांतर पण थयेल छ, मराठीमां थवानुं छे ए जे हेतु ए आ ग्रंथ योजायलो छे, तेनी सिद्धि साधकता अने तेनी उत्तमताना पुरावारुप छे. ____ आग्रंथ जीज्ञासानी वृद्धि करशे, एवी आशा आम जोता सफल थइ छे, छतां आ ग्रंथना पहेला, त्रीजा अने चोथा भागो रची तैयार करी प्रगट करवा कोइ वीरपुरुष वहार नथी आव्यो ए खेद जनक छे. संपूर्ण तत्त्वज्ञाननी टोचे पहोंचयूँ तो रां, पण सामान्य वोधनीए ए मंदता सूचवे छे जे खरेखर खेद युक्त छे. आ कार्य कोइ मुख तत्त्वजिज्ञासु माथे लइ पार पाडशे, एवी अमे वीजी आरत्तिनी प्रस्तावनामां आशा प्रगट करी हती, पण ए वातने पांच वरस थइ गयांछे मूळ कर्ता पुरुषे पोतानी अंत अवस्थाए प्रकाशेल अनुक्रमणिका माटे पण कोइनी मागणी थइ नथी! पण आथी अमे निराश नथी थता. हजी कोइने कोइ सत्वशाली महानुभाष दर्शन देशेज, केमके वहु-रत्ना वसुंधरा अने एने आ अनुक्रमणिका उपयोगी थशे. . श्रीमद् राजचंद्रना विचारादि संग्रहनो एक म्होटो ग्रंथ क्यारनो लोक सेवामां रजु थयोछे, तेमां पण आ मोक्षमा
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लाना तत्वमुख शिक्षापाठो दाखल करेला छे.
श्री मोक्षमाळानी पीजी तथा आत्रीजी आवृतिना अंगे अमे वांचक वर्गनी क्षमा चाहिये छिये, के अनिवार्य कारणोने लइ, फलधारणानी खामीने लइ वीजी आवृति बहु दोपवाळी रही हती पहेली आवृति करतां पण वधारे दोपवाळी हती; अने आ त्रीजी आवृति पग दोष रहित थइ शकी नथी. शुद्धि पत्रक आ साथे टांकेलं छे, पण हवे पछीनी आवृत्तिमां आ के आवा दोपो न आवे, न रहे, एम श्वा करवा आशा राखिये छिये.
घणीवार लोको जे वात (साची के खोटी) पोते मानी वेठा होय तेने अणसमजथी ग्रंथनी वात साथे सेळमेळ करी देछे. साची वातनी तो हरकत नहि, पण खोटी वातना सेळमेळथी ग्रंयने बहु हानि पहोंचे छे; विचक्षण जनो पण आ शुलावो खाय छे, तो सामान्य जनोनुं तो कहे ज शुं ? ग्रंथमा रहेलो आशय ते ग्रंथना वांचनारा के सांभळनारा समजफेर रुपे ग्रहण करे. तेथी वांचनारा के सांभळनारा पोताने तो सत्यनो लाभ नर्थी थतो, पण उलटुं ग्रंथने तेना वस्तु-विचार-विषयने, तेना कर्त्ताने अन्याय थायछे अने तेथी थवाना भविष्यना लाभने जवरोधको पहोंचे छे, आ ग्रंथने अंगे पण एकाद वे वावतमा कांइक असंमजस भावे समजफेर ययेलो अमारे काने आन्यो छे. आखो ग्रंथ मध्यस्थभावे, केवळ पक्षपात रहित, मतभेदने कोरे मूकी, तत्त्व बोधने अवलंबी तेना प्रचार अर्थे लखायलो छे आ खाते
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ग्रंथतुं मननपूर्वक, युक्तिपूर्वक, मध्यस्थभावे अवलोकन करतां तेना निष्पक्षपातपणानी खात्री थाय एम छे. छतां उपर जणाव्युं तेम अज्ञान जन्य समज फेर थयेल छे. जे जोके कोइ रीते ग्रंथना गौरवने घटाडे एम नथी, अथवा तो तेना विषयने, के कान के भाविलाभने उपर कह्या मुजव हानि रुप नथी केमके सुवर्ण सदाकाल सुवर्ण रुपे स्थित रहेशे; कोइ एने समज फेर पीतळ कहे, गणे, ग्रह, तेथी तेना सुवर्णपणामां कांइ बाध आवे एम नथी. हानि मात्र समज फेरने लइ एना लाभथी अंतराय पामनारने छे. जे वे स्थलोए समज फेर करवामां आवेछे ते आ प्रमाणे छे. । १-सर्व मान्य धर्मना वीजा शिक्षापाठमां। "पुष्प पांखडी ज्यां दुभाय, जिनवरनी त्यां नहि आज्ञाय"
२-नमस्कारना पाठमां मधाळे पंचपरमेष्टि वांचक . पांचज पद आप्यां छे ते"पुष्प पांखडी ज्यां दुभाय छे." सर्वमान्य अहिंसाना चोध पाठमां कहेवामां आवेल छे. एमां कहेल्लु छे के सर्व जीवनी रक्षा, सर्व जीवनी मन-वाणी-कर्मे करी दया ए परमधर्म छ; अने आवी संपूर्ण दयानो कोइ दर्शन वोध करतुं होय तो ते श्री जैन दर्शन छे; तेनी दया एटली सूक्ष्म छे के फुलनी पांखडी जेवो सूक्ष्ममा सूक्ष्म जीव दुभावनो. एमां पण श्री जिनवर देवनी आज्ञा न होय. दया धर्मनी सूक्ष्मतानो ख्याल आपवा आ एक वचन कह्यु, के पुष्प वा शीणा क्षुद्र जंतुनी दया जेणे स्वीकारी छे, तेवा
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झीणा जीवने पण कोइ रीते दुभाववो नहि, एवी जेनी आज्ञाछे, ए श्री वीतराग महावीर देवनोज परम दयामय अविरोधी धर्मछे. आम दयाना मूक्ष्म प्रकारना दृष्टांत रुपे "पुष्प पांखडी ज्यां दुभाय इ." सापेक्ष वचनो नीकळेला छे. तेने कोइ कोइ भाइओए केवा अणसमज रुप अन्य आशयमां सेळभेळ करी दीयेल छे, ते जोतां ग्लानि उपजे छे. वर्तमानमा एक पक्ष एम कहेछे, के श्रीजिनवर देवनी पूजामा पुप्प न वापरत्रां, केमके एथी हिंसा थायछे वीजो सामो पक्ष एम कहेछे के हिंसाना परिणामे पुप्पनो श्रीजिनेंद्र पूजामां उपयोग थतो नथी, पण त्रिलोक पूज्य, त्रण लोकना नाथ एवा वीतराग परमात्मानी जगत्मां रम्य मनोरम थाल्हादक गणाता द्रव्ये करी भावपूर्वक पूजा रुपे पुप्पनो उपयोग थायछे, अने एथी उलटुं हिंसाना वदले भक्ति उष्ट्रासना फलरुप महापूण्य उपार्जन थाय छे, अने परिणामे निर्जरा थायछे. आम वे पक्ष जे पुष्प पूजाना विधि-निधनां पडेलाले तेनो आशय आ वाक्यने आरोपी दीघो; पण पशुम शायछे. "पुण पांखडी ज्यां दुभाय इ." ने आ तकगर साये कांड लेवा देवा नथी. दयानो सूक्ष्म प्रकार वताव पाना हेनुर ए शब्दो काव्यमा आवेला छे; आम ए सापेक्ष छे ए संबंधी आशयांतर कर्तव्य नथी.
२. श्री पंचारनेष्टिनां तो नव पदछे. एम एक पक्षमाने छ, ओ भो तो पांच पदन मुकेला छे! अहिया पण पोतानी मानिनताने लइ आशय फेर असंमजस भावे थयो
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२० ण श्री नमस्कारना शिक्षापाउमा मथाळे पंचपरमेष्टिं वाचक पार्थ पद मुकता ए पद मुकनार महाशयने काइ पांच पद वाला साथ के नव पदवाळा साथे लेवादेवा नहोतुं. विश्वमाननीय, पूजनीय पंच उत्कृष्ट वस्तुओ कइ कइ? तो के श्री अरिहंतादि पंचपरमेष्टि, आ वताववा रुपेज ए पंचपरमेष्टि नमस्कार श्री पाठना मथाळ मुकायां छ. नव पद माननाराए आथी आशय फेर कर्तव्य नथी. वीजां चार पद ए पंच पदना महीमाना स्तोत्र रुपेछे, अने आ शिक्षापाठ पग भाषा फेरे ए पंच परमोत्कृष्ट वस्तुओना गुणना गानरुप छे. माटे असंमजस भावे कोइ भाइए काइ विकल्प करवो योग्य नथी.
आवा समजफेर घणा वनवा योग्य छे, अने ते अलक्ष करवा घटेछे पण समजफेरथी ग्रहण करनारे बहु संभाळी विचारी चालवू योग्य छ, आशयने उलगाववादी पोताने लाभांतराय थायछे वीजाने पण ए अंतराय पोते निमित थायछे. जेथी आम अणसमजने लइ वेवडा अंतरायनो पोते भागी थायछे माटे आत्महितैषी जिज्ञासु भाइओ-व्हेनोने अमे वीजी आवृत्तिनी प्रस्तावना जोइ ते मुजव मनन पूर्वक, मध्यस्य दृष्टिए आ ग्रंथ फरी फरी वांचवा-विचारवा विनविये छिए. इतिशं०
मुंबइ-मांडवी ) ली. क्षमा श्रमण चरण सेवक संवत् १९६२ना अशाढ मनसुख वि. कीरचंद शुकल २
महेता.
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श्रीमद् राजचंद्र प्रणीत मोक्षमाळा. पुस्तक वी.
शिक्षापाठ १. वांचनारने भलामण.
वांचनार ! भा पुस्तक आने तमारा हस्तकमळमां आवे छे. तेने लक्षपूर्वक बांचनो, नमां कद्देला विपयोने विवेकयी विचारजी, अन परमार्थने हृदयमांधारण करजो. एम करशो नो तमे नीनि, विवेक, ध्यान, ज्ञान, सद्गुण अने आत्मशांति पामी शकयो.
तमे जाणना गो के, केटलांक अज्ञान मनुष्यो नहीं वांचवायोग्य पुस्तको वांचीने अमूल्य वखन च्या खोइ दे छे जेधी तेओ अबळ रस्ते चटी जाय छे, आलोकमां अपकीर्नि पामे छ; अने परलोकमां नीच गतिए जाय छे.
भापाज्ञाननां पुस्तकोनी पेठे आ पुस्तक पठन करवान नधी, पण मनन करवानुं छे. तेथी आ भव अने परभव
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२ श्रीमद् राजचंद्र प्रणीत मोक्षमाळा. वन्नमां तमारं हित थशे. भगवाननां कहेलां वचनोनो एमां उपदेश कर्यो छे.
तमे आ पुस्तकनो विनय अने विवेकथी उपयोग करजो. विनय अने विवेक ए धर्मना मूळ हेतुओ छ, ___ तमने वीजी एक आ पण भलामण छे के, जेओने वांचतां आवडतुं न होय, अने तेओनी इच्छा होय तो आ पुस्तक अनुक्रमे तेमने वांची संभळाव.
तमने आ पुस्तकमाथी जे कइ न समजाय ते मुविच. क्षण पुरुप पासेथी समजी लेवू योग्य छे. ____तमारा आत्मानुं आथी हित थायः तमने ज्ञान, शांति अने आनंदमळे; तमे परोपकारी, दयाळ, क्षमावान, विवेकी अने बुद्धिशाली थाओ; एवी शुभ याचना अर्हत भगवान् पासे करी आ पाठ पूर्ण करुं छउं.
शिक्षापाठ २. सर्वमान्य धर्म.
चौपाइ.
धर्मतत्त्व जो पूछयु मने, तो संभळाचे स्नेहे तने जे सिद्धांत सकळनो सार, सर्व मान्य सहुने हितकार.
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सर्वमान्य धर्म.
भाख्युं भाषणमां भगवान, धर्म न वीजो दया समान;
अभयदान सावे संतोष, द्य प्राणीने, दळवा दोप.
सत्य, शीळ ने सघळां दान, दया होने रह्यां प्रमाण; दया नहीं तो ए नहीं एक, विना सूर्य किरण नहीं देख.
पुष्पपाखडी ज्यां दुभाय, जिनवरनी त्यां नहीं आज्ञाय; सर्व जीवनुं ईच्छो मुख, महावीरनी शिक्षा मुख्य.
सर्व दर्शने ए उपदेश; ए एकांते नहीं विशेषः सर्व प्रकारे जिननो वोध, दया या निर्मळ अविरोध !
ए भवतारक सुंदर राह, धरिये तरिये करी उत्साह; धर्म सकळनुं ए शुभ मूळ, एवण धर्म सदा प्रतिकूळ.
तत्त्वरूपथी ए ओळखे, ते जन पहोचें शाश्वत सुखे;
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श्रीमद् राजचंद्र प्रणीत मोक्षमाळा. शांतिनाथ भगवान भसिद्ध, राजचंद्र करुणाए सिद्ध.
शिक्षापाठ ३. कर्मना चमत्कार,
हुँ तमने केटलीक सामान्य विचित्रताओ कही जउं छ ए उपर विचार करशो, तो तमने परभवनी श्रद्धा दृढ थशे.
एक जीव सुंदर पलंगे पुष्पशयामां शयन करे छे, एकने फाटल गोदडी पण मळती नथी. एक भात भातनां भोजनोथी वृप्त रहे छे, एकने काली जारना पण सांशा पढेछे. एक अगणित लक्ष्मीनो उपभोग ले छे, एक फूटी वदाम माटे थइने घेर घेर भटके छे. एक मधुरां वचनोथी मनुप्यनां मन हरे छे, एक अवाचक जेवो थइने रहेछ. एक सुंदर वस्त्रा. लंकारथी विभूपित थइ फरे छे, एकने खरा शियानामां फाटेलं कपडं पण ओढवाने मळ्तुं नथी. एक रोगी छे, एक प्रवल छे. एक बुद्धिशाळी छे, एक जडभरत छे. एक मनोहर नयनवाले छे, एक अंध छे. एक लूलो, के पांगळो छ, एकना पग ने हाथ रमणीय छे. एक कीर्तिमान छे, एक अपयश भोगवे छे. एक लाखो अनुचरो पर हुकम चलावे छे, अने एक तेटलाना ज टुंवा सहन करे छे. एकने जोइने आनंद उपजे छे, एकने जोतां वमन थाय छे. एक संपूर्ण इंद्रियोवाळो छ, अने एक अपूर्ण इंद्रियोवाळो छे. एकने दिन दुनिया लेशभान नथी, ने एकनां दु:खनो किनारो पण नथी.
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मानवदेह. एक गर्भाधानमा आवतांज मरण पामे छे. एक जन्म्यो के तरत मरण पामे छे. एक मुवेलो अवतरे छे अने एक सो वपनो वृद्ध थइने मरेछे.
कोइनां मुख, भाषा अने स्थिति सरखां नथी. मूर्ख राज्यगादी पर खमा खमाथी वधावाय छे, अने समर्थ विद्वानो धक्का खाय छे!
आम आखा जगतनी विचित्रता भिन्न भिन्न प्रकारे तमे जुओ छो; ए उपरथी तमने कंइ विचार आवे छे ? में का छे ते उपरथी तमने विचार आवतो होय तो कहो के, ते शा वडे थाय छे ?
पोतानां बांधेलां शुभाशुभ कर्मवडे. कर्मवडे आखो संसार भमवो पडेछ. परभव नहीं माननार पोते ए विचारो शावडे करे छे ते उपर यथार्थ विचार करे, तो ते पण आ सिद्धांत मान्य राखे.
शिक्षापाठ ४. मानवदेह. आगळ कयु छे ते प्रमाणे विद्वानो मानवदेहने वीजा सघळा देह करतां उत्तम कहे छे. उत्तम कहेवानां केटलांक कारणो अत्रे कहीशुं.
आ संसार बहु दुःखथी भरेलो छे, एमांथी ज्ञानीओ तरीने पार पामवा प्रयोजन करे छे, मोक्षने साधी तेओ
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श्रीमद राजचंद्र प्रणीत मोक्षमाळा.
अनंत सुखमां विराजमान थाय छे. ए सोक्ष वीजा कोइ देहधी मळतो नयी. देव, तिर्यच के नरक ए एक्के गतिथी मोक्ष नथी; मात्र मानवदेहथी मोक्ष छे.
त्यारे तमे कहेशो के, सघळां मानवियोनो मोक्ष केम धतो नथी ? तेनो उत्तरः जेओ मानवपणुं समजे छे, तेओ संसारशोकने तरी जायछे, जेनामां विवेकबुध्धि उदय पामी होय, अने ते वडे सत्यासत्यनो निणर्य समजी, परम तत्त्वज्ञान तथा उत्तम चारित्ररूप सद्धर्मनुं सेवन करी जेओ अनुपम मोक्षने पामे छे, तेना देहधारीपणाने विद्वानो मानवपणुं कहे छे. मनुष्यना शरीरना देखाव उपरथी विद्वानो तेने मनुष्य कहेता नथी; परंतु तेना विवेकने लड़ने कहे छे. वे हाथ, वे पग, वे आंख, वे कान, एक मुख, वे होठ अने एक नाक ए जेने होय तेने मनुष्य कहेवो एम आपणे समजवुं नहीं. जो एम समजीए तो पछी वांदराने पण मनुष्य गणवो जोइए. एणे पण ए प्रमाणे सघळं प्राप्त कयुं छे. विगेषमां एक पूंछहुँ पण छे; त्यारे शुं एने महा मनुष्य कड़ेवो ? ना, नहीं. मानवपणुं समजे ते ज मानव कहेवाय.
ज्ञानीओ कहे छे के, ए भव बहु दुर्लभ है; अति पुण्यना प्रभावथी ए देह सांपडे छे; माटे एथी उतावळे आत्मसार्थक करी लेवु. अयमंतकुमार, गजसुकुमार जेवां नानां वाळको पण मानवपणाने समजवाथी मोक्षने पाम्यां मनुष्यमां जे शक्ति वधारे छे, ते शक्तिवडे करीने मदोन्मत्त हाथी जेवां प्राणीने पण वश करी ले छे; ए शक्तिवडे जो तेओ पोतानां
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अनाथी मुनि भाग १+
मनरुपी हाथीने वश करी ले, तो केटलं कल्याण थाय !
कोट पण अन्य देहमां पूर्ण सद्विवेकनो उदय थतो नथी, अने मोक्षना राजमार्गमां प्रवेश थइ शकतो नथी. एथी आपणने मळेल आ वह दुर्लभ मानवदेह सफळ करी लेवो ए अवश्यनुं छे. केटलाक मूर्खो दुराचारमां, अज्ञानमां, विषयमां, अने अनेक प्रकारना मदमां आवो मानवदेह वृथा गुमावे छे. अमूल्य कौस्तुभ हारी वेसे छे. आ नामना मानव गणाय, बाकी तो वानररूप ज छे.
मोतनी पळ, निश्रय, आपणे जाणी शकता नथी, माटे जेम वने तेम धर्ममां त्वराधी सावधान थवं.
शिक्षापाठ ५. अनाथी मुनि भाग १.
अनेक प्रकारनी रिधिवाको मगधदेशनो श्रेणिक नामे राजा अश्वनिडाने माटे मंडिकुल नामनां वनमां नीकळी पढ्यो, वननी विचित्रता मनोहारिणी हती. नाना प्रकारना वृक्ष त्यां वीरां तां; नाना प्रकारनी कोमळ वेलीओ aachप थड़ रही हती; नाना प्रकारनां पंखीओ आनंदधीतेनुं सेवन करतां हृतां; नाना प्रकारनां पक्षियोनां मधुरां गायन त्यां संभळात हत; नाना प्रकारनां फूलथी ते वन छवाइ रहुं हर्तु; नाना प्रकारनां जळनां झरण त्यां वदेतां हतां• हुंकामां ए
न नंदनवन जनुं लागतं हतुं. ते वनमां एक झाड तळे महा समाधिवंत पण सुकुमार अने मुखोचित सुनिने ते श्रेणिके
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८ श्रीमद् राजचंद्र प्रणीत मोक्षमाळा. बेठेलो दीठो. एनुरूप जोइने ते राजा अत्यंत आनंद पाम्यो. उपमारहित रूपथी विस्मित थइने मनमां तेनी प्रशंसा करवा लाग्यो. आ मुनिनो केवो अद्भुत वर्ण छे ! एजें के, मनोहर रूप छे ! एनी केवी अद्भुत सौम्यता छे! आ केवी विस्मयकारक क्षमानो धरनार छे! आना अंगथी वैराग्यनो केवो उत्तम प्रकाश छे! आनी केवी निर्लोभताजणाय छे! आ संयति के निर्भय नम्रपणुंधरावे छे ! ए भोगथी केवो विरक्त छे ! एम चिंतवतो चिंतवतो, मुदित थतोथतो, स्तुति करतो करतो, धीमेथी चालतो चालतो, प्रदक्षिणा दइ ते मुनिने वंदन करी अति समीप नहीं तेम अति दूर नहीं, एम ते श्रेणिक वेठो. पछी वे हाथनी अंजलि करीने विनयथी तेणे ते मुनिने पूछयु: "हे आर्य! तमे प्रशंसा करवायोग्य एवा तरुण छो! भोगविलासने माटे तमारं वय अनुकूल छे संसारमा नाना प्रकारनां मुख रह्यांछे. ऋतु ऋतुना कामभोग, जल संबंधीना विलास, तेम ज मनोहारिणी स्त्रीओनां मुखवचननुं मधुरं श्रवण छतां ए सघळानो त्याग करीने मुनित्वमां तमे महा उद्यम करो छो एनुं शुं कारण तेमने अनुग्रहथी कहो." राजानां आवां वचन सांभळीने मुनिए कयु: "हे राजा! हुं अनाथ हतो. मने अपूर्व वस्तुनो प्राप्त करावनार, तथा योग्य क्षेमनो करनार,मारापर अनुकंपा आणनार, करुणाथी करीने परम सुखनो देनार एवो मारो कोइ मित्र थयो नहीं. ए कारण मारा अनाथीपणानुं इतुं."
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अनाथी मुनि भाग २. . . ९. शिक्षापाठ ६. अनाथी मुनि भाग २.
श्रेणिक, मुनिनां भापणथी स्मित हसीने बोल्योः "तमारे महा रिद्धिवंतने नार्थ केम न होय? जो कोइ नाथ नथी तो हुँ थर्ड छ. हं भयंत्राण ! तमे भोग भोगगो. हे संयति ! मित्र, ज्ञातिए करीने दुर्लभ एवो आ नमारो मनुष्यभत्र सुलभ करो." अनाथीए का: "अरेणिक राजा! पण तुंपोने अनाय छो तो मारो नायशु यइश ? नियनते धनान्य शांधी बनावे ! अबुध ते युधिदान क्यांधी आपे ? अज्ञ ते विद्वता क्यांची दे? बंधा ते संतान क्यांधी आपे ज्यारे तुं पोते अनाथ छत्यारे मारोनाय क्यांची यश?" मुनिनां वचनथी. राना अनि आकुछ अने श्री विस्मित थयो. कोइ काळे जे वचननुं श्रवण नथी ते वचन । यति ,खयी श्रवण थयुं. एधी ने शकिन यो, भने वयाः "हु अनेक प्रकारना अचनो भोगीछ; अनेक प्रकारनामदोन्मत्त हाथीओनोधणी छ अनेक प्रकारनी सैन्या मने आधीन छ नगर, ग्राम, अंतःपुर अने चतुष्पादनी मारे कंडन्यूनता नथी; मनुष्य संबंधी सघला प्रकारना भोग हूं पाम्यो छ; अनुचरो मारी आज्ञाने रुडी रोने आराये छे एम राजाने छानती सर्व प्रकारनी संपत्ति. मारे घेर छे अनेक मनवांछित वस्तुओ मारी समीपे रहे-छे.. आवो ई महान् छतां अनाथ केम होउं ? रखे हे भगवन् ! तमे मृपा बोलता हो." मुनिए की: "राजा! मारु कहे तुं न्यायपूक्के समज्यो नथी. हवे हुँजम अनाथ थयो; अने जेम
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१० श्रीमद् राजचंद्र गणीत मोक्षमाळा.
में संसार त्याग्यो तेम सने कहुं छ; ते एका अने साबधान चित्तथी सामळ; सांभळीने पछी तारी शंकानो सत्यासत्य निर्णय करने:--
"कौशांबी नामे अति जीर्ण अने विविध प्रकारनी भव्यनाथ भरेली एक सुंदर नगरी छे; त्यां रिब्धिथी परिपूर्ण धामंचय नामनो मारो पिता रहेतो हतो. हे महाराजा I यौवनवपना प्रथम भागमां मारी आंखो अति वेदनाथी घेराइ; आखे शरीरे अनि वळवा मंड्यो. शस्त्रथी पण अतिशय तीक्षण ते रोग वैरीनी पेठे मारापर कोपायमान थयो. मारुं मस्तक ते आंखनी असह्य वेदनाथी दुःखवा लाग्युं वज्रना महार जेवी, वीजाने पण रौद्र भय उपजायनारी एवी ते दारुम वेदनावी हुं अत्यंत शोकमां हतो. संख्यावंध वैद्यकशास्त्रनिपून वैद्यराजो मारी ते वेदनानो नाश करवा माटे अव्या, अने तेमणे अनेक औषध उपचार कर्या पण ते दृथा गया. ए पहा निपूण गगाता वैद्यराजो मने ते दरदयी मुक्त करी नहीं, एज हे राजा ! मारुं अनाथपणुं हतुं मारी आखनी वेदना टाळवाने माटे मारा पिताए सर्वधन आपवा मांडयुं पण तेथी करीने मारी ते वेदना टळी नहीं, हे राजा ! एज मारुं अनाथपर्नु हतुं मारी माता उत्रने शो करीने अति दुःखार्त्त इ, परंतु ते पण मने दरदयी भूकाषी शकी नहीं, एज हे राजा ! मारुं अनाथपणुं हतुं. एक पेटशी जन्मेला मारा ज्येष्ठ अने कनिष्ठ भाभी पोताथी बनतो परिश्रम करी क्या पण मारी ते वेदना उळी नहीं, हे राजा ! एन माई
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अनावी हुनि भाग २०
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भाषणं तुं. एट पेटीजी गरी ज्येा भने कनिष्ठा शमिदीवारी दारे कुटं दीं, हे दहाराज ! एन बाई दवाव स्टं· मारी दी पतिहत्या, यागवर अनुरक्त जने मदती ही तेरी वायुं पीती देणे अब पानी आप्या स्तां, भने नाना प्रकारदां घोलण, युवादिक सुगंधी पदार्थ, तेपज अनेक प्रकारनां फुल चंदनोंदिnai जाणिता अजाणता विलेपन कर्या छतां, हूँ ते विलेपनथी मारो रोग मावी न टक्यो; क्षण पण अंगी रहेती नहोती एवी ते खी पण पारा रोगने ढाळी न शकी, एज हे महाराजा ! मारुं अनाथपण ह. एम कोइना प्रेमी, कोइन औषधी, कोइना बिलापथी के कोइना एन्मियी एं रोग उपशम्यो नहीं. ए वेळा पुनः पुनः में स स वेदना भोगवी; पछी हुं प्रपंची संसारथी खेद पाम्पो एकवार जो आ महा विरंचनामय वेदनाथी मुक्तं थजं तो खेती, दंती अने निरारंभी वर्ज्याने धारण करुं एम चिंतत्रीने शयन करी गयो. ज्यारे रात्रि व्यतिक्रमी गइ त्यारे हे महाराज ! मारी ते वेदना क्षय याँ गइ; अने हुं निरोगी थयो. मात, तात स्वजन बंधवादिकने पूछीने प्रभाते में महा क्षमावंत इंद्रियने निग्रह करवावा, अने आरंभापाविधी रहित एवं अणगीरत्व धारण कर्यु.
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१२ श्रीमद राजचंद्र प्रणीत मोक्षमाळा.
शिक्षापाठ ७. अनाथी मुनि भाग ३ -
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हे श्रेणिक राजा ! त्यार पछी हुँ आत्मा परत्मानेो नाथ थयो . हवे हुं सर्व प्रकारना जीवनो नाथ छउं तुं जे शंका पाम्यो हतो ते हवे टळी गइ हरो. एम आखुं जगत्-चवर्त्ती पर्यंत अशरण अने अनाथ छे. ज्या उपाधि छे त्यां . अनाथता छे; माटे हुं कहुं छउं ते कथन तुं मनन करी जजे. निश्चय मानजे के, आपणो आत्मा ज दुःखनी भरेली वॅतरणीनो करनार छे; आपणो आत्मा न क्रूर साल्मलि वृक्षनां दुःखनो उपजावनार छे; आपगो आत्मा ज वंछित वस्तुरूपी दुधनी देवावाळी कामधेनु मुखनो उपजावनार छे; आपणो आत्मा ज नंदनवननी पेठे आनदकारी छे; आपणो आत्मा ज कर्मनो करनार छे; आपणो आत्मा जते कर्मनो टाळनार छे; आपणो आत्मा ज दुःखोपार्जन करनार छे, अने आपणी आत्मा जसुखोपार्जन करनार छे; आपणो आत्मा ज मित्र, ने आपणो आत्मा जवैरी छे; आपणो आत्मा कनिष्ठ आचारे स्थित, अने आपणो आत्मा ज निर्मळ आचारे स्थित रहे छे.
PS
एम आत्मप्रकाशकं बोध श्रेणिकने ते अनाथी मुनिए आप्पो. श्रेणिकराजा बहु संतोष पाम्यो. वे हाथनी अंजलि करीने ते एम बोल्यो: “हे भगवन् ! तमे मने भली रीते उपदेश्यो; तमे जेम हतुं तेम अनाथपणुं कही वतान्युं महर्षि । तमे सनाथ, तमे सबंध अने तमे सधर्म छो. तमे सर्व अनाथना नाथ छो. हे पवित्र संयति । हुं तमने क्षमाकुंकुं तमारी ज्ञानी शिक्षार्थी
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अनाथी मुनि भाग ३०
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लाभपाम्यो . धर्मध्यानमां विघ्न करवावालुं भोग भोगववा संबंधी में तमने हे महा भाग्यवंत ! जे आमंत्रण दीधुं ते संबंधीनो मारो अपराध मस्तक नमावीने क्षमावुंकुं." एवा प्रकारथी स्तुति उच्चारीने राजपुरुष केशरी श्रेणिक विनयथी प्रदक्षिणा करी स्वस्थानके गयो.
महा तपोधन, महा मुनि, महा मज्ञावंत, महा यशवंत, महा निद्र्य अने महा श्रुत अनाथी मुनिए मगध देशना थेणिक राजाने पोतानां वितक चरित्रथी जे वोध आप्यो छे ते खरे ! अशरणभावना सिद्ध करे छे. महा मुनि अनाथीए भोगवेली वेदना जेवी, के एधी अति विशेष वेदना अनंत आत्माओने भोगवता जोइए छीए ए केतुं विचारवा लायक छे! संसारमा अशरणता अने अनंत अनाथता छवाई रही छे. तेनो त्याग उत्तम तत्त्वज्ञान अने परम शीलने सेववाथीज थाय है. एज मुक्तिनां कारणरूप छे. जेम संसारमा रह्या अनाथी अनाथ हता तेम प्रत्येक आत्मा तत्त्वज्ञाननी प्राप्ति विना सदैव अनाथ ज है, सनाय थवा सददेव, सदूधर्म अने सद्गुरुने जाणवा अने ओळखवा ए अवश्यनुं छे.
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१४ श्रीमद् राजचंद्र भणीत मोक्षमाला. . शिक्षापाठ ८. सदेवतत्त्व.
त्रणं तत्वो आपणे अवश्य जामवां जोइए. ज्यावशी ते तत्वो संबंधी अहानता होय छे त्यांमुधी आत्वहित नथी. ए अण वचो सदेव, सद्धम अने सद्गुरु छे. आ पाग्या सदेवतुं स्वरूप संक्षेपयां की
चक्रवर्ती राजाधिराज के राजपुत्र छतां जेभो संसारने एकांत अनंत शोकनुं कारणपानीने तेनो त्याग करे चे पूर्ण दया, शांति, क्षमा, निरागीत्व अने आत्मसपदिथी विविध तापनो लय करे छे महा उग्र तपोपध्यानवडे विशोधन करीने बेओ कर्मना समूहने वाळी नांखेछे चंद्र तथा शंखथी भयत उज्ज्वळ एबुं शुक्ल ध्यान जेओने प्राप्त थाय छे सर्व प्रकारनी निद्रानो जेओ क्षय करे छे संसारमा मुख्यता भोगवतां ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय अने अंतरायं ए चार कर्म भाभीभूत करी जेओ केरलबान केवलं . दर्शनसहित स्वस्वरुपथी विहार करे छे जेओ चार अघाति कर्म रथा सुधी याख्यात चारित्ररूप उत्तम शील- सेवन करेछे कर्मग्रीष्पथी अकळाता पामर प्राणीओने परम शांति मळवाजेओ शुदबोधनीजनो निष्कारण करुणाथी मेघधाराजाणीवडे उपदेव करे कोइपण समये किंचित् मात्र पण संसारी वैमरविलासनो स्वमांश पण जेने रयो नयी घनघाति कर्म क्षय कर्या पहेला, पोतानी छमस्थतागणी जेओ भीमलवाणीयी उपदेश करता नयी पांच मकारना अंतराय,
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सदेवतरक हास्य, रति, अरति, भय, जुगुप्सा, शोक, मिध्यात्व, अज्ञान, अप्रत्याख्यान,राग, देप, निद्राउने काम एअनार क्षणयीजे रहित); सचिदानंदस्वरूपथी विराजमान छे, महाउद्योत कर पार गुणो जेभोने प्रगटे छे जन्म, मरण अने अनंत संसार जेनो गयो छे तेने निग्रंयना आगममां सदेव कया छे. ए दोपरहित शुद्ध आत्मस्वरुपने पामेला होबाथी पूजनीय परमेश्वर कहेवायोग्य छे. उपरकयाते अहार दोपमांनो एक पण दोप होय त्यां सदेव-स्वरुप घटतुं नयी. आपरम तव महत्पुरूषोयी विभेप जाणडं अवश्य छे.
शिक्षापाठ ९. सद्धर्मतत्त्व.
अनादि काळयी कर्मनामनां बंधनयीआ आत्मासंसारगां सळया फरे छे. समय मात्र गतेने सर मुख नवी. जोगतिने र सेव्या फरे छे अने अधोगतिमा पडता आलाने परी सनार सदनाति आफ्नार परसु तेनु नाम 'धर्म' कोवाय छे, अने एज सत्य एखनो उपाय छे. वेधर्मसतना सह भगवाने भिन्न भिन भेद कमाये. तेमांना पुल्य : १. व्यवहारधर्म. २. निश्चयधर्म.
व्यवहारमा दया मुख्य छे. सत्यादि बाकीनां चार पहावतो ते पण दयानी रक्षा वास्ते छे. दयाना आठ भेद ऐः १. द्रन्यदया २. भावदया ३. स्वदया ४. परदया ५. सस्पदमा६.अनुबंधदया. व्यवहारदया .निधयदया.
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१६ श्रीमद् राजचंद्र प्रणीत मोक्षमाळा.
प्रथम द्रव्यदया-कोइ पण काम करवू ते यत्रापूर्वक जीवरक्षा करीने करवं ते 'द्रव्यदया.'
वीजी भावदया-वीजा जीवने दुर्गति जतो देखीने अनुकंपावुद्धिथी उपदेश आपको ते 'भावदया.
त्रीजी स्वदया-आ आत्मा अनादि काळथी मिथ्याबथी गृहायोछे, तत्त्व पामतो नथी, जिनाज्ञा पाळी शकतो नथी, एम चितवी धर्ममा प्रवेश करवो ते 'स्वदया।'
चौथी परदया-छकाय जीवनीरक्षा करवी ते 'परदया।
पांचमी स्वरूपदया-सूक्ष्म विवेकथी स्वरूपविचारणा करवी ते 'स्वरूपदया.
छही अनुबंधदया-सद्गुरु, के सुशिक्षक शिष्यने कडवां कथनयी उपदेश आपे ए देखवामां तो अयोग्य लागे छ परंतु परिणामे करुणाचं कारण छे-आनुं नाम 'भनुवंधंदया'
सातमी व्यवहारदया-उपयोगपूर्वक तथा विधिपूर्वक जे दया पाळची तेनुं नाम 'व्यवहारदया।' __ आठी निश्चयदया-शुद्ध साध्य उपयोगमा एकता भाव, अने अभेद उपयोग ते 'निश्चयदया.'
एआठ प्रकारनीदयावडे करीने व्यवहारधर्म भगवाने कयो छे. एमां सर्व जीवन सुख, संतोष, अभयदान एसपळां । विचारपूर्वक जोतां आवी जायछे.
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सद्गुरुतत्त्व भाग १. १७ वीजो निश्चयधर्म-पोताना स्वरूपनी भ्रमणा टाळवी, आत्माने आत्मभावे ओळखवो 'आ संसार ते मारो नथी, ९ एथी भिन्न, परम असंग सिद्धसदृश्य शुद्ध आत्मा टु', एवी आत्मस्वभाववर्जना ते 'निश्चयधर्म' छे.
जेमां कोइ प्राणीनु दुःख, अहित के असंतोपरयां छे त्यां दया नवी; अने दया नयी त्यां धर्म नथी. अहंद भगवाननां कहेलां धर्मतत्वी सर्व माणी अभय थाय छे.
शिक्षापाठ १०. सद्गुरुतत्त्व भाग १.
पिता-पुत्र, तुं जे शाळामां अभ्यास करवा जाय छे त शालानो शिक्षक कोण छे ?
पुत्र-पिताजी, एक विद्वान अने समजु ब्राह्मण छे. पिता-तेनी वाणी, चालचलगत वगेरे केवां छे ?
पुत्र-एनी वाणी बहु मधुरी छे. ए कोइने अविवेकयी बोलावता नधी, अने वह गंभीर छ वोले छ सारे जाणे मुखमांयी फुल झरे छे. कोइनुं अपमान करता नथी; अने अपने योग्य नीति समजाय तेवी शिक्षा आपे छे.
पिता-तुं त्यां शाकारणे जाय छे ते मने कहे जोइए. पुत्र-आप एम केम कहो छो, पिताजी! संसारमा विच
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१८ श्रीमद् राजचंद्र प्रणीत मोक्षमाळा. क्षण थवाने माटे पद्धतिओ समजु, व्यवहारनी नीति शीखं एटला माटे थइने आप मने त्यां मोकलो छो. पिता-तारा ए शिक्षक दुराचारी के एवा होत तो ?
पुत्र-तो तो वहु माटुं थात; अमने अविवेक अने कुवचन वोलतां आवडत व्यवहारनीति तो पछी शीखवे पण कोण?
पिता-जो पुत्र ए उपरथी हुँ हवे तने एक उत्तम शिक्षा कहुंः जेम संसारमा पडवा माटे व्यवहारनीति शीखवानुं प्रयोजन छे, तेम धर्मतत्त्व अने धर्मनीतिमा प्रवेश करवानुं परभवने माटे प्रयोजन छे. जेम ते व्यवहारनीति सदाचारी शिक्षकथी उत्तम मळी शके छ तेम परभवश्रेयस्कर धर्मनीति उत्तम गुरुथी मळी शके छे. व्यवहारनीतिना शिक्षक अने धर्मनीतिना शिक्षकमां बहु भेद छे. वीलोरीना कटका जेम व्यवहारशिक्षक अने अमूल्य कौस्तुभ जेम आत्मधर्म शिक्षक छे.
पुत्र-शीरछत्र आपर्नु कह ब्याजवी छे. धर्मना शिक्षकनी संपूर्ण अवश्य छे. आपे वारंवार संसारनां अनंत दुःख संबंधी मने का छे एथी पार पामवा धर्मज सहायभूत छे त्यारे धर्म केवा गुरुथी पामीए तो श्रेयस्कर नीवडे ते मने कृपा करीने कहो.
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सद्गुरुतच भाग २. शिक्षापाठ ११. सदगुरुतत्त्व भाग २.
पिता-पुत्र ! गुरु त्रण मकारना कहेवाय छे : १.काष्ठस्वरूप. २. कागलस्वरूप. ३. पथ्यरस्वरूप. काटस्वरूप गुरु सर्वोत्तम छ कारणसंसाररूपी समुद्रने १. काष्टखरूपी गुरु ज तरे छे, अने तारी शके छे. २. कागळस्वरूप गुरु ए मध्यम छे. ते संसारसमुद्रने पोते तरी शके नहीं; परंतु कंइ पुण्य उपाजैन करीशके. ए वीजाने तारी शके नहीं.३. पथ्थरस्वरूप ते पोते बुडे अने परने पण बुडाडे. काष्ठस्वरुप गुरु मात्र जिनेश्वर भगवानना शासनमां छे, चाकी वे प्रकारना जे गुरु रहा ते कर्मावरगनी वृद्धि करनार छे. आपणे वधा उत्तम वस्तुने चाहीए छीए; अने उत्तमयी उत्तम मळी शके छे. गुरु जो उत्तम होय तो ते भवसमुद्रमा नाविकरुप थई सद्धर्म नावमा वेसाडी पारपमाडे. तत्वज्ञानना भेद, स्वखरूपभेद, लोकालोकविचार, संसारस्वरूप ए सपळु उत्तम गुरु विना मळी शके नहीं; त्यारे तने प्रश्न करवानी इच्छा थशे के एवा गुरुनां लक्षण कयां कयां ? तेकडं छु. जिनेश्वर भगवाननी भाखली आज्ञा जाणे, तेने यथातथ्य पाळे, अने वीजाने वोधे, कंचन, कामिनीची सर्व भावी त्यागी होय, विशुद्ध आहारजळ लेता होय, वावीश भकारना परिपह सहन करता होय, शांत, दांत, निरारंभी अने जितेंद्रिय होय, सिद्धांतिक बानमां निमग्न होय, धर्म माटे थइने मात्र शरीरनो निर्वाह करता होय, निर्गयपंथ पाळतां कायर न होय, सळी मात्र पण अदच लेता न होय, सर्व प्रकारना आहार रात्रिए त्या
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श्रीमद राजचंद्र मणीत मोक्षमाळा.
ग्या होय, समभावि होय, अने निरोगतायी सत्योपदेशक होय, हुंकामां तेओने काष्टस्वरूप सद्गुरु जाणवा. पुत्र ! गुरुना आचार, ज्ञान ए सम्बंधी आगममां वहु विवेकपूर्वक वर्णन कर्युं छे, जेम तुं आगळ विचार करतां शीखतो जइश, तेम पछी हुं तने ए विशेष तत्त्वो वोधतो जग.
पुत्र - पिताजी, आपे मने हुंकामां पण बहु उपयोगी, अने कल्याणमय कांः हुं निरंतर ते मनन करतो रहीश.
शिक्षापाठ १२. उत्तम गृहस्थ.
संसारमां रह्या छतां पण उत्तम श्रावको गृहाश्रमया आत्मसाधनने साधे छे; तेओनो गृहाश्रम पण वखणाय छे.
ते उत्तम पुरुष, सामायिक, क्षमापना, चोविहारप्रत्याख्यान इ० यम नियमने सेवे छे.
परपनि भणी मा वहेननी द्रष्टि राखे छे. सत्पात्रे यथाशक्ति दान दे छे.
शांत, मधुरी अने कोमळ भाषा बोले छे. सत्शास्त्रनुं मन करे छे.
चने त्यांसुधी उपजीविकामां पण माया, कपट, ३० करतो नथी.
स्त्री, पुत्र, मात, वात, मुनि अने गुरु ए सघळाने यथायोग्य सन्मान आपे छे.
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उत्तम गृहस्थ.
मावापने धर्मनो वोध आपे छे.
यत्रयी घरनी स्वच्छता, रांध, साँध, शयन इ० रखावे छे.
पोते विचक्षणताथी वर्ती स्त्री, पुत्रने विनयी अने धर्मी करे छे.
कुटुंबमां संपनी रद्धि करे छे. प्रावेला अतिथिर्नु यथायोग्य सन्मान करे छे. याचकने क्षुधातुर राखतो नथी. सत्पुरुषोनो समागम, अने तेओनो वोध धारण करे छे. समर्याद अने संतोपयुक्त निरंतर वर्ते छे. जे यथाशक्ति शास्त्रसंचय घरमा राखे छे. अल्प आरंभथी जे व्यवहार चलावे छे.
आवो गृहस्थावास उत्तम गतिनुं कारण थाय, एम ज्ञानीओ कद्दे छे.
शिक्षापाठ १३.जिनेश्वरनी भक्ति भाग१.
जिज्ञासु-विचक्षण सत्य! कोइ शंकरनी, कोइ ब्रह्मानी, कोइ विष्णुनी, कोइ सूर्यनी, कोइ अग्गिनी, कोइ भवानीनी, कोइ पेगम्बरनी अने कोइ क्राइस्टनी भक्ति करे छे. एओ भक्ति करीने शुं आशा राखता हो ?
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श्रीमद् राजचंद्र प्रणीत मोक्षमाला.
सत्य-प्रिय जिज्ञासु, ते भाविक मोक्ष मेळववानी परम आशाथी ए देवोने भजे छे.
जिज्ञासु-कहो त्यारे, एथी तेओ उत्तम गति पामे एम तमारूं मत छे ?
सत्य-एओनी भक्तिवडे तेओ मोक्ष पामे एम हुँ कही शकतो नथी. जेओने ते परमेश्वर कहे छे तेओ कई मोक्षने पाम्या नथी तो पछी उपासकने ए मोक्ष क्यांची आपे शंकर वगैरे कर्मक्षय करीशक्या नथी अने दूपणसहित छे एथी ते पूजवायोग्य नथी.
जिज्ञास-ए दूषणो कयां कयां ते कहो ?
सत्य-अज्ञान, निद्रा, मिथ्याल, राग, द्वेष, अविरति, भय, शोक, जुगुप्सा दानांतराय, लाभांतराय, वीांतराय अने उपभोगांतराय, काम, हास्य, रति, अने अरति ए अढार दूषणमांनुं एक दूषण होय तोपण ते अपूज्य छे. एक समर्थ पंडिते पण का छे के, 'परमेश्वर छउँ' एम मिथ्या रीते मनावनारा पुरुषो पोते पोताने ठगे छे, कारण पडखामां स्त्री होवाथी तेओ विषयी ठरेछे शस्त्र धारण करेला होवाथी द्वेपी ठरे छे. जपमाळा धारण कर्याथी तेओ चित्त व्यग्र छ एम सूचवे छे, 'मारे शरणे आव, हुं सर्व पाप हरी ल' एम कहेनारा अभिमानी अने नास्तिक ठरे छे. आम छे तो पछी
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जिनेश्वरनी भक्ति भाग १. वीजाने तेओ केमतारीशके ? वळी केटलाक अवतार लेवारूपे परमेश्वर कहेवरावे छे तो त्यां तेओने अमुक कर्मनुं भोग व, वाकी छे एम सिद्ध थाय छे.
जिज्ञासु-भाई, त्यारे पूज्य कोण? अने भक्ति कोनी करवी के जेवढे आत्मा स्वशक्तिनो प्रकाश करे.
सत्य-शुद्ध सच्चिदानंदस्वरूप जीवनसिद्ध भगवान् तेम ज सर्व दूषणरहित, कर्ममलहीन, मुक्त, वीतराग सकळ भयरहित, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी जिनेश्वर भगवाननी भक्तिथी आत्मशक्ति प्रकाश पामे छे.
जिज्ञासु-एओनी भक्ति करवाथी आपणने तेमो मोक्ष आपे छ एम मानवू खरूं?
सत्य-भाइ जिज्ञासु, ते अनंतज्ञानी भगवान् तो निरागी अने निर्विकार छे. एने स्तुति निदानुं आपणने कंइ फळ आपवावं प्रयोजन नथी. आपणो आत्मा अज्ञानी अने मोहांध थइने जे कर्मदळधी घेरायेलो छे ते कर्मदळ टाळवा अनुपम पुरुषार्थनुं अवश्य छे. सर्व कर्मदळ क्षय करी अनंत ज्ञान, अनंतदर्शन, अनंत चारित्र, अनंत वीर्य,अने स्वस्वरूपमय थया एवा जिनेश्वरोनुं स्वरूप आत्मानी निश्चयनये रिद्धि होवाथी ते भगवान, स्मरण, चितवन, ध्यान अने भक्ति ए पुरुषायंता आपे छे. विकारथी आत्मा विरक्त करेछे. शांति अने निर्जरा आपछे, जेम तरवार हाथमां लेवाथी शौर्यत्ति अने
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२४ श्रीमद् राजचंद्र प्रणीत मोक्षमाला. भांग पीवाथी निशो उत्पन्न, तेम ए गुणचितवनथी आत्मा स्वस्वरूपानंदनी श्रेणिए चढतो जाय छे. दर्पण जोतां जेम मुखाकृतिनुं भान थाय छे तेम, सिद्ध के जिनेश्वरस्वरूपना चितवनरूप दपर्णथी आत्मस्वरूपनुं भान थाय छे.
शिक्षापाठ १४.जिनेश्वरनीभक्ति भाग२.
जिज्ञासु-आर्य सत्य ! सिद्धस्वरूप पामेला ते जिनेश्वरो तो सघळा पूज्य छ सारे नामथी भक्ति करवानी कंइ जरुर छे? __सत्य-हा, अवश्य छे. अनंत सिद्धस्वरूपने ध्याता जे शुद्ध स्वरूपना विचार थाय ते तो कार्य परंतु ए जेवडे ते स्वरूपने पाम्याते कारण कयु? ए विचारतां उग्रतप, महान् वैराग्य, अनंत दया, महान् ध्यान ए सघळानुं स्मरण थशे; एओनां अर्हत् तीर्थकरपदमां जे नामथी तेओ विहार करता हता ते नामथी तेओना पवित्र आचार अने पवित्र चरित्रो अंतःकरणमां उदय पामशेजे उदय परिणाभे महा लाभदायक छे, जेम महावीरनुं पवित्र नाम स्मरण करवाथी तेओ कोण? क्यारे? केवा प्रकारे सिद्धि पाम्या? ए आदि चरित्रोनी स्मृति थशे अने एथी आपणे वैराग्य, विवेक इत्यादिकनो उदय पामीए.
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जिनेश्वरनी भक्ति भाग २.
जिज्ञासु-पण लोगस्समां तो चोवीश जिनेश्वरनां नामोनुं मूचवन कर्यु छ ? एनो हेतु शुंछे ते मने समजावो.
सत्य-आ काळमां आ क्षेत्रमा जे चोवीश जिनेश्वरो थया एमनां नामोनुं अने चरित्रोतुं स्मरण करवाथी शुद्ध तत्वनो लाभ थाय. वैरागीनुं चरित्र वैराग्य वोधे छे. अनंत चोवीगीनां अनंन नाम सिद्धस्वरूपमा समग्रे आवी जाय छे. वर्तमानकालना चोवीश तीर्थकरनां नाम आ काळे लेबाथी कालनी स्थितिनुंबहु मूक्ष्मज्ञान पण सांभरी आवेछे. जेम एयोनां नाम आ कालमां लेबाय छे, तेम चोत्रीशी चोवीशीनां नाम काल अने चोवीगी फरतां लेवातां जाय छे; एटले अमुक नाम लेवां एम केइ हेतु नथी. परंतु तेओना गुणना पुरुषार्थनी स्मृतिमाटे वर्तती चोवीशीनी स्मृति करवी एम तत्व रयं छे. तेओना जन्म, विहार, उपदेश ए सघर्छ नामनिसेपे जाणी शकायछे. ए वडे आपणो आत्मा प्रकाश पामे छे. सर्प जेम मोरलीना नादी जागृत थाय छे, तेम आत्मा पोतानी सत्य रिद्धि सांभळतां ते मोहनिद्राथी जागृत थाय छे.
जिज्ञासु-मने तमे जिनेश्वरनी भक्ति संबंधी बहु उत्तम कारण कहां. जिनेश्वरनी भक्ति कंड फलदायक नथी एम आधुनिक केळवणीची मने आस्था धई हती ते नाश पामी
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२६ श्रीमद् राजचंद्र प्रणीत मोक्षमांळा. छे. जिनेश्वर भगवाननी भक्ति अवश्य करवी जोइए ए हुं मान्य राखुं छ.
सत्य - जिनेश्वर भगवाननी भक्तिथी अनुपम लाभ छे, एनां कारणो महान् छे; तेमना परम उपकारने लीघे पण तेओनी भक्ति अवश्य करवी जोइए. वळी तेओना पुरूषार्थनुं स्मरण थतां पण शुभ वृत्तिओनो उदय थाय छे. जेम जेम श्री जिनना स्वरूपमा वृत्ति लय पामे छे, तेम तेम परम शांति प्रवहे छे. एम जिनभक्तिनां कारणो अत्र संक्षेपमां कलांछे ते आत्मार्थीओए विशेषपणे मनन करवायोग्य छे.
शिक्षापाठ १५. भक्तिनो उपदेश.
तोटक छंद.
शुभ शीतळतामय छांय रही, मनवांछित ज्यां फळपंक्ति कही; जिन भक्ति गृहो तरु कल्प अहो, भजिने भगवंत भवंत लहो.
निज आत्मस्वरूप मुदा प्रगटे,
मन ताप उताप तमाम मटे; अति निर्जरता वणदाम गृहो, भजिने भगवन भवंत लहो.
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खरी महत्ता. समभावि सदा परिणाम थशे, जडमंद अधोगति जन्म जशे शुभ मंगल आ परिपूर्ण चहो, भजिने भगवंत भवंत लहो. शुभ भाववडे मन शुद्ध करो, नवकार महा पदने समरो नहि एह समान सुमंत्र कहो, भजिने भगवंत भवंत लहो. करशो क्षय केवळ राग कथा, धरशो शुभ तत्वस्वरूप यथा; नृपचंद्र प्रपंच अनंत दहो, भजिने भगवंत भगवंत लहो.
शिक्षापाठ १६. खरी महत्ता.
केटलाक लक्ष्मीथी करीने महत्तामळे छे एम माने छ। केटलाक महान् कुटुंवथी महत्तामळे छ एम माने छे केटलाक पुत्र वढे करीने महत्ता मळे छ एम मा छे केटलाक अधिकारथी महत्ता मळे छे एम माने छे; पण ए एमर्नु मान, विवेकी जोतां मिथ्या छे. एओजेमा महत्ता ठरावे छे तेमां महत्ता नयी, पण लघुता छे. लक्ष्मीथी संसारमा खान, पान, मान, अनुचरो पर आज्ञावैभव ए सघळु मळे छे, अने ए
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२८ श्रीमद राजचंद्र प्रणीत मोक्षमाळा.
महत्ता छे, एम तमे मानता हशो; पण एटलेथी एने महत्ता मानवी जोड़ती नथी. लक्ष्मी अनेक पाप वडे करीने पेदा थाय छे. आव्या पछी अभिमान, बेभानता, अने मूंढता आपे छे. कुटुंबसमुदायनी महत्ता मेळवावा माटे तेनुं पालणपोषण करवुं पडे छे. ते वडे पाप अने दुःख सहन करवां पडे छे, आपणे उपाधिथी पाप करी एतुं उदर भरवुं पडे छे. पुत्री कंs शाश्वत नाम रहेतुं नथी; एने माटे पण अनेक प्रकारनां पाप अने उपाधि वेठवी पडे छे; छतां एथी आपणुं मंगळ शुं थाय छे ? अधिकारथी परतंत्रता के अमलमद आवे छे, अने एथी जुलम, अनीति, लांच तेम ज अन्याय करवा पडे छे; के थाय छे. कहो त्यारे एमां महत्ता शानी छे ! मात्र पापजन्य कर्मनी. पापी कर्म वडे करी आत्मानी नीच गति थाय छे; नीच गति छे त्यां महत्ता नथी पण लघुता छे.
आत्मानी महत्ता तो सत्य वचन, दया, क्षमा, परोपकार अने समतामां रही छे. लक्ष्मी इ० तो कर्ममहत्ता छे. आम छतां लक्ष्मीथी शाणा पुरुषो दान दे छे, उत्तम विद्याशाळाओ स्थापी परदुःखभंजन थाय छे. एक परणेली स्त्रीमां जं मात्र वृत्ति रोकी परस्त्री तरफ पुत्री भावथी जुए छे. कुटुंब वडे करीने अमुक समुदायनुं हित काम करे छे. पुत्र वडे तेने संसारमां भार आपी पोते धर्ममार्गमा प्रवेश करे छे. अधिकारथी डहापण वडे आचरण करी राजा, प्रजा वन्नेनुं हित करी, धर्मनीतिनो प्रकाश करे छे; एम करवाथी केटलीक महत्चा पमाय खरी. छतां ए महत्ता चोकस नथी, मरणभय माथे
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वाहुवळ. रह्यो छे धारणा धरी रहे छे. योजेली योजना के विवेक वखते हृदयमांधी जता रहे एवो संसारमोह छे. एथी आपणे एम निःसंशय समजवू के, सत्य वचन, दया, क्षमा, ब्रह्मचर्य अने समता जेवी आत्ममहत्ता कोइ स्थळे नधी. शुद्ध पंचमहाव्रतधारी भिक्षुके जे रिद्धि अने महत्ता मेळवी छे, ते ब्रह्मदत्त जेवा चक्रवत्तीए लक्ष्मी, कुटुंब, पुत्र के अधिकारथी मेळवी नथी, एम मारुं मानवु छ !
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शिक्षापाठ १७. बाहुबळ.
बाहुवल एटले पोतानी भूजानुं वळ एम अहीं अर्थ करवानो नथी, कारण के, वाहुवळ नामना महापुरुपर्नु आ एक नानु पण अद्भुत चरित्र छे.
सर्व संग परित्याग करी, भगवान ऋषभदेवजी भरत अने वाहुबल नामना पोताना वे पुत्रोने राज्य सौंपी विहार करता इता त्यारे, भरतेश्वर चक्रवर्ती थयो. आयुधशाळामां चक्रनी उत्पत्ति थया पछी प्रत्येक राज्यपर तेणे पोतानी आनाय वेसाडी, अने छखंडनी प्रभुता मेळवी. मात्र वाहुवळे ज ए प्रभुता अंगीकार न करी. आधी परिणाममा भरतेश्वर अने वाहुवळने युद्ध मंडायु. घणा बखत सुधी भरतेश्वर, के वाहुवळ ए बनेगांथी एक हट्या नहीं, त्यारे क्रोधावेशमा आवी जइ भरतेश्वरे बाहुवल पर चक्र मूक्यु. एक वीर्यथी उत्पन थयेला भाइपर चक्र प्रभाव न करी शके. आ निय
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३० श्रीमद् राजचंद्र प्रणीत मोक्षमाला. मने लीधे ते चक्र फरीने पार्छ भरतेश्वरना हाथमां आव्यु. भरते चक्र मूकवाथी वाहुवळने वहु क्रोध आन्यो. तेणे महा बलवत्तर मुष्टि उपाडी. तत्काळ त्यां तेनी भावनातुं स्वरूप फर्यु ते विचारी गयो के, हुं आ बहु निंदनीय करुं छउँ आनं परिणाम केवु दुःखदायक छे ! भले भरतेश्वर राज्य भोगवो. मिथ्या, परस्परतो नाश शा माटे करवो? आमष्टि मारवी योग्य नथी; तेम उगामी ते हवे पाछी वानवी पण योग्य नयी. एम विचारी तेणे पंच मुष्टि केश ढुंचन कयु : अने त्यांथी मुनिभावे चाली नीकळ्या. भगवान् आदीश्वर ज्यां अठाणु दिक्षित पुत्रोथी तेम ज आर्य, आर्यायी विहार करता हता त्यां जवा इच्छा करी; पण मनमां मान आव्यु के त्यां हुं जइश तो माराथी नाना अठाणु भाइने वंदन कर, पडशे; माटे त्यां तो जवू योग्य नथी. एम मानवृत्तिथी वनमा ते एकाग्र ध्याने रह्या• हळवे हळवे वार मास थइ गया, महा तपथी काया हाडकानो माळो थइ गइ ते मुका झाड जेवा देखावा लाग्या; परंतु ज्यांसुधी माननो अंकुर तेनां अंत:करणथी खस्यो नहोतो त्यांमुधी ते सिद्धि न पाम्या. ब्राह्मी अने मुंदरीए आवीने तेने उपदेश कर्यो. "आर्य वीर! हवे मदोन्मत्त हाथीपरथी उतरो, एनाथी तो बहु शोष्यु. एओनां आ वचनोथी वाहुवळ विचारमा पड्या. विचारतां विचारतां तेने भान थयुं के सत्य छ, हुं मानरूपी मदोन्मत्त हाथीपरथी हुजु क्या उनयों छउं? हवे एथी उत
ए ज मंगळकारक छे" आम विचारी तेणे वंदन कर
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चार गति. वाने माटे पगलं भर्यु के ते अनुपम दिव्य कैवल्य कमळाने पाम्या.
वांचनार, जुओ, मान ए केवी दुरित वस्तु छ !!
शिक्षापाठ १८. चार गति.
जीव शातावेदनीय, अशातावेदनीय वेदतो शुभाशुभ कर्मनां फळ भोगववा आ संसारवनमां चार गतिने विष भम्या करेछे तो ए चार गति खचित जाणवी जोइएः ।
. १. नरकगति-महारंभ, मदिरापान, मांसभक्षण, ई. त्यादिक तीन हिंसाना करनार जीवो अघोर नरकमा पर्ने छे. त्यां लेश पण शाता, विश्राम के सुख नथी. मेही अंधकार व्यास छे. अंगछेदन सहन कर, पडे छ, अग्निमांवळg पडे छे, अने छरपलानी धार जेई जळ पी पड़े छे. अनंत दुःखधी करीने ज्या प्राणीभूते सांकड, अशाता अने विलविलाट सहन करवा पढे छे. आवा जे दुःख तेने केवलज्ञानीओ पण कही शकता नथी. अहोहो !! ते दुःख अनंतिवार आ आत्माए भोगव्यांछे.
२. तिर्यंचगति-छल, जूठ मपंच ईत्यादिक करीने जीव सिंह, वाघ, हाथी, मृग, गाय, भंस, पळद ईत्यादिक तिर्यचना गरीर धारण करे छे. ते तिर्यंचगतिमा भूख, तरश,
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३२ श्रीमद् राजचंद्र प्रणीत मोक्षमाळा. ताप, वध, बंधन, ताडन, भारवहन ईत्यादिनां दुःखने सहन करे छे.
३. मनुष्यगति-खाद्य, अखाद्य विषे विवेकरहित छे; लज्जाहीन, माता पुत्री साथे कामगमन करवामां जेने पापापापर्नु भान नथी; निरंतर मांसभक्षण, चोरी, परस्त्रीगमन वगेरे महा पातक कर्या करे छे; ए तो जाणे अनार्य देशनां अनार्य मनुष्य छे. आर्य देशमा पणक्षत्री, ब्राह्मण, वैश्य प्रमुख मतिहीन, दरिदि, अज्ञान अने रोगथी पीडित मनुष्य छ, मान, अपमान ईत्यादि अनेक प्रकारनां दुःख तेओ भोगवी रह्यो छे.
४. देवगति-परस्पर वेर, झेर, क्लेश, शोक, मत्सर, काम, मद, क्षुधा आदिथी देवताओ पण आयुष् व्यतीत करी रह्याछे, ए देवगति. ___ एम चार गति सामान्य रूपे कही. आ चारे गतिगां मनुष्यगति सौथी श्रेष्ठ अने दुर्लभ छे, आत्मानुं परमहित-मोक्ष ए हेतुथी पमाय छे, ए मनुष्यगतिमां पण केटलाक दुःख अने आत्मसाधनमां अंतरायो छे. ___ एक तरुण सुकुमारने रोमे रोमे लालचोळ सुया घोंचवाथी जे असह्य वेदना उपजे छ ते करतां आग्गुणी वेदना गर्भस्थानमां जीव ज्यारे रहे छे त्यारे पामे छे. लगभग नव महिना मळ, मूत्र, लोही, परु आदिमां अहोरात्र मूर्छागत स्थितिमा वेदना भोगवी भोगवीने जन्म पामेछे. गर्भस्था
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चार गति.
३३ ननी वेदनाथी अनंतगुणी वेदना जन्मसमये उत्पन्न थाय छे. त्यार पछी बाळावस्था पमाय छे. मळ, मूत्र, धूळ अने नग्नावस्यामां अणसमजथी रझळी रडीने ते वाळावस्था पूर्ण थाय छे; अने युवावस्था आवे छे. धन उपार्जन करवा माटे नाना प्रकारनां पापमां पडवुं पडे छे. ज्यांयी उत्पन्न थयो छे त्यां एटले विषय विकारमां वृत्ति जाय छे, उन्माद, आळस, अभिमान, निग्रदृष्टि, संयोग, वियोग एम घटमा
मां युवावय चाल्युं जाय छे; त्यां वृद्धावस्था आवे छे, शरीर कंपे छे, मुखे लाळ झरे छे. त्वचापर करोचली पडी जाय छे. सुंघ, सांभळ अने देख ए शक्तिओ केवळ मंद धड़ जाय छे. केश धवळ थइ खरवा मंडे छे; चालवानी आय रहेती नयी. हाथमां लाकडी लइ लडथडीओ खातां चालतुं पढे छे. कां तो जीवन पर्यंत खाटले पड्यां रहेवु पढे छे. श्वास, खांसी इत्यादिक रोग आवीने वळगे छे; अने घोडा काळमां काळ आवीने कोळीओ करी जाय छे. आ देहमांयी जीव चाली नीकळे छे. काया हती नहती थइ जाय छे. मरणसमये पण केटली वधी वेदना छे ? चतुर्गतिनां दुःखमां जे मनुष्यदेह श्रेष्ठ तेमां पण केटलां वर्धा दुःख रयां छे! तेम छवां उपर जणान्या प्रमाणे अनुक्रमे काळ आवे छे एम पण नथी. गमे ते वखते ते आवीने कह जाय छे, माटे ज विचक्षण पुरुषो प्रमाद विना आत्मकल्याणने आराधे छे.
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श्रीमद राजचंद्र प्रणीत मोक्षमाळा.
शिक्षापाठ १९. संसारने चार उपमा
भाग १.
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१. संसारने तत्त्वज्ञानीओ एक महासमुद्रनी उपमा पण आपे छे. संसाररूपी समुद्र अनंत अने अपार छे. अहो लोको ! एनो पार पामवा पुरुषार्थनो उपयोग करो ! उपयोग करो !! आम एमनां स्थळे स्थळे वचनो छे. संसारने समुद्रनी उपमा छाजती पण छे. समुद्रमां जेम मोजांनी छोळो उछळया करे छे, तेम संसारमां विषयरूपी अनेक मोजांओ उछले छे. जळनो उपरथी जेम सपाट देखाव छे तेम, संसार पण सरळ देखाव दे छे. समुद्र जेम क्यांक बहु उंडो छे, अने क्यांक भमरीओ खवरावे छे तेम, संसार कामविपय प्रपंचादिकमां वहु उंडो छे. ते मोहरूपी भमरीओ खवरावे छे. थोडुं जळ छतां समुद्रमां जेम उभा रहेवाथी का - दवमां गुची जइए छीए तेम, संसारना लेश प्रसंगमां ते तृष्णारूपी कादवमां धुंचवी दे छे. समुद्र जेम नाना प्रकारना खरावा, अने तोफानथी नाव के वहाणने जोखम पहचाडे छे, तेम स्त्रीओ रूपी खरावा अने कामरूपी तोफानयी संसार आत्माने जोखम पहचाडे छे. समुद्र जेम अगाध जळी शीतळ देखातो छतां वडवानळ नामना अमिनो तेमां वास छे तेम संसारमां मायारूपी अग्नि वळयाज करे छे. समुद्र जेम चोमासामां वधारे जळ पामीने उंडो
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संसारने चार उपमा भाग १. ३५ उतरे छे तैम पापरूपी जळ पामीने संसार उंडो उतरे छे. एटले मजबुत पाया करतो जाय छे.
२. संसारने वीजी उपमा अग्मिनी छाजे छ, अमिथी करीने जेम महा तापनी उत्पत्ति छे, तेम संसारथी पण त्रिविध तापनी उत्पत्ति छे. अग्निथी वळेलो जीव जेम महा विलविलाट करे छे, तेम संसारथी वळेलो जीव अनंत दुःखरूप नरकथी असह्य विलविलाट करे छे. अनि जेम सर्व वस्तुनो भक्ष करी जाय छे, तेम संसारना मुखमां पडेलांनो ते भक्ष करी जाय छे. अग्निमां जेम जेम घी अने इंधन होमाय छे, तेम तेम ते वृद्धि पामे छे तेवी ज रीते संसाररूप अमिमां तीव्र मोहरूपघी,अने विषयरूप इंधन होमाता ते वृद्धि पामे छे.
३. संसारने त्रीजी उपमा अंधकारनी छाजे छे. अंधकारमा जेम सौंदरी, सपनुं भान करावे छे, तेम संसार सत्यने असत्यरूप वतावे छे; अंधकारमा जेम पाणीओ आम तेम भटकी विपत्ति भोगवे छे, तेम संसारमा वेभान थइने अनंत आत्माओ चतुर्गतिमां आम तेम भटके छे. अंधकारमा जेम काच अने हीरानुं ज्ञान थतुं नथी, तेम संसाररूपी अंधकारमा विवेक अविवेकनुं ज्ञान थतुं नथी. जेम अंधकारमा प्राणीओ छती आँखे अंध वनी जाय छे, तेम छती शक्तिए संसारमा तेओ मोहांध वनी जाय छे. अंधकारमा जेमघुवड इत्यादिकनो उपद्रव वधे छे, तेम संसारमा लोभ, मायादिकनो उपद्रव वधे छे. एम अनेक भेदे जोतां संसार ते अंध. काररूप ज जणाय छे,
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३६ श्रीमद् रामचंद्र प्रणीत मोक्षमाला. शिक्षापाठ २०. संसारने चार उपमा
__भाग २. ४. संसारने चोथी उपमा शकटचक्रनी एटले गाडांना पैडांनी छाजे छे. चालता, शकटचक्र जेम फरतुं रहे छे, तेम संसारमा प्रवेश करता ते फरवारूपे रहे छे. शकटचक्र जेम धरीविनाचाली शकतुं नथी, तेम संसार मिथ्यात्वरूपी धरी विना चाली शकतो नथी. शकटचक्र जेम आरावडे करीने रघु छे, तेम संसार शंकट प्रमादादिक आराथी टक्यो छे. एम अनेक प्रकारची शकटचकनी उपमा पण संसारने लागी शाके छे.
एवी रीते संसारने जेटली अधोपमा आपो एटली थोडी छे. मुख्यपणे ए चार उपमा आपणे जाणी. इवे एमांथी तत्व ले योग्य छ:
१. सागर जेम मजवुत नाव अने माहितगार नाविकथी तरीने पार पमाय छे, तेम सद्धर्मरूपी नाव, अने सद्गुरुरूपी नाविकी संसारसागर पार पामी शकाय छे. सागरमा जेम डाह्या पुरुषोए निर्विघ्न रस्तो शोधी कान्यो होय छे, तेम जिनेश्वर भगवाने तत्त्वज्ञानरूप निर्विघ्न उत्तम राह बतान्यो छे.
२. अग्मि जेम सर्वने भक्ष करी जाय छे, परंतु पापीयी बुझाइ जाय छे तेम वैराग्यजळथी संसारअग्नि बुझवी शकाय छे.
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वार भावना.
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३. अंधकारमां जेम दीवो लइ जवाथी प्रकाश थर्ता, जोइ शकाय छे; तेम तत्त्वज्ञानरूपी निर्बुज दीवो संसाररूपी अंधकारमां प्रकाश करी सत्य वस्तु बतावे छे.
४. शकटचक्र जेम वळद विना चाली शकतुं नयी, तेम संसारचक्र राग द्वेपविना चाली शकतुं नथी.
एम ए संसारदरदनुं निवारण उपमावडे अनुपानादि प्रतिकार साथै कयुं, ते आत्महितैषीए निरंतर मनन करवु अने वीजाने बोधवं.
शिक्षापाठ २१. बार भावना.
वैराग्यनी, अने तेवा आत्महितैषि विषयोनी सुद्रढता थवा माटे वार भावना चितववानुं तत्त्वज्ञानीओ कहे छे.
१. शरीर, वैभव, लक्ष्मी, कुटुंब परिवारादिक सर्व विनाशी छे. जीवनो मूळ धर्म अविनाशी छे; एम चितवनुं ते पहेली 'अनित्यभावना.'
२. संसारमां मरणसमये जीवने शरण राखनार कोई नयी, मात्र एक शुभ धर्मनुं जशरण सत्य छे; एम चितवनुं ते बीजी ' अशरणभावना.'
२. " आ आत्माए संसारसमुद्रमां पर्यटन करतां करतां सर्व भव कीधा छे, ए संसारजंजीरथी हूं क्यारे छुटीश !
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૮ श्रीमद् राजचंद्र मणीत मोक्षमाळा.
ए संसार मारो नयी, हुं मोक्षमयी छं;" एम चितवनुं ते श्रीजी 'संसारभावना.'
४. “आ मारो आत्मा एकलो है; ते एकलो आव्यो छे, एकलो जशे पोतानां करेलां कर्म एकलो भोगवशे" एम चितवनुं ते चोथी 'एकत्वभावना.'
५. आ संसारमा कोइ कोइनुं नयी एम चितवनुं ते पांचमी 'अन्यत्वभावना.'
६. “आ शरीर अपवित्र छे, मळमूत्रनी खाण छे, रोग जराने रहेवानुं धाम छे, एगरीरथी हुं न्यारो छ" एम चितवनुं ते हट्टी 'अशुचिभावना.'
७. राग, द्वेष, अज्ञान, मिध्यात्व ईत्यादिक सर्व आश्रव छे एम चितवनुं ते सातमी 'आश्रवभावना.'
८. ज्ञान, ध्यानमां जीव प्रवर्त्तमान थड़ने नवां कर्म बांधे नहीं एवी चितवना करवी ते आठमी 'सम्वरभावना.'
९. ज्ञानसहित क्रिया करवी ते निर्जरानुं कारण छे एम चितवनुं ते नवमी 'निर्जराभावना. '
१०. लोकस्वरुपतुं उत्पत्ति स्थिति विनाशस्वरुप विचारखं ते दशमी 'लोकस्वरूपभावना.'
११. संसारमां भमतां आत्माने सम्यग्ज्ञाननी प्रासादी प्राप्त थवी दुर्लभ छे; वा सम्यग्ज्ञान पाम्यो, तो चारित्र
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कामदेव श्रावक.
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सर्व विरतिपरिणामरूप धर्म पामवो दुर्लभ छे; एवी चिंतवना ते अग्यारमी 'बोधदुर्लभ भावना.'
१२. धर्मना उपदेशक तथा शुद्ध शास्त्रना वोधक एवा गुरु अने एनुं श्रवण मळवुं दुर्लभ छे एवी चितवना ते वारमी 'धर्मदुर्लभ भावना. '
आ वार भावनाओ मननपूर्वक निरंतर विचारवाथी सत्पुरुषो उत्तम पदने पाया छे, पामे छे, अने पामशे•
शिक्षापाठ २२. कामदेव श्रावक
महावीर भगवान्ना समयमां द्वादशवृत्तने बिमल भावी धारण करनार, विवेकी अने निर्ग्रथवचनानुरक्त कामदेव नामना एक श्रावक तेओना शिष्य हता. सुधर्मा सभामां इंद्रे एक वेळा कामदेवनी धर्मअचलतानी प्रशंसा करी. एवामां त्यां एक तुच्छ बुद्धिवान देव वेठो हतो तेणे एव सुतानो अविश्वास बतान्यो, अनेकां के ज्यांसुधी परिषद प्रज्या न होय त्यांसुधी बधाय सहनशील अने धर्मदृढ जणाय आ सारी बात हुं एने चळावी आपीने सत्य करी देखाई, धर्मदृट कामदेव ते वेळा कायोत्सर्गमां लीन हता. देवताप प्रथम हाथतुं रूप वैक्रिय कर्युः अने पछी कामदेवने खुब गुंथा तोपण ते अचळ रहा, एटके मुशल
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४० श्रीमद् राजचंद्र प्रणीत मोक्षमाला. जेचं अंग करीने काळावर्णनो सर्प थइने भयंकर फुकार कर्या तोय कामदेव कायोत्सर्गयी लेश चळया नहीं; पछी अस्टहास्य करता राक्षसनो देह धारण करीने अनेक प्रकारना परिषह कर्या, तोपण कामदेव कायोत्सर्गयी चळया नहीं. सिंह वगेरेनां अनेक भयंकर रूप का नोपण कायोत्सर्गमा लेश हीनता कामदेवे आणी नहीं. एम रात्रिना चारे पहोर देवताए कर्या कयु; पण ते पोतानी धारणामां फान्यो नहीं. पछी ते देव अवधिज्ञानना उपयोगवढे जोयुं तो कामदेवने मेरुना शिखरनी परे अडोल रह्यादीठा. कामदेवनी अद्भुत निश्चलता जाणीतेने विनयभावयी प्रणाम करी पोतानो दोप क्षमावीने ते देवता स्वस्थानके गयो.
कामदेव श्रावकनी धर्मदृढता एवो बोध करे छे के, स. त्यधर्म अने सत्य प्रतिज्ञामा परम दृढ रहे; अने कायोत्सर्ग
आदि जेम वने तेम एकाग्र चित्तथी अने सुदृढताची निर्दोष करवां. चलविचल भावधी कायोत्सर्गादि बहु दोषयुक्त थायछे. पाई जेवा द्रव्यलाभ माटे धर्मशाख काढनारथी धर्ममा दृढता क्याथी रही शके? अने रही शके तो केवी रहे। ए विचारतां खेद थाय छे.
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सत्य.
शिक्षापाठ २३. सत्य. सामान्य कथनमा पण कहेवाय छे के, सत्य ए आ जगतनुं धारण छे अथवा सत्यने आधारे आ जगत् रघु छे. ए कथनमांयी एवी शिक्षा मळे छे के, धर्म, नीति, राज, अने व्यवहार ए सत्यवडे प्रवर्तन करी रह्यां छे अने ए चारे नहोय तो जगत रूप केर्बु भयंकर होय ? ए माटे सत्य ए जगतनुं धारण छ एम कहे ए कंइ आतशयोक्त जेवू, के नहीं मानवा जेवु नथी.
वसुराजानुं एक शब्दनुं असत्य बोल, केटल, दुःखदायक थयुं हतुं ते प्रसंग विचार करपा माटे अहीं कही :
वसुराजा, नारद अने पर्वत ए त्रणे एक गुरु पासेथी विद्या भण्या हता. पर्वत अध्यापकनो पुत्र हतो, अध्यापके काल को. एथी पर्वत तेनीमा सहित वसुराजाना दरवारमा आवी रह्यो हतो. एक रात्रे तेनी मा पासे वेठी छे अने पर्वत तथा नारद शास्त्राभ्यास करे छे. एमां एक वचन पर्वत एवँ बोल्यो के, 'अजाहोतव्यं,' त्यारे नारदे पूछयु: "अज ते शं पर्वत " पर्वते कहा: “अज ते वोकडो." नारद वोल्यो। "आपणे त्रणे जण तारा पिता कने भणता हता त्यारे, तारा पिताए तो 'अज' तेत्रण वर्पनी 'नीहि कहीछे अने तुं अवळु शा माटे कहेछ ? एम परस्पर वचनविवाद वध्यो. सारे पर्वते कय: "आपणने वसुराजा कहे ते खरं." ए वातनी नारदे हा कही अने जीते तेने माटे अमुक सरत करी. पर्व
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४२ श्रीमद् राजचंद्र प्रणीत मोक्षमाला. तनी मा जे पासे बैठी हती तेणे आ सांभळयु. 'अज' एटले 'श्रीहि' एम तेने पण याद हतुं सरतमा पोतानो पुत्र हारशे एवा भयथी पर्वतनी मा रात्रे राजा पासे गइ अने पूछयु: "राजा, 'अज' एटले शुं?" वसुरानाए संबंधपूर्वक का: "अज एटले 'नीहि." त्यारे पर्वतनी माए राजाने कह्यु : "मारा पुत्रथी 'बोकडो' कहेवायो छे माटे, तेनो पक्ष करतो पडशे; तमने पूछवा माटे तेओ आवशे." वमुराना बोल्योः "ई असत्य केम कहूं? माराधी ए वनी शके नहीं." पर्वतनी माए काः "पण जो तमे मारा पुत्रनो पस नहीं करो तो तमने हुं हत्या आपीश." राजा विचारमा पडी गयो के, सत्सवडे करीने हुँ मणिमय सिंहासनपर अद्धर वसुं छउं. लोकसमुदायने न्याय आपुछ. लोक पण एम जाणेछे के, राजा सत्यगुणे करीने सिंहासनपर अंतरिक्ष वेसेछे. हवे केम करवू ? जो पर्वतनो पक्षन करूं तो ब्राह्मणी मरे छे एवळी मारा गुरुनी स्त्री छे. न चालतां छेवटे राजाए ब्राह्मणीने कयु: "तमे भले जाओ, हुं पर्वतनो पक्ष करीश." आवो निश्चय कराचीने पवर्तनी मा घेर आवी. प्रभाते नारद, पर्वत अने तेनी मा विवाद करतां राजा पासे आव्यां. राजा अजाण थई पूछवा लाग्यो के शुं छे पर्वत ? पर्वते कह्यु: "राजाधिराज ! अन ते शुं ? ते कहो." राजाए नारदने पुछयु: "तमे शुं कहो छो ?" नारदे का: 'अज' ते त्रण वर्षनी 'ब्रीहि तमने क्यां नयी सांभरतुं? वसुराजा वोल्योः 'अज' एटले 'वोकडो, पण 'त्रीहि नहीं. तेज
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सत्य. वेळा देवताए सिंहासनयी उछाळी हेठो नांख्यो वन काल परिणाम पामी नरके गयो.
आ उपरथी सामान्य मनुष्योए सत्य, तेम ज राजाए न्यायमां अपक्षपात, अने सत्य वन्ने ग्रहण करवा योग्य छ ए मुख्य बोध मळे छे.
जे पांच महावृत्त भगवाने प्रणीत काँ छ तेमांनां मथम महावृत्तनी रक्षाने माटे वाकीनां चार वृत्त वाडरूपे छे अने तेमां पण पहेली वाड ते सत्य महारत्त छ. ए सत्यना अनेक भेद सिद्धांतथी श्रुत करवा अवश्यना छे.
शिक्षापाठ २४. सत्संग. सत्संग ए सर्व सुखनुं मूळ छे सत्संगनो लाभ मळ्यो के तेना प्रभाववडे वांछित सिद्धि थइ ज पडी छे. गमे तेवा पवित्र थवाने माट सत्संग श्रेष्ठ साधन छे; सत्संगनी एक घडी ने लाभ दे छे ते कुसंगनां एक कोट्याविधि वर्ष पण लाभ न दई गकतां अधोगतिमय महा पापो करावे छे, तेम ज आत्माने मलिन करे छे. सत्संगनो सामान्य अर्थ एटलो छे के, उत्तमनो सहवास. ज्यां सारी हवा नथी आवती त्यां रोगनी वृद्धि थाय छ तेम ज्यां सत्संग नथी त्यां आस्मरोग वधे छे. दुर्गंधयी कंटाळीने जेम नाके वस्त्र आई दइए छीए, तेम कुसंगथी सहवास बंध करवानुं अवश्यतुं
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४४ श्रीमद् राजचंद्र प्रणीत मोक्षमाला. छे; संसार ए पण एक प्रकारनो संग छ; अने ते अनंत कुसंगरूप तेम ज दुःखदायक होचायी त्यागवायोग्य छे. गमे ते जातनो सहवास होय परंतु जेवडे आत्मसिद्धि नयी ते सत्संग नथी. आत्माने सत्य रंग चहावे ते सत्संग. मोक्षनो मार्ग वतावे ते मैत्रि. उत्तम शास्त्रमा निरंतर एकाग्र रहे ते पण सत्संग छः सत्पुरुषोनो समागम ए पण सत्संग छे. मलीन वस्त्रने जेम साबु तथा जळ स्वच्छ करे छे तेम शास्त्र वोध अने सत्पुरुषोनो समागम, आत्मानी मलीनता गळीने शुद्धता आपे छे. जेनाथी हमेशनो परिचय रही राग, रंग, गान, तान, अने स्वादिष्ट भोजन सेवातां होय ते तमने गमे तेवो मिय होय तोपण निश्चय मानजो के, ते सत्संग नयी, पण कुसंग छे. सत्संगयी प्राप्त थयेलं एक वचन अमुल्य लाभ आपे छे. तत्वज्ञानीओए मुख्य बोध एवो कयों छे के, सर्व संग परित्याग करी, अंतरमा रहेला सर्व विकारथी पण विरक्त रही एकांतनुं सेवन करो. तेमां सत्संगनी स्तुति आवी जाय छे. केवळ एकांत ते तो ध्यानमा रहे के योगाभ्यासभां रहे, ए छे, परंतु समस्वभाविनो समागम जेमांची एक ज प्रकारनी वर्तनतानो प्रवाह नीकळे छे ते, भावे एक ज रूप होवायी घणां माणसो छतां, अने परस्परनो सहवास छतां ते एकांतरूप ज छे अने तेवी एकांत मात्र संवसमागममा रही छे. कदापि कोइ एम विचारशे के, विषयीमंडळ मळे छे त्यां समभाव अने सरखीति होवाथी एकांत कां न कहेवी ? तेनुं समाधान तत्काळ छे के, वेओ
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सत्संग. एक स्वभावी होता नथी. तेमां परस्पर स्वार्थबुद्धि अने मायानुं अनुसंधान होय छे अने ज्यां ए वे कारणथी समागमछे त्यां एक स्वभाव के निर्दोषता होतां नथी. निर्दोष अने समस्वभावी समागम तो परस्परथी शांत मुनीश्वरोनो छे तेम ज धर्मध्यान मशस्त अल्पारंभी पुरुपनो पण केटलेक अंशे छे. ज्यां स्वार्थ अने माया कपट ज छे त्यां समस्वभावता नथी; अने ते सत्संग पण नथी. सत्संगथी जे सुख अने आनंद मळे छे ते अति स्तुतिपात्र छे. ज्या शास्त्रोना सुंदर प्रश्नो थाय, ज्यां उत्तम ज्ञान, ध्याननी सुकथा थाय, ज्यां सत्पुरुषोनां चरित्रपर विचार बंधाय, ज्या तत्त्वज्ञानना तरंगनी लहरियो छूटे, ज्यां सरळ स्वभावथी सिद्धांतविचार चर्चाय, ज्यां मोक्षजन्य कथनपर पुष्कळ विवेचन थाय एवो सत्संग ते महा दुर्लभछे. कोइ एम कहे के, सत्संगमंडळमां कोइ मायावि नहि होय ? तो ते समाधान आ छे ज्यां माया अन स्वार्थ होय छे त्यां, सत्संग ज होतो नथी. राजहंसनी सभानो काग देखावे कदापि न कळाय तो अवश्य रागे कळाशे; मौन रहो तो मुखमुद्राए कलाशे. पण ते अंधकारमा जाय नहीं. तेम ज मायावियो सत्संगमा स्वार्थ जइने शुं करे ? त्यां पेट भर्यानी वात तो होय नही वेघडी त्यां जइ ते विश्रांति लेतो होय तो भले ले के, जेथी रंग लागे नहीं तो वीजीवार तेनुं आगमन होय नहीं जेम पृथ्वीपर तराय नहीं, तेम सत्संगथी बूडाय नहीं आवी सत्संगमा चमत्कृति छ. निरंतर एवा निर्दोष समागममा
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४६ श्रीमद् राजचंद्र प्रणीत मोक्षमाळा. माया लइने आवे पण कोण ? कोइज दुर्भागी; अने ते पण असंभवित छे.
सत्संग ए आत्मानुं परम हितकारि औपध छे.
शिक्षापाठ २५. परिग्रहने संकोचवो.
जे प्राणीने परिग्रहनी मर्यादा नधी, ते पाणी मुखी नयीः तेने जे मळ्युं ते आई छे. कारण जेटलं जाय तेटलाथी विशेष प्राप्त करवा तेनी इच्छा थाय छे. परिग्रहनी प्रवळतामां जे कइ मळ्यू होय तेनुं मुख तो भोगवातुं नयी परंतु होय ते पण वखते जाय छे. परिग्रहयी निरंतर चळविचळ परिणाम अने पापभावना रहे छ; अकस्मात् योगयी एवीपापभावनामां आयुष्य पूर्ण थाय तो बहुधा अघोगनिनुं कारण थइ पडे. केवळ परिग्रह तो मुनीश्वरो त्यागी शके, पण गृहस्थो एनी अमुक मर्यादा करी भके. मर्यादा वायी उपरांत परिग्रहनी उत्पत्ति नयी अने एथी करीने विशेष भावना पण बहुधा यती नयी अने वळी जे मन्यु छे नेम संतोष राखबानी पृया पडछे, एयी मुखमां काळ जायछे. कोण जाणे लक्ष्मीआदिकमां केवीए विचित्रवा रहीछे के जेम जेम लाम थतो जायछे तेम तेम लोभनी वृद्धि यती जाय छेधर्म संबंधी केटटुं ज्ञान छतां, धर्मनी इहता उतां पण परिग्रहना पागमां पडेलो पुरुष कोइक ज छुटी शके छे। वृति एमांज लटकी रहेछे; परंतु ए वृत्ति कोइ काळे मुख
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परिग्रहने संकोचो.
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दायक के आत्महितैषी थड़ नथी. जेणे एनी हुंकी मर्यादा करी नहीं, ते वहोला दुःखना भागी थया छे.
छ खंड साधी आज्ञा मनावनार राजाधिराज, चक्रवर्त्ती कहेवाय छे. ए समर्थ चक्रवत्तमां सुभुम नामे एक चक्रवर्त्ती थड़ गयो छे. एणे छ खंड साधी लीधा एटले चक्रवत्ती- पदयी ते मनायो; पण एटलेधी एनी मनोर्वाच्छा वृस न थ; हजु ते तरस्यो रह्यो. एटले धातकी खंडना छ खंड साधवा एणे निश्चय कयों, वधा चक्रवत्ती छ खंड साघे छे; अने हुं पण एटलाज साधु तेमां महत्ता शानी ! वार खंड साधवाथी चिरंकाळ हुं नामांकित था; समर्थ आशा जीवनपर्यंत ए खंडोपर मनावी शकीश; एवा विचारथी समुद्रमां चर्मरत्र मूक्युं ; ते उपर सर्व सैन्यादिकनो आधार रह्यो हतो. चर्मरत्नना एक हजार देवता सेवक कहेवाय छे; तेमां प्रथम एके विचार्य के कोण जाणे केटलांय वर्षे आमांयी छूटको थशे ? माटे देवांगनाने तो मळी आवुं एम धारी ते चाल्यो गयो; एवा ज विचारे बीजो गयो; पछी त्रीजो गयो ; अने एम करतां करता हजारे चाल्या गया ; त्यारे चर्मरत्न वूढयुं; अश्व, गज अने सर्व सैन्यसहित मुथुम नामनो ते चक्रवत्ती चूड्यो ; पापभावनामां ने पापभावनामां मरीने ते अनंत दुःखयी भरेली सातमी तमतमप्रभा नर्कने विषे जड़ने पड्यो, जुओ ! छ खंडनुं आधिपत्य तो भोगवनुं रयुं; परंतु अकस्मात् अने भयंकर रीते परिग्रहनी मीतिथी ए चक्रवर्त्तीतुं मृत्यु थयुं, तो पछी वीजा माटे तो
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४८ श्रीमद् राजचंद्र प्रणीत मोक्षमाळा. कहेवू ज शुं? परिग्रह ए पापर्नु मूळ छे; पापनो पिता छ। अने एकादशत्तने महा दोष दे एवो एनो स्वभाव छे. ए माटे थइने आत्महितैपिए जेम बने तेम तेनो त्याग करी मर्यादा पूर्वक वर्त्तन करवं.
शिक्षापाठ २६. तत्त्व समजवं.
शास्त्रोनां शास्त्रो मुख पाठे होय एवा पुरुषो घणा मळी शके; परंतु जेणे थोडां वचनोपर प्रौढ अने विवेकपूर्वक विचार करी शास्त्र जेटलु ज्ञान हृदयगत कर्यु होय तेवा मळवा दुर्लभ छे. तत्त्वने पहोंची जq ए कंइ नानी वात नथी कूदीने दरियो ओलंगी जवो छे.
_ अर्थ एटले लक्ष्मी, अर्थ एटले तत्त्व अने अर्थ एटले शदनुं वीजुं नाम. आवा अर्थशदना घणा अर्थ थाय छे. पण 'अर्थ' एटले 'तत्त्व' ए विषयपर अहीं आगळ कहेवानुं छे. जेओ निग्रंथप्रवचनमां आवेलां पवित्र वचनो मुखपाठे करे छे, ते तेओनां उत्साहबळे सत्फळ उपार्जन करे छे; परंतु जो तेनो मर्म पाम्या होय तो एथी ए सुख, आनंद, विवेक अने परिणामे महद्भूत फळ पामे छे. अभणपुरुष सुंदर अक्षर अने ताणेला मिथ्या लीटा ए वेना भेदने जेटलं जाणे छे, तेढुंज मुखपानी अन्य ग्रंथ विचार अने निग्रंथप्रवचनने भेद रूप माने छे, कारण तेणे अर्थ पूर्वक निग्रंथ वचनामृतो
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तत्त्व समजबू धार्यों नथी; तेम ते पर यथार्थ तत्वविचार कर्यो नयी. जो के तत्वविचार करवामां समर्थ बुद्धिमभाव जोइए छीए; तोपण कंइ विचार करी शके पथ्यर पीगळे नहीं तोपण पाणीथी पलळे. तेमज जे वचनामृतो मुखपाठे कयाँ होय ते अर्थ सहित होय तो बहु उपयोगी थई पडे। नहीं तो पोपटवाळु राम नाम• पोपटने कोई परिचये रामनाम कहेतां शीखडावे; परंतु पोपटनी वल्ला जाणे के राम ते दाडम के द्राक्ष. सामान्यार्थ समज्या वगर एवं थाय छे. कच्छी वैश्यानुं द्रष्टांत एक कहेवाय छे ते कईक हास्ययुक्त छे खरं, परंतु एमांची उत्तम शिक्षा मळी शके तेम छे; एटले अहाँ कही जरं छउं. कच्छना कोई गाममां श्रावकधर्म पाळता रायशी, देवशी अने खेतशी एम त्रण नामधारी ओशवाळ रहेता हता. नियमित रीते तेयो संध्याकाळे, अने परोढिये प्रतिक्रमण करता हता.परोटिये रायशी अने संध्याकाळे देवशी प्रतिक्रमण करावता हता. रात्रि संबंधी पतिक्रमण रायशी करावतो; एने संबंधे 'रायशी पडिक्कमj ठायमि, एम तेने वोलावईं पडतुं तेम ज देवशीने 'देवशी पडिक्कम[ ठायमि' एम संबंध होवाथी बोलाव, पडतुं. योगानुयोगे घणाना आग्रहयी एक दिवस संध्याकाळे खेतशीने वोलाववा वेसार्यों. खेवशीए ज्यां 'देवशी पडिक्कमणुं ठायमि एम आव्यु, त्यां 'खेतशी पडिकमणु ठायमि, ए वाक्यो लगावी दीधां! ए सांभळी वधा हास्यग्रस्त यया अने पूछयु आम कां? खेतशी वोल्यो वळी आम ते केम? त्यां उत्तर मळयो के, 'खेतशी
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५० श्रीमद् राजचंद्र प्रणीत मोक्षमाळा. पडिक्कम' ठायमि' एम तमे कम वोलो छो ? खेतशीए का, हुँ गरीब छउँ एटले मारु नाम आव्युं त्यां पाधरी तकरार लइ वेठा, पण रायशी अनेदेवशी माटे तो कोइ दिवस कोइ वोलता पण नथी. ए वने केम 'रायशी पडिकमणुं ठायंमि' अने 'देवशी पडिकमणुंठायमि' एम कहे छे ? तो पछी हुँ 'खेतशी पडिक्कमणुं ठायमि' एम कां न कहुं ? एनी भद्रिकताए तो बधाने विनोद उपजाव्यो पछी अर्थनी कारण सहित समजण पाडी एटले खेतशी पोताना मुखपाठी प्रतिक्रमणी शरमायो.
आ तो एक सामान्य वात छे; परंतु अर्थनी खुवी न्यारी छे. तत्त्वज्ञ तेपर बहु विचार करी शके. वाकी तो गोळ गळ्योज लागे तेम निग्रंथवचनामृतो पण सत्फळ ज आपे. अहो! पण मर्म पामवानी वातनी तो वलहारी जछे !
शिक्षापाठ २७. यतना. जेम विवेक ए धर्मनुं मूळतब छे, तेम यतना ए धर्म उपतत्त्व छे. विवेकथी धर्म तत्व ग्रहण कराय छे; तथा यतनाथी ते तत्त्व शुद्ध राखी शकाय छे, अने ते प्रमाणे प्रवर्तन करी शकाय छे. पांच समितिरुप यतना तो बहु श्रेष्ठ छे; परंतु ग्रहाश्रमीथी ते सर्व भावे पाळी शकाती नथी; छतां जेटला भावांशे पाळी शकाय तेटला भावांशे पण
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यतना. सावधानीधी पाळी शकता नधी. जिनेश्वर भगवते वोधेली स्थल अने मूक्ष्म दया प्रत्ये ज्यां वेदरकारी छे, त्यां ते वह दोपथी पाळी काय छे. पयतनानी न्यूनताने लीधे छे. उतावळी अने वेगभरी चाल, पाणी गळी तेनो संखालो राखवानी अपूर्ण विधि, काष्ठादिक इंधननो वगर खंचेर्य, बगर जाय उपयोग; अनाजमां रहेला सूक्ष्म जंतुओनी अपूर्ण नपास, पुंज्या प्रमाया वगर रहेवां दीधेलां ठाम, अस्वच्छ राखेला ओरडा, आंगणामां पाणीनुं ढोळवं, एठनुं राखी मूक, पाटला वगर घसघखती थाळी नीचे मृकवी, एवी पीतानं आ लोकमां अस्वच्छता, अगवड, अनारोग्यता इत्यादिक फलस्प थाय छ; अने परलोकमां दुःखदायि महापापना कारण पण थद पड़े छे, ए माटे थइने कडेवानो वोध के चालवामां, वेसवामां, उठवामां, जमवामां अने वीजा हरेक प्रकारमा यतनानो उपयोग करवो. एपी द्रव्ये अने भावे बन्न प्रकारे लाभ छे. चाल धीमी अने गंभिर राखवी, घर स्वच्छ राखवा, पाणी विधिसहित गळाववं, काष्टाटिक इंधन खंखेरी वापरवां ए कंइ आपणने अगवट पटत काम नयी तमतमा विशेप वखत जतो नथी. एवा नियमो दाखल करीदीधा पछी पाळया मुम्केल नथी. एबी विचारा असंख्यात निरपराधी जंतुओ वचे छे.
प्रत्येक काम यनना पूर्वक ज करवं ए विवेकी श्रावकर्नु कर्तव्य छे.
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५२ श्रीमद् राजचंद्र प्रणीत मोक्षमाळा.
शिक्षापाठ २८. रात्रिभोजन. अहिंसादिक पंचमहावृत्त जेई भगवाने रात्रिभोजनसागवृत्त कयु छे. रात्रिमा जे चार प्रकारना आहार छे ते अभक्षरूप छे. जे जातिनो आहारनो रंग होय छे ते जातिना तमस्काय नामना जीव ते आहारमा उत्पन्न थाय छे. रात्रिभोजनमा ए शिवाय पण अनेक दोप रह्या छे. रात्रे जमनारने रसोइने माटे अग्नि सळगाववो पडे छे; त्यारे समीपनी भीतपर रहेला निरपराधी सूक्ष्म जंतुओ नाश पामे छे. इंधनने माटे आणेलां काष्ठादिकमां रहेला जतुंओ रात्रिए नहीं देखावाथी नाश पामे छे । तेमज सर्पना झेरनो, करोळियानी लाळ्नो अने मच्छरादिक सूक्ष्म जंतुनो पण भय रहेछ ; वखते ए कुटुंवादिकने भयंकर रोगनुं कारण पण थइ पडे छे.
रात्रिभोजननो पुराणादिक मतमां पण सामान्य आचारने खातर त्याग कर्यो छे, छतां तेओमां परंपरानी रुढिये करीने रात्रिभोजन पेसी गयुं छे. पण ए निषेधक तोछे ज.
शरीरनी अंदर वे प्रकारनां कमळ छे. ते सूर्यना अस्तथी संकोच पामी जाय छे; एथी करीने रात्रिभोजनमा सूक्ष्म जीव भक्षणरुप अहित थाय छे; जे महा रोगनुं कारण छे. एवो केटलेक स्थळे आयुर्वेदनो पण मत छे.
सत्पुरुषो तो वे घडी दिवस रहे त्यारे वाळु करे। अने बे घडी दिवस चन्यां पहेलां गमे ते जातनो आहार
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रात्रिभोजन. करे नहीं रात्रिभोजनने माटे विशेष विचार मुनिसमागमथी के शाखथी जाणवो. ए संबंधी बहु सूक्ष्म भेदो जाणवा अवश्यना छे.
चारे प्रकारना आहाररात्रिने विपेत्यागवायी महफळ छे. आ जिन वचन छे.
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शिक्षापाठ २९.सर्व जीवनी रक्षा भाग १.
दया वो एके धर्म नधी दया एज धर्मनुं स्वरूप छे. ज्यां दया नथी त्यां धर्म नथी. जगतितळमां एवा अनर्थकारक धर्ममतो पड्या छे के, जेओ एम कहे छ के जीवने हणतां लेश पाप धतुं नवी; बहु तो मनुष्यदेहनी रक्षा करो. तेम ए धर्ममतवाला अनुनी, अने मदांध छे, अने दया लेश स्वरूप पण जाणता नथी. एओ जो पोतानुं हृदयपट प्रकाशमांमूकीने विचारे तो अवश्य तेमने जणाशे के एक सूक्ष्ममा मूक्ष्म जंतुने तृणवामां पण महा पाप छे. जेवो मने मारो आत्मा प्रियछे तेवो तेने पण तेनो आत्मा प्रिय छे. हूं मारा लेग व्यसन खातर के लाभ खातर एवा असंख्याता जीवोने वेधडक हणुं छ. एमने केटलं वधुं अनंत दुःखनुं कारण थइ पटगे ? तेओमां बुद्धि वीज पण नहीं होवाथी तेओ आवो साविक विचार करी शकता नथी. पापमां ने पापमा
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५४ श्रीमद् राजजंद्र भणीत मोक्षमाळा. निशदिन मग्न छे. वेद, अने वैष्णवादि पंथोमां पण मूक्ष्म दया संबंधी कंइ विचार जोवामां आवतो नथी. तोपण एओ केवळ दयाने नहीं समजनार करतां घणा उत्तम छे. स्थूळ जीवोनी रक्षामां एठीक समज्या छे; परंतु ए सपळा करतां आपणे केवा भाग्यशाली के ज्यां एक पुष्पपांखडी दभाय त्यां पापछे ए खरं तत्त्व समज्या अने यज्ञयागादिक हिंसाथी तो केवळ विरक्त रह्या छीए ! वनता प्रयत्नथी जीव बचावीए छीए, वळी चाहिने जीव हणवानी आपणी लेश इच्छा नथी. अनंतकाय अभक्ष्यथी वहु करी आपणे विरक्त ज छीए. आ काळे एसपळो पुण्यप्रताप सिद्धार्थ भूपाळना पुत्र महावीरना कहेला परमतत्त्ववोधना योगवळयी वध्यो छे. मनुष्यो रीद्धि पामे छे, सुंदर स्त्री पामे छे, आज्ञाकित पुत्र पामे छे, वहोलो कुटुंबपरिवार पामे छे, मानप्रतिष्ठा तेमज अधिकार पामे छे, अने ते पामवां कंइ दुर्लभ नथी; परंतु खरुं धर्मतत्त्व के तेनी श्रद्धा के तेनो थोडो अंश पण पामवो महा दुर्लभ छे, ए रीद्धि इत्यादिक अविवेकथी पापर्नु कारण थई अनंत दुःखमां लई जाय छे; परंतु आ थोडी श्रद्धा-भावना पण उत्तम पदिए पहोंचाडे छे. आम दयानु सत्परिणाम छे, आपणे धर्मतत्त्वयुक्त कुळमां जन्म पाम्या छीए तो हवे जेम बने तेम विमळ दयामय वर्त्तनमां आवg. वारंवार लक्षमा राखवुके, सर्व जीवनी रक्षा करवी. वीजाने पण एवो ज युक्तिप्रयुक्तिथी वोध आपवो. सर्व जीवनी रक्षा करवा माटे एक वोधदायक उत्तम युक्ति बुद्धिशाळा अभय
सत्परिणाम जेमवने तेम
जीवनी रक्षा करावनी रक्षा
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सर्व जीवनी रक्षा भाग २. कुमारे करी हवी ते आवता पाठमां हुं कहुँ छरं; एमज तत्वबोधने माटे यौक्तिक न्याययी अनार्य जेवाधर्ममतवादीओने शिक्षा आपवानो वखत मळे तोआपणे केवा भाग्यशाली!
शिक्षापाठ३०.सर्व जीवनी रक्षा भाग २.
मगध देशनी राजगृही नगरीनो अधिराज श्रेणिक एक वखते सभा भरीने वेठो हता. प्रसंगोपात वातचितना प्रसंगमां मांसलुन्य सामंतोहता तेवोल्या के, हमणा मांसनी विशेष सस्ताई छे. आ वान अभयकुमारे सांभळी. ए उप. रथी ए हिंसक सामंतोने वोध देवानो तेणे निश्चय कर्यो. सांजे सभा विसर्जन थई अने राजा अंत:पुरमां गया. सार पछी क्रयविक्रय माटे जेणे जेणे मांसनी वात उच्चारी हती तेने तेने घेर अभयकुमार गया. जेने घेर जाय त्यां सत्कार कर्या पछी तेओ पूछवा लाग्या के, आपर्नु परिश्रम लई अमारे घेर केम पधार ययुं छे? अभयकुमारे कयु: “महाराजा श्रेणिकने अकस्मात् महा रोग उत्पन्न थयो छे. वैद्य भेला करवायी तेणे की के, कोमळ मनुष्यना काळजानुं सवा टांकभार मांस, होय तो आ रोग मटे. तमे राजाना प्रियमान्य छो माटे तमारे त्यां ए मांस लेवा आव्यो छरं." प्रत्येक सामते विचार्य के काळजानु मांस हुँ मुवाविना शी रीते आपी शकुं ? एथी अभयकुमारने पूछयु: महाराज, ए तो
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५६ श्रीमद् राजचंद्र प्रणीत मोक्षमाला, केम थई शके १ एम कहीं पछी अभयकुमारने केटलुक द्रव्य पोतानी वात राजा आगळ नहीं प्रसिद्ध करवा ते प्रत्येक सामंत आपता गया अने ते अभयकुमार लेता गया. एम सघळा सामंतोने घेर अभयकुमार फरी आल्या. सपना मांस न आपी शक्या, अने आम तेमणे पोतानी वात छुपाववा द्रव्य आप्यु. पछी वीजे दिवसे ज्यारे सभा भेळी थइ सारे सघळा सामंतो पोताने आसने आवीने वेठा. राजा पण सिंहासनपर विराज्या हता. सामंतो आवी आवीने गइ कालतुं कुशल पूछवा लाग्या. राजा ए वातथी विस्मीत थया. अभयकुमार भणी जोयुं एटले अभयकुमार वोल्याः "महाराज! काले आफ्ना सामंतो सभामा वोल्या हता के हमणा मांस सस्तुं मळे छे. जेथी हु तेओने त्यां लेवा गयो हतो, त्यारे सघळाए मने वह द्रव्य आप्यु ; परंतु काळजानं सवा पैसाभार मांस नआप्यु सारे ए मांस सस्तु के मोघु ?" वधा सामंतो सांभळी शरमथी नीचुं जोइ रह्या. कोइथी कंड बोली शकायुं नहीं पछी अभयकुमारे का:"आ कइ में तमने दुःख आपवा कर्यु नथी; परंतु वोध आपवा कयु छे. आपणने आपणा शरीरचं मांस, आप, पडे तो अनंतभय थाय छे, कारण आपणा देहनी आपणने मियता छे, तेम जे जीवनुं ते मांस हशे तेनो पण जीव वहालो हशे. जेम आपणे अमूल्य वस्तुओ आपीने पण पोतानो देह बचावीए छीए तेम ते विचारां पामर माणीओने पण हो, जोइए. आपणे समजणवालां, बोलतां चालतां प्राणी छइए. ते विचारां
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रात्रिभोजन. अवाचक अने निराधार प्राणी छे. तेमने मोतरुप दुःख आपीए ए के पापनुं प्रवळ कारण छे? आपणे आवचन निरंतर लक्षमांराख के सर्व प्राणीने पोतानो जीव वहालो छ; अने सर्व जीवनी रक्षा करवी ए जेवो एके धर्म नथी. अभयकुमारना भापणथी श्रेणिक महाराजा संतोपाया. सघळा सामंतो पण वोध पाम्या. तेओए ते दिवसथी मांस खाचानी प्रतिज्ञा करी, कारण एक तो ते अभक्ष्य छे, अने कोड जीव इणाया विना ते आवतुं नधी ए मोटों अधर्म छ माटे अभय प्रधाननु कयन सांभळीने तेआए अभयदानमा लक्ष आप्यु. , अभयदान आत्माना परम सुखनुं कारण छे.
शिक्षापाठ ३१. प्रत्याख्यान. . 'पचखाण' नामनो शब्द वारंवार तमारा सांभळवामां आन्यो छे. एनो मूल शब्द प्रत्याख्यान छे अने ते (शब्द) अमुक वस्तु भणी चित्त न कर एम तत्त्वथी समनी हेतुपूर्वक नियम करवो तेने बदले वपराय छे. प्रत्याख्यान करवानो हेतु महा उत्तम अने मूक्ष्म छे. प्रत्याख्यान नहीं करवायी गमे ते वस्तु न खाओ के न भोगतो तोपण तेथी संवरपर्यु नधी, कारण के तत्त्वरूपे करीने इच्छानुं रुघन कर्यु नथी. रात्रे
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५८ श्रीमद् राजचंद्र प्रणीत मोक्षमाला. आपणे भोजन न करता होइए; परंतु तेनो जो प्रत्याख्यानरूपे नियम न कर्यो होय तो ते फळ न आपे; कारण आपणी इच्छा खुल्ली रही. जेम घरनुं वारणुं उघार्यु होय अने श्वानादिकजनावर के मनुष्य चाल्यु आवे तेम इच्छानां द्वार खुल्ला होय तो तेमां कर्म प्रवेश करे छे. एटले के ए भणी आपणा विचार छूटथी जाय छे; ते कर्मवंधननुं कारण छ, अने जो प्रत्याख्यान होय तो पछी ए भणी द्रष्टी करवानी इच्छाथती नथी.जेम आपणे जाणीए छीए के वांसानो मध्य भाग आपणाथी जोइ शकातो नधी, माटे ए भणी आपणे द्रष्टि पण करता नथी, तेम प्रत्याख्यान करवायी आपणे अमुक वस्तु खवाय के भोगवाय तेम नयी एटले ए भणी आपणुं लक्ष स्वाभाविक जतुं नथी, ए कर्म आववाने आडो कोट थइ पड़े छे. प्रत्याख्यान कर्या पछी विस्मृति वगैरे कारणथी कोइ दोष आवी जाय तो तेनां प्रायश्चितनिवारण पण महात्माओए कह्यां छे.. __ प्रत्यास्यानथी एक वीजो पण मोटो लाभ छे; ते एके अमुक वस्तुओमांज आपणुं लक्ष रहे छे, वाकी वधी वस्तुओनो त्याग पड जायछे जे जे वस्त त्याग करी छे ते ते संबंधी पछी विशेष विचार, ग्रह, मूकबुं के एवी कंड उपाधि रहेती नथी. एवडे मन वह वहोळताने पामी निय- . मरूपी सडकमां चाल्यु जायछे. अश्व जो लगाममां आवी जाय छे, तो पछी गमे तेवो भवळ छतां तेने धारेले रस्ते जेम लइ जवाय छे तेम मन ए नियमरूपी लगाममा आववाथी
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प्रत्याख्यान.
पछी गमे ते शुभ राहमा लइ जवाय छ; अने तेमा वारंवार पर्यटन कराववादी ते एकान, विचारशील अने विवेकी थायछे. मननो आनंद शरीरने पण निरोगी करे छे. अभक्ष्य, अनंतकाय, परस्त्रियादिकना नियम कर्याथी पण शरीर निरोगी रही शके छे. मादक पदार्थो मनने अवळे रस्तेदोरेछे, पण प्रत्याख्यानी मन त्यां जतुं अटके छ; एथी ते विमल थाय छे.
प्रत्याख्यान ए केवी उत्तम नियम पाळवानी प्रतिज्ञा छे, ते आ उपरथी तमे समज्या हशो. विशेष सद्गुरु मुखथी अने शास्त्रावलोकनथी समजवा हु वोध करुं छउं.
शिक्षापाठ ३२. विनयवडे तत्वनी
सिध्धि छे.
राजगृही नगरीनां राज्यासनपर ज्यारे श्रेणिक राजा विराजमान हता, त्यारे ते नगरीमा एक चंडाल रहेतोहतो. एक वखते ए चंडालनी स्त्रीने गर्भ रह्यो, त्यारे तेने केरी खावानी इच्छा उत्पन्न थइ. तेणे ते लावी आपया चंडालने का. चंडाले की, आ केरीनो वखत नथी, एटले मारो उपाय नथी. नहीं तो हुँ गमे तेटले उंचे होय त्यांची मारी विद्यानां वळवडे लाची तारी इच्छा सिद्ध कर,
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६० श्रीमद् राजचंद्र प्रणीत मोक्षमाला. चंडाळणीए कहा,राजानी महाराणीनां वागमां एक अकाळे केरी देनार आंवो छे. ते पर अत्यारे केरीओ लची रही हशे, माटे त्यां जेइने ए केरी लावो. पोतानी स्त्रीनी इच्छा पुरी पाडवा चंडाळते.वागमां गयो. गुप्त रीते आंवा समीप जई मंत्र भणीने-तेने नमाग्यो; अने केरी लीधी. वीजा मंत्रवडे करीने तेने हतो एम करी दीधो. पछी ते घेर आव्यो अने तेनी स्त्रीनी इच्छा माटे निरंतर ते चंडाळ विद्यावळे त्यांची केरी लाववा लाग्यो. एक दिवसे फरतां फरतां माळीनी द्रष्टि आंबा भणी गई. केरीओनी चोरी थयेली जोईने तेणे जइने श्रेणिकराजा आगळ नम्रता पूर्वक कयु. श्रेणिकनी आज्ञाथी अभयकुमार नामना बुद्धिशाली प्रधाने युक्तिवडे ते चंडाळने शोधी काव्यो. तेने पोता आगळ तेडावी पूछयु, एटलां धां माणसो वागमा रहेछे छतां तुं केवी रीते चढीने ए केरी लई ग़यो के ए वात कळवामां पण न आवी ? चंडाळे कह्यु, आप मारो अपराध क्षमा करजो हुँ साचुं वोली जउ छउँ के मारी पासे एक विद्या छ । तेना योगथी हुँ ए केरीओ लइ शक्यो. अभयकुमारे। कयुं, मारायी क्षमा न थइ शके; परंतु महाराजा श्रेणिकने' ए विद्या तु आप तो तेओने एवी विद्या लेवानो अभिलाष होवायी तारा उपकारना बदलामा हुं अपराध क्षमा करावी शकुं-- चंडाळे एम.करवानी हा कही. पछी अभयकुमार चंडाळने श्रेणिकराजा ज्यां सिंहासनपर बेठा हता त्यां कावीने सामो उभो राख्योः अने सपळी वात राजाने
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विनयवडे तत्त्वनी सिद्धि के , ६१ कही वतावी.ए वातनी राजाए हा कही. चंडाळे पछी सामा उभा रही थरथरते पगे श्रेणिकने ते विद्यानो वोध आपवा मांड्यो, पण ते वोध लाग्यो नही. झडपथी उभा थइ अभयकुमार वोल्याः महाराज! आपने जो ए विद्या अवश्य शीखवी होय तोसामा आवी उभा रहो; अने एने सिंहासन आपो. राजाए विद्या लेवा खातर एम कर्य तो तत्काळ विद्या सिद्ध थइ.
आ वात मात्र बोध लेवाने माटे छे. एक चंडालनो पण विनय कर्या वगर श्रेणिक जेवा राजाने विद्या सिद्ध न थइ, तो तेमांयी तत्त्व ए ग्रहण करवानुं छे के, सद्विद्याने साध्य करवा विनय करवो अवश्यनो छे. आत्मविद्या पामवा निग्रंयगुरुनो जो विनय करीए तो केवू मैंगळदायकथाय !.
विनय ए उत्तम वशीकरण छे. उत्तराध्यनमा भगवाने विनयने धर्मचं मूळ कही वर्णव्यो छे. गुरुनो, मुनिनो, विद्वाननो, मातापितानो अने पोताथी वडानो विनय करवो ए आपणी उत्तमतानुं कारण छे.
शिक्षापाठ ३३. सुदर्शन शेठ.: .
प्राचीन काळपां शुद्ध-एक पनीहत्तने पाळनारा, असं ख्य पुरुषो थर गया : एमांथी संकट..सही नामांकित ययेलो सुदर्शन नामनो एक मत्पुरुष पण छे. ए धनान्य
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', : ६२ श्रीमद् राजचंद्र प्रणीत मोक्षमाळा.
सुंदर मुखमुद्रावालो कांतिमान अने मध्य वयमां हतो. जे नगरमां ते रहेतो हतो, ते नगरना राज्यदरवार आगळधी कंइ काम प्रसंगने लीघे तेने नीकळ्तुं पड्युं. ते वेळा राजानी
· अभया नामनी राणी पोताना आवासना गोखमां वेठी हती.
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त्यांथी सुदर्शन भणी तेनी द्रष्टि गइ. तेनुं उत्तम रूप अने काया जोइने तेनुं मन ललचायुं. एक अनुचरी मोकलीने कपटभावथी निर्मळ कारण बतावीने मुदर्शनने उपर वोलाब्यो. केटलाक प्रकारनी वातचित कर्या पछी अभयाए मुदर्शनने भोग भोगवना संबंधीनुं आमंत्रण कर्यु. सुदर्शने केटलोक उपदेश आप्यो तोपण तेनुं मन शांत थयुं नहीं. छेवटे कंटाळीने सुदर्शने युक्तिथी करूं, वहेन, हुं पुरुषत्रमां नथी ! तोपण राणीए अनेक प्रकारना हावभाव कर्या. ए सघळी कामचेष्ठाथी सुदर्शन चळ्यो नहीं; एथी कंटाळी जइने राणीए तेने जतो कर्यो.
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एक वार ए नगरमा उजाणी हती; तेथी नगर बहार नगरजनो आनंदथी आम तेम भमता हता. धामधुम मची रही हती. सुदर्शन शेठना छ देव कुमार जेवा पुत्रो पण त्यां आव्या हता. अभया राणी कपिला नामनी दासी साथै ठाठमाठ्थी त्यां आवी हती. सुदर्शनना देवपूतळां जेवा छ पुत्रो तेना जोवामां आव्या, कपिलाने तेणे पूछयुंः आवा 'रम्य पुत्रो कोना छे ? कपिलाए सुदर्शन शेठनुं नाम आप्युं. नाम सांभळीने राणीनी छातीमां कटार भोकाइ ; तेने कारी घा वाग्यो सघळी धामधुम वीती गया पछी मायाकथन
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मुदर्शन शेठ. गोठचीने अभयाए अने तेनी दासीए मली राजाने कयु: "तमे मानता हशो के, मारा राज्यमा न्याय अने नीति वर्ते छे; दुर्जनोथी मारी मजा दुःखी नथी; परंतु ते सघर्छ मिथ्या छे. अंतःपुरमा पण दुर्जनो प्रवेश करे त्यां मुधी हजु अंधेर छे! तो पछी वीजां स्थळ माटे पूछ, पण शुं ? तमारा नगरना सुदर्शन नामना शेठे मारी कने भोगनु आमंत्रण कयु. नहीं कहेवायोग्य कथनो मारे सांभळवां पड्यां; पण में तेनोतिरस्कार को. आधी विशेष अंधारु कयु कहेवाय?" घणा राजा मूल कानना काचा होयछे ए वात जाणे बहु मान्य छे, तेमां वली स्त्रीनां मायावि मधुरा वचन | असर न करे ताता तेलमा टाढांजळ जेवां वचनथी राजा क्रोधायमान थया. सुदर्शनने शूळीए चढावी देवानी तत्काळ तेणे आशा करी दीधी, अने ते प्रमाणे सघळु थइ पण ग{. मात्र गृळीए सुदर्शन वेसे एटली वार हती. ।
गमे तेम हो, पण सृष्टिना दिव्य भंडारमा अजवाडं छे. सत्यनो प्रभाव ढाक्यो रहेतो नथी. सुदर्शनने शूलीए सार्यो, के शूली फीटीने तेनुं झळझळतुं सोनानु सिंहासन ययु, अने देव दुंदुभीना नाद थया सर्वत्र आनंद व्यापी गयो. मुदर्शन सत्यशील विश्वमंडळमां झळकी उठ्युं सत्य शीळनो सदा जय छे. ___ शीयन अने सुदर्शननी उत्तम दृढता ए वने आत्माने पवित्र श्रेणिए चढावे छ।
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६४ श्रीमद् राजचंद्र प्रणीत मोक्षमाला. शिक्षापाठ ३४. ब्रह्मचर्यविषे सुभाषित.
. .. ' दोहरा. ' निरखीने नवयौवना, लेश न विषयनिदान; 'गणे काष्ठनी पूतली, ते भगवानसमान.
आ संघका संसारनी, रमणी नायकरुप; ए त्यागी, त्याग्यु वधु, केवळ शोकस्वरूप. २ 'एक विषयने जीतता, जीयों सौ संसार; " नृपति जीततां जीतिये, दळ, पुर, ने अधिकार. . "विषयरूप अंकूरथी, टळे ज्ञान ने ध्यान ; लेश मदीरापानथी, छाके ज्यम अज्ञान. जे नववाट विशुद्धथी,घरे शियळ सुखदाइ। भव तेनो लव पछी रहे, तत्त्ववचन ए भाइ. ५ असुंदर शीर्यळसुंरतरूं, मन वाणी ने देह; जे नरनारी सेवशे, अनुपम फल के तेह. ६ पात्रं विना वस्तु न रहे, पात्रे आत्मिक ज्ञान "पात्र थवा सेवो सदा, ब्रह्मचर्य मतिमान!- ७
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नमस्कारमंत्र.
शिक्षापाठ ३५. नमस्कारमंत्र.
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नमो अरिहंताणं;
नमो सिद्धाणं;
नमो आयरियाणं;
नमो उवज्झायाणं; नमो लोओ सव्वसाहूणं.
आ पवित्र वाक्योंने निर्ग्रथप्रवचनमां नवकार (नमस्कार) मंत्र के पंचपरमेष्टिमंत्र कहे छे.
अर्हत भगवंतना चार गुण, सिद्ध भगवंतना आठ गुण, आचार्यना छत्रीश गुण, उपाध्यायना पंचवीश गुण, अने साधुना सत्तावीश गुण मळीने एकसो आठ गुण थया. अंगूठा विना वाकीनी चार आंगळीओनां वार टेरवां थाय छे; अने एथी ए गुणोनुं चितवन करवानी योजना होवाथी बारने नवे गुणतां १०८ थाय छे. एटले नवकार एम कहेवामां साये एवं सुचवन रधुं जणाय छे के हे भव्य ! तारां ए आंगळीनां टेरवांथी ( नवकार) मंत्र नववार गण. कार एटके करनार एम पण थाय छे. चारने नवे गुणतां जेटला थाय एटला गुणनो भरेलो मंत्र एम नवकार मंत्र तरीके एनो अर्थ यह शके छे. पंच परमेष्टि एटले आ सकळ जगमां पांच वस्तुओ परमोत्कृष्ट छे ते ते कपि कवि : - तो कहीं बतावी के अरिहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय अने साधु, एने नमस्कार करवानो जे मंत्र ते परमेष्टि मंत्र ; अने पांच
थड़
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श्रीमद राजचंद्र प्रणीत मोक्षमाळा.
परमेष्टिने साये नमस्कार होत्रायी पंचपरमेष्टि मंत्र एवो वह ययो. आ मंत्र अनादि सिद्ध मनाय ले; कारण पंचपरमेष्टि अनादि सिद्ध छे. एटले एपांचे पात्री आयरुप नयी, मत्राहयी अनादि छे, अने तेना जपनार पण अनादि सिद्ध छे. एयी ए जाप पण अनादि सिद्ध टरे छे.
प्र०-ए पंचपरमेष्टि मंत्र परिपूर्ण जाणवायी मनुष्य उत्तम गतिने पामे छे एम सत्पुरुषो कहे के ए माटे दमारुं भुं मत छी उ०-ए कहेतुं न्यायपूर्वक छे, एम हुं मानुं छडं.
प्र०–एने कयां कारणथी न्यायपूर्वक कही शकाय ?
उ०- हा॰ ए तमने हुं समजानुं : मननी निग्रहता अ एक तो सर्वोत्तम जगद्भूषणना सत्य गुणनुं ए चितवन छे. तत्त्वयी जोतां बळी अर्हतस्वरूप, सिद्धस्वरूप, आचार्यस्वरूप, उपाध्याय स्वत्प अने साधुस्वरूप एनो विवेकी विचार करवानुं पण ए सृचवन छे. कारण के तेओ पूजना योग्य शायी छे? एम विचारतां एओनां स्वरूप, गुण इत्यादि माटे विचार करवानी सत्पुरुपने तो खरी अगत्य है. हवे कहो के ए मंत्र केटलो कल्याण कारक छे ?
प्रश्नकार — सत्पुरुषो नमस्कार मंत्रने मोनुं कारण कहे छे. ए आ व्याख्यानयी हुं पण मान्य राखुं छडं.
अर्हेन भगवंत, सिद्ध भगवंत, आचार्य, उपाध्याय अने साधु एओनो अकेको प्रथम अक्षर लेतां " असिआउसा"
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अनुपूर्वी एवं महद् वाक्य नीकळे छे. जेनुं ॐ ए, योगविंदुनुं स्वरुप याय छे । माटे आपणे ए मंत्रनो अवश्य करीने विमळ भावयी जाप करवो.
शिक्षापाठ ३६. अनुपूर्वि. नर्कानुपूर्वी, तिर्यंचानुपूर्वी, मनुष्यानुपूर्वी, अनेदेवानु पूर्वी ए अनुपूर्वीओ विपेनोआ पाठ नथी, परंतु "अनुपूर्वी" ए नामना एक अवधानी लघु पुस्तकनां मंत्र स्मरण माटे छे.
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पिता-आवी जातनां कोष्टकथी भरेलं एक नावं पुस्तक छे ते तें जोयं छे ?
पुत्र-हा पिताजी.
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६८ श्रीमद् राजचंद्र प्रणीत मोक्षमाळा. - पिता-एमां आडा अबळा अंक मृक्या छे, तेनुं काइ पण कारण तारा समजवामां छे ?
पुत्र-नहीं पिताजी.-मारा समजवामां नयी माटे आप ते कारण कहो.
पिता-पुत्र! प्रत्यक्ष छे के मन ए एक बहु चंचळ चीज छे; जेने एकाग्र कर वहु बहु विकट छे; ते ज्यां मुधी एकाग्र यतुं नथीत्यां मुधी आत्ममलिनता जती नथी, पापना विचारो घटता नथी. ए एकाग्रता माटे वार प्रतिज्ञादिक अनेक महान साधनो भगवाने कयां छे. मननी एकाग्रताथी महा योगनी श्रेणिये चहवा माटे अने तेने केटलाक प्रकारची निर्मळ करवा माटे सत्पुरुषोए आ एक साधनल्प कोष्टकावली करीछे. पंच परमष्टि मंत्रना पांच अंक एमां पहेला मृक्या छ : अने पछी लोमविलोमस्वरुपमा लमबंध एना ए पांच अंक मुकीने भिन्न भिन्न प्रकारे कोष्टको की २. एम करवानुं कारण पण मननी एकाग्रता थईने निर्जरा करी गकाय, ए छे.
पुत्र-पिताजी! अनुक्रमे लेवायी एम गामाटे न यइ शके? पिता-लोमविलोम होय तो ते गोठवतां जर्बु पडे अने नाम संभारतां जर्बु पडे. पांचनो अंक मृक्या पड़ी वेनो आंकडो आवे के 'नमो लोए सवसाहुण' पछी-'नमोअरिहंताण' ए वाक्य मुकीने 'नमो सिद्धाण' ए वाक्य संभार पडे. एम पुनः पुनः लभनी हता राखतां मन एका
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सामायिकविचार भाग १. आताए पहोंचे छे. अनुक्रमबंध होय तो तेम थइ शकतुं नथी कारणके विचार करवो पडतो नथी ए सूक्ष्म वखतमां मन परमेष्टिमंत्रमांथी नीकळीने संसारतंत्रनी खटपटमां जइ पडे छ; अने वखते धर्म करतां धाड पण करी नाखे छे, जेथी सत्पुरुपोए अनुपविनी योजना करी छे, ते वह सुंदर छे अने आत्मशांतिने आपनारी छे.
शिक्षापाठ ३७सामायिकविचार भाग१.
आत्मकिनो प्रकाश करनार, सम्यग्ज्ञानदर्शननो उदय करनार, शुद्ध समाधिभावमा प्रवेश करावनार, निर्ज. रानो अमूल्य लाभ आपनार, रागद्वेपथी मध्यस्थ बुद्धि करनार एवं सामायिक नामर्नु शिक्षारत्त छे. सामायिक शद्धनी व्युत्पत्ति सम+आय+इक ए शब्दोथी थाय छे. 'सम' एटले रागद्वेपरहित मध्यस्थ परिणाम, 'आय' एटले ते समभावनाथी उत्पन्न थतो ज्ञानदर्शन चारित्ररुप मोक्ष मार्गनो लाभ, अने 'इक' कहेतां भाव एम अर्थ थाय छे. एटले जेवढे करीने मोक्षना मार्गनो लाभदायक भाव उपजे ते सामायिक. आर्त, अने रौद्र ए वे प्रकारनां ध्याननो त्याग करीने ; मन, वचन कायाना पापभावने रोकीने विवेकी मनुष्यो सामायिक करे छे.
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७० श्रीमद् राजचंद्र प्रणीत मोक्षमाला. __ मनना पुद्गळ तरंगी छे. सामायिकमां ज्यारे विशुद्ध परिणामथी रहे कां छे सारे पण ए मन आकाश पातालना घाट घड्या करेछे. तेमज भूल, विस्मृति, उन्माद इत्यादिथी वचनकायामां पण दूपण आववाथी सामायिकमां दोष लागेछ. मन, वचन अने कायाना थईने वत्रीश दोष उत्पन्न थाय छे. दश मनना, दश वचनना अने वार कायाना एम वत्रीश दोष जाणवा अवश्यना छे. जे जाणवाथी. मन सावधान रहेछ.
मनना दश दोष कहुं छउं.
१ अविवेकदोष-सामायिक स्वरुप नहीं जाणवायी मनमां एवो विचार करे के आथी शुं फळ थवानुं इतुं ? आथी ते कोण तयु हशे? एवा विकल्पनुं नाम अविवेकदोप.
२ यशोवांछादोष-पोते सामायिक करे छे एम वीजा मनुष्यो जाणे तो प्रशंसा करे एवी इच्छाए सामायिक करवू ते यशोवांछादोष.
३ धनवांछादोष-धननी इच्छाए सामायिक करवं ते धनवांछादोष.
४ गर्वदोष-मने लोको धर्मी कहे छे अने हुँ सामायिक पण तेQज करुं छउं? एवो अध्यवसाय ते गर्वदोष.
५ भयदोष-हुँ' श्रावककुलमां जन्म्यो छ; मने लोको मोटा तरीके मान देछे, अने जो सामायिक नहीं करूं तो
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सामायिक विचार भाग २ +
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कहेशे के आटली क्रिया पण नथी करतो; एम निंदाना भयधी सामायिक करे ते भयदोप.
६ निदानदोप - सामायिक करीने तेनां फळधी धन, स्त्री, पुत्रादिक मळवानुं इच्छे ते निदानदोप.
७ संशयदोप- सामायिकनुं फळ हशे के नहीं होय ? एवो विकल्प करे ते संगयदोप.
८ कपायदोप- सामायिक क्रोधादिकथी करवा वेसी जाय, किंवा पछी क्रोध, मान, माया, लोभमां वृत्ति धरे ते कपायदोप.
९ अविनयदोप - विनय वगर सामायिक करे ते अविनयदोप.
१० अवहुमानदोप - भक्तिभाव अने उमंग पूर्वक सामायिक न करे ते अवहुमानदोप.
शिक्षापाठ ३८ सामायिकविचार भाग २.
मनना दश दोष कह्या हवे वचनना दश दोष कहुं छउँ. १ कुवोलदोप- सामायिकमां कुवचन बोलकं ते कुबोलदोप.
२ सहसात्कारदोप- सामायिकमां- साहसथी अविचारपूर्वक वाक्य बोलवु ते सहसात्कारदोप.
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७२ श्रीमद् राजचंद्र प्रणीन मोनमाळा.
३ असदारोपणढोप-वीजाने खोटो बोध आपे, ते असदारोपणदोप.
४ निरपेक्षदोप-सामायिकमा गान्वनी दरकार विना वाक्य बोले ते निरपेक्षदोप.
५ संक्षेपदोप-नृत्रनापाठ इत्यादिक टुकामां बोली नाखे ; अने ययार्य भाखे नही ते संक्षेपटोप.
६ क्लेगदोष-कोइयी कंकाग करे ते क्लेशदोप.
७ विकथादोप-चार प्रकारनी विकया मांही वसे ते विकथादोप.
८ हास्यदोष-सामायिकमां कोइनी हांसी मश्करी करे ते हास्यदोष.
९ अशुद्धदोप-सामायिकमां सूत्रपाठ न्यूनाधिक अने अशुद्ध बोले ते अशुद्धदोष
-१० मुणमुणदोष-डवडगोटायी सामायिकमां मूत्रपाठ वोले जे पोते पणपूरुं मांड समजी शके ते मुणमुणदोष.
ए वचनना दश दोष कह्या; हवे कायाना वार दोप कहुं छउं.
१ अयोग्यआसनदोप-सामायिकमां पगपर पग चदावी वेसे. ते श्रीगुरु आदि प्रत्ये अविनयरुपआसन ते पहेलो अयोग्यआसनदोष.
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सामायिकविचार भाग २, ७३ २ चलासनदोष-डगडगते आसने वेसी सामायिक करे, अथवा वारंवार ज्यांथी उठवू पडे तेवे आसने वेसे ते चलासनदोप. __३ चलद्रष्टिदोप-कायोत्सर्गमां आंखो चंचळ ए चलद्रष्टिदोप.
४ सावधक्रियादोप-सामायिकमां कंइ पाप क्रिया के तेनी संज्ञा करे ते सावधक्रियादोप.
५ आलंबनदोप-भीतादिक ओठीगण दइवेसे एथी त्यां बैठेला जंतु आदिकनो नाश थाय के तेने पीडा थाय, तेमज पोताने प्रमादनी प्रवृत्ति थाय, ते आलंबनदोप.
६ आकुंचनप्रसारणदोप-हाथ पग संकोचे, लांवा करे ए आदि ते आकुंचनप्रसारणदोप.
७ आलसदोष-अंग मरडे, टचाका वगाडे ए आदि ते आलसदोप.
८ मोटनदोप-आंगळी वगेरे वांकी करे, टचाका वगाडे ते मोटनदोप.
९ मलदोप-घरडा घरड करी सामायिकमां चल करी मेल खखेरे ते मलदोप.
१० विमासणदोप-गलामा हाथ नाखी वेसे इत्यादि वे विमासणदोष.
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७४ श्रीमद् राजचंद्र प्रणीत मोक्षमाळा. ___ ११ निद्रादोप-सामायिकमां उंघ आवे ते निद्रादोप.
१२ वस्त्रसंकोचन-सामायिकमां टाढ प्रमुखनी भीतिथी वस्त्रथी शरीर संकोचे ते वस्त्रसंकोचनदोप.
ए वत्रिश दूषणरहित सामायिक करवू. पांच अतिचार टाळवा.
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शिक्षापाठ ३९.सामायिकविचार भाग३.
एकाग्रता अने सावधानी विना ए वत्रीश दोषमांना अमुक दोष पण आवी जाय छे. विज्ञानवेताओए सामायिकनु जघन्य प्रमाण वे घडीनुं वांध्युं छे. ए वृत्त सावधानी पूर्वक करवाथी परमशांति आपे छे. केटलाकनो ए वे घडीनो काळ, ज्यारे जतो नथी त्यारे तेओ वहु कंटाळे छे. सामायिकमां नवराश लइने वेसवाथी काळ जाय पण क्याथी? आधुनिक काळमां सावधानीथी सामायिक करनारा बहुज थोडा छे. प्रतिक्रमण सामायिकनी साथे करवान होय छे त्यारे तो वखत जवो सुगम पडे छे. जो के एवा पामरो प्रतिक्रमण लक्ष पूर्वक करी शकता नथी तोपण केवळ नवराश करता एमां जरुर कंडक फेर पडे छे. सामायिक पण पुरु जेओने आवडतुं नथी तेओ विचारा सामायिकमां पछी
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सामायिकविचार भाग ३: ' बहु मुशाय छे. केटलाक भारे कर्मियो ए अवसरमां व्यवहारना प्रपंचो पण घडी राखे छे. आधी सामायिक बहु दोषित थाय छे.
विधिपूर्वक सामायिक न थाय ए बहु खेदकारक अने कर्मनी वाहुल्यता छे. साठ घडीना अहोरात्र व्यर्थ चाल्या जाय छे. असंख्यात दिवसथी भरेलां अनंता कालचक्र व्यतीत करतां पण जे सार्थक न थयुं ते वे बडींना विशुद्ध सामायिकथी थाय छे. लक्षपूर्वक सामायिक थवा माटे तेमां प्रवेश कर्या पछी चार लोगस्सथी वधारे लोगस्सनो कायोत्सर्ग करी चित्तनी कंइक स्वस्थता आणवी; पछी सूत्रपाठ के उत्तम ग्रंथर्नु मनन करवं, वैराग्यना उत्तम कान्यो वोलवां, पाछळनुं अध्ययन करेलु स्मरण करी जवू, नूतन अभ्यास थाय तो करवो.कोइने शास्त्राधारथी वोध आपको, एम सामायिकी काळ व्यतीत करवो. मुनिराजनो जो समागम होय तो आगमवाणी सांभळवी अने ते मनन करवी, तेम न होय अने शास्त्र परिचय न होय तो विचक्षण अभ्यासी पासेथी वैराग्यवोधक कथन श्रवण करवू; किंवा कंइ अभ्यास करवो. ए सघळी योगवाइ न होय तो केटलोक भाग लक्षपूर्वक कायोत्सर्गमां रोकवो; अने केटलोक भाग महापुरुषोनां चरित्रकथामां उपयोगपूर्वक रोको' परंतु जेम वने तेम विवेकथी अने उत्साहथी सामायिकीकाळ व्यतीत करवो. कंइ साहित्य न होय तो पंच परमे- . हिमंत्रनो जापज उत्साहपूर्वक करवो. पण व्यर्थ काळ कादी
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७६ श्रीमद् राजचंद्र भणीत मोक्षमाळा. नाखवो नहीं. धीरजथी, शांतिथी अने यतनाथी सामायिक कर. जेम वने तेम सामायिकमां शास्त्रपरिचय वधारवो.
साठघडीना अहोरात्रिमाथी वेघडी अवश्य वचावी सामायिक तो सद्भावथी करवू.
शिक्षापाठ ४०. प्रतिक्रमणविचार.
प्रतिक्रमण एटले पार्छ फरवू-फरीथी जोई जर्बु एम एनो अर्थ थई शके छे. भावनी अपेक्षाए जे दिवसे जे वखते प्रतिक्रमण करवातुं थाय; ते वखतनी अगाउ अथवा ते दिवसे जे जे दोष थया होय ते एक पछी एक अंतरात्माथी जोई जवा अने तेनो पश्चाताप करी ते दोषथी पार्टी वळवू तेनुं नाम प्रतिक्रमण कहेवाय.
" उत्तम मुनियो अने भाविक श्रावको संध्याकाळे अने रात्रिना पाछळना भागमा दिवसे अने रात्रे एम अनुक्रमे थयेला दोषनो पश्चाताप करे छे के तेनी क्षमापना इच्छेछे एर्नु नाम अहीं आगळ प्रतिक्रमण छे ए प्रतिक्रमण आपणे पर्ण अवश्य करचुं. कारणके आ आत्मा मन, वचन अने कायाना योगयी अनेक प्रकारनां कर्म वांधे छे. प्रतिक्रमण -सूत्रमा एजें दोहन करेलुं छे; जेथी दिवस रात्रमा थयेला
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प्रतिक्रमणविचार.
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पापनो पश्चाताप ते वडे थई शके छे. शुद्धभाव वडे करी पश्चाताप करवाथी लेश पाप थतां परलोकभय अने अनुकंपा छूटेछे; आत्मा कोमळ थाय छे. त्यागवा योग्य वस्तुनो विवेक आवतो जायछे. भगवत्साक्षीए अज्ञान आदि जे जे दोप विस्मरण थया होय तेनो पश्चाताप पण थई शकेछे, आम ए निर्जरा करवानुं उत्तम साधन छे.
एतुं आवश्यक एवं पण नाम छे, आवश्यक एटले अवश्य करीने करवा योग्य; ए सत्य छे. ते वडे आत्मानी मलिनता खसे छे, माटे अवश्य करवा योग्य छे.
सायंकाळ जे प्रतिक्रमण करवामां आवे छे तेनुं नाम 'देवसीय डिक्कमण' एटले दिवस संबंधी पापनो पश्चाताप ; अने रात्रिना पाछला भागमां प्रतिक्रमण करवामां आवे छे ते 'राइयपडिकमण' कहेवाय छे. 'देवसीय ' अने 'राइय' ए प्राकृत भाषाना शद्धो छे. पखवाडीए करवानुं प्रतिक्रमण ते पाक्षिक अने संवत्सरे करवानुं ते सांवत्सरिक (छमछरी) कवा छे. सत्पुरुषो योजनाथी वांधेलो ए सुंदर नियम छे.
केटलाक सामान्य बुद्धिमानो एम कहेछे के दिवस अने रात्रीनुं सवारे प्रायश्चितरुप प्रतिक्रमण कर्यु होय तो कंइ खोडं नथी, परंतु ए कहेतुं प्रमाणिक नथी. रात्रिये अकस्मात् अमुक कारण आवी पडे के काळधर्म प्राप्त थाय तो दिवस संबंधी पण रही जाय.
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७८ श्रीमद् राजचंद्र प्रणीत मोसमाला.
प्रतिक्रमण मूत्रनी योजना बहु सुंदर छे. एनां मूळतत वह उत्तम छे. जेम वने तेम प्रतिक्रमण धीरजयी, समजाय एवी भापायी, गांतिथी, मननी एकाग्रताची अन यवनापूर्वक कर.
शिक्षापाठ ४१. भीखारीनों खेद भाग १.
एक पामर भीखारी जंगलमां भटकतो हतो. त्यां वेने भूख लागी. एटले ते विचारो लड़यडी खातो खावो एक नगरमा एक सामान्य मनुप्यने घेर पहाच्यो. लांजइने तेणे अनेक प्रकारनी आजीनी करीः तेना कालावालाची करुणा पामीने ते गृहस्थनी बीए तेने घरमांची नमतां वघेलं मिष्ठान्न आणी आयु. भोजन मळवाथी भीखारी बहु आनंद पामतो पामता नगरनी बहार आव्यो, आवीने एक झाड तळे वेटो; त्यां जरा स्वच्छ करीने एक वाजुए अति जुनो थयेलो पोतानो जळनो बडो मुक्यो. एक वाजुए पोतानी फाटीतुटी मलिन गोदडी मृकी अने एक वाजुए पोते ते भोजन लइने वेठो. रानी राजीथनां एणे ते भोजन खाइने पुरुं कयु. पछी ओगिके एक पथ्यर मूकीने ते मुवो. भोजनना मदयी जरावारमां तेनी आंखो मिचाइ गइ. निद्राका थयो एटले तेने एक स्वप्नु आव्यु. पोते जाणे
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भीखारीनो खेद भाग २.
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महा राजरीद्धिने पाम्पो छे; सुंदर वस्त्राभूषण धारण कर्या छे; देश आखामां पोताना विजयनो डंको बागी गयो छे समीपमां तेनी आना अवलंबन करवा अनुचरो उभा थइ रह्या छे ; आजुबाजु छडीदारो खमा खमा पोकारे छे; एक रमणीय महलमां सुंदर पलंगपर तेणे शयन कर्यु छे ; देवांगना जेवी स्त्रीओ तेना पग चांपे छे; पंखाची एक बाजुयी पंखानो मंद मंद पवन ढोळाय छे; एवा स्वनामां तेनो आत्मा चढी गयो. ते स्वप्मना भोग लेतां तेनां रोम उसी गयां. एवामां मेव महाराजा चढी आव्यो ; वीजfter यत्रकारा थवा लाग्या. सूर्य वादळांथी ढंकाइ गयो ; सर्वत्र अंधकार पथराड़ गयो; मुगलधार वर्षाट थो एवं जणायुं अने एटलामां गाजवीजधी एक मवळ कडाको थयो. कडाकाना अवाजथी भय पामीने ते पामर भीखारी जागी गयो.
शिक्षापाठ ४२. भीखारीनो खेद भाग २.
जुए छे तो जे स्थळे पाणीनो खोखरो घडो पड्यो हतो ते स्थळे ते घडो पच्यो छे ज्यां फाटी टुटी गोदडी पढी हती; त्यांन ते पढी छे. पोते जेवां मलिन अने फाटेलां कपडां धारण कर्या हतां तेवां ने तेवां ते वस्त्रो शरीर उपर छे. नथी तळभार वच्युं के नथी जवभार घटयुं.
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८० श्रीमद् राजचंद्र प्रणीत मोक्षमाळा. नथी ते देश के नथी ते नगरी, नथी ते महेल के नथी ते पलंग; नथी ते चामरछत्र धरनारा के नथी ते छडीदारो, नथी ते स्त्रियो के नथी ते वस्त्रालंकारो; नथी ते पंखा के नथी ते पवन नथी ते अनुचरो के नथी ते आज्ञा; नथी ते सुख विलास के नथी ते मदोन्मत्तता; भाइ तो पोते जेवा हता तेवाने तेवा देखाया. एथी ते देखाव जोइने ते खेद पाम्यो. स्वमामां में मिथ्या आडवर दीठो तेथी आनंद मान्यो एमांनुं तो अहीं कथुए नथी; स्वप्माना भोग भोगव्या नहीं अने तेनुं परिणाम जे खेद ते हुँ भोगवू छउं. एम ए पामर जीव पश्चातापमां पड़ी गयो.
अहो भन्यो ! भीखारीनां स्वमां जेवां संसारनां सुख अनित्य छे, स्वप्नामां जेम ते भीखारीए सुख समुदाय दीगे अने आनंद मान्यो तेम पामर प्राणीओ संसार स्वमना सुख समुदायमा आनंद माने छे. जेम ते सुख समुदाय जागृतिमां मिथ्या जणाया तेम ज्ञान प्राप्त यतां संसारनां मुख तेषां जणाय छे. स्वभाना भोग न भोगव्या छतां जेम भीखारीने खेदनी प्राप्ति थइ, तेम मोहांध पाणीओ संसारनां मुख मानी वेसे छे । अने भोगव्या सम गणे छे. परंतु परिणामे खेद, दुर्गति अने पश्चाताप ले छे; ते चपळ अने विनाशी छतां स्वमानां खेद जेवू तेनुं परिणाम रघु छे..ए उपरथी बुद्धिमान पुरुषो आत्महितने शोध छे. संसारनी अनित्यतापर एक काव्य छे के--
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भीखारीनोखेदभाग २.
उपजाति,
विद्युत् लक्ष्मी प्रभुता पतंग ; आयुष्य ते तो जळना तरंग;
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पुरंदरी चाप अनंगरंग ; शुं राचिये त्यां क्षणनो प्रसंग ?
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विशेषार्थ :- लक्ष्मी वीजळी जेवी छे, वीजळीनो झव - कार जेम थइने ओलवाइ जाय छे, तेम लक्ष्मी आवीने चाली जाय छे. अधिकार पतंगना रंग जेवो छे, पतंगनो रंग जेम चार दिवसनी चटकी छे ; तेम अधिकार मात्र थोडो काळ रही हाथमांथी जतो रहे छे. आयुष्य पाणीना मोजां जेतुं छे. पाणीनो हिलोको आव्यो के गयो तेम जन्म पाम्या, अने एक देहमां रह्या के न रह्या त्यां वीजा देहमां पड पडे छे. कामभोग आकाशमां उत्पन्न थता इंद्रना धनुष्य जेवा छे. इंद्रधनुष्य वर्षाकाळमां थइने क्षणवारमा लय थई जाय छे; तेम यौवनमां कामना विकार फळीभूत थई जरा वयमां जता रहे छे; हुंकामां हे जीव ! ए सघळी वस्तुओनो संबंध क्षणभर छे. एमां प्रेमबंधननी सांकळे वंधाइने शुं रावं ? तात्पर्य एसघळां चपळ अने विनाशी छे, तुं अखंड अने अविनाशी छे ; माटे तारा जेवी नित्य वस्तुने प्राप्त कर ! ए बोध यथार्थ छे.
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८२ श्रीमद् राजचंद्र प्रणीत मोक्षमाला.
शिक्षापाठ ४३. अनुपम क्षमा.
क्षमा ए अंतर्शत्रु जीतवामां खड्ग छे. पवित्र आचारनी रक्षा करवामां वख्तर छे. शुद्धभावे असह्य दुःखमां, समपरिणामथी क्षमा राखनार मनुष्य भवसागर तरी जाय छे.
कृष्ण वासुदेवना गजमुकुमार नामना नाना भाइ महासुरूपवान, सुकुमार मात्र वार वपनी वये भगवान् नेमिनाथनी पासेथी संसारत्यागी थइ स्मशानमां उग्र ध्यानमा रह्या हता; त्यारे तेओ एक अद्भुत क्षमामय चरित्रथी महासिद्धिने पामी गया, ते अहीं कहुं छई.
सोमल नामना ब्राह्मणनी मुरूपवर्णसंपन्न पुत्री जोडे गजमुकुमारनुं सगपण कर्यु हतुं. परंतु लग्न थयां पहेलां गजसुकुमार तो संसार त्यागी गया. आधी पोतानी पुत्रीन दुख जवाना द्वेपथी ते सोमल ब्राह्मणने भयंकर क्रोध व्याप्यो. गजसुकुमारनो शोध करतो करतो ए स्मशानमां ज्यां महामुनि गजमुकुमार एकाग्र विशुद्ध भावथी कायोत्सर्गमां छे, त्यां आवी पहोंच्यो. कोमळ गजसुकुमारना माथापर चीकणी माटीनी वाड करी; अने अंदर धखधखता अंगारा भयो, इंधन पूर्व एटले महा ताप थयो. एथी गजमुकुमारनो कोमळदेह वळवा मंड्यो एटले ते सोमल जतो रह्यो. ते वखतना गजसुकुमारना असह्य दुःख वर्णन केम थई शके १ त्यारे पण तेओ समभाव परिणाममा रह्या. किंचित क्रोध के द्वेष एना हृदयमां जन्म पान्यो नहीं.
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राग.
पोताना आत्माने स्थितिस्थापक करीने वोध दीधो के जो! तुं एनी पुत्रीने परण्यो होत तो ए कन्यादानमां तने पाघडी आपत. ए पाघडी थोडा वखतमां फाटी जाय तेवी अने परिणामे दुःखदायक थात. आ एनो बहु उपकार थयो के ए पाघडी वदल एणे मोक्षनी पाघडी बंधावी. एवा विशुद्ध परिणामथी अडग्ग रही समभावी असह्य वेदना सहीने तेओ सर्वज्ञ सर्वदर्शी थई अनंत जीवन सुखने पाम्या. केवी अनुपम क्षमा अने के तेनुं मुंदर परिणाम! तत्त्वज्ञानीओनां वचन छे के, आत्मा मात्र स्वसद्भावमां आववो जोइए। अने ते आन्यो तो मोक्ष हथेलीमांज छे, गजसुकुमारनी नामांकित क्षमा केवो शुद्ध बोध करे छ !
शिक्षापाठ ४४. राग. श्रमण भगवान् महावीरना अग्रेसर गणधर गौतमनुं नाम तमेवहुवार जाण्यं छे. गौतमस्वामीना वोधेला केटलाक शिप्यो, केवळज्ञान पाम्या छतां गौतम पोते केवळज्ञान पाम्या नहोता, कारण के भगवान महावीरनां अंगोपांग, वर्ण, वाणी, रूप इत्यादिपर हजु गौतमने मोह हतो. निर्गथ प्रवचननो निष्पक्षपाती न्याय एवो छे के, गमे ते वस्तुपरनो राग दुःखदायक छ. राग ए मोह अने मोह ए संसारज छ. गौतमना हृदयथी ए राग ज्यां सुधी खस्यो नहीं यां
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४४ श्रीमद् राजचंद्र प्रणीत मोक्षमाला. सुधी तेओ केवळज्ञान पाम्या नहीं. श्रमण भगवान ज्ञातपुत्र ज्यारे अनुपमेय सिद्धिने पाम्या, त्यारे गौतम नगरमांयी आवता हता. भगवानना निर्वाणसमाचार सांभळी देओ खेद पाम्या. विरहथी तेओ अनुराग वचनथी वोल्याः "हे महावीर! तमे मने साथे तो न राख्यो परंतु संभार्योए नहीं मारी प्रीति सामी तमे द्रष्टि पण करी नहीं ! आम तमने छाजतुं नहोतुं. एवा विकल्पो थनां थतां तेनुं लक्ष फयु, ने ते निरागश्रेणिए चढ्या हुं वहु मूर्खता करुं छउं. ए वीतराग, निर्विकारी अने निरागी ते मारामां केम मोह राखे ? एनी शत्रु अने मित्रपर केवळ समान द्रष्टि हती ! हुँ ए निरागीनो मिथ्या मोह राखु छ! मोह संसारनुं प्रवळ कारण छे" एम विचारतां विचारतां तेओ शोक तजीने निरागी थया. एटले अनंतज्ञान प्रकाशित थयु ; अने माते निर्वाण पधाया
गौतममुनिनो राग आपणने बहु सूक्ष्म वोध आपे छे. भगवानपरनो मोह गौतम जेवा गणधरने दुःखदायक थयो, तो पछी संसारनो, ते वळी पामर आत्माओनो मोह के अनंत दुःख आपतो हशे! संसाररूपी गाडीने राग अने देष ए वे रूपी वळद छे. ए न होय तो संसारनुं अटकन छे. ज्यां राग नथी त्यां द्वेष नथी ; आ मान्य सिद्धांत छे. राग तीव्र कर्मवंधननुंकारण छे एना क्षयथी आत्मसिद्धिछे.
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सामान्य मनोर्य. शिक्षापाठ ४५. सामान्य मनोर्थ.
सवैया. मोहिनिभाव विचार आधीन यइ, ना निर नयने परनारी; पत्थरतुल्य गणुं परवैभव, निर्मळ तात्त्विक लोभ समारी! द्वादश वृत्त अने दीनता धरि, सात्विक थाउं स्वरूप विचारी, ए मुज नेम सदा शुभ क्षेमक, नित्य अखंड रहो भवहारी. ते त्रिशलातनये मन चिंतवि, शान, विवेक, विचार वधारूं; नित्य विशोष करी नव तत्वनो, उत्तम वोध अनेक उच्चारूं. संशयवीज उगे नहिं अंदर, जे जिननां कयनो भवधारूं. राज्य, सदा मुज एज मनोरथ, धार, थशे अपवर्ग, उतारूं.
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८६ श्रीमद् राजचंद्र प्रणीत मोक्षमाळा. शिक्षापाठ ४६. कपिलमुनि भाग १.
कौसांबी नामनी एक नगरी हती. त्यांना राजदरबारमां राज्यनां आभूषणरूप काश्यप नामनो एक शास्त्री रहेतो हतो. एनी स्त्रीतुं नाम श्रीदेवी हतुं तेना उदरथी कपिल नामनो एक पुत्र जन्म्यो हतो. ते पंदर वर्षनो थयो त्यारे तेना पिता परधाम गया. कपिल लाडपाडमां उछरेलो होवाथी कंइ विशेष विद्वता पाम्यो नहतो, तेथी एना पितानी जगो कोइ वीजा विद्वानने मळी. काश्यपशास्त्री जे पुंजी कमाइ गया हता ते कमावामां अशक्त एवा कपिले खाइने पूरी करी. श्रीदेवी एक दिवस घरना वारणामां उभी हती त्यां वे चार नोकरो सहित पोताना पतिनी शास्त्रीयपदवी पामेलो विद्वान जतो तेना जोवामां आव्यो. घणां मानी जता आ शास्त्रीने जोइने श्रीदेवीने पोतानी
स्थितिनुं स्मरण थइ आयुं. ज्यारे मारा पति आ पदवीपर हता त्यारे हुं केतुं सुख भोगवती हती ! ए मारूं सुख तो गयुं परंतु मारो पुत्र पण पुरुं भण्यो नहीं. एम विचारमां डोलतां डोलतां तेनी आंखमांथी दड दड आंसु खरवा मंड्यां. एवामां फरतो फरतो कपिल त्यां आवी पहोंच्यो ; श्रीदेवीने रडती जोइ तेनुं कारण पूछयुं. कपिलना बहु आग्रहथी श्रीदेवीए जे हतुं ते कही बतान्युं पछी कपिल बोल्यो “जो मा ! हुं बुद्धिशाळी छडं, परंतु मारी बुद्धिनो उपयोग जेवो जोइए तेवो थइ शक्यो नथी. एटले विद्या
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कपिलमुनि भाग १.
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नगर हुँ ए पदवी पाम्यो नहीं. तुं कहे त्यां जइने हवे हुं माराथी वनती विद्या साध्य करूं ; श्रीदेवीए खेद साथै h: "ए ताराथी वनी शके नहीं, नहीं तो आर्यावर्त्तनी मर्यादापर आवेली श्रावस्ति नगरीमां इंद्रदत्त नामनो तारा पितानो मित्र रहे छे, ते अनेक विद्यार्थियोने विद्यादान दे छे; जो ताराथी त्यां जवाय तो धारेली सिद्धिथाय खरी.' एक वे दिवस रोकाइ सज्ज थइ अस्तु कही कपिलजी पंथे पड्या.
अवध वीaai कपिल श्रावस्तिए शास्त्रीजीने घेर आवी पहोंच्या. प्रणाम करीने पोतानो इतिहास कही वतान्यो. शास्त्रीजीए मित्रपुत्रने विद्यादान देवाने माटे वहु आनंद देखाड्यो ; पण कपिल आगळ कंइ पुंजी नहोती के ते तेमांथी खाय, अने अभ्यास करी शके एथी करीने तेने नगरमां याचवा जवुं पडतुं हतुं याचतां याचतां वपोर थइ जता हता, पछी रसोई करे, अने जमे त्यां सांजनो. थोडा भाग रहेतो हतो; एटले कंइ अभ्यास करी शकतो. नहोतो. पंडिते तेनुं कारण पूछयुं त्यारे कपिले ते कही 'वतान्युं पंडित देने एक गृहस्थ पासे तेडी गया. ते गृहस्ये कपिलनी अनुकंपा खातर एने हमेशां भोजन मळे एवी गोठवण - एक विधवा ब्राह्मणीने त्यां करी दीधी. जेथी कपिलने ए एक चिंता ओछी थइ.
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श्रीमद् राजचंद्र प्रणीत मोक्षमाळा.
शिक्षापाठ ४७. कंपिलमुनिभाग २.
ए नानी चिंता ओछी थइ त्यां वीजी मोटी जंजाळ उभी थइ. भद्रिक कपिल हवे युवान् थयो हतो; अने जेने त्यां ते जमवा जतो ते विधवा वाइ पण युवान् हती. तेनी साये तेना घरमां वीजुं कोइ माणस नहोतुं. हमेशनो पर - स्परनो वातचितनो संबंध वध्यो. वधीने हास्यविनोदरूपे थयो; एम करता करतां वन्नेने मीति वंधाइ, कपिल तेनाथी कुब्धायो ! एकांत बहु अनिष्ट चीज छे ! !
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विद्या प्राप्त करवानुं ते भूळी गयो. गृहस्थ तरफयी मळतां सीधांधी वन्नेनुं मांड पुरुं यतुं हतुं; पण लूगडांलतांना वांधा भया. कपिले गृहस्थाश्रम मांडी वेठां जेतुं करी मृयुं. गमे तेवो छतां हळुकर्मी जीव होवाथी संसारनी विशेष कोताळनी तेने माहिती पण नहोती. एथी पैसा केम पेदा करवा ते विचारो ते जाणतो पण नहोतो. चंचळ स्त्रीए तेने रस्तो बताव्यो के, मुंझावामां कंइ वळवानुं नथी; परंतु उपाययी सिद्धि छे. आ गामना राजानो एवो नियम छे के, सवारमा पहेलो जइ जे ब्राह्मण आशिर्वाद आपे तेने वे मासा सोनुं आप, त्यां जो जइ शको अने प्रथम आशिर्वाद आपी शको, तो ते वे मासा सोनुं मळे. कपिले ए वातनी हा कही. आठ दिवस सुधी आंटा खाधा पण वखत बीत्या पछी जाय एटले कंडु वळे नहीं. एथी तेणे एक दिवस एवो निश्वय कर्यो के, जो हुं चोकमां सुडं तो चीवट राखीने
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कपिलमुनि भाग ३. उठाशे. पछी ते चोकमां मुतो, अधरात भागतां चंद्रनो उदय थयो. कपिले प्रभात समीप जाणीने मुठीओ वाळीने आशिर्वाद देवा माटे दोडनां जवा मांडयु. रक्षपाळे चोर नाणीने तेने पकडी राख्यो. एक करतां वीजु थइ पडयु. प्रभात श्यो एटले रक्षपाळे तेने लइ जइने राजानी समक्ष उभो राख्यो. कपिल वेभान जेवो उभो रह्यो । राजाने तेनां चोरना लक्षण भाश्यां नहीं. एथी तेने सधळु हनांत पूछयु. चंद्रना प्रकाशने सूर्य समान गणनारनी भद्रिकतापर राजाने दया आवी. तेनी दरिद्रता टाळवा राजानी इच्छा थइ एथी कपिलने कयुं, आशिर्वादने माटे थइ तारे जो एटली वधी तरखड थइ पठीछे तो हवे तारी इच्छा पूरतुं तुं मागी ले. हुं तने आपीश. कपिल थोडीवार मूढ जेवो रह्यो. एथी राजाए कह्यु, केम विम, कइ मागता नथी? कपिले उत्तर आप्यो मारं मन इजु स्थिर थयुं नथी; एटले शुं माग, ते सूझतुं नयी. राजाए सामेना वागमा जइ त्यां वेसीने स्वस्थता पूर्वक विचार करी कपिलने मागवानुं कां. एटले कपिल ते बागमां जइने विचार करवा वेठो.
शिक्षापाठ १८ कपिलमुनि भाग ३. , वे मासा सोनुं लेवानी जेनी इच्छा हती ने कपिल हवे तृष्णातरंगमा घसडायो. पांच महोर मागवानी इच्छा करी तो त्या विचार आग्यो के पांचथी कंइ पुरु थनार
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९० श्रीमद् राजचंद्र प्रणीत मोक्षमाला. नथी. माटे पंचवीश महोर मागवी. ए विचार पण फर्यो. पंचवीश महोरथी कंइ आखू वर्प उतराय नहीं माटे सो महोर मागवी ; त्यां वळी विचार फो. सो महोरे वे वर्ष उतरी, वैभव भोगवीए; पाछां दुःखनां दुःख. माटे एक हजार महोरनी याचना करवी ठीक छे; पण एक हजार महोर छोकरांछैयांनां वेचार खर्च आवे के ए, थाय तो पुरुं पण शुं थाय? माटे दश हजार महोर मागवी के जेयी जींदगी पर्यंत पण चिंता नहीं. त्यां वळी इच्छा फरी. दश हजार महोर खवाई जाय एटले पछी मुडी वगरनाथई रहे पडे. माटे एक लाख महोरनी मागणी करुं के जेनाव्याजमा वधा वैभव भोगवं; पण जीव ! लक्षाधिपति तो घणाय छे. एमां आपणे नामांकित क्याथी थवाना? माटे करोड महोर मागवी के जेथी महान् श्रीमंतता कहेवाय. वळी पाछो रंग फर्यो. महान् श्रीमंतताथी पण घेर अमल कहेवाय नहीं माटे राजानु अर्धं राज्य मागवू; पण जो अर्धं राज्य मागीश तोय राजा मारा तुल्य गणाशे. अने वळी हुँ एनो याचक पण गणाइश. माटे मागवू तो आवें राज्य मागवं. एम ए तृष्णामां डुब्यो; परंतु तुच्छ संसारी एटले पाछो वळ्यो भला जीव! आपणे एवी कृतघ्नता शामाटे करवी पडे के जे आपणने इच्छा प्रमाणे आपवा तत्पर थयो तेज राज्य लई लेवू; अने तेनेन भ्रष्ट करवो? खरु जोतां तो एमां आपणीज भ्रष्टता छे. माटे अर्धं राज्य मागवू; परंतु ए उपाधिए मारे नथी जोइती. त्यारे नाणांनी उपाधि पण
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कपिलमुनि भाग २०
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क्यां ओछीछे ? माटे करोड लाख मूकीने सो वसें महीरज मागी लेवी. जीव, सो वर्से महोर हमणां आवशे तो पछी विषयवैभवमांज वखत चाल्यो जशे ; अने विद्याभ्यास पण धर्यो रहेशे ; माटे पांच महोर हमणां तो लई जवी पछीनी बात पछी. अरे ! पांच महोरनीए हमणां कंड जरुर नथी; मात्र वे मासा सोनुं लेवा आव्यो हतो तेज मागी लेवु. आ तो जीव बहु थई, तृष्णासमुद्रमां तें बहु गळकां खाधां. आखुं राज्य मागतां पण तृष्णा छीपती नहोती, मात्र संतोष अने विवेकथी ते घटाडी तो घटी. ए राजा जो चक्रवत्ती होत तो पछी हुं एथी विशेष शुं मागी शकत ? अने विशेष ज्यां सुधी, न मळत त्यांसुधी मारी तृष्णा शमात पण नहीं; ज्यां सुधी तृष्णा शमात नहीं त्यांसुधी हुं सुखी पण नहोत. एटलेथी ए मारी तृष्णा टळे नहीं तो पछी वे मासाथी करीने क्यांथी ढळे १ एनो आत्मा सवळीए आव्यो अने ते बोल्यो, हवे मारे ए वे मासा सोनानुं पण कंइ काम नथी. वे मासायी वधीने हुं केटले सुधी पहोंच्यो ! सुख तो संतोषमांज छे. तृष्णा ए संसार वृक्षनुं वीज छे. एनो हे ! जीव, तारे शुं खप छे ? विद्या
तां तुं विषयमां पडी गयो ; विषयमां पडवायी आ उपाविमां पड्यो; उपाधि वडे करिने अनंत तृष्णा समुद्रना तरंगमां तुं पड्यो. एक उपाधिमांथी आ संसारमा एम अनंत उपाधि वेटवी पडे छे. एथी एनो त्याग करवो उचित छे, सत्य संतोष जेतुं निरुपाधि सुख एक्के नथी. एम विचा
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९२ श्रीमद् राजचंद्र प्रणीत मोक्षमाळा. रतां विचारता, तृष्णा शमाववाथी ते कपिलना अनेक आवरण क्षय थयां तेनुं अंतःकरण प्रफुल्लित अने बहु विवेकशील थयुं. विवेकमां ने विवेकमा उत्तम ज्ञानवडे ते स्वात्मनो विचार करी शक्यो. अपूर्वश्रेणिए चढी ते कैवल्यज्ञानने पाम्यो.
वृष्णा केवी कनिष्ट वस्तु छे ! ज्ञानीओ एम कहेछे के तृष्णा आकाशना जेवी अनंत छे; निरंतर ते नवयौवन रहेछे. कंइक चाहना जेटलुं मन्यु एटले चाहना वधारीदे छे. संतोष एज कल्पवृक्ष छे , अने एज मात्र मनोवांछितता पूर्ण करे छे.
शिक्षापाठ ४९. तृष्णानी विचित्रता.
मनहर छंद (एक गरीवनी वधती गयेली तृष्णा.) हती दीनताइ त्यारे ताकी पटेलाइ अने, मळी पटेलाइ त्यारे ताकी छे शेठाइने; सांपडी शेठाइ त्यारे ताकी मंत्रिताइ अने, आवी मंत्रिताइ त्यारे ताकी नृपताइने. मळी नृपताइ त्यारे ताकी देवताइ अने,
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तृष्णानी विचित्रता.
दीठी देवताइ त्यारे ताकी शंकराइने ; अहो ! राज्यचंद्र मानो मानो शंकराइ मळी; वधे कृष्णाड़ तोय जाय न मराइने.
(२)
करोचली पडी डाढी डाचांतणो दाट वळ्यो, काळी केशपी विपे, श्वेतता छवाइ गइ ; संघ, सांभळवुं ने, देख ते मांडी वळ्युं, तेम दांत आवली ते, खरी, के खवाइ गइ. वळी केड वांकी, हाड गयां, अंगरंग गयो, eठवानी आय जतां लाकडी लेवाइ गइ ; अरे ! राज्यचंद्र एम, युवानी हराइ पण, मनयी न तोय रांड, ममता मराइ गइ.
( ३ )
करोडोना करजना, शीरपर डंका वागे, रोगयी रुंघाड़ गयुं, शरीर सुकाइने ; पुरपति पण माये, पीडवाने ताकी रह्यो, पेट तणी चेट पण, शके न पुराइने. पितृ अने परणी ते, मचावे अनेक धंध, पुत्र, पुत्री भाखे खाउं खाउं दुःखदाइने, अरे ! राज्यचंद्र तोय जीव झावा दावा करे, जंजाळ उडाय नहीं राजी तृपनाइने,
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९४ श्रीमद् राजचंद्र प्रणीत मोक्षमाळा.
(४) थइ क्षीण नाडी अवाचक जेवो रह्यो पडी, जीवन दीपक पाम्यो केवळ झंखाइने, - छेल्ली इसे पड्यो भाळी भाइए त्यां एम भाख्यु, हवे टाढी माटी थाय तो तो ठीक भाइने. हाथने हलावी त्यां तो खीजी बुढे सूचव्यु ए, वोल्या विना वेश वाळ तारी चतुराइने! . अरे राज्यचंद्र देखो देखो आशापाश केवो ? जतां गइ नहीं होशे ममता मराइने!
शिक्षापाठ ५०. प्रमाद. धर्मनी अनादरता, उन्माद, आळस, कपाय ए सघळां प्रमादनां लक्षण छे.
भगवाने उत्तराध्ययन सूत्रमा गौतमने का के, हे! गौतम, मनुष्यतुं आयुष्य डाभनी अणीपर पडेला जळना बिंदु जेवू छे. जेम ते विंदुने पडतां वार लागती नथी तेम आ मनुष्यायु जतां वार लागती नथी. ए वोधना काव्यमां चोथी कडीस्मरणमांअवश्य राखवा जेवी छ 'समयं गोयम मापमाए'-ए पवित्र वाक्यना वे अर्थ थायछे. एक तो हे
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भमाद.
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गौतम ! समय एटले अवसर पामीने प्रमाद न करवो अने, वीजो एके मेपानुमेपमा चाल्या जता असंख्यातमा भागना जे समय कहेवाय छे तेटलो वखत पण प्रमाद न करवो. कारण देह क्षणभंगुर छे; काळशीकारी माथे धनुष्यवाण चढाषीने उभो छे. लीधो के लेशे एम जंजाळ थइ रही छे त्यां प्रमादयी धर्म कर्त्तव्य रही जशे. ___ अति विचक्षण पुरुषो संसारनी सर्वोपाधि लागीने अहो रात्र धर्ममां सावधान थायछे; पळनो पण प्रमाद करता नयी. विचक्षण पुरुषो अहो रात्रना थोडा भागने पण निरंतर धर्मकर्त्तव्यमां गाळे छ; अने अवसरे अवसरे धर्मकर्तव्य करता रहे छे. पण मूढ पुरुषो निद्रा, आहार, मोजशोख अने विकथा तेमज रंगरागमां आयु व्यतीव करी नाखे छे. एनुं परिणाम तेओ अधोगति रुप पामे छे.
जेम बने तेम यतना अने उपयोगधी धर्मने साध्य करवो योग्य छे. साठघडीना अहो रात्रमा विशघडी तो निद्रामा गालीए छीए. वाकीनी चाळीश घडी उपाधि, टेलटप्पा अने रझळवामां गाळीए छीए. ए करता ए साठघडीना वखतमांथी वे चारघडी विशुद्ध धर्मकर्चव्यने माटे उपयोगमा लइए तो वनी शके एबुं छे. एजें परिणाम पण के सुंदर याय!
पछी ए अमूल्य चीज छे.' चक्रवर्ती पण एक पळ पामवा आखी रिदि आपे तो पण ते पामनार नयी एक
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९६ श्रीमद् रामचंद्र प्रणीत मोक्षमाळा. पळ व्यर्थ खोवाथी एक भव हारीजवा मे, छ. एम तत्त्वनी द्रष्टिर सिद्ध छे!
शिक्षापाठ ५१. विवेक एटले शुं! - लघु शिष्यो:-भगवन् ! आप अमने स्थळे स्थळे कहेता आवो छो के विवेक एमहान् श्रेयस्कर छे. विवेक ए अंधारामा पडेला आत्माने ओळखवानो दीवो छे. विवेक बडे परीने धर्म टकेछे. विवेक नथी त्यां धर्म नयी तो विवेक एटले शुं १ ते अमने कहो. ' गुरु-आयुष्यमनो! सत्यासत्यने तेने स्वरुपे करीने समजवा तेनुं नाम विवेक
लघु शिष्योः सत्यने सत्य अने असत्यने असत्य कहेवा तो वधाय समजे,छे. त्यारे,महाराज! एओ धर्मर्नु मूळ पाया कहेवाय ?
- गुरुतमे जे घात कहोछो तेनुं एक दृष्टांत आपो जोहए., .,
लघु शिष्यो:-अमे पोते कडवाने कडवुज कहीएं छीए, मधुरांने मधुरं कहीएं छीएं. मेरने मेर ने अमृतने अमृत
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विवेक एंटले शुं? ९७ गुरु:-आयुष्यमानो! ए वां द्रव्य पदार्थ छे; परंतु आत्माने कइ कडवाश, कइ मधुराश, कयुं झेर अने कयु अमृत छे? ए भावपदार्थोनी एथी कंइ परीक्षा थइ शके ? __ लघु शिष्यः-भगवन् ! ए संबंधी तो अमारं लक्ष पण नथी. ___ गुरु:-त्यारे एज समजवानुं छे के ज्ञान-दर्शनरुप आत्माना सत्य भाव पदार्थने अज्ञान अने अदर्शन रुप असत् वस्तुए घेरी लीधा छे, एमां एटली वधी मिश्रताथइ गइ छे के परीक्षा करवी अति अति दुर्लभ छे संसारनां मुखो अनंतिवार आत्माए भोगव्यां छतां, तेमांथी हजु पण मोह टळयो नहीं, अने तेने अमृत जेवो गण्यो ए अविवेक छे; कारण संसार कडवो छे. कडवा विपाकने आपे छे. तेमज वैराग्य जे ए कडवा विपाक औपध छे, तेने कडवो गण्यो ; आ पण अविवेक छे. ज्ञान दर्शनादिगुणो अज्ञान दर्शने घेरी लइ जे मिश्रता करी नांखी छे ते ओळखी भाव अमृतमा आव एनुं नाम विवेक छे. कहो त्यारे हवे निवेक ए केवी वस्तु ठरी?
लघु शिष्यः-अहो ! विवेक एज धर्मर्नु मूळ अने धर्म रक्षक कडेवाय छे ते सत्य छे. आत्म स्वरुपने विवेक विना
ओळली शकाय नहीं ए पण सत्य छे. ज्ञान, शील, धर्म, तत्व अने तप ए सघळां विवेक विना उदय पामे नहीं ए आपतृ कहेवं यथार्थ छे. जे विवेकी नथी ते अज्ञानी अने
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९८ श्रीमद् राजचंद्र प्रणीत मोक्षमाळा. मंद छे. तेज पुरुष मत भेद अने मिथ्या दर्शनमां लपटाइ रहे छे. आपनी विवेक संबंधीनी शिक्षा अमे निरंतर मनन करीशुं.
शिक्षापाठ ५२. ज्ञानीओए वैराग्य
शा माटे बोध्यो ? संसारनां स्वरुप संबंधी आगळ केटलुक कहेवामां आव्युं छे. ते तमने लक्षमा हशे.
ज्ञानीओए एने अनंत खेदमय, अनंत दुःखमय, अन्यवस्थित, चळविचळ, अने अनित्य कह्योछे. आ विशेषणो लगाडवा पहेला एमणे संसार संबंधी संपूर्ण विचार करेलो जणाय छे. अनंत भवनुं पर्यटन, अनंतकाळनुं अज्ञान, अनंत जीवननो व्याघात, अनंत मरण, अनंत शोक ए वडे करीने संसारचक्रमां आत्मा भम्या करेछ. संसारनी देखाती इंद्रवारणा जेवी सुंदर मोहिनीए आत्माने तटस्थ लीन करी नांख्यो छे. ए जे, सुख आत्माने क्याय भासतुं नथी. मोहिनीथी सत्यसुख अने एनुं स्वरुप जोवाथी एणे आकांक्षा पण करी नथी. पतंगनी जेम दीपक प्रत्ये मोहिनी छे तेम आत्मानी संसार संबंधे मोहिनी छे. ज्ञानीओ ए संसारने क्षणभर पण मुखरुप कहेता नथी. ए संसारनी तळ जेटली
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ज्ञानीओए वैराग्य शा माटे वोध्यो ? ९९
जग्या पण झेर विना रही नथी. एक भुंडयी करीने एक चक्रवर्त्ती सुध भावे करीने सरखापणुं रहुं छे एटले चक्रवत्तींनी संसार संबंधमां जेटली मोहिनी छे, तेटलीज वलके तेथी विशेष भुंडने छे, चक्रवत्ती जेम समग्र प्रजापर अधिकार भोगवे छे, तेम तेनी उपाधि पण भोगवे छे. भुंडने एमांनुं कशुंए भोगव पडतुं नथी. अधिकार करतां उलटी उपाधि विशेष छे. चक्रवत्तनो पोतानी पत्नी प्रत्येनो जेटलो प्रेम छे, तेटलो ज अथवा तेथी विशेष भुंडनो पोतानी भुंडणी प्रत्ये प्रेम रह्यो छे. चकवत्ती भोगथी जेटलो रस लेछे, तेटलोज रस झुंड पण मानी वेढुं छे. चक्रवत्तींनी जेटली वैभवनी वहोळता छे, तेटलीज उपाधि छे, भुंडने एना वैभवना प्रमाणमां छे. वन्ने जन्म्यां छे अने वने मरवानां छे. आम सूक्ष्म विचारे जोतां क्षणिकताथी, रोगथी, जरा वगेरेथी बन्ने ग्राहित छे. द्रव्ये चक्रवर्ती समर्थ छे, महा पुण्यशाळी छे, मुख्यपणे सातावेदनीय भोगवे छे, अने भुंड विचारु असातावेदनीय भोगवी रह्युं छे. वन्नेने असाता - सातापण छे; परंतु चक्रवर्ती महा समर्थ छे. पण जो ए जीवन पर्यंत मोहांव रह्यो तो सघळी बाजी हारी जवा जेवुं करेछे. भुंडने पण तेमज छे. चक्रवर्ती शलाकापुरुष होवाथी भुंडथी ए रुपे एनी तुल्यना नथी; परंतु आ स्वरुपे छे. भोग भोगबवामां वने तुच्छ छे; वन्नेनां शरीर पर मांसादिकनां छे; असाताथी पराधीन छे; संसारनी आ उत्तमोत्तम पट्टी आवी रही तेमां आवुं दुःख, आवी क्षणिकता, आवी
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१०० श्रीमद् राजचंद्र प्रणीत मोक्षमाळा. तुच्छता, आई अंधपणुं ए रा छे तो पछी वीजे मुख शा माटे गण जोइए। ए मुख नथी, छतां मुख गणो तो जे सुख भयवानां अने क्षणिक छे ते दुःखन छे. अनंत ताप, अनंत शोक, अनंत दुःख जोइने ज्ञानीओए ए संसारने घुट दीधी छे । ते सत्य छे. ए भणी पाळु वाली जोवा जेवू नयी. त्यां दुःख दुःखने दुःखज छे, दुःखनो ए समुद्र छे.
वैराग्य एज अनंत मुखमा लइ जनार उत्कृष्ट भोमियो छे.
शिक्षापाठ ५३. महावीरशासन.
हमणां जे जिन शासन प्रवर्त्तमान छे ते भगवान महावीरनुं प्रणीत करेलं छे. भगवान महावीरने निर्वाण पधायी २४०० वर्ष उपर थइ गया. मगध देशना भत्रियकुंड नगरमां सिद्धार्थ राजानी राणी त्रिशलादेवी क्षत्रियाणीनी कुखे भगवान महावीर जन्म्या. महावीर भगवानना मोटा भाइनुं नाम नंदीवर्द्धमान हतुं. तेमनी स्वीन नाम यशोदा हतुं त्रीश वर्ष तेओ गृहस्थाश्रममा रह्या. एकांतिक विहारे साडावार वर्ष एक पक्ष तपादिक सम्यकाचारे एमणे अशेष घनवाती कर्मने वाळीने भस्मीभूत कर्या , अनुपमेय केवळज्ञान अने केवळदर्शन ऋजुवालिका नदीने किनारे पाम्या एकंदर वहोतेर वर्ष लगभग आयु भोगवी सर्व कर्म भस्मी
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महावीरशासन.
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भूत करी सिद्धस्वरूपने पाम्मा. वर्तमान चोवीशीना ए छेल्ला जिनेश्वर हता.
एओनुं आ धर्मतीर्थ प्रवर्त्ते छे. ते २१००० हजार वर्ष एटले पंचमकाळनी पूर्णता सुधी प्रवर्त्तशे एम भगव - तीसूत्रमां कं छे.
आ काळ दश आश्चर्ययी युक्त होवाथी ए श्री धर्मतीर्थ ये अनेक विपत्तिओ आवी गइ छे, आवे छे, अने आवशे.
जैन समुदायमां परस्पर मतभेद बहु पडी गया छे. परस्पर निंदाग्रंथोथी जंजाळ मांडी वेठा छे. मध्यस्थ पुरुपो मतमतांतरमां नहीं पडतां विवेक विचारे जिनशिक्षानां मूळ तत्त्वपर आवे छे; उत्तम शीलवान मुनियोपर भाविक रहेछे, अने सत्य एकाग्रताथी पोताना आत्माने दमे छे.
काळप्रभावने लीघे वखते वखते शासन कंइ न्यूनाधिक प्रकाशमां आवे छे.
'वंक जडाय पछिमा' एवं उत्तराध्ययन सूत्रमां वचन छे; एनो भावार्थ ए छे के छल्ला तीर्थकर (महावीरस्वामी) ना शिष्यो वांका अने जड थशे अने तेनी सत्यता विषे कोड़ने वोलवु रहे तेम नथी. आपणे क्यां तत्त्वनो विचार करीए छीए ? क्यां उत्तम शीलनो विचार करीए छीए ? नियमित वखत धर्ममां क्यां व्यतीत करीए छीए ? धर्मतीर्थना उदयने माटे क्या लक्ष राखीए छीए ? क्यां दाझवडे
धर्मतत्व शोधीए छीए | श्रावक कुळमां जन्म्या एथी क
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१०२ श्रीमद् राजचंद्र प्रणीत मोलमाळा. रीने श्रावक, ए वात आपणे भावे करीने मान्य करवी जोइती नयी ; एने माटे जोइता आचार-झान-शोध के एमांना कंइ विशेष लक्षणो होय तेने श्रावक मानिये तो वे ययायोग्य छे. द्रव्यादिक केटलाक प्रकारनी सामान्य दया श्रावकने घेर जन्मे छ भने ते पाळे, ए वात वसागवा लायक छे; पण तत्वने कोइकज जाणेछे ; जाण्या करतां झाझी शंका करनारा अर्थदन्यो पण छ; जाणीने अहंपद करनार पण हे. परंतु जाणीने तत्वना कांगमां नोळनारा कोइक विरलाज हे. परंपर आनाययी केवळ, मनःपर्यव अने परम अवविज्ञान विच्छेद गया. द्रष्टिवाद विच्छेद गर्य, सिद्धांतनो घणो भाग पण विच्छेद गयो ; मात्र थोडा रहेला भागपर सामान्य समजणयी नंका करवी योग्य नयी. जे शंकता याय ते विशेष जाणनारने पूछवी, त्यांची मनमानतो उत्तर न मळे तोपण जिनवचननी श्रद्धा चळविचळ करवी योग्य नयी, केमके अनेकांत शेलीना स्वत्पने विरला जाणे छे.
भगवाननां कयन रुप मणिनां घरमा केटलाक पामर प्राणीयो दोषरुप काणुं शोधवानुं मयन करी अयोगति जन्य कर्मबारे छे. लीलोत्रीने बदले तेनी मुकवणी करी लेवान कोणे केवा विचारयी शोधी कायं छो? या विषय वहु मोगे छे. अही आगळ एसंबंधी कंइ कहेवानी योग्यता नयी. हुंकामां कहेवानुं के आपणे आपणा आत्मानासार्यक अर्थ मतभेदमां पडवू नहीं.
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अशुचि कोने कहवी? १०३ उत्तम अने शांत मुनिओनो समागम, विमळआचार विवेक, तेमन दया, क्षमा आदिनु सेवन कर. महावीर तीयेने अर्थे वने तो विवेकी वोध कारण सहित आपवो. तुच्छ वुद्धियी शंकित यई नहीं, एमां आपणुं परम मंगळ छ ए विसर्जन करवू नहीं.
शिक्षापाठ ५४. अशुचि कोने कहेवी !
जिज्ञानु-मने जैन मुनियोना आचारनी वात वहुरुची छे. एओना जेबो कोइ दर्शनना संतोमा आचार नयी. गमे तेवा शीयाळानी टाढमां अमुक वनवडे तेओने रेडवर्बु पडे छे; एनालामां गमे तेवो ताप तपता छतां पगमां तेओने पगरखां के मायापर छत्री लेवाती नयी. उनी रेतीमां आ वापना लेवी पंड छे. यावज्जीव उतुं पाणी पीए छे. गृहस्यने घेर तेओ वेसी शकता नयी शुद्ध ब्रह्मचर्य पाळे छे. फूटी वदाम पण पासे राखी भकता नथी. अयोग्य वचन वेनायी वोली शकातुं नयी. वाहन तेो लइ शकता नथी. यावा पवित्र आचारो, खरे! मोक्षदायक छे. परंतु नव वाडमां भगवाने स्नान करवानी ना कही छे ए वात तो मने यथार्थ वेसती नयी
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१०४ श्रीमद् राजचंद्र प्रणीत मोक्षमाळा.
सत्य-शा माटे बेसती नथी. जिज्ञासु-कारण एथी अशुचि वधे छे. सत्य-कइ अशुचि वधे छे? जिज्ञासु-शरीर मलिन रहेछे ए.
सत्य-भाइ, शरीरनी मलिनताने अशुचि कहेवी ए वात कंइ विचार पूर्वक नथी. शरीर पोते शानुं वन्युं छे एतो विचार करो. रक्त, पित, मळ, मूत्र श्लेष्मनो ए भंडार छे. तेपर मात्र त्वचा छे, छतां ए पवित्र केम थाय? वळी साधुए एवं कइ संसार कर्त्तव्य कर्यु न होय के जेथी तेओने स्नान करवानी आवश्यकता रहे.
जिज्ञासु-पण स्नान करवार्थी तेओने हानि शुं छे ?
सत्य-ए तो स्थूळबुद्धिज प्रश्न छे. नहावाथी कामामिनी प्रदीतता, वृतनो भंग, परिणाममुं वदलवू, असंख्याता जंतुनो विनाश, ए सघळी अशुचि उत्पन्न थाय छे अने एथी आत्मा महामलिन थाय छे. प्रथम एनो विचार करवो जोइए. जीवहिंसायुक्त शरीरनी जे मलिनता-छे ते अशुचि छे. अन्य मलिनताथी तो आत्मानी उज्जवळता थाय छे, ए तत्वविचारे समजवानुं छे नहावाथी वृत्तभंग थइ आत्मा मलिन थाय छ; अने आत्मानी मलिनता एज अशुचि छे. । जिज्ञासु-मने तमे बहु सुंदर कारण बताव्यु. सूक्ष्म विचार करतां जिनेश्वरनां कथनयी बोध अने अत्यानंद
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सामान्य नित्यनियम. माप्त थाय छे. वारु, गृहस्थाश्रमीओए सांसारिक प्रवर्तनथी थयेली अनिच्छित जीवहिंसादियुक्त एवी शरीर संबंधी अशुचि टाळवी जोइए के नहीं ? __ सत्य-समजण पूर्वक अशुचि टाळवीज जोइए. जैन जेई एके पवित्र दर्शन नथी; यथार्थ पवित्रतानो वोधक ते छे. परंतु शौचाशौचन स्वरुप समज जोईए.
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शिक्षापाठ ५५. सामान्य नित्यनियम.
प्रभात पहेलां जागृत यइ नमस्कारमंत्रनु स्मरण करी मनविशुद्ध करवं. पापन्यापारनी वृत्ति रोकी रात्रिसंबंधी थयेला दोपर्नु उपयोगपूर्वक प्रतिक्रमण कर. ___ प्रतिक्रमण को पछी यथावसर भगवाननी उपासना स्तुति तथा स्वाध्याययी करी मनने उज्वळ कर.
मात पितानो विनय करी संसारीकाममा आत्महितनो लक्ष भूलाय नहीं तेम व्यावहारिक कार्यमा प्रवर्तन करवं.
पोते भोजन करतां पहेलां सत्पात्रे दान देवानी परम आतुरता राखी तेवो योग मळतां यथोचित प्रवृत्ति करवी.
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१०६ श्रीमद् राजचंद्र प्रणीत मोक्षमाला.
आहारविहारादिमा नियम सहित प्रवर्त्तवं. सत्शास्त्रना अभ्यासनो नियमित वखत राखबो. सायंकाळे उपयोगपूर्वक संध्यावश्यक कर. निद्रा नियमितपणे लेवी.
सुता पेहेला अढार पापस्थानक, द्वादशवृतदोष, अने सर्व जीव प्रत्ये क्षमावी, पंच परमेष्टि मंत्रनुं स्मरण करी, समाधि पूर्वक शयन करवू. ____ आ सामान्य नियमो वहु मंगळकारी छे. जे अहीं संक्षेपमां कह्या छे. विशेष विचारवाथी अने तेम प्रवर्त्तवाथी ते विशेष मंगलदायक अने आनंदकारक थशे.
शिक्षापाठ ५६. क्षमापना. - हे भगवान् ! हु बहु भूली गयो, में तमारां अमूल्य वचनने लक्षमां लीयां नहीं. में तमारां कहेलां अनुपम तत्वनो विचार कर्यों नहीं. तमारां प्रणीत करेला उत्तम शीलने सेव्यु नहीं. तमारां कहेला दया, शांति, क्षमा अने पवित्रता में ओळख्यां नहीं. हे भगवान ! हुँ भूल्यो, आयड्यो-रझल्यो अने अनंत संसारनी विटम्बनामां पड्यो
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क्षमापना.
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छडे हुं पापी छई, हुं बहु मदोन्मत्त अने कर्म रजथी करीने मलिन छडं. हे परमात्मा ! तमारां कहेलां तत्त्वविना मारो मोक्ष नवी. हुं निरंतर प्रपंचमां पड्यो छ ; अज्ञानयी अंघ यो छ ; मारामां विवेकशक्ति नयी अने हुँ मूढ छड, हुं निराश्रित छ, अनाथ छ. निरागी परमात्मा ! हवे हुं नमारं, तमारा धर्मनुं अने तमारा मुनिनुं शरण गृहुं छडं. मारा अपराध क्षय थड़ हुं ते सर्व पापयी मुक्त घ ए मारी अभिलापा है. आगळ करेलां पापोनो हुं हवे पश्चाताप करूं छडं. जेम जेम हुं मूक्ष्म विचारयी उंडो उतरु छडं तेम तेम तमारा तत्त्वना चमत्कारो मारा स्वरुपनो प्रकाश करे छे, तमे निरागी, निर्विकारी, सच्चिदानंदस्वरूप, सहमानंदी, अनंतज्ञानी, अनंतदर्शी, अने त्रैलोक्यमकाशक छो. हुँ मात्र मारा हितने अर्ये तमारी साक्षीए क्षमा चाहुं छ. एक पळ पण नमारां कहेलां तत्त्वनी शंका न थाय, तमारा कहेला रस्तामां अहोरात्र हुं रहूं, एज मारी आकांक्षा ने वृत्ति थाओ ! हे सर्वज्ञ भगवान् ! तमने हुँ विशेष शुं कहुं ? तमारायी कंड़ अजाण्युं नयी. मात्र पश्चातापी हुं कर्मजन्य पापनी क्षमा इच्छु छ - ॐ शांतिः शांति शांति :
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१०८ श्रीमद् रामचंद्र प्रणीत मोक्षमाला. शिक्षापाठ ५७.वैराग्य एधर्म-स्वरुपछे,
एक वस्त्र लोहीनी मलिनताथी रंगायुं तेने जो लोहीथी धोइए तो ते उजळु थई शके नहीं; पण वधारे रंगाय छे. जो पाणीथी ए वनने धोइए तो ते मलिनता जवानो संभव छे. आ द्रष्टांतपरथी आत्मापर विचार लइए. अनादिकाळथी आत्मा संसाररुपी लोहीथी मलिन थयो छे. मलिनता प्रदेशे प्रदेशे व्यापी रही छे ! ए मलिनता आपणे विषय शृंगारथी टाळवी धारीए तो टळी शके नहीं. लोहीयी जेम लोही धोवातुं नथी, तेम शृंगारथी करीने विषयजन्य आत्ममलिनता टळनार नथी ए जाणे निश्चयरुप छे. आ जगतमा अनेक धर्ममतो चाले छे, ते संबंधी अपक्षपाते विचार करतां आगळयी आटलुं विचार अवश्यतुं छे के ज्यां त्रिओ भोगववानो उपदेश कर्यों होय, लक्ष्मीलीलानी शिक्षा आपी होय, रंग, राग, गुलतान अने एशआराम करवानुं तव बताव्युं होय त्यां आपणा आत्मानी सत् शांति नथी, कारण ए धर्ममत गणीए तो आखो संसार धर्मर्मतयुक्तज छे. प्रत्येक गृहस्थनुं घर एज योजनाथी भरपूर होय छे. छोकरांछैयां, स्त्री, रंग, राग, तान त्यां जाम्यु पडयु होय छे अने ते घर धर्ममंदिर कहे, तो पछी अधर्मस्थानक कयु? अने जेम वतिए छीए तेम वर्त्तवाथी खोटुं पण शुं ? कोइ एम कहे के पेला धर्ममंदिरमा तो प्रभुनी भक्ति थइ शके छे तो तेओने माटे खेदपूर्वक आटलोज
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धर्मना मतभेद भाग १. १०९ उत्तर देवानो छे के ते परमात्मतत्त्व अने तेनी वैराग्यमय भक्तिने जाणता नथी. गमे तेम हो पण आपणे आपणा मूल विचारपर आवईं जोइए, तत्वज्ञानीनी द्रष्टिए आत्मा संसारमा विषयादिक मलिनताथी पर्यटन करे छे. ते मलिनतानो क्षय विशुद्ध भाव जळयी होवो जोइए, अर्हतनां तत्त्वरुप साबु अने वैराग्यरुपी जल बडे, उत्तम आचाररुप पथ्यरपर, आत्मवत्रने धोनार निग्रंथ गुरु छे.
आमां जो वैराग्यजळ न होयतो वीजां वर्धा साहित्यो कंड करी शकतां नथी; माटे वैराग्यने धर्मद् स्वरुप कही शकाय, अहंतप्रणीत तत्त्व वैराग्यज वोध छे, तो तेज धर्म स्वरुप एम गणवू.
शिक्षापाठ ५८. धर्मना मतभेद भाग १.
आ जगत्मा अनेक प्रकारथी धर्मना मत पडेला छे. तेवा मतभेद अनादिकाळयी छे, ए न्यायसिद्ध छे. पण ए मत भेदो कंड कंइ रुपांतर पाम्या जाय छे. ए संबंधी केटलोक विचार करीए.
कंटलाक परस्पर मळता अने केटलाक परस्पर विरुद्ध छे; केटलाक केवळ नास्तिकना पायरेला पण छे. केटलाक सामान्य नीतिने धर्म कहे छे. केटलाक झाननेज धर्म कहे छे, केटलाक अमान एज धर्ममत कहे छ, केटलाक भक्तिने
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११० श्रीमद् राजचंद्र प्रणीत मोक्षमाला. कहे छे; केटलाक क्रियाने कहे छे । केटलाक विनयने कहे छे अने केटलाक शरीरने साचव, एनेज धर्ममत कहे छे. ___ए धर्ममत स्थापकोए एम बोध कयों जणाय छे के अमे जे कहीए छीए ते सर्वज्ञवाणीरुप छ; के सत्य छे. वाकीना सधळा मतो असत्य अने कुतर्कवादी छे तथा परस्पर ते मत वादीओए योग्य के अयोग्य खंडन कयु छे. वेदांतना उपदेशक एज वोधेछे ; सांख्यनो पण एज वोध छे. वौधनो पण एज वोध छे. न्यायमतवालानो पण एज वोध छ; वैशेषिकनो एज वोध छे , शक्तिपंथीनो एज बोध छे; वैष्णवादिकनो एज वोध छे. इस्लामीनो एज बोध छे. अने एज रीते क्राइस्टनो एम वोधछे के आ अमारं कथन तमने सर्व सिद्धि आपशे. त्यारे आपणे हवे शुं विचार करवो? ___वादी प्रतिवादी बने साचा होता नथी, तेम वन्ने खोटा होता नथी. बहु तो वादी कंइक वधारे साचो; अने प्रतिवादी कइक ओछो खोटो होय. अथवा प्रतिवादी कंइक वधारे साचो, अने वादी कंइक ओछो खोटो होय. केवळ वनेनी वात खोटी होवी न जोइए. आम विचार करतां तो एक धर्ममत साचो ठरे; अने वाकीना खोटा ठरे.
जिज्ञासु-ए एक आश्चर्यकारक वात छे. सर्वने असत्य के सर्वने सत्य केम कहीशकाय? जो सर्वने असत्य एम कहीए तो आपणेनास्तिक ठरीए ! अने धर्मनी सचाइ
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धर्मना मतभेद भाग २०
१११ जाय. आ तो निश्चय छे के धर्मनी सच्चाइ छे, ते जगत्पर ते अवश्य छे. एक धर्ममत सत्य अने वाकीना सर्व असत्य एम कहीए तो ते वात सिद्ध करी बताववी जोइए. सर्व सत्य कही तो तो ए रेतीनी भींत जेवी वात करी ; कारण के तो आटला वधा मतभेद केम पडे १ जो कंड पण मतभेद न होय तो पछी जुदा जुदा पोतपोताना मतो स्थापना शा माटे यत्न करे ? एम अन्योन्यना विरोधथी थोडीवार अटकवुं पडे छे.
तोपण ते संबंधी अत्रे कंइ समाधान करीशुं. ए समाधान सत्य अने मध्यस्थभावनानी द्रष्टिथी कर्तुं छे. एकांतिक के मतांतिक द्रष्टिथी कर्यु नथी. पक्षपाती के अविवेकी नथी; उत्तम अने विचारवा जेवुं छे, देखावे ए सामान्य लागशे ; परंतु सूक्ष्म विचारथी वहु भेदवाळु लागशे.
शिक्षापाठ ५९, धर्मना मतभेद भाग २.
आटलं तो तमारे स्पष्ट मानवुं के गमे ते एक धर्म आ लोकपर संपूर्ण सत्यता धरावे छे. हवे एक दर्शनने सत्य hi यकीना धर्ममतने केवळ असत्य कहेवा पडे; पण हुं एम कही न शकुं. शुद्ध आत्मज्ञानदाता निश्चयनयवडे तो ते असत्यरूप ठरे; परंतु व्यवहारनये ते असत्य कही शकाय 'नहीं, एक सत्य अने वाकीना अपूर्ण अने सदोष छे एम
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११२ श्रीमद् राजचंद्र प्रणीत- मोक्षमाळा.
कहुँ छडं, तेमज केटलाक कुतर्कवादी अने नास्तिक, छे ते केवळ असत्य छे; परंतु जेओ परलोक संबंधी के पाप संबंधी कंपण बोध के भय बतावे छे ते जातना धर्ममतने अपूर्ण अने शदोष कही सकाय छे. एक दर्शन जे निर्दोष अमे पूर्ण कहेवानुं छे ते विषेनी वात हमणा एक बाजु राखीए.
हवे तमने शंका थशे के सदोष अने अपूर्ण एवं कथन एना प्रवर्त्तके शा माटे बोध्युं हशे ! तेनुं समाधान यतुं जोइए. एतुं समाधान एम छे के ते धर्ममतवाळाओनी ज्यां सुधी बुद्धिनी गति पहोंची त्यांसुधी तेमणे विचारो कर्या. अनुमान, तर्क अने उपमादिक आधारवडे तेओने जे कथन 'सिद्ध जणायुं ते प्रत्येक्षरुपे जाणे सिद्ध छे एवं तेमणे दर्शाव्यं; जे पक्ष लीधो तेमां मुख्य एकांतिक वाद लीधो ; भक्ति, विश्वास, नीति, ज्ञान, क्रिया आदि एक पक्षने विशेष लीधो, एथी वीजा मानवा योग्य विषयो तेमणे दूषित 'करी दीधा. चळी जे विषयो तेमणे वर्णव्या ते सर्व भाव भेदे तेओए कइ जाण्या नहोता, पण पोतानी बुद्धि अनुसारे बहुवर्णव्या. तार्किक सिद्धांत द्रष्टांतादिकथी सामान्य बुद्धिवाला आगळ के जडभरत आगळ तेओए सिद्ध करी बतायो कीर्त्ति, लोकहित के भगवान मनावानी आकांक्षा . एमांनी एकादि पण एमना मननी भ्रमणा होवाथी अत्युग्र उद्यमादिथी, तेओ जय, पाम्या. केटला के शृंगार अने लोके
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धर्मना मतभेद भाग ३. ११३ च्छित साधनोथी मनुष्यनां मन हरण की. दुनिआ मोहमा तो भूळे डुबी पडी छे ; एटले ए इच्छित दर्शनथी गाडररुपे थइने तेओए राजी थइ तेनु कहे मान्य राख्यु, केटलाके नीति, तथा कंइ वैराग्यादि गुण देखी-इत्यादिक देखी ते कथन मान्य राख्यु. प्रवर्तकनी बुद्धि तेओ करतां विशेष होवाथी तेने पछी भगवानरुपज मानी लीधा. केटलाके पैराग्यधी धर्ममत फेलावी पाछळथी केटलांक सुखशीलियां साधननो बोध खोशी पोताना मतनी वृद्धि करी. पोतानो मत स्थापन करवानी महान भ्रमणाए अने पोतानी अपूर्णता इत्यादिक गमे ते कारणथी वीजानुं कहेलु पोताने न रुच्यु एटले तेणे जुदोज राह काड्यो. आम अनेक मतमतांतरनी माळ थती गइ. चार पांच पेढी एकनो एक धर्म मत रह्यो एटले पछी ते कुळधर्म थइ पड्यो. एम स्थळे स्थळे थतुं गयु.
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शिक्षापाठ ६०. धर्मना मतभेद भाग ३.
जो एक दर्शन पूर्ण अने सत्य न होय तो वीजा धर्म मतने अपूर्ण अने असत्य कोई प्रमाणथी कही शकाय नहीं ए माटे थइने ने एक दर्शन पूर्ण अने सत्य छे तेना तत्वप्रमाणथी वीजा मतोनी अपूर्णता अने एकांतिकता जोइए.
ए वीजा धर्ममतोमा तत्त्वज्ञान संबंधी यथार्थे सूक्ष्म विचारो नथी. केटलाक जगत्कर्त्तानो वोध करेछे; पण
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११४ श्रीमद् राजचंद्र मणीत मोक्षमाळा. जगत्कर्ता प्रमाणवडे सिद्ध थइ शकतो नथी. केटलाक ज्ञानथी मोक्षछे एम कहेछे ते एकांतिक छे; तेमज क्रियाथी मोक्ष छे एम कहेनारा पण एकांतिक छे. ज्ञान, क्रिया ए वनेथी मोक्ष कहेनारा तैना यथार्थ स्वरुपने जाणता नथी ; अने ए वनेना भेद श्रेणिबंध नथी कही शक्या एज एमनी सर्वज्ञतानी खामी जणाइ आवेछे. ए धर्ममतस्थापको सदेवतत्वमां कहेलां अष्टादश दुपणोथी रहित नहोता, एम एओए उपदेशेलां शास्त्रो अथवा तेमना चरित्रोपरथी पण तत्त्वनी द्रष्टिए जोतां देखाय छे. केटलाक मतोमा हिंसा, अब्रह्मचर्य इत्यादि अपवित्र आचरणनो बोध छे ते तो सहजमां अपूर्ण अनेसरागीना स्थापेला जोवामां आवेछे. कोइए एमां सर्वव्यापक मोक्ष, कोइए कंइ नहीं ए रुप मोक्ष, कोइए साकारमोक्ष अने कोइए अमुक काळमुधी रही पतित थर्बु ए रुप मोक्ष मान्यो छे; पण एमाथी कोइ वात तेओनीसप्रमाण थइ शकती नथी. एओना विचारोनुं अपूर्णपणुं निष्पृहीतत्त्ववेत्ताओए दर्शाव्यु छे, ते यथावस्थित जाणवू योग्य छे.
वेद शिवायना वीजा मतोना प्रवर्तकोनां चरित्रो भने विचारो इत्यादिक जाणवाथी ते मतो अपूर्ण छ एम जणाई आवे छे. वर्तमानमा जे वेदो छे ते घणा प्राचीन ग्रंथो छे तेथी ते मतनुं प्राचीनपणुं छे, परंतु ते पण हिंसाए करीने दूषित होवाथी अपूर्ण छ, तेमज सरागीनां वाक्य छ एम स्पष्ट जणाय छे.
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धर्मना मतभेद भाग ३. ११५ जे पूर्ण दर्शन विप अत्रे कहेवाचं छे ते जैन एटले निरागीनां स्थापन करेलां दर्शन विपे छे. एना वोधदाता सर्वज्ञ अने सर्वढी हता; काळभेद छे तोपण ए वात सिद्धांतिक जणाय छे. दया, ब्रह्मचर्य, शील, विवेक, वैराग्य, ज्ञान, क्रियादि एनांजेवां पूर्ण एकेए वर्णव्यां नथी. तेनी साथे शुद्ध आत्मज्ञान, तेनी कोटिओ, जीवनां च्यवन, जन्म, गति, विग्रहगति, योनिद्वार, प्रदेश, काळ, तेनां स्वरुप-ए विपे एवो मृक्ष्म योधछे के जेवडे तेनी सर्वजतानी निःशंकता थाय. काळभेदे परंपरान्नायथी केवळज्ञानादि ज्ञाना जोवामां नयी आवतां, छतां जे जे जिनेश्वरनां रहेलां सिद्धांतिक वचनो छे ते अखंड छे. तेओना केटलाक सिद्धांतो एवामूक्ष्म छे के जे एकेक विचारतां आखी जींदगी वही जाय.
जिनेश्वरना कहेलां धर्मतत्त्वथी कोइ पण प्राणीने लेश खेद उत्पन्न यतो नधी. सर्व आत्मानी रक्षा अने सर्वात्म शक्तिनो प्रकाश एमां रह्यो छे. ए भेदोवांचवाथी, समजवाथी अन ते पर प्रति अति मूक्ष्म विचार करवायी आत्मशक्ति प्रकाश पामी जैनदर्शननी सर्वोत्कृष्टपणानी हा कहेवरात्रे छ. वह मननयी सर्व धर्ममत जाणी पछी तुलना करनारने आ कथन अवश्य सिद्ध थशे.
निर्दोष दर्शननां मूलतत्त्वो अने सदोष दर्शननां मूळतत्यो विपे अहीं विशेप कही शकाय एटली जग्या नथी.
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११६ श्रीमद् राजचंद्र प्रणीत मोक्षमाम. शिक्षापाठ६१. सुखविपेविचार भाग १.
एक ब्राह्मण दरिद्रावस्थाथी वह पीडातो हतो. तेणे कंटाळीने छेवटे देव उपासन करी लक्ष्मी मेळववानो निश्चय कर्यो. पोते विद्वान होवाथी उपासन करवा पहेला विचार कर्यों के कदापि देव तो कोइ तुष्ट थशे; पण पछी ते आगळ सुख कयु मागवू ? तप करी पछी मागवानुं कई सूजे नहीं, अथवा न्यूनाधिक मूजे तो करेल तप पण निरर्थक जाय; माटे एक वखत आखा देशमा प्रवास करवो. संसारना महत्पुरूपोनां धाम, वैभव अने सुख जोवां. एम निश्चय करी ते प्रवासमां नीकली पड्यो. भारतनां जे जे रमणीय अनेरीद्धिमान शहेरो हतां ते जोयां. युक्तिमयुक्तिए राजाधिराजनां अंतःपुर, सुख भने वैभव जोयां. श्रीमंतोना आवास, वहिवट, वागवगीचा अने कुटुंव परिवार जोया पण एथी तेनु कोइ रीते मन मान्यु नहीं. कोइने स्त्रीनुं दुःख, कोइने पतिनुं दुःख, कोइने अज्ञानथी दुःख, कोइने वहालांना वियोगर्नु दुःख, कोइने निर्धनतानु दुःख, कोइने लक्ष्मीनी उपाधिनु दुःख, कोइने शरीर संबंधी दुःख, कोइने पुत्रनुं दुःख, कोइने शत्रुनु दुःख, कोइने जडतानुं दुःख, कोइने मावापनुं दुःख, कोइने वैधव्य दुःख, कोइने कुटुंवर्नु दुःख, कोइने पोतानां नीचकुळनु दुःख, कोइने प्रीतिर्नु दुःख, कोइने इष्र्णातुं दुःख, कोइने हानिनु दुःख, एम एक, वे विशेष के वधां दुःख, स्थळे स्थळे ते
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सुखविषविचार भाग १. विपना जोवामां आव्या. एथी करीने एनुं मन कोइ स्थळे मान्यु नहीं; ज्यां जुए त्यां दुःख, तो खरंज. कोई स्थळे संपूर्ण सुख तेनाजोवामां आव्यु नहीं. हवे त्यारे शुं मागवू? एम विचारतां विचारतां एक महाधनाढ्यनी प्रशंसा सांभलीने ते द्वारिकामां आव्यो. द्वारिका महारीद्धिमान, वैभवयुक्त, वागवगीचावडे करीने सुशोभित अने वस्तीथी भरपूर शहेर तेने लाग्यु. सुंदर अने भव्य आवासो जोतो, अने पूछतो पूछतो ते पेला महाधनाढ्यने घेर गयो. श्रीमंत मुखग्रहमा वेठा हता. तेणे अतिथि जाणीने ब्राह्मणने सन्मान आप्यु कुशलता पूछी अने तेओने माटे भोजननी योजना करावी. जरा वार जवा दई धीरजथी शेठे ब्राह्मणने पूछयं, आपनुं आगमन कारण जो मने कहेवा जे होय तो कहो. ब्राह्मणे कडं, हमणा आप क्षमा राखो आपनो सघळी जातनो वैभव, धाम, वागवगीचा इत्यादि मने देखाडवू पडशे; ए जोया पछी आगमनकारण कहीश. शेठे एवं कई मर्मरुप कारण जाणीने का, भले, आनंदप्रर्वक आपनी इच्छा प्रमाणे करो. जम्या पछी ब्राह्मणे शेठे पोते साथे आवीने धामादिक वताववा विनंति करी. धनान्ये ते मान्य राखी; अने पोते साथे जई वागवगीचा, धाम, वैभव ए सघळु देखाउयु. शेठनी स्त्री अने पुत्रो पण त्यां ब्राह्मणना जोवामां आव्या. तेओए योग्यतापूर्वक ते ब्राह्मणनो सत्कार को एओनारुप, विनय अने स्वच्छता जोइने तेमज तेओनी मधुरवाणी शांभळीने ब्राह्मण राजी
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११८ श्रीमद् राजचंद्र प्रणीत मोक्षमाला थयो. पछी तेनी दुकाननो वहिवट जोयो. तेमां सोएक वहिवाटया त्यां वेठेला जोया. तेओ पण मायालु, विनयि अने नम्र ते ब्राह्मणना जोवामां आव्या. एथी ते बहु संतुष्ट थयो. एजें मन अहीं कंइक संतोपायुं. सुखी तो जगतमा आज जणाय छे एम तेने लाग्यं.
शिक्षापाठ ६२. सुखविपेविचार भाग२. ___केवां एनां सुंदर घर छे! केवी मुंदर तेनी स्वच्छता अने जाळवणी छे! केवी शाणी अने मनोज्ञा तेनी मुशील स्त्री छे ! केवा तेना कांतिमान अने कह्यागरा पुत्रोछे ! के संपीलु तेनुं कुटुंब छे! लक्ष्मीनी महेरपण एने त्यां केवी छे! आखा भारतमा एना जेवो वीजो कोइ सुखी नथी. हवे तप करीने जो हुं मागु तो आ महाधनाढ्य जेवूज सघळु मागु, बीजी चाहना करुं नहीं.
दीवस वीती गयो अने रात्रि थइ. सुवानो वखत थयो. धनाढ्य अने ब्राह्मण एकांतमां वेठा हता; पछी धनान्ये विप्रने आगमन कारण कहेवा विनंति करी.
विप्र-घेरथी एवो विचार करी नीकळ्यो हतो के बधाथी वधारे सुखी कोण छे ते जो ; अने तप करीने
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मुखविपे विचार भाग २. ११९ पछी एना जेवू मुख संपादन कर. आखा भारत ने तेनां सघळां रमणीय स्थळो जोयां; परंतु कोड राजाधिराजने त्यां पण मने संपूर्ण मुख जोवामां आव्युं नहीं. ज्यां जोडे त्या आधि, व्याधि अने उपाधि जोवामां आवी. आप भणी आवतां आपनी प्रशंसा सांभळी एटले हुँ अहीं आन्यो; अने संतोप पण पाम्यो. आपना जेवी रीद्धि, सत्पुत्र, कमाइ, स्त्री, कुटुंब, घर वगैरे मारा जोवामां क्यांय आन्यु नथी. आप पाते पण धर्मशील, सद्गुणी अने जिनेश्वरना उत्तम उपासक छो. एथी हुँ एम मार्नु छ के आपना जे मुख चीजे नथी. भारतमांआप विशेष मुखीछो. उपासना करीने कदापि देव कने या तो आपना जेवी मुखस्थिति याचं.
धनाढ्य-पंडितजी, आप एक बहु मर्मभरेला विचारयी नीकळ्या छो; एटले अवश्य आपने जेम छे तेम स्वानुभवी वान कहुं छउं; पछी जेम तमारी इच्छा थाय तेम करजो. मारे त्यां आपे जेजे मुख जोयां ते ते सुख भारतसंबंधमां क्यांय नथी एम आपे कडे तो तेम हशे; पण खरं ए मने संभवतुं नथी; मारो सिद्धांत एवोछे के जगत्मां कोई स्थळे वास्तविक सुख नथी. जगत् दुःखथी करीने दासतुं छे. तमे मने मुखी जुओ छो परंतु वास्तविक रीते ई. मुखी नथी.
विष-आपनुं आ कहे कोइ अनुभवसिद्ध अनेमार्मिक हशे में अनेक शास्त्रो जोयां छ; छतां आवा मर्मपूर्वक
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१२० श्रीमद् राजचंद्र प्रणीत मोक्षमाळा. विचारो लक्षमा लेवा परिश्रमज लीधो नथी. तेम मने एवो अनुभव सर्वने माटे थइने थयो नथी. हवे आपने शुं दुःख छ ? ते मने कहो.
धनान्य-पंडितजी आपनी इच्छाछे तो हुँ कहुं छउं. ते लक्षपूर्वक मनन करवा जेतुं छे ; अने ए उपरथी कंड रस्तो पामवा जे छे.
शिक्षापाठ ६३. सुखविषेविचार भाग ३.
जे स्थिति हमणां मारी आप जुओछो तेवी स्थिति लक्ष्मी, कुटुंव अने स्त्री संबंधमा आगल पण हती. जे वखतनी हु वात करं छउं, ते वखतने लगभग विश वर्ष थयां. व्यापार, अने वैभवनी वहोळाश ए सघळु वहिवट अवलो पडवाथी घटवा मंडयु. कोव्यावधि कहेवातो हुँ उपराचापरी खोटना भार वहन करवाथी लक्ष्मी वगरनो मात्र त्रण वर्षमा थइ पज्यो. ज्यां केवळ सवलु धारीने नांख्यु हतुं त्यां अवढं पडयु. एवामां मारी स्त्री पण गुजरी गइ. ते वखतमां मने कंड संतान नहोतुं. जबरी खोगेने लीधे मारे अहींथी नीकळी जवू पडद्यु. मारां कुटुंबीओएथती रक्षा करी; परंतु ते आम फाव्यातुं थीगडे हतुं. अन्नने अने दांतने वेर थयानी स्थितिए, हु बहु आगळ नीकली पज्यो. ज्यारे हूं
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मुखविषेविचार भाग ३. १२१ त्यांची नीकळ्यो त्यारे मारां कुटुंयीओ मने रोकी राखवा मंड्यां के तें गामनो दरवाजो पण दीगे नथी, माटे तने जवा दइ शकाय नहीं. तारुं कोमळ शरीर कंइ पण करी शके नहीं; अने तुं त्यां जा अने सुखी था तो पछी आव पण नहीं; माटे ए विचार तारे मांडी वाळवो. घणा प्रकारथी तेओने समजावी, सारी स्थितिमा आवीश त्यारे अवश्य अहीं आवीय. एम वचन दइ जावावंदर हुँ पर्यटने नीकळी पड्यो.
प्रारब्ध पाछां वळवानी तैयारी थइ. दैवयोगे मारी कने एक दमडी पण रही नहोती. एक के वे महीना उदर पोपण चाले ते, साधन रघु नहोतुं. छतां जावामां हुँ गयो त्यां मारी बुद्धिए प्रारब्ध खीलव्यां• जे वहाणमा हुं वेठो हतो ते वहाणना नाविके मारी चंचळता अने नमृता जोइने पोताना शेट आगळ मारां दुःखनी वात करी. ते शेठे मने वोलावी अमुक काममां गोठव्यो; जेमां हुं मारा पोपणयी चोगj पेदा करतो हतो. ए वेपारमा मारुं चित्त ज्यारे स्थिर थयुं त्यारे भारतसाये ए वेपार वधारवा में मयन कयु; अने तेमां फाव्यो. वे वर्षमां पांच लाख जेटली कमाइ थइ. पछी शेठ पासेयी राजी खुशीथी आज्ञा लइ में केटलोक माल खरीदी द्वारिका भणी आववानुं कयु. थोडे काळे त्यां आवी पहोंच्यो त्यारे, बहु लोक सन्मान आपवा मने सामा आव्या हवा. हुं मारां कुटुंबीओने आनंदभावधी जेइ मळ्या. तेओ मारा भाम्यनी प्रशंसा
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१२२ श्रीमद् राजचंद्र प्रणीत मोक्षमाळा. करवा लाग्यां. जावेथी लीधेला माले मने एकना पांच कराव्या. पंडितजी ! त्यां केटलाक प्रकारथी मारे पाप करवां पड्यां हतां पुरुं खावा पण हुं पाम्यो नहोतो; परंतु एकवार लक्ष्मी साध्य करवानो जे प्रतिज्ञाभाव कों हतो ते प्रारब्ध योगथी पळ्यो. जे दुःखदायक स्थितिमा हु हतो ते दुःखमां शुं खामी हती ? स्त्री, पुत्र एतो जाणे नहोतांज, मावाप आगळ्थी परलोक पाम्यां हतां कुटुंबीओना वियोगवडे अने विना दमडीए जावे जे वखते हुँ गयो ते वखतनी स्थिति अज्ञानदृष्टिथी आंखमां आंसु आणी दे तेवी छे; आ वखते पण धर्ममां लक्ष राख्यु हतुं. दिवसनो अमुक भाग तेमां रोकातो हतो ते लक्ष्मी के एवी लालचे नहीं ; परंतु संसारदुःखथी ए तारनार साधन छे एम गणीने मोतनो भय क्षण पण दूर नथी, माटे ए कर्तव्य जेम वने तेम त्वराथी करी लेवू, ए मारी मुख्य नीति हती. दुराचारथी कइ मुख नथी; मननी तृप्ति नथी, अने आत्मामी मलिनता छे. ए तत्त्व भणी में मारु लक्ष दोरेलु हतुं.
शिक्षापाठ ६४. सुखविषेविचार भाग४. .. अही आव्या पछी हुँ सारां ठेकाणांनी कन्या पाम्यो. ते पण मुलक्षणी अने मर्यादशील नीवडी; ए वडे करीने मारे त्रण पुत्र थया. वहिवट भवळ होवाधी अने नाणुं
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मुखविषेविचार भाग ४. १२३ नाणांने वधारत होवाथी दश वर्षमा हुँ महाकोट्यावधि थइ पड्यो• पुत्रना नीति, विचार, अने बुद्धि उत्तम रहेवा में बहु सुंदर साधनोगोठव्यां. जेयी, तेओ आ स्थिति पाम्या छे. मारां कुटुंबीओने योग्य योग्य स्थळे गोठवी तेओनी स्थितिने सुधरती करी. दुकानना में अमुक नियमो वांध्या. उत्तम धामनो आरंभ पण करी लीधो. आ फक्त एक ममत्व खातर कयें. गयेढुं पार्छ मेळव्यु, अने कुळ परंपरानुं नामांकितपणुं जतुं अटकाव्युं, एम कहेवरावा माटे आसघर्छ कयु, एने हुँ मुख मानतो नथी. जोके हुं वीजा करतां मुखी छउं; तोपण ए सातावेदनीय छे; सत्सुख नथी. जगत्मा बहुधा करीने असातावेदनी छे. में धर्ममां मारो काळ गाळवानो नियम राख्यो छे. सतशास्त्रोनां वाचनमनन, सत्पुरुषोना समागम, यमनियम, एक महीनामां वार दिवस ब्रह्मचर्य, वनतुं गुप्तदान, ए आदिधर्मरुपे मारो काळ गालं छ. सर्व व्यवहार संबंधीनी उपाधिमाथी केटलोक भाग वह अंशे में त्याग्यो छे. पुत्रीने व्यवहारमा यथायोग्य करीने हुँ निग्रंथ थवानी इच्छा राखं छउं. हमणां निय थइ शकुं तेम नथी; एमां संसारमोहिनी के एवं कारण नयी; परंतु ते पण धर्मसंबंधी कारण छे. गृहस्थधर्मनां आचरण वहु कनिष्ट थइ गयांछे अने मुनियो ते सुधारी शकता नथी. गृहस्थ गृहस्थने विशेप बोध करी शके, आचरणथी पण असर करी शके. एटला माटे थइने धर्मसंबंधे गृहस्थ वर्गने हुं घणे भागे वोधी यमनियममा आ'
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श्रीमद् राजचंद्र प्रणीत मोक्षमाळा.
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छ. दरसप्ताहिके आपणे त्यां पांच जेवला सद्गृहस्थोनी सभा भराय छे. आठ दिवसनो नवो अनुभव अने बाकीनो आगळनो धर्मानुभव एमने वे त्रण मुहूर्त वोधुं छउं मारी स्त्री धर्मशास्त्रनो केटलोक बोध पामेली होवाथी ते पण स्त्री वर्गने उत्तम यमनियमनो वोध करी सप्ताहिक सभा भरेछे. पुत्रो पण शास्त्रनो वनतो परिचय राखे छे. विद्वानोनुं सन्मान, अतिथिनो विनय, अने सामान्य सत्यता - एकज भाव - एवा नियमो बहुधा मारा अनुचरो पण सेवेछे. एओ वधा एथी साता भोंगवी शकेछे. लक्ष्मीनी साथे मारां
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नीति, धर्म, सद्गुण, विनय एणे जनसमुदायने बहु सारी असर करी छे. राजासहित पण मारी नीतिवात अंगीकार करे ते थयुं छे. आ सघलुं आत्मप्रशंसा माटे हुं कहेतो नथी, ए आपे स्मृतिमां राखकुं; मात्र आपना पूछेला खुलासा दाखल आ सघळं संक्षेपमां कहेतो ज छडं.
शिक्षापाठ ६५. सुखविषेविचार भाग ५.
आ सघळां उपरथी हुं सुखी छउं एम आपने लागी शकशे, अने सामान्यविचारे मने वहुमुखी मानो तो मानी शकाय तेम छे. धर्म, शील अने नीतिथी तेमज शास्त्रावधानथी मने जे आनंद उपजे छे ते अवर्णनीय छे. पण तत्त्व दृष्टिथी हुं सुखी न मनाउं. ज्यांसुधी सर्व प्रकारे बाह्य अने ' अभ्यंतर परिग्रह में व्याग्यो नथी, त्यांसुधी, राग दोषनो
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सुखविषेविचार, भाग ५०
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भावछे. जो के ते बहु अंशे नथी, पण छे; तो त्यां उपाधि पण छे. सर्वसंग परित्याग करवानी मारी संपूर्ण आकांक्षा छे; पण ज्यांसुधी तेम थयुं नथी त्यांसुधी कोइ प्रियजननो वियोग, व्यवहारमां हानि, कुटुंबीनुं दुःख ए थोडे अंशे गण उपाधि आपी के. पोताना देहपर मोत शिवाय पण नाना प्रकारना रोगनो संभव छे. माटे केवळ निद्र्य, बाह्यांभ्यतर परिग्रहनो त्याग, अल्पारंभनो त्याग ए सघळु नयी थयुं त्यांसुधी, हुं मने केवळ मुखी मानतो नवी. हवे आपने तत्त्वनी द्रष्टिए विचारतां मालम पडशे के लक्ष्मी, स्त्री, पुत्र के कुटुंब एवढे मुख नथी. अने एने मुख गणुं तो ज्यारे मारी स्थिति पतित थइ हती त्यारे ए सुख क्यां गयुं हतुं ? जेनो वियोग छे, जे क्षणभंगुर छे अने ज्यां अव्यावाघ पणुं नथी ते संपूर्ण के वास्तविक सुख नथी. एटला माटे थड़ने हुं मने मुखी कही शकतो नथी. हुं बहु विचारी विचारी व्यापार वहिवट करतो हतो, तोपण मारे आरंभोपाधि, अनीति अने लेश पण कपट सेववुं पड्युं नथी, एम तो नयीज. अनेक प्रकारना आरंभ, अने कपट मारे सेववां पट्यां दतां. आप जो धारता होके देवोपासनथी लक्ष्मी प्राप्त करवी, तो ते जो पुण्य नहोय तो कोइ काळे मळनार नथी. पुण्यथी पामेली लक्ष्मीवडे महारंभ, कपट अने मानप्रमुख वधारवां ते महापापनां कारण छे ; पाप नरकंमां नाखेछे, पापथी आत्मा महान् मनुष्यदेह एळे गुमावी दे छे, एकतो जाणे पुण्यने खाइ जयां ; वाकी वळी
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१२६ श्रीमद् राजचंद्र प्रणीत मोक्षमाला. पापन बंधन करवू लक्ष्मीनी अने ते वडे आखा संसारनी उपाधि भोगववी ते इंधारं छउं के विवेकी आत्माने मान्य न होय. में जे कारणथी लक्ष्मी उपार्जन करी हती, ते कारण में आगळ आपने जणाव्युं हतुं. जेम आपनी इच्छा होय तेम करो. आप विद्वान् छो. हुं विद्वानने चाहुँ छर. आपनी अभिलाषा होयतो धर्मध्यानमा प्रसक्त थइ सहकुटुंव अहीं भले रहो. आपनी उपजीविकानी सरळ योजना जेम कहो तेम हुँ रुचिपूर्वक करावी आपुं. अहीं शास्त्राध्ययन अने सवस्तुनो उपदेश करो. मिथ्यारंभोपाधिनी लोलुपतामां हुं धारुं छउं के न पडो, पछी आपनी जेवी इच्छा.
पंडित-आपे आपना अनुभवनी वह मनन करवा जेवी आख्यायिका कही. आप अवश्य कोइ महात्मा छो. पुण्यानुवंधीपुण्यवान जीव छो; विवेकी छो; आपनी विचारशक्ति अद्भुत छे हुँ दरिद्रताथी कंटाळीने जे इच्छा राखतो हतो ते एकांतिक हती. आवा सर्व प्रकारना विवेकी विचार में कर्या नहोता. आवो अनुभव-आवी विवेकशक्ति हुं गमे तेवो विद्वान् छउं छतां मारामां नथी, ए वात हुँ सत्यज कहुं छउं. आपे मारे माटे जे योजना दर्शावी ते माटे आपनो वहु उपकार मा छउं; अने नम्रतापूर्वक ए हुं अंगीकार करवा हर्ष वतावू छउं. हुं उपाधिने चहातो नथी. लक्ष्मीनो फंद उपाधिज आपे छे. आपनुं अनुभवसिद्ध कथन मने बहु रुच्युं छे. संसार वळतोज छे. एमां मुख नथी. आपे निरुपाधि मुनिसुखनी प्रशंसा कही ते
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मुखविषेविचार भाग ६. १२७ सत्य छे. ते सन्मार्ग परिणामे सर्वोपाधि, आधि व्याधिथी तेमज सर्व अज्ञानभावथी रहित एवा शाश्वत मोक्षनो हेतु छे.
शिक्षापाठ६६. सुखविषेविचार भाग ६.
धनान्य-आपने मारी वात रुची एथी हुँ निरभिमानपूर्वक आनंद पामु छर. आपने माटे हुं योग्य योजना करीश. मारा सामान्य विचारो कथानुरुप अहीं कहेवानी हुँ आज्ञा लडं छउं.
जेओ मात्र लक्ष्मीने उपार्जन करवामां कपट, लोभ अने मायामां मुंज्ञाया पड्या छे ते बहु दुःखी छे. तेनो ते पुरो उपयोग के अधुरो उपयोग करी शकता नथी. मात्र उपाधिज भोगवे छे, ते असंख्यात पाप करे छे. तेने काळ अचानक लइने उपाडी जाय छे. अधोगति पामी ते जीव अनंतसंसार वधारे छे. मळेलों मनुष्य देह निर्माल्य करी नाखे छे नेयी ते निरंतर दुःखीज छे.
जेओए पोताना उपजीविका जेटलां साधनमात्र अल्पारंभयी राख्यां छे, शुद्ध एक पनीटत्त, संतोष, परात्मानी रक्षा, यम, नियम, परोपकार, अल्पराग, अल्पद्रव्यमाया अने सत्य तेमज शास्त्राध्ययन राखेल छे, जे सत्पुरुषोने सेवेछे, जेणे निग्रंथतानो मनोर्थ राख्यो छे, बहु प्रकारे
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१२८ श्रीमद् राजचंद्र प्रणीत मोक्षमाळा.
करीने संसारथी जे त्यागी जेवा छे, जेना वैराग्य अने विवेक उत्कृष्ट छे तेषा पुरुषो पवित्रतामां सुखपूर्वक काळ निर्ग - मन करे छे.
सर्व प्रकारना आरंभ अने परिग्रहथी जेओ रहित थयाछे, द्रव्यथी, क्षेत्रथी, काळथी अने भावधी जेओ अप्रतिबंधपणे विचरे छे, शत्रु-मित्र प्रत्ये जे समान दृष्टिवाळा छे भने शुद्ध आत्मध्यानमां जेमनो काळ निर्गमन थायछे, अथवा स्वाध्याय ध्यानमां जे लीन छे, एवा जितद्रिय अने जितकषाय ते निर्ग्रथो परम सुखी छे.
सर्व घनघाती कर्मनो क्षय जेमणे कर्यो छ, चार कर्म पातळां जेनां पड्यां छे, जे मुक्त छे, जे अनंतज्ञानी अने अनंतदर्शी छे ते तो संपूर्ण मुखीज छे. मोक्षमां तेओ अनंत जीवननां अनंत सुखमां सर्व कर्मविरक्तताथी विराजे छे.
आम सत्पुरुषोए कहेलो मत मने मान्य छे. पहेलो तो मने त्याज्य छे. वीजो हमणां मान्य छे ; अने घणे भागे ए ग्रहण करवानो मारो बोध छे. त्रीजो वहु मान्य छे. अने चोथो तो सर्वमान्य अने सच्चिदानंद स्वरुप छे.
एम- पंडितजी आपनी अने मारी सुखसंबंधी वातचित थइ. प्रसंगोपात ते वात चर्चता जइभुं. तेपर विचार करीभुं. आ विचारो आपने कह्याथी मने बहु आनंद थयो छे. आप तेवा विचारने अनुकूल थमा एथी वळी आनंदमां वृद्धि
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अमूल्य तत्त्वविचार.
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धड़ छे. एम परस्पर वातचित करतां करतां हर्पभेर पछी ते समाधिभावी शयन करी गया.
जे विवेकीओ आ मुखसंबंधी विचार करगे तेओ वह तत्त्व अनं आत्मश्रेणिनी उत्कृष्टताने पामगे. एमां कहेला अल्पारंभी, निरारंभी अने सर्वमुक्त लक्षणो लक्षपूर्वक मनन करवा जेवां छे. जेम बने तम अल्पारंभी थइ सम्भावथी जनसमुदायना हित भणी वळवं, परोपकार, दया, शांति, क्षमा अने पवित्रतानुं सेवन कर ए बहु सुखदायक छे. निद्र्धताविपे तो विशेष कद्देवानुं नथी. मुक्तात्मा अनंत मृखमयज छे.
शिक्षापाठ ६७. अमूल्य तत्त्वविचारहरिगीत छंद.
बहु पुण्यकेरा पुंजी शुभ देह मानवनो मळ्यो; तोये अरे ! भवचक्रनो आंटो नहिं एक्के टळ्यो; सुख प्राप्त करतां सुख टकेछे लेश ए लक्षे लहो ; क्षण क्षण भयंकर भावमरणे कां अहो राची रहो १ लक्ष्मी ने अधिकार वधतां, शुं वध्युं ते तो कहो ? शुं कुटुंब के परिवारथी वधवापणुं, ए नय गृहो. वधवापणुं संसारनुं नर देहने हारी जवो, एनो विचार नहीं अहोहो । एकपळ तमने हवो ||| २
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१३० श्रीमद् राजचंद्र प्रणीत मोक्षमाळा.
निर्दोष सुख निर्दोष आनंद, ल्यो गमे त्यांथी भले ; ए दिव्यशक्तिमान् जेथी जंजिरेथी नीकले ! ! परवस्तुमां नहिं मुंझवो, एनी दया मुजने रही ; ए त्यागवा सिद्धांत के पश्चात् दुःख ते सुख नहीं.
३
हुं कोण छु ? क्यांथी थयो ? शुं स्वरुप छे मारुं खरूं 2 कोना संबंधे वळगणा छे ? राखुं के ए परिहरु ? एना विचार विवेक पूर्वक शांत भावे जो कर्या ; तो सर्व आत्मिकज्ञाननां सिद्धांततत्व अनुभव्यां. ते प्राप्त करवा वचन कोनुं सत्य केवळ मानवुं ? निर्दोष नरतुं कथन मानो तेह जेणे अनुभव्यं. रे ! आत्म तारो ! आत्म तारो ! शीघ्र एने ओळखो; सर्वात्ममां समद्रष्टि द्यो आ वचनने हृदये लखो.
शिक्षापाठ ६८. जितेंद्रियता.
ज्यांसुधी जीभ स्वादिष्ट भोजन चाहेछे, ज्यांसुधी नासिका सुगंध चाहेछे, ज्यांसुधी कान वारांगना आदिनां गायन अने वार्जित्र चाहेछे, ज्यांसुधी आंख वनोपवन जोवानुं लक्ष राखेछे, ज्यांसुधी त्वचा सुगंधीलेपन चाहेछे, त्यांसुधी ते मनुष्य निरागी, निर्ग्रथ, निःपरिग्रही, निरारंभी अने ब्रह्मचारी थइ शकतो नथी. मनने वश करवुं ए सर्वो
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जितेंद्रियता.
१३१ तम छे. एना वडे सघळी इंद्रियो वश करी शकाय छे. मन जीतनुं बहु दुर्घट छे. एक समयमां असंख्याता योजन चालनार अश्व ते मन छे. एने थकावकुं बहु दुल्लभ छे. एनी गति चपळ अने न झाली शकाय तेवी छे. महा ज्ञानीओए ज्ञानरुपी लगामवडे करीने एने स्थंभित राखी सर्व जय कर्यो छे.
उत्तराध्ययन सूत्रमां नमिराज महर्षिए शक्रेंद्रमत्ये एम क के दश लाख सुभटने जीतनार कइक पड्या छे; परंतु स्वात्माने जीतनारा बहु दुल्लभ छे ; अने ते दश लाख मुभटने जीननार करतां अत्युत्तम छे.
मनज सर्वोपाधिनी जन्मदाता भूमिका छे. मनज बंध अने मोक्षनुं कारण छे. मनज सर्व संसारनी मोहिनी रुपछे. पवन थतां आत्मस्वरुपने पामनुं लेश मात्र दुल्लभ नथी.
मनवडे इंद्रियोनी लोलुपता छे. भोजन, वार्जित्र, सुगंधी, स्त्रीनुं निरीक्षण, सुंदर विलेपन ए सघळु मनज मागे छे. ए मोहिनी आडे ते धर्मने संभारवा पण देतुं नथी. संभार्या पछी सावधान थवा देतुं नधी. सावधान थया पछी पतिर्तता करवामां प्रवृत्त थाय छे. एमां नथी फावतुं त्यारे सावधानीयां कं न्यूनता पहचाडे छे. जेओ ए न्यूनता पण न पामतां अडग रहीने ते मनने जीते छे तेओ सर्वथा भिद्धिने पामे छे.
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१३२ श्रीमद् राजचंद्र प्रणीन मोजमाना.
मन कोड्यीज अकसान जीती शहाय छ, नहीं नो गृहस्थाश्रमे अभ्यास करीने जीनाय छे; ए अभ्यास निम्रयतामां वह यह के के छतां सामान्य परिचय करवा मांगीए तो नेनो मुख्य मार्ग आ छे के ते जे दुरिच्छा करे तेने भूली जवी; तेम कर नहीं. ने ब्यारे नद्रस्मोडि विलास इच्छे, त्यारे आपवा नहीं. हुंकामां आपणे एयी दोरा नहीं पण आपणे एन द्वारः मानमार्ग चिंतच्यामां रोक. जिनेंद्रियता विना सर्व प्रकारनी उपाधि उभीन रही के त्यागे न त्याच्या जेवा थाय छे, लोक लजाए नेन सेवबो पडे छ. माटे अभ्यासे करीने पण मनन स्वाधीनतामां लई अवन्य आत्महित कर
शिक्षापाठ ६९. ब्रह्मचर्यनी नववाड. - ज्ञानीओए थोडा सद्रोमां केवा भेद अने के स्वरूप बनावेल छ? ए बडे केली व्धी वात्मान्नति याय छे ! ब्रह्मचर्य जेवा गमिर विषयर्नु स्वत्प संक्षेपमा अति चमकारिक रीते आधुं छे. ब्रह्मचर्यत्पी एक मुंदर झाड अने तेने रक्षा करनारी जे नव विधियों नेने वाहनुं त्प आपी आचार पाम्बामां विप स्मृति रही सके एवी सरलता करी छे. ए नव वा जेम नेम अहीं कही जहर.
१ वसति-जनचारी माधुए नी, पशु के पडंग एयी संयुक्त बमतिमांरवुनहीं. बी वे प्रकारनी छे-मनुष्यिणी
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ब्रह्मपर्यनी नववाड १३३ अने देवांगना. ए प्रत्येकना पाछा वे वे भेद छे. एकतो मूळ अने वीनी स्त्रीनी मूर्ति के चित्र. एमाथी गमे ते प्रकारनी स्त्री ज्यां होय त्यां ब्रह्मचारी साधुए न रहे, केमके ए विकारहेतु छे. पशु एटले तिर्यचिणी. गाय भैस इत्यादिक जे स्थळे होय ते स्थळे न रहेवू. अने पडंग एटले नपुंसक एनो वास होय त्यां पण न रहे. एवा प्रकारनो वास ब्रह्मचर्यनी हानि करे छे. तेओना कामचेष्टा हाव भाव इत्यादिक विकारो मनने भ्रष्ट करे छे..
२ कथा-मात्र एकली स्त्रियोनेज के एकज स्त्रीने धर्मोपदेश ब्रह्मचारीए न करवो. कथा ए मोहनी उत्पत्ति रुप छे. ब्रह्मचारीए स्वीना रुप कामविलास संबंधी ग्रंथो वांचवा नहीं, तेमज जेथी चित्त चळे एवा प्रकारनी गमे ते शृंगार संबंधी कथा ब्रह्मचारीए करवी नहीं.
३ आसन-स्त्रियोनी साथे एक आसने न वेस, तेमज ज्या स्त्री वेठी होय त्यांचे घडी मधीमां ब्रह्मचारीए न वेसवं. ए स्त्रियोनी स्मृतिन कारण छे, एथी विकारनी उत्पत्ति थाय छे. एम भगवाने कयुं छे.
४ इंद्रियनिरीक्षण-स्त्रीओनां अंगोपांग ब्रह्मचारी साधुए न जोवां न निरखवां. एनां अमुक अंगपर द्रष्टि एकाग्र थवाथी विकारनी उत्पत्ति थाय छे.
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१३४ श्रीमद् राजचंद्र प्रणीत मोक्षमाळा.
५ कुड्यांतर-भीत, कनात के त्राटानो अंतरपट राखी स्त्री-पुरुष ज्यां मैथुन सेवे त्यां ब्रह्मचारीएरहेवू नहीं, कारण शब्द, चेष्टादिक विकारनां कारण छे.
६ पूर्वक्रिडा-पोते गृहस्थावासमां गमे तेवी जातना शंगारथी विषयक्रिडा करी होय तेनी स्मृति करवी नहीं: तेम करवाथी ब्रह्मचर्य भंग थाय छे.
७ प्रणीत-दूध, दही, घृतादिमधुरा अने चीकागवाला पदार्थोनो बहुधा आहार न करवो. एपी वीर्यनी वृद्धि अने उन्माद थायछे अने तेथी कामनी उत्पति थाय छे. माटे ब्रह्मचारीए तेम करवू नहीं.
८ अतिमात्राहार-पेट भरीने अतिमात्राहार करवो नहीं तेम अति मात्रानी उत्पत्ति थाय तेम कर नहीं. एयी पण विकार वधे छे.
९ विभूषण-स्नान, विलेपन करवां नहीं, तेमज पुप्पादिक ब्रह्मचारीए ग्रहण कर नहीं, एथी ब्रह्मचर्यने हानि उत्पन्न यायछे.
एम विशुद्ध ब्रह्मचर्यने माटे भगवते नववाड कहीछे, बहुधा ए तमारा सांभळवामां आवी हो; परंतु गृहस्थावासमां अमुक अमुक दिवस ब्रह्मचर्य धारण करवामां अभ्यासीओने लक्षमा रहेवा अहीं आगळ कंइक समजणपूर्वक कही छे.
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सनत्कुमार भाग १. १३५ शिक्षापाठ ७०. सनत्कुमार भाग १.
चक्रवर्तीना वैभवमां शी खामी होय? सनत्कुमार ए चक्रवती हता. तेनां वर्ण अने रुप अत्युत्तम हतां. एक वेळा सुधर्मसभामां ते रुपनी स्तुति थइ कोइ वे देवाने ते वात रुची नहीं; पछी तेओ ते शंका टाळवाने विप्ररुप सनतकुमारनां अंतःपुरमां गया. सनत्कुमारनो देह ते वेळा खेळधी भर्यो हतो. तने अंग मर्दनादिक पदार्थोर्नु मात्र विलेपन इतुं. तेणे एक नानुं पंचीयुं पहेर्यु हतुं. अने ते म्नान मजन करवा माटे वेठा हता. विप्ररुपे आवेला देवता तेनुं मनोहर मुख, कंचनवर्णी काया, अने चंद्र जेवी कांति जोइने बहु आनंद पाम्या, अने माथु धुणाव्यु: आ जोईने चक्रवत्तीए पूछयु, तमे माथुगा माटे धुणाव्यु ? देवोए कह्यु अमे तमारं रूप अने वर्ण निरखवा माटे बहु अभिलाषी हता. स्थळे स्थळे तमारा वर्ण रुपनी स्तुति सांभळी इती आने अमे ते प्रत्यक्ष जोयुं, जेथी अमने पूर्ण आनंद उपज्यो. माधुं धुणान्यु एनुं कारण एके जे लोकोमा कहेवाय छे तेवून रुप छे, एथी विशेप छे पण ओछु नथी. सनत्कुमार स्वरूपवर्णनी स्तुतिथी प्रभुत्व लावी वोल्यो, तमे आ वेळा मारूं रुप जोयुं ते भले, परंतु हुं राजसभामा वस्त्रालंकार धारण करी, केवळ सज्ज थइने ज्यारे सिंहासनपर वेमुं छउँ सारे, मारु रुप अने मारो वर्ण जोवा योग्य छे. अत्यारे तो हूं खेळभरी कायाए वेठो छउं जो
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१६ श्रीमद् राजचंद्र प्रणीत मोक्षमाळा. ते वेळा तमे मारा रुप वर्ण जुआ तो अद्भुत चमत्कारने पामो अने चकित थइ जाओ. देवोए का, त्यारे पछी अमे राजसभामां आवीशु; एम कहीने त्यांची चाल्या गया. सनत्कुमारे त्सार पछी उत्तम वस्त्रालंकारो धारण कर्यो. अनेक उपचारधी जेम पोतानी काया विशेप आश्चर्यता उपजावे तेम करीने ते राजसभामां आवी सिंहासनपर वेठो. आजुबाजु समर्थ मंत्रियो, मुभटो, विद्वानो अन अन्य सभासदो योग्य आसने वेसी गया इता. राजेश्वर चामर छत्रयी विंझाता अने खमा खमाथी वधावतां विशेष शोभी रह्या छ, त्यो पेला देवताओ पाछा विमपे आव्या. अद्भुत रुपवर्णयी आनंद पामवाने बदले जाणे खेद पाम्या छे एवा स्वरुपमा तेओए माथु धुणाच्यु. चक्रवत्तए पूछयु, अहो ब्राह्मणो ! गइ वेळा करतां आ वेळा तमे जुदा रुपमा माथु धुणाव्यु एनुं शुं कारण छे, ते मने कहो. अवधिज्ञानानुसार विमे कधू के , महाराजा! ते रुपमा अने आ रुपमा भूमि आकागनो फेर पडी गयो छे. चक्रवचीए ते स्पष्ट समजाववाने का ब्राह्मणोए कयुं, अधिराज! तमारी काया प्रथम अमृततुल्य हनी; आ वेळा झेर तुल्य छे. ज्यारे अमृततुल्य अंग हतुं सारे आनंद पाम्या, अने आ वेळा झेर तुल्य छे त्यारे खेद पाम्या. अमे कहीए छीए ते वातनी सिद्धता करवी होय तो तमे तांबुल धुंको, तत्काळ ते पर मांखी वेसशे अने ते परलोक पहोंची जशे.
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सनत्कुमार भाग २. शिक्षापाठ ७१. सनत्कुमार भाग २.
सनतकुमारे ए परीक्षा करी तो सत्य ठरी. पूर्वित कर्मनां प्रापनो जे भाग तेमां आ कायाना मद संबंधीजें मेळवण यवायी ए चक्रवर्तीनी काया मेरमय यइ गइ हती. विनाशी अने अशुचिमय कायानो आवो प्रपंच जोइने सनत्कुमारने अंत:करणमां वैराग्य उत्पन्न थयो. आ संसार केवळ तनवा योग्य छे. आवीने आवी अशुचि स्त्री, पुत्र, मित्रादिकना शरीरमा रही छे. ए सघलु मोह मान करवा योग्य नयी, एम विचारीने ते छ खंडनी प्रभुता त्यागी चाली नीकळ्या. साधुरुपे ज्यारे विचरता हता त्यारे तेओने महारोग उत्पन्न थयो. तेनां सत्यसनी परीक्षा लेवाने कोइ देव त्यां वैदरुपे आन्यो. साधुने का, हुं बहु कुशल राजवैद छ. तमारी काया रोगनो भोग थयेली छे. जो इच्छा होय तो तत्काल हुँ ते रोगने टाळी आ. साधु बोल्या, हे वैद्य ! कर्मरुपी रोग महोन्मत्त छे ए रोग टाळवानी तमारी जो समर्थता होय तो भले मारोए रोग टाळो, ए समर्थता न होयतो आ रोग भले रखो. देवता वोल्यो, ए रोग टाळवानी समर्थता नथी. साधुए पोतानी लन्धिनां परिपूर्ण प्रबळवडे युंकवाली अंगुलि करी ते रोगने खरटी के तत्काळ ते रोगनो नाश थयो; अने काया पाछी हती तेवी बनी गइ. पछी ते वेळा देवे पोतानुं स्वरुप प्रकाश्यु; धन्यवाद गाइ वंदन करी ते पोताने स्थानक गयो.
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१३८ श्रीमद् राजचंद्र प्रणीत मोक्षमाला.
रक्तपीस जेवा, सदैव लोही परुथी गद्गद्ता, महारोगनी उत्पत्तिजे कायामा छे, पळमां वणसी जवानी जेनो स्वभाव छे, जे प्रत्येक रोमे पोणा पन्चे रोगवाली होइ रोगनो भंडार छे, अन्न वगेरेनी न्यूनाधिकताथी जे प्रत्येक कायामां देखाव देछे, मळमूत्र, नर्क, हाड, मांस, परु अने श्लेष्मथी जेनुं बंधारण टक्यु छ, त्वचाथी मात्र नेनी मनोहरता छे ते कायानो मोह खरे विभ्रमज छे. सनतकुमारे जेनुं लेशमात्र मान कर्यु ते पण जेथी संखायुं नहीं ते कायामां अहो पामर! तुं शुं मोहे छे ? ए मोह मंगळदायक नथी.
- शिक्षापाठ ७२. बत्रिश योग.
सत्पुरुषो नीचेना वत्रिश योगनो संग्रह करी आत्माने उज्जवल करवानुं कहेछे.
१. मोक्षसाधकयोग माटे शिष्ये आचार्य प्रत्ये आलोचना करवी.
२. आलोचना वीजा पासे प्रकाशवी नहीं. ३. आपत्तिकाले पण धर्मनुं द्रढपणुं त्याग नहीं.
४. आ लोक, परलोकनांमुखना फलनी बांछनाविना तप कर
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धत्रिश योग ५. शिक्षा मळी ते प्रमाणे यतनाथी वर्स; अने नवी शिक्षा विवेकयी गृहण करवी.
६. ममत्वनो त्याग करवो. ७. गुप्त तप करवं. ८. निर्लोभता राखवी. ९. परिषद उपसर्गने जीतवा. १०. सरळ चित्त राखवू. ११. आत्मसंयम शुद्ध पाळवो. १२. समकित शुद्ध राख. १३. चिचनी एकान समाधि राखवी. १४, कपटरहित आचार पालवो.
१५. विनय करवा योग्य पुरुषोनो यथायोग्य विनय करवो.
१६. संतोपथी करीने तृप्णानी मर्यादा टुंकी करी नांखवी.
१७. वैराग्यभावनामां निमग्न रहे. १८. मायारहित वर्तवू. १९. शुद्ध करणीमां सावधान थ. २०. सम्बरमे आदरवो अने पापने रोकवा. २१. पोताना दोप सम्भावपूर्वक टाळवा.
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१४० श्रीमद राजचंद्र मणीत मोक्षमाळा. २२. सर्व प्रकारना विषयथी विरक्त रहेंवं. २३. मूळ गुणे पंचमहावृत्त विशुद्ध पाळवां. २४. उत्तर गुणे पंचमहावृत विशुद्ध पाळवां. २१. उत्साहपूर्वक कार्योत्सर्ग करवो. २६. प्रमादरहित ज्ञान ध्यानमां प्रवर्त्तन करवुं. २७. हमेशां आत्मंचारित्रमां सूक्ष्म उपयोगथी वर्त्ततुं. २८. ध्यान, जितेंद्रियता अर्ये एकाग्रतापूर्वक कर. २९. मरणांत दुःखी पण भय पामवो नहीं. ३०. स्त्रियादिकनां संगने त्यागवो.
३१. मायश्चित विशुद्धि करवी.
३२. मरणकाले आराधना करवी.
ए एकेका योग अमूल्य छे. सघळा संग्रह करनार परिणामें अनंत सुखने पामे छे.
शिक्षापाठ ७३. मोक्ष सुख.
आ जगत् मंडळपर केटलीक एवी वस्तुओ अने मनेच्छा रही छे के जे केटलाक अंशे जाणता छतां कही शकाती नथी. छतां ए वस्तुओं कंह संपूर्ण शाश्वत के अनंत भेदवाळी नयी, एवी वस्तुनुं ज्यारे वर्णन न थइ शके
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मोक्ष मुख.
१४१ त्यारें अनंत मुखमय मोक्ष सबंधी तो उपमा क्याथीज मळे? भगवानने गौतमस्वागीए मोक्षना अनंत मुखविपे प्रश्न कर्यु त्यारे भगवाने उत्तरमां की, गौतम! ए अनंतमुख हुंजा' छउं; पण ते कही शकाय एवी अही आगळ कंइ उपमा नथी. जगत्मां ए सुखना तुल्य कोइपण वस्तु के सुख नथी, एम वदी एक भीलनुं द्रष्टांत नीचेना भावमां आप्यु हतुं.
एक जंगलमा एक भद्रिक भील तेनां वाळवचा सहीत रहेतो हतो. गहेर वगेरेनी समृद्धिनी उपाधिनुं तेने लेश भान पण नहोतुं. एक दिवस कोई राजा अश्वक्रीडा माहे फरतो फरतो त्यां नीकली आग्यो; तेने बहु तपा लागी हती; जेथी करीने सानवहे भील आगळ पाणी माग्यु. भीले पाणी आप्यु. शीतल जलथी राजा संतोपायो. पोताने भीक तरफयी मळेला अमूल्य जनदाननो मत्युपकार करवा माटे भीलने समजावीने साथे लीधों. नगरमां आव्या पछी तेणे मीलने तेनी जींदगीमां नहीं जोयेली वस्तुमा राख्यो. सुंदर महेलमां, कने अनेक अनुचरो, मनोहर छत्रपलंग, अने स्वादिष्ट भोजनयी मंदमंद पवनमां, सुगंधी विलेपनमां तेने आनंद आनंद करी आप्यो. विविधं जातिनां हीरामाणेक, मौक्तिक, मणिरत अने रंग वेरंगी अंमूल्य चीजो निरंतर ते भीलने जोवा माटे मोकल्यां करे; वागवगीचामा फरवा हरंवा मोकले. एम राजा तेने मुख आप्यां करतो हतो. कोइ रात्र वर्धा मुह रयां हता, त्यारे ते भीलने वाळवचा
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१४२ श्रीमद राजचंद्र प्रणीत मोक्षमाळा.
सांभरी आव्यां एटले ते त्यांथी कंइ लीधां कर्यावगर एकाएक नीकळी पड्यो. जइने पोतानां कुटुंबीने मळ्यो. ते बधांये मळीने पूछयुं के तुं क्यों हतो ? भीले कहुं, वहु सुखमां त्यां में बहु वखाणवा लायक वस्तुओं जोइ.
कुटुंबीओ - पण ते केवी १ ते तो अमने कहे. भील - शुं कहुं, अहीं एवी एक्के वस्तुज नथी. कुटुंबीओ - एम होय के ? आ शंखलां, छीप, कोडां केवां मजानां पड्यां छे; त्यां कोइ एवी जोवा लायक वस्तु हती ?
भील - नहीं, भाइ, एवी चीज तो अहीं एक्के नथी. एना सोमा भागनी के हजारमा भागनी पण मनोहर चीज अहीं नथी.
कुटुंबीओ - त्यारे तो तुं बोल्या विना वेठो रहे, तने भ्रमणा थइ छे; आधी ते पछी सारूं शुं हशै ?
हे गौतम! जेम ए भील राजवैभवमुख भोगवी आव्यो हतो; तेमज जाणतो हतो; छतां उपमा योग्य वस्तु नहीं मळवाथी ते कंइ कही शकतो नहोतो, तेम अनुपमेय मोक्षने, सच्चिदानंद स्वरुपमय निर्विकारी मोक्षनां सुखना असंख्यातमा भागने पण योग्य उपमेय नहीं मळवाथी हुं तने कही शकतो नथी.
मोक्षनां स्वरुप विषे शंका करनारा तो कुतर्कवादी छे; एओने क्षणिक सुखसंबंधी विचार आडे सत्सुखनो
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धर्मध्यान भाग १. १४३ विचार क्याथी आवे ? कोइ आत्मिकज्ञानहीन एम पण कहेछे के आथी कोइ विशेप मुखनु साधन त्यां रघु नहि एटले अनंत अव्यावाध सुख कही देछे, आ एजें कथन विवेकी नथी. निद्रा प्रत्येक मानवीने प्रिय छे; पण तेमा तेओ कइ जाणी के देखी शकता नथी; अने जाणवामां आवे तो मात्र स्वमोपाधिनुं मिथ्यापणुं आवे; जेनी कंड असर पण थाय ए स्वमा वगरनी निद्रा जेमा सूक्ष्मस्थूळ सर्व नाणी अने देखी शकाय; अने निरुपाधियी शांत उंघ लइ शकाय तो तेनुं ते वर्णन | करी शके १ एने उपमा पण शी आपे ? आ तो स्थूल द्रष्टांत छे; पण वालविवेकी ए परथी कंइ विधारकरी शके ए माटे कयुं छे, - भीलनुं द्रष्टांत, समजाववा रुपे भाषाभेद फेरफारथी तमने कही वताव्यु.
शिक्षापाठ ७४. धर्मध्यान भाग १.
। भगवाने चार प्रकारनां ध्यान कह्यां छे. आर्त, रौद्र, धम अने शुक्ल. पहेलावे ध्यान त्यागवा योग्यछे. पाछळनां वे ध्यान आत्मसार्यकरुप छे. श्रुतज्ञानना भेद जाणवा माटे, शास्त्र विचारमा कुशल थवा माटे, निग्रंथप्रवचननुं तत्व पामवा माटे, सत्पुरुपोए सेवा योग्य, विचारवा योग्य अने ग्रहण करवा योग्य धर्मध्यानना मुख्य सोळ भेद छे.
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१४४ श्रीमद् राजचंद्र प्रणीत मोक्षमाळा.
पहेली चार भेद कहुं छडं. १ आणाविजय (आज्ञाविचय.) २ आवायविजय (अपायविचय.) ३ विवागविजय (विपाकविचय.) ४ संठाणविजय ( संस्थानविचय.) १ आज्ञाविचय - आज्ञा एटले सर्वज्ञ भगवाने धर्मतत्त्व संबंधी जे जे क छे ते ते सत्य छे; एमां शंका करवा जेवुं नथी; काळनी हीनताथी, उत्तम ज्ञानना विच्छेद जवाथी, बुद्धिनी मंदताथी के एवा अन्य कोइ कारणथी मारा समजवामां ते तव आवतुं नथी. परंतु अर्हत भगवंते अंश मात्र पण माया युक्त के असत्य कां नथीज, कारण एओ निरागी, त्यागी, अने निस्पृही हता. मृषा कहेवानुं कंइ कारण एमने हतुं नहीं. तेम एओ सर्वदर्शी होवाथी अज्ञानथी पण मृषा कहे नहीं, ज्यां अज्ञानज नथी, त्यां ए संबंधी मृषा क्यांथी होय ? एवं जे चिंतन करवुं ते 'आज्ञाविचय' नामनो प्रथम भेद छे, २ अपायविचय-राग, द्वेष, काम, क्रोध ए वगेरेथीज जीवने जे दुःख उत्पन्न थाय छे तेथीज तेने भवमां भटकवुं पडे छे. तेनुं जे चितवन करतुं ते 'अपायविचय' नामे बीजो भेद छे. अपाय एटले दुःख. ३ विपाकविचय- हुं क्षणे क्षणे जे जे दुःख सहन करूं छउँ, भवाठविमां पर्यटन करूं छउँ, अज्ञानादिक पायुं छं, ते सघळु कर्मनां फळना उदय बडे छे, एम. चितवनुं ते धर्म ध्याननो श्री जो, कर्मविपाक चिंतन भेद छे. ४ संस्थानविचय-णलोकतुं स्वरुप चिंतवनुं ते. लोकस्वरुप सुप्रतिष्टितने आकारे छे; जीव अजीवे करीने संपूर्ण भरपुर छे. असंख्यात
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धर्मध्यान भाग १.
१४५ योजननी कोटानुकोटीए त्रिच्छो लोक छे; ज्यां असंख्याता द्वीप - समुद्र छे, असंख्याता ज्योतिषिय, वाणन्यंतरादिकना निवास छे. उत्पाद, व्यय अने ध्रुवतानी विचित्रता एमा लागी पडी छे, अढीद्वीपमां जघन्य तीर्थकर २०, उत्कृष्टा एकसो सितेर होय. तेओ तथा केवळी भगवान अने निर्मेय मुनिराज विचरे छे, तेओने “वंदामि, नम॑सामि, सक्कारेमि, समाणेमि, कल्लाणं, मंगळं, देवयं, चेइयं, पज्जुवासामि " एम तेमज त्यां वसतां श्रावक, श्राविकानां गुणग्राम करीए. ते त्रिछालोकथकी असंख्यात गुणो अधिक उर्द्ध लोक छे. त्यां अनेक प्रकारना देवताओना निवास छे. पछी इपत् प्राग्भारा छे. ते पछी मुक्तात्माओ विराजे छे. तेने “वंदामि, यावत् पज्जुवासामि" ते उर्द्ध लोकथी कंइक विशेष अधो लोक छे, त्यां अनंत दुःखथी भरेला नर्कावास अने भुवन पतिनां भुवनादिक छे. ए त्रण लोकat सर्व स्थानक आ आत्माएं सम्यकत्व रहितकरणीथी अनंतिवार जन्ममरण करी स्पर्शी मूक्यां छे, एम जे चिंतन करचं ते संस्थान विचय नामे धर्म ध्याननो चोथो भेद छे. ए चार भेद विचारीने सम्यक्त्व सहित श्रुत अने चारित्र धर्मनी आराधना करवी. जेथी ए अनंत जन्म मरण टळे. ए धर्मध्यानना चार भेद स्मरणमा राखवा.
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१४६ श्रीमद् राजचंद्र प्रणीत मोक्षमाळा. शिक्षापाठ ७५. धर्मध्यान भाग २.
धर्मध्याननां चार लक्षण कहुं छउं . आज्ञारुचि - एटले वीतराग भगवाननी आज्ञा अंगीकार करवानी रुचि उपजे ते २ निसर्ग रुचि - आत्मा स्वाभाविकपणे जातिस्मरणादिक ज्ञाने करी श्रुत सहित चारित्र धर्म घरवानी रुचि पामे तेने निसर्ग रुचि कही छे. ३ मूत्र रुचि - श्रुतज्ञान, अने अनंत तत्त्वना भेदने माटे भाखेलां भगवानना पवित्र वचनोनुं जेमां गुंथन थयुं छे, ते सूत्र श्रवण करवा, मनन करवा, अने भावथी पठन करवानी रुचि उपजे ते मूत्ररुचि. ४ उपदेशरुचि - अज्ञाने करीने उपार्जेलां कर्म ज्ञाने करीने खपावीए, तेमज ज्ञानवडे करीने नवां कर्म न वांधीए. मिथ्यात्वे करीने उपाय कर्म ते सम्यग्भावधी खपावीए, सम्यग्भावथी नवां कर्म न बांधीए, अवैराग्य करीने उपायी कर्म ते वैराग्ये करीने खपावीए अने वैराग्यवडे करीने पाछां नवां कर्म न वांधीए, कषाये करी उपाय कर्म ते कषाय टाळीने खपावीए, क्षमादियी नवां कर्म न वांवीए. अशुभ योगे करी उपाय कर्म ते शुभ योगे करी खपावीए, शुभ योगेकरी नवां कर्म न वांधीए पांच इंद्रियना स्वादरुप आश्रवे करी उपाय कर्म ते संवरे करी खपाबीए. तपरुप (इच्छा रोध) संवरे करी नवां कर्म न वांधीए. ते माटे अज्ञानादिक आश्रवमार्ग छांडीने ज्ञानादिक संवर मार्ग ग्रहण करवा माटे तीर्थकर भगवंतनो उपदेश सांभळ
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धर्मध्यान भाग २० १४७ वानी रुचि उपजे तेने उपदेशरुचि कहीए. ए धर्मध्याननां चार लक्षण कहेवायां
धर्मध्याननां चार आलंबन कई छउं. १ वाचना २ पृच्छना ३ परावर्तना ४ धर्मकथा. १ वांचना-एटले विनय सहित निर्जरा तथा ज्ञान पामवाने माटे सूत्र सिद्धातना मर्मना जाणनार गुरु के सत्पुरुप समीपे सूत्र तत्वनुं वांचन लइए तेनुं नाम वांचनाआलंबन. २ पृच्छना. अपूर्व ज्ञान पामवा माटे, जिनेश्वर भगवंतनो मार्ग दीपाववाने तया शंकागल्य निवारवाने माटे तेमन अन्यना तत्त्वनी मध्यस्य परीक्षाने माटे यथायोग्य विनय सहित गुर्वादिकने प्रश्न पूछीए तेने पृच्छना कहीए. ३ परावर्तना-पूर्व जिनभापित मूत्रार्थ ने भण्या होइए ते स्मरणमा रहेवा माटे, निर्जराने अर्ये शुद्ध उपयोग सहित शुद्ध सूत्रार्थनी वारंवार सम्झाय करीए तेनुं नाम परावर्तनालंबन. ४ धर्मकथा-वीतराग भगवाने जे भाव जेवा प्रणीत कर्या छे ते भाव तेवा लइने, ग्रहीने, विशेपे करीने, निश्चय करीने, शंका, कंखा अने वितिगिछारहितपणे, पोतानी निर्जराने अर्थे सभामध्ये ते भाव तेवा प्रणीत करीए के जेथी सांभळनार, सहनार बने भगवंतनी आज्ञाना आराधक थाय, ए धर्मकथालंबन कहीए, ए धर्मध्यानमा चार आलंवन कहेवायां धर्मध्याननी चार अनुमेक्षा कई छउं. १ एकत्वानुप्रेक्षा. २ अनित्यानुप्रेक्षा. ३ अशरणानुप्रेक्षा. ४ संसारानुमेक्षा. ए चारेनो
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१४८ श्रीमद् राजचंद्र प्रणीत मोक्षमाला. बोध वार भावनाना पाठमां कहेवाइ गयो छे. ते तमने स्मरणमा हशे.
शिक्षापाठ ७६. धर्मध्यान भाग ३.
धर्मध्यान पूर्वाचार्योए अने आधुनिक मुनीश्वरोए पण विस्तारपूर्वक बहु समजाव्यु छे. ए ध्यानवडे करीने आत्मा मुनित्वभावमां निरंतर प्रवेश करे छे.
जे जे नियमो एटले भेद, लक्षण, आलंबन अने अनुप्रेक्षा कहा ते बहु मनन करवा जेवा छे. अन्य मुनीश्वरोना कहेवा प्रमाणे में सामान्य भाषामां ते तमने कह्या; ए साथे निरंतर लक्ष राखवानी आवश्यकता छ के एमांधी आपणे कयो भेद पाम्या; अथवा कया भेदभणी भावना राखी छ ? ए सोळ भेदमांनोगमे ते भेद हितकारी अने उपयोगी छे; परंतु जेवा अनुक्रमथी लेवो जोइए ते अनुक्रमथी लेवायतो ते विशेष आत्मलाभनुं कारण थइ पडे. ' सूत्रसिद्धांतनां अध्ययनो केटलाक मुखपाठे करे छे तेना अर्थ, तेमां कहेलां मूळतत्वो भणी जो तेओ लक्ष पहाँचाडे तो कंइक सूक्ष्मभेद पामी शके. केळनां पत्रमां, पत्रमा पत्रनी जेम चमत्कृति छ तेम सूत्रार्थने माटे छे. ए उपर विचार करतां निर्मळ अने केवळ दयामय मार्गनोजे वीतरागमणीत तत्त्वबोध तेनुं वीज अंत:करणमां उगी
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धर्मध्यान भाग ३. १४९ नीकळशे. ते अनेक प्रकारनां शास्त्रावलोकनथी, प्रश्नोत्तरथी, विचारथी अने सत्पुरुषना समागमथी पोषण पामीने वृद्धि थई वृक्षरुपे थशे. जे पछी निर्जरा अने आत्मप्रकाशरूप फळ आपशे.
श्रवण, मनन अने निदिध्यासनना प्रकारो वेदांतवादियोए वताव्या छे; पण जेवा आ धर्मध्यानना पृथक् पृथक सोळ भेद कह्या छे तेवा तत्त्वपूर्वक भेद कोई स्थळे नथी, ए अपूर्व छे. एमाथी शास्त्रने श्रवण करवानो, मनन करवानो, विचारवानो, अन्यने बोध करवानो, शंकाखा टाळवानो, धर्मकथा करवानो, एकत्व विचारवानो, अनित्यता विचारवानो, अशरणता विचारवानो, वैराग्य पामवानो संसारना अनंत दुःख मनन करवानो, अने वीतराग भगवंतनी आज्ञाबडे करीने आखा लोकालोकना विचार करवानो अपूर्व उत्साह मळे छे. भेदे भेदे करीने एना पाछा अनेक भाव समजाव्याछे.
एमांना केटलाक भाव समजवाथी तप, शांति, क्षमा, दया, वैराग्य अने ज्ञाननो वहु बहु उदय थशे.
तमे कदापि ए सोळ भेदन पठन करी गया हशो तो पण फरी फरी तेनुं पुनरावर्तन करजो.
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१५० श्रीमद् राजचंद्र प्रणीत मोक्षमाला. शिक्षापाठ ७७. ज्ञान संबंधी बे बोल
भाग १.
जेवडे वस्तुनु स्वरुप जाणीए ते ज्ञान. ज्ञान शद्वनो आ अर्थ छे. हवे यथामति विचारवानुं छे के ए ज्ञाननी कैइ आवश्यकता छ ? जो आवश्यकता छे तो ते प्राप्तिनां कंइ साधन छ ? जो साधन छे तो तेने अनुकुळ द्रव्य, देश, काल, भाव छ ? जो देशकाळादिक अनुकुल छे तो क्यां सुधी अनुकुळ छे? विशेष विचारमा ए ज्ञानना भेद केटला छे ? जाणवारुप छे शुं? एना वळी भेद केटला छे? जाणवानां साधन क्या क्यां छ? कयि कयि वाटे ते साधनो प्राप्त कराय छे ? ए ज्ञाननो उपयोग के परिणाम शुं छे ? ए जाणवू अवश्यतुं छे.
१. ज्ञाननी शी आवश्यकता छ ? ते विपे प्रथम विचार करीए. आ चतुर्दश रजवात्मक लोकमां, चतुर्गतिमां अनादिकाळथी सकर्मस्थितिमा आ आत्मा पर्यटन छे. मेषानुमेष पण सुखनो ज्यां भाव नथी एवां नर्कनिगोदादिक स्थानक आ आत्माए वहु बहु काळ वारंवार सेवन की छ; असह्य दुःखोने पुन:पुन अने कहो तो अनंतिवार सहन कर्यां छे. ए उतापथी निरंतर तपतो आत्मा मात्र स्वकर्म विपाकथी पर्यटन करे छे. पर्यटननुं कारण अनंत दु:खद ज्ञानावरणीयादि कर्मों छे जेवडे करीने आत्मा स्वस्वरुपने
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ज्ञान संबंधी वे बोल भाग २०
१५१ पामी शकतो नथी; अने विषयादिक मोहबंधनने स्वस्वरुप मानी रह्यो छे. ए सघळांनुं परिणाम मात्र उपर कहुं तेज छे के अनंत दुःख अनंत भात्रे करीने सहेतुं गमे तेटलुं अप्रिय, गमे तेटलुं खेददायक अने गमे तेटलं रौद्र छतां जे दुःख अनंतकाळधी अनंतिवार सहन करवुं पड्युं; ते दुःख मात्र सधुं ते अज्ञानादिक कर्मथी माटे ए अज्ञानादिक टाळवा माटे ज्ञाननी परिपूर्ण आवश्यकता छे.
शिक्षापाठ ७८. ज्ञान संबंधी बे बोल भाग २.
२. हवे ज्ञानप्राप्तिनां साधनो विषे कंइ विचार करीए. अपूर्ण पर्याप्तिवडे परिपूर्ण आत्मज्ञान साध्य थतुं नथी ए माटे धड़ने छ पर्याप्तियुक्त जे देव ते आत्मज्ञान साध्य करी के. एवो देह ते एक मानवदेह छे. आ स्थळे मश्न उठशे के मानवदेह पामेला अनेक आत्माओ छे, तो ते सघळा आत्मज्ञान को पामता नथी । एना उत्तरमां आपणे मानी शकीभुं के जेओ संपूर्ण आत्मज्ञानने पाम्या छे तेओनां पवित्र वचनामृतनी तेओने श्रुति नहीं होय. श्रुतिविना संस्कार नथी. जो संस्कार नयी तो पछी श्रद्धा क्यांथी होय ! अने ज्यां ए एक्के नथी त्यां ज्ञानप्राप्ति शानी होय ? ए माटे मानवदेहनी साथै सर्वज्ञ वचनामृतनी माप्ति अने
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१५२ श्रीमद् राजचंद्र प्रणीत मोक्षमाळा.
तेनी श्रद्धा ए पण साधनरुप छे. सर्वज्ञ वचनामृत अकर्म भूमि के केवळ अनार्यभूमिमां मळतां नथी तो पछी मानवदेह शुं उपयोगनो ? ए माटे थइने कर्मभूमि अने तेमां पण आर्यभूमि ए पण साधनरुप छे तच्वनी श्रद्धा उपजवा अने बोध थवा माटे निर्ग्रथ गुरुनी अवश्य छे. द्रव्ये करीने जे कुल मिथ्यात्वी छे, ते कुळमां थयेलो जन्म पण आत्मज्ञान प्राप्तिनी हानि रुपज छे, कारण धर्म मत भेद ए अति दुःखदायक छे. परंपराथी पूर्वजोए गृहण करेलुं जे दर्शन तेमांज
· सत्यभावना वंधाय छे; एथी करीने पण आत्मज्ञान अटके
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छे. ए माटे भलुं कुळ पण जरुरतुं छे. ए सघळां प्राप्त करवा माटे थइने भाग्यशाळी थवुं तेमां सत्पुण्य एटले पुण्यानुबंधी पुण्य इत्यादिक उत्तम साधनो छे. ए द्वितीय साधन भेद को.
३. जो साधन छे तो तेने अनुकुळ देश काळ छे १ ए वीजा भेदनो विचार करीए. भरत, महाविदेह इत्यादि कर्मभूमि अने तेमां पण आर्यभूमि ए देश भावे अनुकुल छे, जिज्ञासु भव्य ! तमे सघळा आ काळे भरतमां छो; अने भारत देश अनुकुल छे, काळभाव प्रमाणे मति अने श्रुत प्राप्त करी शकाय एटली अनुकुळता छे. कारण आ दुषम पंचमकाळमां परमावधि, मनःपर्यव अने केवळ ए पवित्र ज्ञान परंपरा आम्नाय जोतां विच्छेद छे, एटले काळनी परिपूर्ण अनुकुळता नथी.
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मान संबंधी चे बोल भाग ३. १५३ ४. देशकालादि नो बोटां पण अनुकुल हे तो ते पयां मुधी? एनो उत्तर, केप रहेल मिद्धांतिक मति मान, श्रुनान, मामान्यमनयी ज्ञान, काळ भावे गावीय रमार बसे रहवा तमाथी अटी हजार गयां, चाकीमाढा प्रदार हमार गर्ग सादा पटल पंनमानी पूर्णता मुधी कालनी अनुगमना . देगल ने लेडने अनमल छे.
शिक्षापाठ ७९. ज्ञान संबंधी वे बोल
भाग ३. होशिप गिनार करीप.
१. भारम्पकना भी ? ए मह पिचारनु आवर्नन पुनःविभपायी करीए. मुख्य अवश्य स्वस्वम्पस्थिनिनी थगिए गहवं ए. मनन दुःखनो नाम, दुःखना नाशयी भालान अंगिक सुख ए देव छ केमके मुख निरंतर आन्मान मियन में पण जे स्वस्वरूपिक मुसळे ते. देशनाळ भागने माने श्रद्धा, मान इत्यादि उत्पन्न करवानी
आवश्यकता अने सम्पग भाव सहिन उपगति, न्यांधी माहिरमा माननटेरे, जन्म, त्यां सम्यग् भावनी पुन: रमति, नगमाननी विशुद्धता भने द्धि, ठेवटे परिपूर्ण आत्ममापन मान अने तेनुं सन्य परिणाम केवळ सर्व
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१५४ श्रीमद् राजचंद्र प्रणीत मोसमाळा. दाखनो अभाव एटले अखंड, अनुपम अनंत शाश्वत पवित्र मोक्षनी प्राप्ति ए सघळां मारे जाननी आवश्यकता छ?
२. मानना भेद केटला छे एनो विचार कहुं छउं. ए ज्ञानना भेद अनंत छे. पण सामान्य दृष्टि समजी शके एटला माटे सर्वत्र भगवाने मुख्य पांच भेद कया छे, ते जेम छे तेम कहुं छई. प्रथम मति, द्वितीय श्रुत, तनीय अवधि, चतुर्य मनःपर्यव अने पांचमुं संपूर्ण स्वरुप केवळ. एना पाछा प्रतिभेद छे तेनी वळी अतींद्रिय स्वरुप अनंत भंगजाळ छे.
३. शुं जाणवारुप छे? एनो इवे विचार करीए. वस्तुनुं स्वरुप जाणवू तेनुं नाम ज्यारे ज्ञान; सारे वस्तुयो तो अनंत छे, एने कयि पंक्तियी जाणवी? सर्वन यया पछी सर्व दर्शितायी ते सत्पुरुष, ते अनंत वस्तुनुं स्वरूप सर्व भेदे करी जाणे छे अने देखे छे; परंतु तेओ ए सर्वज्ञ श्रेणिने पाम्या कयि कयि वस्तुने जाणवायी? अनंत श्रेणिओ ज्यांमुधी जाणी नयी त्यांमुधी कयि वस्तुने नाणता जाणता ते अनंत वस्तुओ अनंत रुपे जाणीए ? ए शंकानुं समाधान हवे करीए? जे अनंत वस्तुओ मानी ते अनंत भंगे करीने छे. परंतु मुख्य वस्तुत्व स्वरुपे वेनी वे श्रेणिओ छे. जीव अने अजीव. विशेप वस्तुत्व स्वरुपे नवतत्त्व किंवा पद्यनी निमो जाणवा रुप थइ पडे .जे पंक्तिए चढवां चढतां सर्व भावे जणाइ लोकालोक
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ज्ञान संबंधी वे बोल भाग ४.
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स्वरुप हस्तामलकवत् जाणी देखी शकाय छे. एटला माटे थड़ने जाणवारुप पदार्थ ते जीव अने अजीब छे एजाणवा रुप मुख्य वे श्रेणिओ कहेवाइ.
शिक्षापाठ ८०. ज्ञान संबंधी बे बोल
भाग ४.
४. एना उपभेद संक्षेपमां कहुं छडं. 'जीव' ए चैतन्य लक्षणे एक रूप छे. देहस्वरुपे अने द्रव्य स्वरुपे अनंतानंत छे. देहस्वरूपे तेना इंद्रियादिक जाणवा रुप छे; तेनी गति, विगति इत्यादिक जाणत्रा रूप छे; तेनी संसर्ग रीद्धि जाणवा रुप छे तेमज 'अजीव' तेना रुपी अरुपी पुद्गळ आकाशादिक विचित्र भाव काळचक्र इत्यादि जाणवा रुप छे. जीवाजीव जाणवानी प्रकारांतरे सर्वज्ञ सर्वदर्शीए नव श्रेणि रुप नवतत्त्व कहां छे.
जीन,
अजीव,
आश्रव,
पाप, निर्जरा, बंध,
पुण्य,
संवर,
मोक्ष.
एमांनां केवलांक प्रारूप, केटलांक जाणवारूप, केटलोक त्यागवारुप छे, सघळां ए तत्वो जाणवारुप तो छेज,
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१५६ श्रीमद् राजचंद्र प्रणीव मोक्षमाळा.
५. जाणवानां साधनसामान्य विचारमा ए साधनो जो के जाण्यां छे, तोपण विशेष कंडक विचारिये. भगनाननी आज्ञा अने तेनुं शुद्ध स्वरुप यथातथ्य जाणवू. स्वयं कोइकज जाणे छे. नहीं तो निर्ग्रथज्ञानी गुरु जणावी शके. निरागी ज्ञाता सर्वोत्तम छे. एटला माटे श्रद्धानुं वीज रोपनार के तेने पोषनार गुरु ए साधन रुप छे ए साधनादिकने माटे संसारनी निवृत्ति एटले शम, दम ब्रह्मचयोदिक अन्य साधनो छे. ए साधनो प्राप्त करवानी वाट कहींए तोपण चाले.
६. ए ज्ञाननो उपयोग के परिणामनां उत्रनो आशय उपर आवी गयो छे; पण काळभेदे कइ कहेवार्नु छे, अने ते एटटुंज के दिवसमां वेघडीनो वखत पण नियमित राखीने जिनेश्वर भगवानना कहेला तत्ववोधनी पर्यटना करो. वीतरागना एक सिद्धांतिक शवपरभी ज्ञानावरणीयनो बहु क्षयोपशम थशे एम हुँ विवेकयी कहुंछ,
शिक्षापाठ ८१. पंचमकाळ. काळचक्रना विचारो अवश्य करीने जाणवा योग्य छे. श्री जिनेश्वरे ए कालचक्रना वे मुख्य भेद कह्या छ १ उत्सर्पिणी २ अवसर्पिणी. एकेका भेदना छ छ आरा छे. “आधुनिक वर्तन करी रहेलो आरो पंचमकाळ कवाय छे।
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पंचमकाळ.
१५७ अने ते अवसर्पिणी काळनो पांचमो आरो छे, अवसर्पिणी एटले उतरतो काळ ए उतरता काळना पांचमा आरामां केतुं वर्णन आ भरतक्षेत्रे धनुं जोइए तेने माटे सत्पुरुषोए hore विचारो जणाव्या छे; ते अवश्य जाणवा जेवा छे,
एओ पंचमकाळनुं स्वरूप मुख्य आ भावमां कहे छे, निग्रंथ प्रवचनपरथी मनुष्योनी श्रद्धा क्षीण थती जशे. धर्मना मूळतच्चोमां मतमतांतर वधशे. पाखंडी अने प्रपंची मतोनुं मंडन थशे. जनसमूहनी रुचि अधर्म भणी वळशे. सत्य दया हळवे हळवे पराभव पामशे. मोहादिक दोपोनी वृद्धिथती जशे दंभी अने पापिष्ट गुरुओ पूज्यरुप थशे. दुष्टतिनां मनुष्यो पोताना फेदमां फावी जशे. मीठा पण धूर्त्तवक्ता पवित्र मनाशे. शुद्ध ब्रह्मचर्यादिक शीलयुक्त पुरुषो मलिन कहेवा. आत्मिकज्ञानना भेदो हणाता जशे हेतु वगरनी क्रिया बघती जशे. अज्ञानक्रिया बहुधा सेनाशे; व्याकुळ करे एया विपयोनां साधनो वधतां जशे. एकांतिक पक्षी सत्ताधीश थशे. शृंगारथी धर्म मनाशे.
खरा क्षत्रियो विना भूमि शोकग्रस्त थशे. निर्माल्य राजवंशीओ वेश्याना विलासमां मोह पामशे; धर्म, कर्म अने खरी गजनीति भूली जशे; अन्यायने जन्म आपशे. नेम लूटाशे तेम प्रजाने लूटशे. पोते पापिष्ट आचरणो सेवी प्रजा आगळ ते पळावता जशे. राजवीजने नामे शून्यता आवती जशे . नीच मंत्रियोनी महत्ता वधती जशे. एओ
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१५८ श्रीमद् राजचंद्र प्रणीत मोक्षमाळा. दीनप्रजाने चूशीने भंडार भरवानो राजाने उपदेश आपशे. शीयळभंग करवानो धर्म राजाने अंगीकार करावशे शौर्यादिक सद्गुणोनो नाश करावशे. मृगयादिक पापमा अंध बनावशे. राज्याधिकारीओ पोताना अधिकारथी हजारगुणी अहंपदता राखशे. विमो लालचु अने लोभी थइ जशे. सद्विद्याने दाटी देशे संसारी साधनोने धर्म ठरावशे वैश्यो मायावी, केवळ स्वार्थी अने कठोर हृदयना थता जशे. समग्र मनुष्य वर्गनी सद्वृत्तियो घटती जशे. अकृत अने भयंकर कृत्यो करता तेओमी वृत्ति अटकशे नहीं. विवेक, विनय, सरळता इत्यादि सद्गुणो घटता जशे. अनुकंपाने नामे हीनता थशे. माता करतां पनीमां प्रेम वधशे; पिता करतां पुत्रमा प्रेम वधशे; पातिवृत्त्य नियमपूर्वक पाळनारी सुंदरीओ घटी जशे. स्नानथी पवित्रता गणाशे; धनथी उत्तमकुळ गणाशे गुरुथी शिष्यो अवळा चालशे. भूमिनो रस घटी जशे. संक्षेपमा कहेवानो भावार्थ के उत्तम वस्तुनी क्षीणता छ; अने कनिष्ट वस्तुनो उदय छे. पंचमकार्नु खरुप आमांनु प्रत्यक्ष सूचवन पण केटलुं वधुं करेछे ?
मनुष्य सद्धर्मतत्त्वमां परिपूर्ण श्रद्धावान नहीं थइ शके; संपूर्ण तत्त्वज्ञान नहीं पामी शके; जंबुस्वामीना निर्वाण पछी दश निर्वाणी वस्तु आ भरतक्षेत्रथी व्यवछेद गइ.
पंचमकाळर्नु आवु स्वरुप जाणीने विवेकी पुरुषो तत्त्वने गृहण करशे; काळानुसार धर्मतत्त्वश्रद्धा पामीने
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तत्त्वावरोध भाग १. १५९ उच्चगति साधी परिणामेमोक्ष साधशे निर्ग्रयप्रवचन, निग्रंथ गुरु इत्यादि धर्मतत्त्व पामवानां साधनो छे. एनी आराधनाथी कर्मनी विराधना छे.
शिक्षापाठ ८२. तत्त्वावबोध भाग १.
दशवकालिक मुत्रमा कथन छे के जेणे जीवाजीवना भाव नयी जाण्याते अबुध संयममां स्थिर केम रही शकशे? ए पचनामृचनुं तात्पर्य एम छे के तमे आत्मा, अनात्मानां स्वरुपने जाणो, ए जाणवानी परिपूर्ण अवश्य छे.
. आत्मा अनात्मानुं सत्य स्वरुप नियप्रवचनमांधीज माप्त यइ के छे. अनेक अन्य मतोमां ए वे तत्त्वो विपे विचारो दर्शाव्या छ, 'पण ते यथार्थ नथी. महा प्रज्ञावंत आचार्योए करेला विवेचन सहित प्रकारांतरे कहेलां मुख्य नवतत्त्वने विवेक बुद्धियी जे झेय करे छे, ते सत्पुरुष आत्मस्वरुपने ओळखी शके छे.
स्याद्वादशैली अनुपम, अने अनंत भावभेदयी भरेली छ र शैलीने परिपूर्ण वो सर्वज्ञ अने सर्वदर्शीज जाणी शके छतां एओनां वचनामृतानुसार आगम उपयोगयी यथामति नव तत्त्वतुं स्वरुप जाणवू अवश्यतुं छे, ए नवतत्व मिय श्रद्धा भावे जाणवायी परम विवेकबुद्धि, शुद्ध सम्यक्त्व अने प्रभाविक आत्मज्ञाननो उदय थाय छे. नव
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१६० श्रीमद् राजचंद्र प्रणीत मोक्षमाळा.
तवां लोकालोकनुं संपूर्ण स्वरुप आवी जाय छे. जे प्रमाणे जेनी बुद्धिनी गति छे, ते प्रमाणे तेओ तत्त्वज्ञान संबंधी द्रष्टि पहचाडे छे; अने भावानुसार तेओना आत्मानी उज्जवळता थाय छे, ते वडे तेओ आत्मज्ञाननो निर्मळ रस अनुभवे छे. जेनुं तत्त्वज्ञान उत्तम अने सूक्ष्म छे, तेमज मुशीलयुक्त तत्वज्ञानने सेवे छे ते पुरुष महद्भागी छे.
ए नवतत्त्वनां नाम आगळना शिक्षापाठमां हुं कही गयो छउँ; एनुं विशेष स्वरूप प्रज्ञावंत आचार्योना महान् ग्रंथोथी अवश्य मेळव; कारण सिद्धांतमां जे जे कयुं छे, ते वे विशेष भेदयी समजवा माटे सहायभूत प्रज्ञावंत आचार्यविरचित ग्रंथो छे, ए गुरुगम्यरूप पण छे. नय, निक्षेप अने प्रमाणभेद नवतत्त्वनां ज्ञानमां अवश्यना छे; अने तेनी यथार्थ समजण ए प्रज्ञावंताए आपी छे.
शिक्षापाठ ८३. तत्वावबोध भाग २ -
सर्वज्ञ भगवाने लोकालोकनां संपूर्ण भाव जाण्या अने जोया तेनो उपदेश भव्य लोकोने कर्यो. भगवाने अनंत ज्ञानवढे करीने लोकालोकनां स्वरुप विषेना अनंत भेद -जाण्या हता; परंतु सामान्य मानवियोने उपदेशभी श्रेणिए चढवा मुख्य देखता नव पदार्थ तेओए दर्शाव्या. एभी कोकालोकना सर्व भावनो एमां समावेश थइ जाय छे.
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तत्त्वावबोध भाग २. १६१ निग्रंथप्रवचननो जे जे सूक्ष्म वोध छ; ते तत्त्वनी द्रष्टिए नवतत्त्वमां शमाइ जाय छे तेमज सघळा धर्ममतोना सूक्ष्म विचार ए नवतत्वविज्ञानना एक देशमा आवी जाय छे.
आत्मानी जे अनंत शक्तियो ढंकाइ रहीछे तेने प्रकाशित करवा अईत भगवाननो पवित्र बोधछे ए अनंत शक्तियो त्यारे प्रफुल्लित थइ शक के ज्यारे नवतत्व विज्ञानमां पारावार शानी थाय.
मुक्ष्म द्वादशांगी ज्ञान पण ए नवतत्व स्वरुप ज्ञानने सहायरुप छे. भिन्न भिन्न प्रकारे ए नवतत्वस्वरुप ज्ञाननो वोध करेछे एथी आ निःशंक मानवा योग्य छे के नवतत्व जेणे अनंत भाव भेदे जाण्यां ते सर्वज्ञ अने सर्वदशी थयो.
ए नवतत्व त्रिपदीने भावे लेवा योग्य छे. हेय, ज्ञेय अने उपादेय एटले त्याग करवा योग्य, जाणवा योग्य अने ग्रहण करवा योग्य एम त्रण भेद नवतत्त्व स्वरुपना विचारमा रहेला छे.
प्रश्न:-जे त्यागवारुप छे तेने जाणीने करवू शृं? जे गाम न जवू तेनो मार्ग शा माटे पूछयो ?
उत्तर:-ए तमारी शंका सहनमा समाधान थइ शके तेवी छे. त्यागवारुप पण जाणवा अवश्य छे. सर्वज्ञ पग सर्व प्रकारना मपंचने जाणी रह्या छे. त्यागवारुप वस्तुने जाणवान मुलतत्व आछे के जो ते जाणी न होय तो
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१६२ श्रीमद् राजचंद्र प्रणीत मोक्षमाला. अत्याज्य गणी कोइ वखत सेवी जवाय; एक गामथी वीजे पहोंचतां मुधी वाटमा जे जे गाम आववानां होय तेनो रस्तो पण पूछवो पडे छे नहीं तो ज्यां जवानुं छे त्यां न पहोंची शकाय. ए गाम जेम पूछयां पण त्यां वास कों नहीं तेम पापादिक तत्वो जाणवां पण 'ग्रहण करवां नहीं. जेम वाटमां आवतां गामनो त्याग कर्यो तेम तेनो पण त्याग करवो अवश्यनो छे.
शिक्षापाठ ८४. तत्त्वावबोध भाग ३.
नवतत्त्व काळभेदे जे सत्पुरुषो गुरुगम्यताथी श्रवण, मनन अने निदिध्यासन पूर्वक ज्ञान लेछे, ते सत्पुरुषो महा पुण्यशाळी तेमज धन्यवादने पात्र छे. प्रत्येक सुज्ञपुरुपोने मारो विनयभावभूपित एज वोध छे के नवतत्चने स्वबुद्धयानुसार यथार्थ जाणवां.
महावीर भगवंतनां शासनमा बहु मतमतांतर पड़ी गया छे, तेनुं मुख्य कारण तत्त्वज्ञान भणीथी उपासक वर्गनुं लक्ष गयु ए छे. मात्र क्रियाभावपर राचता रह्या; जेनुं परिणाम दृष्टिगोचर छे. वर्तमान शोधमां आवेली पृथ्विनी वसति लगभग दोढ अवजनी गणाइ छ तेमां सर्व गच्छनी मळीने जैनमजा मात्र वीश लाख छे. ए प्रजा ते श्रमणोपासक छे. एमाथी हुँ धारु छउं के नवतचने पठनरुपे
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तत्वाववोध भाग ४. १६३ वे हजार पुरुषो पण मांड जाणता हशे; मनन अने विचार पूर्वक तो आंगळीने टेरवे गणी शकीए तेटला पुरुषो पग जाणता नहीं हशे.ज्यारे आवी पतित स्थिति तत्त्वज्ञान संबंधी थइ गइ छे त्यारेज मतमतांतर वधी पड्यांछे एक लौकिक कथन छे के "सोशाणे एक मत" तेम अनेक तत्त्वविचारक पुरुषोना मतमा भिन्नता बहुधा आवती नथी, माटे तत्वाववोध परम आवश्यक छ. ___ ए नवतत्त्व विचार संबंधी प्रत्येक मुनिओने मारी विज्ञप्ति छे के विवेक अने गुरुगम्यताथी एजें ज्ञान विशेष वृद्धिमान कर एथी तेओनां पवित्र पंच महावृत्त द्रढ थशे जिनेश्वरनां वचनामृतना अनुपम आनंदनी प्रसादि मनशे मुनित्वआचार पाळवामां सरळ थइ पडशे ज्ञान अने क्रिया विशुद्ध रहेवाथी सम्यक्त्वनो उदय थशे; परिणामे भवांत धइ जशे.
शिक्षापाठ ८५. तत्त्वावबोध भाग ४.
जे जे. श्रमणोपासक नवतत्व पठनरुपे पण जाणता. नथी तेओए ते अवश्य जाणवां. जाण्या पछी वह मनन करवां. समजाय तेटला गंभिर आशय गुरुगम्यताथी सद्भावे करीने समजवा. एथी आत्मज्ञान उज्ज्वळता पामशे; अने यमनियमादिकनुं बहु पालन थशे.
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१६४ श्रीमद् राजचंद्र प्रणीत मोक्षमाला.
नवतत्त्व एटले तेनुं एक सामान्यगुंथनयुक्त पुस्तक होय ते नहीं; परंतु जे जे स्थळे जे जे विचारो ज्ञानीमओए प्रणीत कर्या छे, ते ते विचारो नवतत्वमांना अमुक एक वे के विशेष तत्त्वना होय छे. केवळी भगवाने ए श्रेणिओथी सकळ जगतमंडळ दर्शाची दीधुं छे एथी जेम जेम नयादि भेदथी ए तत्त्वज्ञान मळशे तेम तेम अपूर्व आनंद अने निर्मळतानी प्राप्ति थशे; मात्र विवेक, गुरुगम्यता अने अपमाद जोइए. ए नवतत्त्वज्ञान मने बहु प्रिय छे. एना रसानुभवियो पण मने सदैव प्रिय छे,
काळभेदे करीने आ वखते मात्र मति अने श्रुत एवे ज्ञान भरतक्षेने विद्यमान छे वाकीनां त्रण ज्ञान व्यवच्छेद छे, छतां जेम जेम पूर्णश्रद्धाभावी ए नवतत्वज्ञानना विचारोनी गुफामां उतराय छे, तेम तेम तेना अंदर अद्भुत आत्मप्रकाश, आनंद, समर्थ तत्वज्ञाननी स्फूरणा, उत्तम विनोद अने गंभिर चळकाट दिंग करी दइ, शुद्ध सम्यग् ज्ञाननो ते विचारो वहु उदय करे छे, स्याद्वाद वचनामृतना अनंत सुंदर आशय समजवानी शक्ति आ काळमां आ क्षेत्रथी विच्छेद गयेली छतां ते परत्वे जे जे सुंदर आशयो समजाय छेते ते आशयो अति अति गभिर तत्वथी भरेला छे..पुन:पुनः ते आशयो मनन कराय तो चार्वाकमतिना चंचळ मनुष्यने पण सद्धर्ममां स्थिर करी दे तेवा छे. संक्षेपमां सर्व प्रकारनी सिद्धि, पवित्रता, महाशील
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तावोध भाग ५०
१६५
निर्मळ उंडा अने गंभिर विचार, स्वच्छ वैराग्यनी भेट ए तत्वज्ञानथी मळे छे.
शिक्षापाठ ८६. तत्त्वावबोध भाग ५.
एकवार एक समर्थ विद्वानसाथे निर्बंधप्रवचननी चमत्कृति संबंधी वातचित थइ ; तेना संबंधां ते विद्वाने जणान्युं के आटल हुं मान्य राखुं छउं के महावीर ए एक समर्थ तत्वज्ञानी पुरुष हताः एमणे जे बोध कर्यो छे, ते झीली लड़ प्रज्ञावंत पुरुषोए अंग उपांगनी योजना करी छे; नेना जे विचारो छे ते चमत्कृत्ति भरेला छे; परंतु ए उपरथी लोकालोकनुं ज्ञान एमां रधुं छे एम हुं कही न शकुं. एम छतां जो तमे कंइ ए संबंधी प्रमाण आपता हो तो हुं ए वातनी कंड़ श्रद्धा लावी शकुं. एना उत्तरमां में एम कछु के हुं कंड़ जैन वचनामृतने यथार्थ तो शुं पण विशेष भेदे करीने पण जाणतो नथी; पण जे सामान्य भावे जाणं छवं एथी पण प्रमाण आपी शकुं खरो. पछी नवतत्त्वविज्ञान संबंधी बातचित नीकळी. में कहूं एमां आखी सृष्टिं ज्ञान आवी जाय छे; परंतु यथार्थ समजवानी शक्ति जोइए पछी ते ए ए कथनतुं प्रमाण माग्यं, त्यारे आठ कर्म में कही बराव्यां; तेनी साथे एम सूचयुं के ए शिवाय एनाथी भिन्न भाव दर्शावे एवं नवसुं कर्म
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१६६. श्रीमद् राजचंद्र प्रणीत, मोक्षमाला. शोधी आपो; पापनी अने पुण्यनी प्रकृतियो कहीने कहां आ शिवाय एक पण वधारे प्रकृति शोधी आपो. एम कहेतां अनुक्रमे वात लीधी. प्रथम जीवना भेद कही पूछयु एमां कंइ न्यूनाधिक कहेवा मागो छो? अजीवद्रव्यना भेद कही पूछयु. कंइ विशेषता कहो छो? एम नवतत्व संबंधी वातचित थइ त्यारे तेओए थोडीवार विचार करीने का आतो महावीरनी कहेवानी अद्भुत चमत्कृति छे के जीवनो एक नवो भेद मळतो नथी; तेम पापपुण्यादिकनी एक प्रकृति विशेष मळती नथी; अने नवमुं कर्म पण मळ्तुं नथी. आवा आवा तत्त्वज्ञानना सिद्धांतो जैनमा छे ए मारुं लक्ष नहोतुं आमां आखी सृष्टि तत्वज्ञान केटलेक अंशे आवी शके खरं.
शिक्षापाठ ८७. तत्त्वावबोध भाग ६.
एनो, उत्तर आ. भणीथी एम थयो के हजु आप आटलं कहो छो ते पण जैनना, तत्त्वविचारो आपना हृदये आल्या नथी त्यांसुधी; परंतु हुं मध्यस्थताथी सत्य कई छउं के एमां जे विशुद्धज्ञान वताव्युं छे ते क्यांये नथी अने सर्व मतोए जे ज्ञान वताव्युं छे ते महावीरना तत्वज्ञानना एक भागमां आवी जाय छे. एनुं कथन स्यावाद छे, एक पक्षी नथी.
तमे कह्यु के केटलेक अंशे सृष्टिनुं तत्वज्ञान एमां आवी शके खरं; परंतु ए मिश्रवचन छे. अमारी समजवानी
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तत्त्वाववोध भाग ६०
२६७
अल्पताथी एम बने खरं; परंतु एथी ए तत्वोमां क अपूर्णता छे एमतो नधीज. आ कंइ पक्षपाती कथन नथी. विचार करी आखी सृष्टिमांथी ए शिवायनुं एक दशमुं तत्त्व शोधतां कोई काळे ते मळनार नथी. ए संबंधी प्रसंगोपात आपणे ज्यारे वातचित अने मध्यस्थ चर्चा थाय त्यारे निःशंका धाय.
उत्तरमां तेओए कयुं के आ उपरथी मने एम तो निःशंकता छे के जैन अद्भुत दर्शन छे. श्रेणिपूर्वक तमे मने केटलाक नवतत्वना भाग कही बताव्या एथी हुं एम बेधडक कही शकुं छउं के महावीर गुप्तभेदने पामेला पुरुष हता. एम सहजसाज वात करीने "उपन्नेवा" "विघनेवा" "धुवेवा" ए लब्धिवाक्य मने तेओए कं. ते कही वताव्या पछी तेओए एम जणाव्युं के आ शोना सामान्य अर्थमां तो कंड़ चमत्कृति देखाती नथी; उपजवु, नाश धनुं अने अचलता, एम ए त्रण शोना अर्थ छे. परंतु श्रीमन् गणधरोए तो एम दर्शित कर्तुं छे के ए वचनो गुरुमुखथी श्रवण करतां आगळना भाविक शिष्योने द्वादशांगीनुं आशय भरित ज्ञान धतुं हतुं १ ए माटे में कंडक विचारो पहोंचाडी जोया छतां मने तो एम लाग्युं के ए वननुं असंभवित छे, कारण अति अति सूक्ष्म मानेलुं सिद्धांतिक ज्ञान एमां क्यांथी शमाय १ ए संबंधी तमे कंइ लक्ष पहोंचाडी शकशो '
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१६८ श्रीमद् राजचंद्र प्रणीत मोक्षमाला. शिक्षापाठ ८८. तत्वावनोध भाग ७.
उत्तरमा में कहूं के आ कालमा त्रण महाज्ञान भारतथी विच्छेद छे; तेम छतां हुं सर्वज्ञ के महाप्रज्ञावंत नथी छतां मारुं जेटलं सामान्य लक्ष पहोंचे तेटलं पहोंचाडी कंइ समाधान करी शकीश, एम मने संभव रहेछे. त्यारे तेमणे का जो तेम संभव थतो होय तो ए त्रिपदी जीवपर "ना" ने "हा" विचारे उतरो. ते एम के जीव शुं उत्पतिरुप छे ? तो के ना. जीव शुं विघ्नतारुप छे? तो के ना. जीव शुं ध्रुवतारुप छ ? तो के ना. आम एक वखत उतारो अने वीनी वखत जीव शुं उत्पत्तिरुप छ ? तो के हा.जीव शुं विघ्नतारुप छ ? तो के हा. जीव शुं ध्रुवतारुप छ ? तो के हा. आम उतारो. आ विचारो आखा मंडळे एकत्र करी योज्या छे. ए जो यथार्थ कही न शकाय तो अनेक प्रकारथी दूषण आवी शके. विघ्नरुपे होय ए वस्तु ध्रुवरुपे होय नहीं, ए पहेली शंका. जो उत्पत्ति, विघ्नता अने ध्रुवता नथी तो जीव कयां प्रमाणथी सिद्ध करशो ? ए वीजी शंका. विघ्नता अने ध्रुवताने परस्पर विरोधाभास ए त्रीजी शंका. जीव केवळ ध्रुव छे तो उत्पत्तिमा हा कही ए अस. त्य. ए चोथो विरोध. उत्पन्न जीवनो ध्रुव भाव कहो तो उत्पन्न कोणे कर्यो ए पांचमी शंका अने विरोध. अनादिपणुं जर्नु रहेछे ए छठी शंका. केवळ ध्रुव विघ्नरुपे छे एम कहो तो चार्वाकमिश्र वचन थयु ए सातमो दोप. उत्पत्ति
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तत्त्वावबोध भाग ८. १६९ अने विघ्नरुप कहेगो तो केवल चार्वाकनो सिद्धांत एआठमो दोप. उत्पत्तिनी ना, विघ्नतानी ना अने ध्रुवतानी ना कही पछी त्रणनी हा कही एना वळी पाछा छ दोष. एटले सर्वाळे चौद दोप. केवळ ध्रुवता जतां तीर्थकरनां वचन त्रुटी जाय ए पंढरमो दोप. उत्पत्ति ध्रुवता लेतां कर्तानी सिद्धि याय जेधी सर्वज्ञ वचन त्रुटी जाय ए सोळमो दोप. उत्पत्ति विनतारुपे पापपुण्यादिकनो अभाव एटले धर्माधर्म सघळु गर्यु ए सत्तरमो दोप. उत्पत्ति विघ्नता अने सामान्य स्थितिथी (केवळ अचळ नहीं) त्रिगुणात्मक माया सिद्ध थायछे ए अहारमो दोप.
शिक्षापाठ ८९. तत्वावबोध भाग ८. ___ एटला दोप ए कथनो सिद्ध न थतां आवे छे. एक जैनमुनिए मने अने मारा मित्रमंडळने एम कयुं हतुं के जैनसप्तभंगी नय अपूर्व छे, अने एथी सर्व पदार्थ सिद्ध थाय छे. नास्ति, अस्तिना एमां अगम्यभेद रह्या छे. आ कयन सांभळी अमे वधा घेर आव्या पछी योजना करता करतां आ लब्धिवाक्यनी जीवपर योजना करी. हु धार छर के एवी नास्ति अस्तिना वन्नेभाव जीवपर नहीं उतरी शके लब्धिवाक्यो पण क्लेशरुप यइ पडशे. तोपण ए भणी मारी का तिरस्कारनी द्रष्टि नी.
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१७० श्रीमद् राजचंद्र प्रणीत मोक्षमाला. ..आना उत्तरमा में कह्यु के आपे जे नास्ति अने अस्ति नय जीवपर उतारवा धार्यो ते सनिक्षेप शैलीथी नधी, एटले वखते एमांथी एकांतिक पक्ष लेइ जवाय, तेम वळी हुँ कइ स्यावाद शैलीनो यथार्थ जाणनार नथी, मंदमतिथी लेश भाग जाणुं छउं. नास्ति अस्ति नय पण आपे यथार्थ शैली पूर्वक उतार्यों नथी. एटले हुं तर्कथी जे उत्तर दई. शकुं ते आप सांभळो. .
उत्पत्तिमा "ना" एवी जे योजना करी छे ते एम यथार्थ थइ शके के "जीव अनादि अनंत छे.". • विघ्नतामां "ना" एवी जे योजना करी छे ते एम यथार्थ थइ शके के "एनो कोइ काळे नाश नथी." .. ध्रुवतामा "ना" एवी जे योजना करी छे ते एम यथार्थ थइ शके के "एक देहमा ते सदैवने माटे रहेनार नथी."
शिक्षापाठ ९०. तत्वावबोध भाग ९. . .. उत्पत्तिमां "हा" एवी जे योजना करी छे ते एम यथार्थ थइ शके के "जीवनो मोक्ष थया सुधी एक देहमांथी च्यवन पामी ते वीजा देहमा उपजे छे... . .. - विघ्नतामा - "हा". एवी जे योजना करी छे ते एम यथार्थ थइ शके के "ते जे देहमांथी आन्यो त्या विघ्न
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तत्वावबोध भाग ९. - १७१ पाम्यो वा क्षण क्षण प्रति एनी आत्मिक ऋद्धि विषयादिक मरणवडे रुंधाइ रही छे, ए रुपे विघ्नता योजी सकाय छे.
ध्रुवतामां "हा" एवी जे योजना कही छे ते एम यथार्य यह शके के "ट्रव्ये करी जीव कोइ का नाश रुप नधी, त्रिकाळ सिद्ध छे."
हवे एथी करीने एटले ए अपेक्षाओ लक्षमा राखतां योनेला दोष पण हुँ धारं छउँ के टळी जशे. .
१ जीव विघ्नरुपे नधी माटे ध्रुवता सिद्ध थइ. ए पहेलो दोप टळयो.
२ उत्पत्ति, विघ्नता अने ध्रुवता ए भिन्न भिन्न न्याये सिद्ध थइ, एटले जीवनुं सत्यत्व सिद्ध थयु ए बीजों दोप गयो.
३ जीवनां सत्यस्वरुपे ध्रुवता सिद्ध थइ एटले विघ्नता गइ. ए बीजो दोप गयो.
४ द्रव्य भावे जीवनी उत्पत्ति असिद्ध थइ ए चोयो दोप गयो.
५ अनादि जीव सिद्ध थयो एटले उत्पत्ति संबंधीनो पांचमो दोप गयो.
६ उत्पनि असिद्ध थइ एटले कर्ता संबंधीनो छठो दोषः
गयो.
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१७४ श्रीमद् राजवंद्र भणीत मोक्षमाला. छ ? एर्नु कारण मात्र एटलुंज के ते एशब्दनी वहोळताने समज्यु छे, किंवा एनुं लक्ष एवी अमुक वहोळताए पहोंघ्यु छ जेथी जगत् एम कहेतां एवंडो मोटो मर्म समजी शकेछ तेमज ऋजु अने सरळ सत्पात्र शिष्यो निम्रय गुरुथी ए त्रण शब्दोनी गम्यता लइ द्वादशांगी ज्ञान पामता इता. आवी रीते ते लब्धि अल्पज्ञता छतां विवेक जोता क्लेशरुप नयी.
शिक्षापाठ ९२. तत्त्वावबोध भाग ११.
एमज नवतत्व संबंधी छे. जे मध्य वयना क्षत्रियपुत्र जगत् अनादि छे, एम वेधडक कही कोंने उडाड्यो हशे, ते ते पुरुषे | कइ सर्वज्ञताना गुप्त भेद विना कयु हशे ? तेम एनी निर्दोषता विषे ज्यारे आप वांचशो त्यारे निश्चय एवो विचार करशो के ए परमेश्वर हता. कर्चा नहोता अने जगत् अनादि हां तो तेम कह्यु. एना अपक्षपाती अने केवळ तत्त्वमय विचारो आप अवश्य विशोषवा योग्य छे. जैन दर्शनना अवर्णवादीओ जैनने नथी जाणता एटले एने अन्याय आपे छे, ते ममत्वथी अधोगति सेवशे.
आ पछी केटलीक वातचित थइ. प्रसंगोपात ए तरव विचारवान वचन लइने सहर्ष हुं त्याथी उठ्यो हतो.
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तवाववोध भाग १२.
१७५
तत्त्वाववोधना संबंधां आ कथन कहेवायुं, अनंतभेदधी भरेला ए तत्त्व विचारो काळभेदथी जेटला ज्ञेय घाय तेटला जाणवा; ग्राद्य थाय तेटला ग्रहवा; अने त्याज्य देखाय तेटला त्यागवा.
ए तत्त्वाने जे यथार्थ जाणेछे, ते अनंत चतुष्टययी विराजमान थाय छे ए सत्य समजवुः ए नवतत्त्वनां क्रमवरि नाम मुकवामां पण अरधुं सूचवन जीवने मोक्षनी निकटतानुं जणाय छे !
शिक्षापाठ ९३. तत्त्वावबोध भाग १२.
एतो तमारा लक्षमां छे के जीव अजीव ए अनुक्रमथी छेवटे मोक्ष नाम आवे छे. हवे ते एक पछी एक मुकी जइए तो जीव अने मोक्षने अनुक्रमे आद्यंत रहेवुं पडशे.
जीव.
अजीव.
पुण्य.
पाप
आश्रव..
संवर.
निर्जरा.
बंध.
मोक्ष.
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१७६
श्रीमद राजचंद्र प्रणीत मोक्षमाळा.
में आगळ कर्तुं हतुं के ए नाम मुकवामां जीव अने मोमने निकटता छे. छतां आ निकटता तो न थइ. पण ata अने अजीवने निकटता थइ, वस्तुनः एम थी. अज्ञानवडे तो ए वनेनेज निकटता रहीछे; पण ज्ञानवडे जीव अने मोक्षने निकटता रहीछे जेमके :--
जीव
अजीव
मोक्ष बंध
पुण्य
पाप
नवतच्च नामकचक्र,
आश्रव
संवर
हवे जुओ ए वनेने कंइ निकटता आवी छे ? हा० कहेली निकटता आची गइ छे, पण ए निकटता तो द्रव्य. रुप छे, ज्यारे भावे निकटता आवे त्यारे सर्व सिद्ध धाय
4
ए द्रव्य निकटतानुं साधन सत्परमात्मतत्व, सद्गुरुतच्च अने सद्धर्मतत्त्व ओळखी सर्द ए छे. भावनिकटता एटले केवळ एकज रुप थवा ज्ञान, दर्शन अने चारित्र साधनरुप छे.
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तत्त्वाववोध भाग १३. १७७ ए चक्रथी एवी पण आशंका थाय के ज्यारे बने निकट छे सारे शुं वाकीनां त्यागवां ? उत्तरमा एम कहुं छु के जो सर्व त्यागी शकता हो तोत्सागी यो, एटले मोक्षरुपज थशो नहितो हेय, ज्ञेय, उपादेयनो वोध ल्यो, एटले आत्मसिद्धि प्राप्त थशे.
शिक्षापाठ ९४. तत्त्वावबोध भाग १३.
जे जे हुँ कही गयो ते तेः कइ केवळ जैनकुळथी जन्म पामेला पुरुपने माटे नथी, परंतु सर्वने माटेछे. तेम आपण निःशंक मानजो के हुँ जे कहुं छउं ते अपक्षपाते अने परमार्थ बुद्धियी कहुं छउं. ___ तमने जे धर्मतत्त्व कहेवानुं छे, ते पक्षपात के खार्थबुद्धियी कहेवातुं मने कइ प्रयोजन नथी; पक्षपात के स्वा
थी हुँ तमने अधर्मतत्व बोधी अधोगतिने शामाटे साधु ? वारंवार तमने हुँ निर्ग्रथनां वचनामृतो माटे कहुं छउँ, तेर्नु कारण ते वचनामृतो तत्वमा परिपूर्ण छे, ते छे. जिनेश्वरोने एवं कोइपण कारण नहोतुं के ते निमित्ते तेओ मृषा के पक्षपाती बोधे; तेम एओ अज्ञानी नहता, के एथी मृषा वोधाइ जवाय. आशंका करशो के ए अज्ञानी नहोता ए शा उपरथी जणाय? तो तेना उत्तरमां एओना पवित्र सिद्धांतोनां रहस्यने मनन करवान कहं छउं. अने एम जे करशे ते तो पुनः आशंका लेश पण नहीं करे. जैनमतप्रव
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१७८ श्रीमद् राजचंद्र प्रणीत मोक्षमाळा. तकोप्रति मारे कइ राग बुद्धि नथी, के एमाटे पक्षपाते हूँ कंइपण तमने कहुं तेमज अन्यमत प्रवर्तकोप्रति मारे कई वैरवुद्धि नथी के मिथ्या एजें खंडन करुं वन्नेमां हुँतो मंदमति मध्यस्थरुप छउं. वहु बहु मननथी अने मारी मति ज्यांसुधी पहोंची त्यांसुधीना विचारथी हुँ विनयी कई छउं, के प्रिय भन्यो ! जैन जेवू एके पूर्ण अने पवित्र दर्शन नथी; वीतराग जेवो एक देव नथी, तरीने अनंत दुःखी पार पामवं होय तो ए सर्वज्ञ दर्शनरुप कल्पवृक्षने सेवो.
शिक्षापाठ ९५. तत्त्वावबोध भाग १४. __ जैन ए एटली वी सूक्ष्म विचार संकळनाथी भरेलु दर्शन छे के एमां प्रवेश करतां पण बहु वखत जोइए. उपर उपरथी के कोई प्रतिपक्षीना कहेवाथी अमुक वस्तु संबंधी अभिप्राय वांधवो के आपवो ए विवेकीनं कर्तव्य नथी. एक तळाव संपूर्ण भर्यु होय, तेनुं जळ उपरथी समान लागे छे; पण जेम जेम आगळ चालीए छीए तेम तेम वधारे वधारे एंडापणु आवतुं जाय छे छतां उपरतो जळ सपाटज रहेछे तेम जगतना सघळा धर्ममतो एक तळाव रुप छे, तेने उपरथी सामान्य सपाटी जोइने सरखा कही देवा ए उचित नथी. एम कहेनारा तत्वने पामेला पण नथी. नैनना अकेका पवित्र सिद्धांतपर विचार करतां आयुष्य पूर्म थाय, तोपण पार पमाय नहीं तेम रघु छे. वाकीना
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तत्वाववध भाग १५०
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सघळा धर्ममतोना विचार जिनप्रणीत वचनामृतसिंधु आगळ एक बिंदुरूप पण नथी. जैनमत जेणे जाण्यो, अने सेव्यो ते केवळ निरागी अने सर्वज्ञ थइ जाय छे. एना प्रवर्त्तको केवा पवित्र पुरुषो हता ! एना सिद्धांतो केवा अखंड संपूर्ण अने दयामय छे ! एमां दूषणतो कांइ छेज नहि ! केवळ निर्दोष तो मात्र जेतुं दर्शन छे ! एवो एक्के पारमार्थिक विषय नथी के जे जैनमां नहीं होय अने एवं एक्के तत्त्व नथी के जे जैनमां नथी; एक विषयने अनंत भेदे परिपूर्ण कहेनार ते जैनदर्शन छे. प्रयोजनभूततत्व एना जेवुं क्यांय नथी. एक देहमां वे आत्मा नथी; तेम आखी सृष्टिमां वे जैन एटले जैननी तूल्य बीजुं दर्शन नथी. आम कहेवानुं कारण शुं ? तो मात्र तेनी परिपूर्णता, निरागीता, स्रत्यता अने जगद् हितेपिता.
शिक्षापाठ ९६. तत्त्वावबोध भाग १५.
न्यायपूर्वक आटलं मारे पण मान्य राखबुं जोइए के ज्यारे एक दर्शनने परिपूर्ण कही बात सिद्ध करवी होय त्यारे प्रतिपक्षनी मध्यस्थ बुध्धिथी अपूर्णता दर्शाववी जोइए. पण ए वे वातपर विवेचन करवा जेटली अहीं जग्यो नथी; तोपण थोढुं थोडं कहेतो आव्यो छई. मुख्यत्वे कदेवानुं
के
ए वात जेने रुचिकर थती न होय के असंभवित लागती होय तेणे जैनतत्त्वविज्ञानी शास्त्रो अने अन्य तत्त्वविज्ञानी
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१८० श्रीमद् राजचंद्र प्रणीत मोक्षमाळा.
शास्रो मध्यस्थ बुध्धिथी मनन करी न्यायने कांटे तोलन करवुं. ए उपरथी अवश्य एटलुं महावाक्य नीकळशे, के जे आगळ नगारापर डांडी ठोकीने कहेवायुं हतुं ते खरं छे,
जगत् गाडरियो प्रवाह छे. धर्मना मतभेद संबंधीना शिक्षापाठमां दर्शाव्या प्रमाणे अनेक धर्ममतनी जाल लागी पडी छे. विशुध्ध आत्मा कोइकज थायछे, विवेकथी तत्त्वने कोइकज शोघे छे. एटले जैन तत्त्वने अन्यदर्शनियो शामादे जाणता नथी ए खेद के आशंका करवा जेवुंज नथी.
छतां मने बहु आश्चर्य लागे छे के केवळ शुध्ध परमात्मतत्त्वने पामेला, सकळ दूषणरहित, मृषा कहेवानुं जेने कंइ निमित्त नयी एवा पुरुषनां कलां पवित्रदर्शनने पोते तो जाण्युं नहीं, पोताना आत्मानुं हित तो कर्यु नहीं, पण अविवेकथी मतभेदमा आची जइ केवळ निर्दोष अने पवित्र दर्शनने नास्तिक शा माटे कछु हशे ? पण ए कहेनारा एनां तवने जाणता नहोता. वळी एनां तच्चने जाणवाथी पोतानी श्रध्धा फरशे, त्यारे लोको पछी पोताना आगळ कहेला मतने गांठशे नहीं; जे लौकिक मतमां पोतानी आजीविका रही छे, एवा वेदादिनी महत्ता घटाडवाथी पोतानी महत्ता घटशे; पोतानुं मिथ्या स्थापित करेलुं परमेश्वर पद चालशे नहीं. एथी जैनतत्त्वमां प्रवेश करवानी रुचिने मूळधीज बंध करवा लोकोने एवी भ्रममुरकी आपी के जैन नास्तिक छे. लोको तो विचारा गभरुगाडर छे;
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तच्चावबोध भाग १६.
१८१
१
एटले पछी विचार पण क्यांथी करे ? ए कहेवुं केटलुं मृषा अने अनर्थकारक छे ते जेणे वीतराग प्रणीत सिद्धांतो विवेकयी जाण्या छे, ते जाणे. मारुं कहेतुं मंदबुद्धिओ वखते पक्षपातमां लइ जाय.
शिक्षापाठ ९७. तत्त्वावबोध भाग १६.
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पवित्र जैन दर्शनने नास्तिक कहेवरावनाराओ एक मिथ्या दलीलथी फाववा इच्छेछे, के जैनदर्शन आ जगत्ना कर्त्ता परमेश्वरने मानतुं नथी. अने जगत्कर्त्ता परमेश्वरने जे नयी मानता ते तो नास्तिकज छे, एवी मानी लीघेली वात भद्रिकजनोने शीघ्र चींटी रहे छे. कारण तेओमां यथार्थ विचार करवानी प्रेरणा नथी. पण जो ए उपरथी एम विचारमां आवे के त्यारे जैन जगत्ने अनादि अनंत कहे छे ते क्या न्यायधी कहेछे? जगत्कर्त्ता नथी एम कहेवामां एमनुं निमित्त शुं छे ? एम एक पछी एक भेदरूप विचारयी तेओ जैननी पवित्रतापर आवी शके. जगत् रचवानी परमेश्वरने जरुर शी हती । रच्युं तो सुख दुःख मूकवातुं कारण शुं हतुं १ रचीने मोत शा माटे मूक्युं १ ए लीला कोने बताaat हती १ रच्युं तो क्यां कर्मथी रच्युं १ ते पहेलां रचवानी इच्छा कां नहोती १ इश्वर कोण १ जगत्ना पदार्थ कोण ? अने इच्छा कोण ? रच्युं तो जगत्मां एकज धर्मनुं प्रवर्त्तन राखवं हतुं; आम भ्रमणमां नाखवानी जरुर
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१८२
श्रीमद राजचंद्र प्रणीत मोक्षमाळा.
श्री हती १ कदापी एम मानो के ए विचारानी भूल थइ ! हशे ! क्षमा करीए ! पण एवं दोढ उद्दापण क्यांथी मृज्यु के एनेज मूळधी उखेडनार एवा महावीर जेवा पुरुषोने जन्म आप्यो ? एनां कलां दर्शनने जगत्मां विद्यमानता कां आप ? पोताना पगपर हाथे करीने कुहाडो मारवानी एने शुं अवश्य हती ? एक तो जाणे ए प्रकारे विचार, अने वाकी वीजा प्रकारे ए विचार के जैनदर्शन प्रवर्त्तकोने एनाथी कंड़ द्वेष हतो ? जगत्कर्त्ता होत तो एम कद्देवाथी एओना लाभने कंड हानि पहोंचती हती ? जगत्कर्त्ता नथी, जगत् अनादि अनंत छे; एम कहेवामां एमने कंडु महत्ता मळी जती हती? आवा अनेक विचारो विचारतां जणाइ आवशे के जगतनुं स्वरुप छे तेमज ते पवित्र पुरुषोए कह्युं छे. एमां भिन्नभाव कहेवानुं एमने लेशमात्र प्रयोजन नहोतुं सूक्ष्ममांसूक्ष्म जंतुनी रक्षा जेणे प्रणीत करीछे, एक रजकणी करीने आँखा जगत्ना विचारो जेणे सर्व भेदे कलाछे तेवा पुरुषोनां पवित्र दर्शनने नास्तिक कहेनारा कयि गतिने पामशे ए विचारतां दया आवे छे ?
शिक्षापाठ ९८. तत्त्वावबोध भाग १७.
जे न्यायची जय मेळवी शकतो नवी; ते पछी गाळो भांडे छे; तेम पवित्र जैनना अखंड तत्त्वसिद्धांतो शंकराचार्य, दयानंद सन्यासी वगरे ज्यारे तोडी न शक्या यारे पछी
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तत्त्वाववोध भाग १७. १८३ जैन नास्तिक है, सो चार्वाकमसे उत्पन्न हुआ है एम कहेवा मांडयु. पण ए स्थळे कोइ प्रश्न करे, के महाराज! ए विवेचन तमे पछी करो. एवा शद्वो कहेवामां कंइ वखत विवेक के ज्ञान जोइतुं नथी; पण आनो उत्तर आपो के जैन वेदी कयि वस्तुमा उतरतो छ एनुं ज्ञान, एनो वोध, एर्नु रहस्य, अने एनुं सत्शील के, छे ते एकवार कहो ? आपना वेद विचारो कयी वावतमां जैनथी चढे छ ? आम ज्यारे मर्मस्थानपर आवे सारे मौनता शीवाय तेओ पासे वीजें कई साधन रहे नहीं. जे सत्पुरुपोनां वचनामृत अने योगवळची आ सृष्टिमां सत्यदया, तत्वज्ञान अने महाशील उदय पामेछे, ते पुरुषो करता जे पुरुषो शृंगारमा राच्या पड्या छ, सामान्य तत्वज्ञानने पण नयी जाणता, जेनो आचार पण पूर्ण नथी, तेने चढता कहेवा परमेश्वरने नामे स्थापवा अने सत्यस्वरुपनी अवर्ण भापा वोलवी, परमात्म स्वरुप पामेलाने नास्तिक कहेवा, ए एमनी केटली वधी कर्मनी वहोलतार्नु सूचवन करे छे? परंतु जगत् मोहांध छे मतभेद छे त्यां अंधारुं छे, ममत्व के राग छे त्यां सत्य वत्व नथी. ए वात आपणे शा माटे न विचारवी ?
हुँ एक मुख्य वात तमने कहुं छड के जे ममत्वरहितनी अने न्यायनी छे. ते ए छे के गमे ते दर्शनने तमे मानो, गमे तो, पछी तमारी दृष्टिमां आवे तेम जैनने कहो, सर्व दर्शननां शास्त्रतत्त्वने जुओ तेम जैनतत्वने पण जुओखतंत्र आत्मिकशक्तिए जे योग्य लागे ते अंगीकार करो, माई के
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१८४ श्रीमद् राजचंद्र प्रणीत मोक्षमाळा. वीजा गमे तेनुं भले एकदम तमेमान्य न करो पण तत्वने विचारो?
शिक्षापाठ ९९. समाजनी अगत्य. ... आंग्लभौमियो संसार संबंधी अनेक कला कौशल्यमां शाथी विजय पाम्या छे? ए विचार करतां आपणने तत्काल जणाशे के तेओनो वहु उत्साह अने ए उत्साहमां अनेक मळवू. कळाकाशल्यना ए उत्साही काममां ए अनेक पुरुपोनी उभी थएली सभा के समाजे परिणाम शुं मेळव्यु ? तो उत्तरमा एम आवशे के लक्ष्मी, कीर्ति अने अधिकार. ए एमनां उदाहरण उपरथी ए जातिनां कळाकौशल्यो शोधवानो हुँ अहीं वोध करतो नथी; परंतु सर्वज्ञ भगवानतुं कहेलू गुप्त तत्त्व प्रमाद स्थितिमा आवी पडयुं छे, तेने प्रकाशित करवा तथा पूर्वाचार्योनां गुंथेला महान शास्त्रो एकत्र करवा, पडेला गच्छना मतमतांतरने टाळवा तेमज धर्मविधाने प्रफुल्लित करवा सदाचरणी श्रीमंत अने धीमंत बनेए मळीने एक महान समाज स्थापन करवानी अवश्य छे, एम दर्शाई छउं. पवित्र स्याद्वादमतनुं ढंकायलु वत्त्व प्रसिद्धिमा आणवा ज्यां सुधी प्रयोजन नथी, त्यां सुधी शासननी उन्नति पण नथी. लक्ष्मी, कीर्ति अने अधिकार संसारी कलाकौशल्यथी मळे छे, परंतु आधर्मकलाकौशल्ययी तो सर्व सिद्धि सांपडशे महान समाजना अंतर्गत उपसमाज
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मनोनिग्रहनां विघ्न.
१८५
स्थापना. वाडामां वेसी रहेवा करतां मतमतांतर तजी एम कर उचित छे. हुं इच्छु छउं के ते कृतनी सिद्धि यज्ञ जैनांतर्गच्छ मतभेद टळो; सत्य वस्तु उपर मनुष्य मंडळनुं लक्ष आवो; अने ममत्व जाओ !
शिक्षापाठ १०० मनोनिग्रहनां विघ्नः
वारंवार जे वोध करवामां आव्यो छे तेमांधी मुख्य तात्पर्य नीकळे छे ते ए छे के आत्माने तारो अने तारवा माटे तत्त्वज्ञाननो प्रकाश करो; तथा सत्शीलने सेवो. ए प्राप्त करवा जे जे मार्ग दर्शाव्या ते ते मार्ग मनोनिग्रहताने आधीन छे. मनोनिग्रहता थवा लक्षनी वहोळता करवी जरुरनी छे. वहोळतामां विघ्नरुप नीचेना दोष छे.
१ आळस.
२ अनियमित घ.
३ विशेष आहार.
४ उन्माद प्रकृति,
५ मायाप्रपंच.
११ तुच्छवस्तुथी आनंद.
१२ रसगारवलुब्धता. १३ अतिभोग.
१४ पारकुं अनिष्ट इच्छवं.
८ मान•
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१५ कारणविनानुं रळ.
६ अनियमित काम. १६ झाझानो स्नेह.
७ अकरणीयविलास, १७ अयोग्यस्थळे जनुं. १८ एके उत्तम नियम
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१८६ श्रीमदू राजचंद्र मणीत मोक्षमाळा.
९ मर्यादाउपरांत काम.
१० आपवडाइ•
ज्यांसुघी आ अष्टादश विart मननो संबंधळे, त्यां सुधी अष्टादश पापस्थानक क्षय थवानां नथी. आ अष्टादन दोष जवाथी मनोनिग्रहता अने धारेली सिद्धि यह शकछे. एष ज्यांसुधी मनथी निकटता धरावे त्यांमुत्री कोइपण मनुष्य आत्मसार्थक करवानो नथी. अति भोगने स्थळे सामान्य भाग नहीं, पण केवळभोग त्यागवृत्त जेणे धयुछे, तेमज ए एके दोपनुं मूळ जेनां हृदयमां नयी ते सत्पुरुष महभागी छे.
साध्य न करवो.
शिक्षापाठ १०१. स्मृतिमां राखवायोग्य महावाक्यो.
१' एक भेदे नियम ए आ जगत्नो प्रवर्त्तक छे.
२ जे मनुष्य सत्पुरुषोनां चरित्ररहस्यने पामेछे ते मनुष्य परमेश्वर थाय छे.
- ३ चंचळ चित्त ए सर्व विषम दुःखनुं मुळियुं छे.
४ झाझानो मेळा अने थोडा साथै अति समागम ए वने समान दुःखदायक छे.
५ समस्यभावितुं मळवं एने ज्ञानीओ एकांत इकेछे.
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विविध प्रश्नो भाग १.
१८७
६ इंद्रियो तमने जीते अने मुख मानो ते करतां तेने तमे जीतत्रामांज मुख, आनंद अने परमपद प्राप्त करशो. ७ रागविना संसार नथी अने संसारविना राग नथी. ८ युवावयनो सर्व संग परित्याग परमपदने आपेछे. ९ ते वस्तुना विचारमां पहोंचो के जे वस्तु अतक्रिय स्वरुप छे.
१० गुणीना गुणमां अनुरक्त थाओ.
शिक्षापाठ १०२. विविध प्रश्नों भाग १.
आजे तमने हुं केलांक प्रश्नो निर्ग्रथमवचनानुसार उत्तर आपचा माटे पूछें छई. कहो धर्मनी अगत्य शी छे ? उ०- अनादि काळधी आत्मानी कर्मजाळ टाळवा माटे. म० - जीव परेलो के कर्म ?
उ०- नन्ने अनादि छे. जीव पहेलो होय तो ए विमळ वस्तुने मत्र चळगवानुं कंइ निमित्त जोइए. कर्म पेहेलां कहो तो जीव विना कर्म कर्या कोणे ? ए न्यायथी बन्ने अनादि छे.
म० - जीव रुपी के अरुपी ?
उ०- रुपी पण खरो; अने अम्पी पण खरो
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१८४ श्रीमद् रामचंद्र भणीत मोक्षमाळा.
प्रा-रुपी कया न्याययी अने अरुपी कया न्याययी
उ०-देह निमित्चे रुपी अने स्वस्वरुपे अरुपी. प्र०-देह निमित्त शायी छ ? उ०-स्वकर्मना विपाकयी. म-कर्मनी मुख्य प्रकृतियो केटली छे ? उ-आठ, प्रकाय काय ?
उ.-ज्ञानावरणीय, दर्जनावरणीय, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र अने अंतराय.
म०-ए आठे कर्मनी सामान्य समज कहो ?
उ-जानावरणीय, एटले अत्मानी ज्ञान संबंधीनी ने अनंतशक्ति छे तेने आच्छादन यइ गर्बु ते. दर्शनावरणीय एटले आत्मानी अनंत दर्शनशक्तिछे तेने आच्छादन यह जाते. वेदनीय एटले देहनिमित्चे सावा असावा वे प्रकारनां वेदनीय कर्म एयी अव्यावाघ मुखरूप आत्मानी बक्ति रोकाइ रहेवी ने मोहनीय कर्म एटले आत्मचारित्र प शक्ति रोकाइरहेवी ते. आयुकर्म एटले अभय स्थिति गुण रोकाइरहेवो ते. नामकर्म एटले अमूर्तिरुप दिव्य शक्तिरोकाइरहेवी ते. गोत्रकर्म एटले अटल अवगाहनारुप आत्मिकशक्ति रोकाइ
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विविध प्रश्नो भाग २. १८९ रहेवी ते. अंतराय कर्म एटले अनंत दान, लाभ, वीर्य, भोगोपभोग शक्ति रोकाइ रहेवी ते.
शिक्षापाठ १०३. विविध प्रश्नो भाग २.
मल-ए कर्मों टळनाथी आत्मा क्यां जायछे ? उ०-अनंत अने शाश्वत मोक्षमां. म०-आ आत्मानो मोक्ष कोइवार थयो छे ? उ०-ना. प्र०-कारण?
उ०-मोक्ष थयेलो आत्मा कर्ममल रहित छे, एथी पुनर्जन्म एने नथी.
म०-केवळीनां लक्षण शुं ?
उ०-चार घनघाती कर्मनो क्षय करी शेष चार कर्मने पातळां पाडी जे पुरुप त्रयोदश गुणस्थानकवी विहार करेछे ते.
म०-गुणस्थानक केटला? उ०-चौद. प्र० तेनां नाम कहो ?
उ०-१ मिथ्यालगुणस्थानक. २ साखादन (सासादन) गुणस्थानक. ३ मिश्रगुणस्थानक. ४ अविरातिसम्य
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१९. श्रीमद् राजचंद्र प्रणीत मोक्षमाळा. गद्रष्टि गुणस्थानक. ५ देगविरतिगुणस्थानक. ६ प्रमत्तसंयतगुणस्थानक. ७ अप्रमत्तसंयतगुणस्थानक. ८ अपूर्वकरण गुणस्थानक. ९ अनिवृत्तिवादरगुणस्थानक. १० मृत्मसंपरायगुणस्थानक. ११ उपशांतमोगुणस्थानक. १२ क्षीणमोहगुणस्थानक १३, सयोगीकेवळीगुणस्थानका १४ अयोगी केवळीगुणस्थानक.
शिक्षापाठ १०४. विविध प्रश्नोभाग ३.
प्र० केवळी अने तीर्थकर ए वन्नमां फेर शो ?
उ० केवळी अने तीर्थंकर गक्तिमां समान छे; परंतु तीर्थकरे पूर्वे तीर्थकर नामकर्म उपाज्यु छे तेथी विशेषमां वार गुण अने अनेक अतिशय प्राप्त करेछे. ___ प्र०-तीर्थकर पर्यटन करीने शा माटे उपदेश आपेठे? ए तो निरागी छे ?
उ०-तीर्थकर नामकर्म जे पूर्व वांध्यु छे ते वेदवा माटे तेओने अवश्य तेम करवू पडेछे.
प्र०-हमणां प्रवः छे ते शासन को छ ? उ०-श्रमण भगवान् महावीरचं. प्र०-महावीर पहेलां जैनदर्शन हतुं ? ३०-हा.
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विविध प्रश्नो भाग ३. १९१ प्र०-ते कोणे उत्पन्न कर्यु हतुं ? उ०-ते पहेलानां तीर्थंकरोए.
प्र०-तेओना अने महावीरना उपदेशमा कइ भिन्नता खरी के?
उ०-तत्वस्वरुपे एकन छ. भिन्न भिन्न पात्रने लइने उपदेश होवाथी अने कंइक काळभेद होवाथी सामान्य मनुष्यने भिन्नता लागे खरी; परंतु न्यायथी जोतां ए भिन्नता नथी.
प्र०-एओनो मुख्य उपदेश शुं छे ? उ०-आत्माने तारो आत्मानी अनंतशक्तियोनो प्रकाश करो; एने कर्मरुप अनंत दुःखथी मुक्त करो ए.
म०-ए माटे तेओए कयां साधनो दर्शाव्यां छे ?
उ०~-व्यवहारनयथी सदेव, सद्धर्म, अने सद्गुरुनु स्वरुप जाणवू सद्देवना गुणग्राम करवा त्रिविध धर्म आचरचो अने निग्रंथ गुरुथी धर्मनी गम्यता पामवी ते.
म०-त्रिविध धर्म कयो?
उ०-सम्यग्ज्ञानरुप, सम्यग्दर्शनरुप अने सम्यक्चारित्ररुप.
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१९२ श्रीमद् राजचंद्र प्रणीत मोक्षमाळा. शिक्षापाठ १०५. विविध प्रश्नो भाग ४.
म०-आवं जैनदर्शन ज्यारे सर्वोत्तम छ. त्यारे सर्व आत्माओ एना वोधने कां मानता नथी?
उ-कर्मनी वाहुल्यताथी, मिथ्यात्वनां जामेला दकियाथी, अने सत्समागमना अभावथी
प्र०-जैनना मुनियोना मुख्य आचाररुप | छे ?
उ०-पांच महावृत्त, दशविधि यतिधर्म, सप्तदशविधिसंयम, दशविधि वैयाहत्य, नवविधि ब्रह्मचर्य, द्वादश भकारनो तप, क्रोधादिक चार प्रकारना कषायनो निग्रहः विशेषमां ज्ञान, दर्शन, चारित्रनुं आराधन इत्यादिक अनेक भेदछे.
०-जैनमुनियोना जेवांज सन्यासियोनां पंचयाम छे; अने चौद्धधर्मनां पांच महाशील छे. एटले ए आचारमा तो जैनमुनियो अने सन्यासियो तेमज वौद्धमुनियो सरखा खरा के ?
उ०-नहीं. प्र०-केम नहीं?
उ०-एओनां पंचयाम अने पंचमहाशील अपूर्ण छे. महावृत्तना प्रतिभेदजैनमा अति सूक्ष्मछे. पेला बेनास्थूळछे.
प्र०-सूक्ष्मताने माटे द्रष्टांत आपो जोइए?
उ०-दृष्टांत देखीतुं छे. पंचयामियो कंदमूळादिक अभक्ष्य खायछे सुखशय्यामां पोछे विविध जातनां वाहनो
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विविध प्रश्नो भाग ५. १९३ अने पुष्पनी उपभोग लेछे केवळ शीतळ जळयी तेओनो व्यवहारछे. रात्रिये भोजन लेछे. एमां थतो असंख्याता जंतुनो विनाश, ब्रह्मचर्यनो भंग ए आदिनी मूक्ष्मता तेओना जाणवामां नथी. तेमज मांसादिक अभक्ष्य अने सुखशीलियां साधनोथी वोध्धमुनियो युक्तछे, जैन मुनियो तो एथी केवळ विरक्तछे.
शिक्षापाठ १०६. विविध प्रश्नो भाग ५.
म०-वेद अने जैन दर्शनने प्रतिपक्षता खरी के ?
उ०-जैनने कइ असंमजस भावे प्रतिपक्षता नथी; परंतु सत्यथी असत्य प्रतिपक्षी गणायचे, तेम जैनदर्शनथी वेदनो संबंध छे.
म०-ए वेमा सत्यरुप तमे कोने कहोछो? उ.-पवित्र जैनदर्शनने. म.-वेददर्शनियो वेदने कहेछे तेनु केम?
उ०-एतो मतभेद अने जैनना तिरस्कार माटेछे ; परंतु न्यायपूर्वक वनेनां मूळतत्त्वो आप जोइ जनो.
Ho-आलं तो मने लागेछे के महावीरादिक जिनेवरनु कथन न्यायना कांटापरछे; परंतु जगत्कर्त्तानी तेभो ना कहेछे, अने जगत् अनादि अनंतछे एम कहेछे ते विषे
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२९४ श्रीमद् राजचंद्र प्रणीत मोक्षमाला. कई कई शंका यायछे के आ असंख्यात द्वीपसमुद्रयुक्त जगत् वगर वनाव्ये क्याथी होय.?... . . . ::: -उ०-आपने ज्यांसुधी आत्मानी अनंत शक्तिनी लेश पण दिव्य प्रसादी मळी नथी त्यांसुधी एम लागे छे; परंतु तत्त्वज्ञाने एम नहीं लागे. "सम्मतितर्क" आदि ग्रंथनो आप अनुभव करशो एटले ए शंका नीकळी जशे. .. .. ___ -परंतु समर्थ विद्वानो पोतानी मृपा वातने पण द्रष्टांतादिकथी सिद्धांतिक करी देछे एथी ए त्रुटी शके नहीं पण सत्य केम कहेवाय?
उ०---पण आने कंइ मृपा कथयानुं प्रयोजन नहोतुं, अने पळभर एम मानीए, के एम आपणने शंका थइ के.ए कथन मुषा हशे तो पछी जगत्काए एवा पुरुषने जन्म पण का आप्यो? नामयोळक पुत्रने जन्म आपवा शुं प्रयो‘जन हतुं ? तेम वळी ए पुरुषो सर्वज्ञ हता; जगत्कर्ता सिद्ध होत तो एम कहेवाथी तेओने कई हानि नहोती.
..... शिक्षापाठ १०७. जिनेश्वरंनी वाणी.
मनहर छंद. अनंत अनंत भाव भेदयी भरेली भली, अनंत अनंत नय निक्षेपे व्याख्यानीछे,,
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पूर्णमालिका मंगळ. सकळ जगत् हितकारिणी हारिणी मोह, तारिणी भवाब्धि मोमचारिणी प्रमाणी छे उपमा आप्यानी जेने तमा राखत्री ते व्यर्थ, आपवायी निज मति मपाइ में मानी छ। अहो ! राज्यचंद्र वाल ख्याल नयी पामता ए, जिनेश्वर तणी वाणी जाणी तेणे जाणी छे ?
शिक्षापाठ १०८. पूर्णमालिका मंगल.
उपजाति.
नप्पोपध्याने रविरुप थाय, ए साधिने सोम रही सुहाय; महान ते मंगळ पंक्ति पामे
आवे पछी ते बुधना प्रणामे. निय ज्ञाता गुरु सिद्ध दाना, कांनो स्वयं शुक्र प्रपूर्ण ख्याना; त्रियोग त्यां केवळ मंद पामे, स्वरुप सिद्ध विचरी विरामे.
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शुद्धिपत्रक,
पृष्ट
पनि
कीर्ति
अशुद्ध
कीति वचना वचनो मुवित्र
मृविचअहत अहत् योग्यक्षम योगक्षेम पलाळती हती पलामती हती. विडवना विडंबना परत्मा परमात्मा मदचिढानंद सच्चिदानंद मदेव सहेव निर्गय निग्रंथ गृहाश्रमथा ग्रहाश्रमथी जुगुप्ता
जुगुप्सा, उत्पन्न उत्पन्न यायछे, भगवंत कहो. भवंत लहो. आवा आवां
११
१६
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शंकट
२०
तिर्यंचना तिर्यंचनां हेतुथी
गतिथी केटलाक कंटलांक
शकट अधोपमा
अधा उपमा मासादी
प्रसादी देखाईं, देखाई. कोट्या विधि कोट्या वधि
वोध लागे जाय,
मळतुं जाय, उत्पत्ति
उपपति साधु साधु गमि
गयमि'
१५
बोध
लागे,
४७
१०
"
२४
आज्ञा बुद्धिशाली
५५ । ५६
অামা बुद्धिशाला धर्ममत जी
३ २१
धर्ममत
जीव लेले
।
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५७ "
५ २१
नथी. रुंघन
नथी."
स्वन
:...: * .
42
नधी
२०
करीन भीनादिक
नथी. करीने भीतादिकने
थाय;
थाय,
.
बाधेछ, वांछे. रात्रना रात्रिना स्वप्नु स्वप्न स्वप्नामा स्वममा चढी आव्यो; चढी आव्या लाग्या. लाग्या;
पड्यो छे पड्यो छे २० पड़ी हनी पडी हती
८-९ ] । ११२-१२ स्वमा
स्वभ
"
१०
पाणीना पाणीनां
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T
" १६ जाण्यु सामन्यू .. " १९ निर्गय निग्रंथ
आधीन अधीन ९३ २२ छडाय छंडाय ९५ २२ पछी ९७ १५ दर्शनादि दर्शनादि
जोवाथी जोवानी १०४ ८ पित पित्त
व्यावहारिक व्यवहारिक १०९ ११ बोध छ, बोधे छ, ११२ ५ शदोष सदोष " १३ प्रत्येक्ष प्रत्यक्ष १९ अनुसारे अनुसार आवीश.
आवीश
वस्वते १२३३ पुत्रना पुत्रनां
पाम्या
पाम्यां
वेदनी - वेदनीय , १३ सतशास्त्रो सतशास्त्रो
२२-२३ शके:-के. शके,
वखते
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१२६
२१
१२८ ५
१२९
१३२
१३४ ६
१०
??
१४० १४
१४१
१४३
११
१४४ શ્
१४५ ९-१३
१४६ ८
१५०
"
२२
७
"
१५१
१३
ሪ
चहातो
आरभ
सम्भाव
अभ्यास
क्रिडा
उत्पति
परिणामें
सहीत
सहित
विचार करो
विचारकरी सर्वदर्शी सर्वज्ञ सर्वदर्शी
पज्जुवासामि पज्जुवासामि.
भगवानना भगवाननां
स्वरुप
कर्मोछे
कर्मथी
देव
दम
"
१५६
१५९
१६०
२१
१६१ १५ स्वबुध्ध्या
वचनामृत
देखता
चाहतो
आरंभ
समभाव
अभ्यासे
क्रीडा
उत्पत्ति
परिणामे
स्वरुप
कर्मोछे,
कर्मथी,
देह
दम,
वचनामृत
देखाता
स्वबुध्य
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________________ 1616 12 168 169 1746 " 10 1784 कलं. 179 विशेषता विशेष समजवानी समजाचवानी . उतरो. उतारो. जीवता ध्रुवता विवेक विवेके पुत्र स्थांथी त्यांथी कर हितषिता. हितैषिता. कदापी कदापि जगत् सन्यासी संन्यासी जुओ जुओ, काशल्य कौशल्य भाग कहेछ. पहेलानां पहेलाना सदेव सन्यासियो संन्यासियो जगत 181 184 23 9 भोग 191 . 14 19212:14 सदेव