Book Title: Jay Mahavira Mahakavya
Author(s): Manekchand Rampuriya
Publisher: Vikas Printer and Publication Bikaner

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Page 136
________________ आत्मा मे जो लीन वही तो सम्यक दृष्टि कहाता । वही मनुज करतव से अपने परमात्मा वन जाता ॥ आत्मा का कुछ नाश न होता यह ही है अविनाशी । परम शुद्ध आत्मा रहती है ज्ञान-सुधा की प्यासी ॥ 134 / जय महावीर सुनकर इन्द्रभूति के मन में प्रेम उमड भर आया । झट से उठकर प्रभु के पग मे - उसने शीश नवाया ॥ मिटी सभी शकाएँ मन की कोई द्वन्द्व नही था । धुला वही क्षण भर मे सारा जो भी कप कही था ॥

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