Book Title: Jambuswami Charitra
Author(s): Vimla Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation

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Page 165
________________ १६१ श्री जम्बूस्वामी चरित्र पूज्य सुधर्मस्वामी को केवलज्ञान-प्राप्ति जो पंचाचार परायण हैं एवं आकिंचन्य के स्वामी हैं, जो अविचलित अखण्ड अद्वैत परम चिद्रूप के श्रद्धान-ज्ञान और अनुष्ठानरूप शुद्ध निश्चय रत्नत्रय युक्त हैं, ऐसे श्री सुधर्माचार्यजी को कुछ वर्ष बाद आराधना की उग्रता के बल से स्वाभाविक केवलज्ञान सूर्य उदित हो गया। वे अनंत चतुष्टय के धारी वीतराग सर्वज्ञ बन गये। वे तीन लोक के ज्ञाता-दृष्टा हो गये। सकलज्ञेय ज्ञायक तदपि, निजानंद रस लीन। सो जिनेन्द्र जयवंत नित, अरि रज रहस विहीन। सुध्यान में लवलीन हो जब घातिया चारों हने। सर्वज्ञबोध विरागता को पा लिया जब आपने। उपदेश दे हितकर अनेकों भव्य निजसम कर लिये। रवि ज्ञान किरण प्रकाश डालें वीर मेरे भी हिये। इसप्रकार सौधर्मइन्द्र आदि ने आकर श्री सुधर्म केवली परमात्मा की स्तुति की। उत्कृष्ट तपोधन जम्बू मुनिराज अनंतज्ञान के धनी श्री सुधर्मास्वामी केवली के चरणों में रहकर श्री जम्बू मुनिराज कठिन से कठिन तप तपते हुए निजानंद का पान करने लगे। गुरुचरणों के समर्थन से उत्पन्न हुई निजात्म-महिमा का श्री जम्बू मुनिराज ने अनुभव किया है, वे अपने सहज चैतन्यमय आत्मा में निज आत्मिक गुणों से समृद्ध होकर वर्त रहे हैं। परम पारिणामिक पंचमभाव में स्थिरता के कारण वे परमोपेक्षा संयमी हो बारह प्रकार के तप करने लगे। तीन रत्नों को प्रगट करने के लिये इच्छानिरोध को तप कहा है। १२ तयों का वर्णन तप के अन्तरंग व बहिरंग के भेद से दो प्रकार हैं। उनमें से प्रथम छह बहिरंग तपों को कहते हैं।

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