Book Title: Jambuswami Charitra
Author(s): Vimla Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation

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Page 51
________________ श्री जम्बूस्वामी चरित्र उनने भी अपनी भूमिका के योग्य सर्वोत्कृष्ट दशा को अंगीकार कर लिया । उग्र तपों का आदर करने से आर्यिकाजी की आत्मशांति तो वृद्धिंगत होती जा रही थी, परन्तु तन हाड़-पिंजर हो गया था तथा ज्ञान-वैराग्य रस में फ्गी आर्यिकाजी भी पूज्य गणीजी एवं संघ के साथ अनेक नगरों तथा वन जंगलों में विहार करती हुई बहुत समय के बाद वर्धमानपुरी के निकटवर्ती उद्यान में आकर तिष्ठ रही थीं । ४७ आर्यिका नागवसु द्वारा भवदेव का स्थितिकरण वे आहार चर्या को निकलने के पहले जब जिन मंदिर में जिनेन्द्रदेव के दर्शन करने को गईं तो ज्ञात हुआ कि कोई मुनिराज यहाँ पधारे हुए हैं। मुनिराज को चर्या हेतु निकल जाने के बाद वह स्वयं भी चर्या को निकलीं । आहार चर्या करने के बाद मुनिराज पुनः जिन-मंदिर में पधारे, तब श्री नागवसु आर्यिकाजी अपनी गणीजी सहित उनके दर्शनार्थ पधारीं । आर्यिका संघ ने मुनिराज को नमस्कार करते हुए रत्नत्रय की कुशलता पूछी। मुनिराज ने भी आर्यिका - व्रतों की कुशलता पूछी । कुछ देर बाद विषय-वासना से इसे चित्त-युक्त भवदेव मुनि समभाव से आर्यिकाजी की ओर देखते हुए पूछते हैं नगर में आर्यवसु ब्राह्मण के दो विद्वान एवं थे। उनमें से बड़े का नाम भावदेव एवं था। वे वेद- पारगामी और वक्ता भी थे । हे जानती हैं ? उनकी दशा अब कैसी है ? वे किसतरह रहते हैं ?" " हे आर्या ! इस सर्वमान्य प्रसिद्ध पुत्र छोटे का नाम भवदेव पवित्रे ! क्या आप उन्हें - सुचरित्रवती एवं निर्विकार भाव को रखने वाली आर्यिकाजी प्रश्न सुनते ही सोचने लगीं " अरे ! मुनिराज को तो ज्ञान-वैराग्यवर्द्धक कुछ कहना या पूछना योग्य होता है, उसके बदले में ऐसा अयोग्य प्रश्न ! अवश्य ही मुनिराज के अन्दर कुछ दूसरा ही कारण लगता है । " फिर भी आर्यिकाजी ने शांतभाव से उत्तर देते हुए कहा " हे महाराज ! उन दोनों ब्राह्मण पुत्रों का महान पुण्योदय होने से उनने जैनेश्वरी दीक्षा धारण कर ली। वे मंगलमयी आत्माराधना में संलग्न हैं । "

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