Book Title: Jambuswami Charitra
Author(s): Vimla Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation

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Page 148
________________ १४४ जैनधर्म की कहानियाँ गर्मी, भूख प्यास और असहनीय उपसर्ग-परीषहों को कैसे झेलेगा? तुम लोग कभी जमीन पर सोने की बात तो दर, बैठी भी नहीं हो तो फिर वन-खण्ड में कंकड़ एवं कांटों के बीच कैसे शयन करोगी? कैसे बैठोगी? जेठ मास के मध्याह्न के सूर्य की अति आताप-दायिनी किरणों को ये कोमलांग कैसे सहन कर सकेंगे? नहीं, नहीं, बेटियों! तुम सभी इस विचार को विस्मृत कर दो, भूल जाओ। हे पुत्रियों! मेरा पुत्र तो चला ही गया है, क्या अब इस राज्य को भी उजाड़ करना है? बेटियों! तुम्हारा यह कर्तव्य नहीं है। तुम लोग यहाँ रहो, सभी को धार्मिक अमृत-पान कराओ और अंत में मेरा समाधि पूर्वक मरण सम्पन्न कराना।" वे बोलीं - “हे माते! इस जीव ने अनादिकाल से अनंत-अनंत अनुकूल-प्रतिकूल संयोगों को पाया है और अपने निजस्वरूप को भूलकर उनमें हर्ष-विषाद करके दु:ख बढ़ाया है। ये सम्पूर्ण जड़ का ठाट-बाट, ये चक्रवर्ती की छह खण्ड की विभूतियाँ - ये पुण्य की धधकती प्रचुर ज्वालाएँ हैं, इनमें हम अनंत बार झुलसे हैं, परन्तु कहीं आत्मिक सुख की परछायी भी नहीं दिखी है। हे माते! अपने चैतन्य के अक्षय-निधान के शाश्वत सुख का भोग करने के लिए अब एक समय का भी विलंब करना श्रेष्ठ नहीं है। आहाहा...! सिद्धप्रभु के समान अतीन्द्रिय आनंद का किंचित् स्वाद हम अभी भी ले सकते हैं। हम अशरीरी प्रभु की प्रभुता को अवलोक कर उसमें ही लीन होकर अभी अपुनर्भव के लिए क्यों न प्रस्थान करें? क्यों न कषायों का शमन करके आत्मा में रमण करें? क्यों न वर्तमान ज्ञान में शाश्वत ज्ञायक का अवलोकन करें? क्यों न आनंदमयी जीवन जीवें? हे माते! आप शोक-संताप तज कर हम सभी को वीतरागी निर्ग्रन्थ संतों के पथ पर अनुगमन करने की स्वीकृति शीघ्र प्रदान कीजिए।" अन्त में माता जिनमती विचारती हैं - "बात तो परम सत्य है, इसमें शंका की गुंजाइश ही नहीं। यह परम पवित्र वीतरागी मार्ग शाश्वत सुख का दाता है। इसलिए मोह का वमन करके अब हम सभी को इसी पथ का अनुसरण करना श्रेष्ठ है।" ऐसी भावना से चारों वधुओं सहित माता जिनमती ने भी दीक्षा

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